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सौ साल पहले

"सौ साल पहले" शीर्षक पढ़ ये मत सोचियेगा कि मैं हिंदी सिनेमा के सौ वर्ष पर या अँग्रेज़ों की ग़ुलामी पर बातें करने जा रहा हूँ। मैं तो महज़ एक फ़िल्मी गाने की बात करने जा रहा हूँ जो अक्सर म्यूज़िक चैनलों के कार्यक्रम "भूले-बिसरे गीत" में दिखाया जाता है। गाना है- "सौ साल पहले मुझे तुमसे प्यार था। आज भी है और कल भी रहेगा।" फ़िल्म है – जब प्यार किसी से होता है और परदे पर इसे गुनगुनाया है सदाबहार हीरो देवानंद ने साथ में है- अपने ज़माने की हसीन अदाकारा आशा पारीख। इस गीत को लिखा किसने, मुझे याद नहीं आ रहा। पर जिसने भी लिखा, कमाल का लिखा है। उसे साष्टांग प्रणाम। और धुन बनाने वाले भैयाजी को भी सुमधुर संगीत के लिए साधुवाद।

तो वाक़या ये है कि रोज़ खा-पीकर रात दस बजे के बाद मैं अक्सर ही एक दूसरी दुनिया में चला जाता हूँ। बिस्तर पर लेपटॉप ले मैं सन पचास और सत्तर के बीच की दुनिया में विलीन (अंतर्ध्यान) हो जाता हूँ। धीमी-धीमी आवाज़ में सदाबहार नग़में सुनता हूँ..। वीडियो देखता हूँ। वॉल्यूम इसलिए नहीं बढ़ाता कि बेटे को एलर्जी है पुराने गानों से। बीबी तो सुन भी लेती है। (उसका धर्म भी है) पर पप्पू नहीं मानता, ज़रा सा वाल्लुम तेज़ हुआ कि बिफर ही जाता है- "पापा, कम कीजिये नहीं तो मुझे नींद आ जायेगी। कल सुबह टेस्ट है मेरा।" तब मैं गुस्से में लेपटॉप समेट लेट जाता हूँ। हालाकि नींद नहीं आती। और भला आये भी कैसे? ग़ुस्से में किसे नींद आएगी? आँखें मीचने के बाद भी मुझे गीताबाली, मधुबाला, मीनाकुमारी, नरगिस, शकीला, श्यामा, वहीदा, पद्मिनी कूल्हे मटकाती नाचती हुई स्पष्ट नज़र आती हैं। और उनके पीछे एक ख़ास अंदाज़ में ढीले-ढाले पेंट-शर्ट पहने बाग़-बागीचे में दौड़ते-झूमते- गाते नज़र आते हैं- दिलीप, देवानन्द, राजकपूर, राजेंद्रकुमार, राजकुमार, गुरुदत्त, सुनीलदत्त। फिर कब इंटरवेल होता है और कब दी एंड समझ नहीं आता। आँख लग जाती है। सुबह उठकर लेपटॉप को उसकी जगह पर रख फिर रोज़मर्रा के कामों में लग जाता हूँ। रात होते ही पुनः लेपटॉप पर आ जाता हूँ। ये रोज़ का सिलसिला है।

मेरी श्रीमती बड़ी ही सीधी-साधी है। गाँव से है इसलिए मेरे साथ-साथ इन पुराने गीतों को भी प्रेम से झेल लेती है। पर पप्पू तो "यो यो हनी सिंग" युग का है। "चार बोतल वोदका" के बिना रहता ही नहीं। स्कूल से लौटते ही यूनिफार्म उतारते-उतारते उसे हनी सिंग का बुखार चढ़ जाता है। पूरे फूल वॉल्यूम में उसके गाने सुन ही खाना खाता है। शोर-शराबा कम करने कहो तो सुनता ही नहीं। बल्कि ख़ुद भी गाने के साथ सुर बिगाड़ते हनी सिंग की ऐसी-तैसी करता है। और इधर रात को मैं कम से कम आवाज़ में सुनता हूँ तो भी मुझे रोकता-टोकता रहता है। कभी-कभी तो कहता है- "पापा, म्यूट में रखकर सुना (देखा) करो न। इन सड़ियल गानों में रखा क्या है जो आप सुनते रहते हैं। म्यूज़िक का तो अता-पता ही नहीं रहता फिर क्या सुनते हैं? अब "दिया जला, दिया जला" भी कोई गाना है?.. "जब दिल ही टूट गया अब जीकर क्या करेंगे" जब भी आप सुनते हैं तो आपके चहरे के भाव को तो बर्दाश्त कर लेता हूँ पर गानेवाले (गायक) के हाव-भाव देख मेरा दिल टूट ही नहीं बल्कि ग़ुस्से से फूट भी जाता है..। भगवान् जाने कैसे के.एल. जैसे कष्टकारी को आप लोग बर्दाश्त करते थे?"

तब समझाता कि ऐसा नहीं कहते बेटे। वे बहुत ही उत्कृष्ट कोटि के गायक थे। हाँ, एक बात थी, गाने के पहले वो चार बोतल दारू ज़रूर पिया करते। तभी वे रिकार्डिंग कर पाते । तब पप्पू खिलखिलाकर हँसते कहता- "मतलब कि "चार बोतल वोदका" आपके ज़माने से चला आ रहा है।"

मैंने कई बार उसे बताया कि हमारे ज़माने के गाने में जो माधुर्य है, गीतों के जो शब्द हैं, जो भाव हैं, साहित्य का उसमें जो कसाव है वो आजकल के गानों में नहीं। अब "आती क्या खंडाला", "तुझको मिर्ची लगी तो मैं क्या करूँ", "मुन्नी बदनाम हुई", "शीला की जवानी" भी कोई गाना है? हमारे ज़माने के अधिकांश गाने सदाबहार हैं। "मुग़ले आज़म" का मोहे पनघट पे नन्दलाल छेड़ गयो रे हो या "कोहिनूर" का दो सितारों का ज़मीं पर है मिलन आज की रात। या फिर "अजी बस शुक्रिया" का सारी सारी रातें तेरी याद सताए हो या "पारसमणि" का हँसता हुआ नूरानी चेहरा। सब गानों में दम हुआ करता। तब वह मुस्कुरा कर कहता- "दम तो आज के गाने में ज़्यादा है पापा। आपने हनी सिंग और मिकासिंग का गाना नहीं सुना – "दमा दम मस्त कलंदर, अली दा पैला नंबर" मैं समझ गया कि आज के बच्चे को समझाना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन है। वो कहता है कि आपके ज़माने के गाने सुन नींद आती है। मैं कहता हूँ आजकल के गाने सुन खीज आती है। कभी वो छेड़ता है तो कभी मैं।

कभी-कभी जब दूसरे दिन की छुट्टी रहती है तो उस रात पप्पू लेपटॉप के पास आकर बैठ जाता है और पुराने गानों को बड़ी ही गंभीरता से सुनता-देखता है। कभी कुछ टीका-टिपण्णी भी कर देता है फिर थोड़ी ही देर में सो जाता है। कल रात आकर बैठा तो मैं वीडियो देखते सुन रहा था-"सौ साल पहले मुझे तुमसे प्यार था, आज भी है और कल भी रहेगा" उसने तुरंत ही सवाल दागा- "पापा, ये कैसा गाना है। इस हीरो की क्या उम्र होगी?"

मैंने कहा- "लगभग पच्चीस वर्ष।"

"और हिरोईन की?"

"यही कोई बीस-बाईस वर्ष।"

"तो फिर ये कैसे गा रहा है कि सौ साल पहले से उसे चाह रहा है। ये तो सरासर झूठ बोल रहा है। सौ साल पहले तो ये रहा ही नहीं होगा। ना ही ये हिरोईन रही होगी तो क्या पिछले जनम की बातें कर रहा है? ये तो गाना ही ग़लत लिखा गया है। किसने लिखा है?"

"मैंने नहीं लिखा बेटे। पर जिसने भी लिखा, उसका तात्पर्य ये है कि जन्म-जन्मान्तर से हीरो हिरोईन को चाहता है। साहित्यिक गाने ऐसे ही होते हैं, "फूलों के रंग से दिल की क़लम से, लिखी तुझे रोज़ पाती" जैसे। या "शोख़ियों में घोली जाए थोड़ी सी शराब, उसमें फिर मिलाया जाए थोड़ी सा शबाब, होगा यूँ नशा जो तैयार, वो प्यार है" जैसे। तुमने इस गीत की पंक्तियों को ध्यान से नहीं सुना। इसके मुखड़े में ही विशेषता है। चलो सोचकर बताओ क्या विशेषता है? बता दोगे तो सौ रुपये दूँगा।"

वह सोचते-सोचते गुनगुनाने लगा- सौ साल पहले, मुझे तुमसे प्यार था। आज भी है और कल भी रहेगा। सौ साल पहले, सौ साल पहले। सोच-सोच वह पगलाने लगा। उसे कुछ भी विशेष नहीं लगा तब बोला- "पापा, कोई क्लू दो न।" तब मैंने कहा- "ठीक है। तुम टेन्स यानी काल तो पढ़े ही होगे? कोई एक वाक्य ऐसा बताओ जिसमे भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों का समावेश हो। ये साल्व कर लोगे तो इस गाने की विशेषता भी समझ जाओगे।"

पप्पू फिर सोच में पड़ गया। बहुत माथापच्ची की पर नहीं बता सका तब उसने बड़े ही भोलेपन से पूछा - "क्या है वो वाक्य पापा?"

तब मैंने जवाब दिया – "सौ साल पहले मुझे तुमसे प्यार था आज भी है और कल भी रहेगा।" इसमें भूत है, वर्तमान है और भविष्य भी। और यही इस गाने की विशेषता है। पुराने गानों को यूँ ही सडियल मत समझा करो। इनमें दूध मलाई और मक्खन तीनों होते हैं। समझे?"

उस दिन के बाद से उसने पुराने गानों को कभी उबाऊ नहीं कहा। कभी वॉल्यूम कम करने नहीं कहा.। यो-यो को टा-टा कर अब सौ साल पहले जैसे गानों को गुनगुनाने लगा है।चलिए। देर आयद-दुरुस्त आयद। मेरे घर तो अच्छे दिन आ ही गए।

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