अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

पॉलिश वाला

“थोड़ा आगे तक छोड़ देंगे।” 

सुबह 10 बजे का वक़्त था। सरकारी स्कूलों का समय यही होता है। हाथ में बस्ता और मैली सी शर्ट, टाँके लगी पेंट और पैरों में हवाई चप्पल। शायद कोई सरकारी स्कूल का विद्यार्थी होगा जो स्कूल के लिए लेट हो रहा है।

“हाँ ज़रूर छोड़ देंगे बैठो! स्कूल जा रहे हो?" 

"नहीं।”

"तो फिर कहाँ जा रहे हो?" मैंने पूछा।

"वो जो आगे कचहरी वाली रोड पे जो ऑफ़िस है– वहाँ जा रहा हूँ।"

"वहाँ किस काम से जा रहे हो?"

इस प्रश्न के उत्तर में उसने कहा, "मैं पॉलिश करता हूँ वहाँ जाकर।"

मैंने पूछा, "कहाँ आफिस के बाहर?"

उसने कहा, "नहीं ऑफ़िस के अन्दर जाकर।" 

मैंने फिर पूछा, "कौन पॉलिश कराता है वहाँ?"

"साहब लोग करा लेते है। रोज़ नहीं, पर कभी कोई कभी कोई करा लेता है। मेरे पास काली, भूरी दोनों रंग की पॉलिश है। हाँ पर मैं सफ़ेद जूतों को भी पानी से बहुत साफ़ कर देता हूँ। 

मेरे जूते सफ़ेद थे उसने ये देख लिया था। आज शुरुआत यहीं से हो जाये ये समझ कर अपना पहला ग्राहक मुझमें ही तलाशने लगा। मैंने राय देते हुए कहा, "कचहरी वाली रोड के आगे ही एक बड़ा पोस्ट ऑफ़िस है; वहाँ नहीं जाता क्या तू?"

बड़ी सहजता से उसने कहा, "पहले गया था पर वहाँ घुसने नहीं देते इसलिए नहीं जाता।"

मैंने प्रश्न किया, "वैसे रहते कहाँ हो तुम और परिवार में कौन कौन है?"

उसने कहा, "नेहरू नगर, कच्ची बस्ती में। चार भाई और दो बहनें हैं और मै सबसे छोटा हूँ।" 

मैंने कहा, "क्या, उम्र होगी तुम्हारी?"

उसने कहा, "11 साल का हूँ।"

मैंने पूछा, "भाई भी काम पर जाता होगा?"

उसने कहा, "हाँ सभी जाते है, आप इस तरफ जाओगे क्या?"

"नहीं, मुझे दूसरी तरफ़ जाना है।"

"अच्छा तो मुझे यहीं उतार दो।"

सोचा इसे सलाह दूँ कि स्कूल जाया कर। पर ये वास्तविकता से परे एक बेवज़ह की नसीहत होगी और उसे सही भी नहीं लगेगी। क्योंकि उसकी प्राथमिकता काम है और उसकी समझ के अनुसार शायद सही भी है। दिमाग़ के इस तर्क ने भावनाओं का खंडन कर दिया। अक्सर दिमाग़ के तर्क प्रभावी हुआ करते हैं।

मैंने फिर कहा, "सुन... इस रोड पर आगे जाकर उल्टे हाथ पर एक बिल्डिंग आती है वो देखी है तूने?"

"हाँ देखी है ना," उसने तुरंत उत्तर दिया; क्योंकि अब उसे अपने गंतव्य पर पहुँचने की जल्दी हो रही थी।

"तुझे पता है वहाँ बहुत सारे लोग आते हैं, शहर का सबसे बड़ा सरकारी कॉलेज है और वहाँ कोई अंदर जाने से भी नहीं रोकेगा।"

उसने उत्तर दिया, "ठीक है ज़रूर जाऊँगा।"

"अरे. . . अरे. . . अरे सुन नाम तो बता जा अपना!" 

बड़ी तेज़ी से निकल गया; शायद ये प्रशन उसने सुना ही नहीं। ख़ैर विलियम शैक्सपीयर ने कहा है “नाम मे क्या रखा है कुछ भी रख लिजिए” तो फिर पॉलिश वाला ही सही।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

स्मृति लेख

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं