पॉलिश वाला
कथा साहित्य | लघुकथा कल्पित हरित15 May 2020 (अंक: 156, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
“थोड़ा आगे तक छोड़ देंगे।”
सुबह 10 बजे का वक़्त था। सरकारी स्कूलों का समय यही होता है। हाथ में बस्ता और मैली सी शर्ट, टाँके लगी पेंट और पैरों में हवाई चप्पल। शायद कोई सरकारी स्कूल का विद्यार्थी होगा जो स्कूल के लिए लेट हो रहा है।
“हाँ ज़रूर छोड़ देंगे बैठो! स्कूल जा रहे हो?"
"नहीं।”
"तो फिर कहाँ जा रहे हो?" मैंने पूछा।
"वो जो आगे कचहरी वाली रोड पे जो ऑफ़िस है– वहाँ जा रहा हूँ।"
"वहाँ किस काम से जा रहे हो?"
इस प्रश्न के उत्तर में उसने कहा, "मैं पॉलिश करता हूँ वहाँ जाकर।"
मैंने पूछा, "कहाँ आफिस के बाहर?"
उसने कहा, "नहीं ऑफ़िस के अन्दर जाकर।"
मैंने फिर पूछा, "कौन पॉलिश कराता है वहाँ?"
"साहब लोग करा लेते है। रोज़ नहीं, पर कभी कोई कभी कोई करा लेता है। मेरे पास काली, भूरी दोनों रंग की पॉलिश है। हाँ पर मैं सफ़ेद जूतों को भी पानी से बहुत साफ़ कर देता हूँ।
मेरे जूते सफ़ेद थे उसने ये देख लिया था। आज शुरुआत यहीं से हो जाये ये समझ कर अपना पहला ग्राहक मुझमें ही तलाशने लगा। मैंने राय देते हुए कहा, "कचहरी वाली रोड के आगे ही एक बड़ा पोस्ट ऑफ़िस है; वहाँ नहीं जाता क्या तू?"
बड़ी सहजता से उसने कहा, "पहले गया था पर वहाँ घुसने नहीं देते इसलिए नहीं जाता।"
मैंने प्रश्न किया, "वैसे रहते कहाँ हो तुम और परिवार में कौन कौन है?"
उसने कहा, "नेहरू नगर, कच्ची बस्ती में। चार भाई और दो बहनें हैं और मै सबसे छोटा हूँ।"
मैंने कहा, "क्या, उम्र होगी तुम्हारी?"
उसने कहा, "11 साल का हूँ।"
मैंने पूछा, "भाई भी काम पर जाता होगा?"
उसने कहा, "हाँ सभी जाते है, आप इस तरफ जाओगे क्या?"
"नहीं, मुझे दूसरी तरफ़ जाना है।"
"अच्छा तो मुझे यहीं उतार दो।"
सोचा इसे सलाह दूँ कि स्कूल जाया कर। पर ये वास्तविकता से परे एक बेवज़ह की नसीहत होगी और उसे सही भी नहीं लगेगी। क्योंकि उसकी प्राथमिकता काम है और उसकी समझ के अनुसार शायद सही भी है। दिमाग़ के इस तर्क ने भावनाओं का खंडन कर दिया। अक्सर दिमाग़ के तर्क प्रभावी हुआ करते हैं।
मैंने फिर कहा, "सुन... इस रोड पर आगे जाकर उल्टे हाथ पर एक बिल्डिंग आती है वो देखी है तूने?"
"हाँ देखी है ना," उसने तुरंत उत्तर दिया; क्योंकि अब उसे अपने गंतव्य पर पहुँचने की जल्दी हो रही थी।
"तुझे पता है वहाँ बहुत सारे लोग आते हैं, शहर का सबसे बड़ा सरकारी कॉलेज है और वहाँ कोई अंदर जाने से भी नहीं रोकेगा।"
उसने उत्तर दिया, "ठीक है ज़रूर जाऊँगा।"
"अरे. . . अरे. . . अरे सुन नाम तो बता जा अपना!"
बड़ी तेज़ी से निकल गया; शायद ये प्रशन उसने सुना ही नहीं। ख़ैर विलियम शैक्सपीयर ने कहा है “नाम मे क्या रखा है कुछ भी रख लिजिए” तो फिर पॉलिश वाला ही सही।
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