समझ पाते
काव्य साहित्य | कविता रचनासिंह ’रश्मि’1 Mar 2019
काश! तुम
समझ पाते
मेरी वेदना मेरे आँसू,
तड़प का अहसास
जब ज़रा सी बात पे,
यूँ ही झिड़क देते हो
सबके सामने
चिल्लाकर पूरा घर,
सर पर उठा लेते हो
देते हो गाली,
करते हो रुसवाई
रिश्तों की मर्यादा
करते हो तार-तार
जब कहते मेरा घर
सब कुछ मेरा
सच कहूँ! मन रोता है,
सामने तुम्हारे मौन रहती हूँ
किन्तु??
नम,आद्र काष्ठ, सम
धीरे-धीरे सुलगती,
न जलती न बुझती,
अंगारे सी दहकती।
ज्वालामुखी बन,
लावा से खौलती हूँ।
अपने पुरुषत्व के
अभिमान में चूर
मेरा तन-मन रौंदते हो
क्या सोचते हो?
काश! कोशिश करते
समझने की
मेरी इच्छा,अनिच्छा
मैं क्या चाहती हूँ।
समझ पाते मुझे!
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