अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

शेरों के बीच एक दिन

बचपन में बिताए गए हर पल मुझे अब भी याद हैं। सोने से पहले मैं माँ से कोई कहानी सुनाने को कहता और वे बड़े चाव से कहानी सुनाने लगती थीं। उसमें कभी राजा-रानी होते, तो कभी जंगल के कोई पशु-पक्षी। शेरों को लेकर न जाने कितनी ही कहानियाँ उन्होंने सुनायी थीं। छुट्टियों में जब कभी अपने ननिहाल (नागपुर) जाना होता, नानी भी एक से बढ़कर एक कहानियाँ सुनाया करती थीं। उनकी भी कहानियों में वही शेर-भालू-चीते होते, राजा-रानी होते तो कभी कोई जादूगर आदि-आदि। नानी ने ही बतलाया था कि यहाँ महाराजबाग में शेर तथा अन्य जानवरों के बाड़े हैं। एक दिन मैंने ज़िद पकड़ी कि मुझे शेर देखना है। दिन ढलते ही उन्होंने मुझे महाराजबाग दिखाने अपने साथ ले लिया। यह बाग एक विशाल परिसर में फ़ैला हुआ है। यहाँ लोहे के जंगलों में शेर-भालू-चीते, बारहसिंघे-हिरण, सांभर और भी न जाने कितने ही पशु-पक्षी बंद हैं, जिन्हें अपनी आँखों से देखना अपने आप में एक कौतूहल का विषय था।

एक बार किसी गर्मी की छुट्टी में मैं अपने ननिहाल में था। उस समय एक सर्कस आया हुआ था जिसका नाम शायद "कमला सर्कस" था, मुझे देखने को मिला। लोग कहा करते थे कि वह सर्कस एशिया का सबसे बड़ा सर्कस था। लोहे के बड़े-बड़े पिंजरों में शेरों को रिंग मे उतारा जाता था और रिंगमास्टर अपने कोड़े और एक लकड़ी की छड़ी के बल पर उनसे कभी बड़े से स्टूल पर बैठने का इशारा करता तो कभी कुछ और। तरह-तरह के करतब शेरों के मुझे देखने को मिले। उसके बाद तो अनेकों सर्कसें मैं देख चुका था। बाद में पता चला कि किसी विदेश यात्रा के दौरान कमला सर्कस समुद्र के गर्भ में समा गया। उसके बाद न जाने कितनी ही सर्कस मैं देख चुका था। शेर-चीते, हाथी, घोड़े, दरियाई घोड़े आदि सब सर्कस की जान होते। बगैर इनके बगैर सर्कस की कल्पना तक नहीं की जा सकती। नागपुर में ही एक अजायबघर है, जिसमें मरे हुए जंगली जानवरों की खालों में भूसा-बुरादा वगैरह भर कर, बड़े ही शालीन तरीके से उन्हें काँच के कमरों में रखा गया है, जिसे देखकर आप वन्य जीवों के बारे में जानकारियाँ प्राप्त कर सकते हैं। चूँकि मुझे शुरू से घूमने का शौक है, और इस शौक के चलते, मैंने पूर्व से पश्चिम, तथा उत्तर से दक्षिण तक की यात्राएँ की है। यात्राएँ कभी निजी तौर पर, तो कभी साहित्यिक आयोजनों के चलते हुईं थी। इसी बीच अभ्यारण्य भी देखे, लेकिन उनमें सभी जानवर बतौर एक कैदी के हैसियत से देखने को मिले। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी ज़िन्दा शेरों के बीच पूरा दिन बिताने को मिलेगा।

मेरे साहित्यिक मित्र श्री जयप्रकाश "मानस" ने मुझसे फ़ोन पर आग्रहपूर्वक कहा कि मैं जल्दी ही अपना पासपोर्ट बनवा लूँ। उन्होंने बात आगे बढ़ाते हुए कहा कि हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार को ध्यान में रखते हुए उन्होंने माह फ़रवरी 2011में थाईलैंड में तृतीय अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन आयोजित करने का मन बनाया है और उसमें मुझे चलना है। मैं उनकी बात टाल न सका और दो माह में पासपोर्ट बन गया। मैं चाहता था कि अपना एक स्थानीय मित्र भी साथ हो ले तो ज़्यादा मज़ा आएगा। मैंने अपने साहित्यिक मित्र श्री प्रभुदयाल श्रीवास्तव को अपना मन्तव्य कह सुनाया और वे उसके लिए तैयार हो गए। इस तरह एक विदेश यात्रा का संयोग बना। 1 फ़रवरी 2011 को 3 बजे, नेताजी सुभाष एअरपोर्ट कोलकता से किंगफिशर के हवाईजहाज आईटी-२१ से हमने थाईलैण्ड के लिए उड़ान भरी। यह मेरी पहली विदेश यात्रा थी। हवाईजहाज़ों को अब तक सिर्फ़ आसमान में उड़ते देखा था। अब उसमें बैठकर सफ़र कर रहा था। मेरी सीट खिड़की के पास थी। काँच में से बाहर का दृश्य देखकर मुझे एक अलग ही किस्म का रोमांच हो आया था।

डेढ़ घंटे की उड़ान के बाद हम थाईलैंड के "स्वर्णभूमि" एअरपोर्ट पर थे। सनद रहे कि इस एअरपोर्ट का नाम भारतीय संस्कॄति के आधार पर " स्वर्णभूमि" रखा गया है। हम वहाँ से सीधे "पटाया" के लिए रवाना हुए जहाँ ठहरने के लिए "मिरक्कल स्वीट्स" पहले से ही बुक करवा लिया गया था। 2 फ़रवरी को कोरल आईलैंड, टिफ़्फ़नी शो, 3 फ़रवरी को फ़्लोटिंग मार्केट, जेम्स गैलेरी, सी-बीच का भ्रमण किया और अगले दिन यानी तारीख 4 को बैंकाक के लिए रवाना हुए, जहाँ होटल फ़ुरामा सीलोम में ठहरने की व्यवस्था थी। बैंकाक के प्रसिद्ध विष्णु मंदिर में, वहाँ के भारतीय मित्रों के आग्रह पर साहित्यिक कार्यक्रम का आयोजन संपन्न हुआ, जबकि यह कार्यक्रम उसी होटल के भव्य कक्ष में आयोजित होना तय किया गया था। इस कार्यक्रम में अनेक भरतवंशियों ने उत्साहपूर्वक अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई। मंदिर समिति ने सभी का भावभीना स्वागत-सत्कार किया और सुस्वादु भोजन भी करवाया।

पाँचवा दिन यानी 5 फ़रवरी का वह दिन भी आया, जब हम कंचनापुरी होते हुए टाइगर टेम्पल जा पहुँचे, जहाँ ज़िन्दा शेरों के साथ घूमने का रोमांचकारी आनन्द उठाना था।

जैसे-जैसे मेरे कदम आगे बढ़ रहे थे, मस्तिष्क में एक नहीं बल्कि अनेक काल्पनिक चित्र बनते जा रहे थे। मैं सोच रहा था कि अब तक तो मैंने शेरों को काफ़ी दूरी से देखा था, आज उन्हें खुले हुए रूप में और वह भी अपने से काफ़ी नजदीक से देखूँगा तो कैसा लगेगा। कहीं अगर वह आक्रामक हो जाएगा तो क्या स्थिति बनेगी? कदम अपनी गति से आगे बढ़ रहे थे और दिमाग अपनी गति से। आखिर वह क्षण आ ही गया, जब हम प्रवेश-द्वार पर खड़े थे। वहाँ से सभी को एक-एक पर्ची थमा दी गई कि उसे भरकर जमा करना है। नाम-पता आदि भर देने के बाद उसमें एक लाइन थी, जिसने शरीर में एक अज्ञात भय भर दिया। उसमें लिखा था कि हम अपनी जवाबदारी पर अन्दर जा रहे हैं, यदि किसी जानवर के साथ कोई अप्रिय घटना घट जाए तो हम स्वयं जवाबदार होंगे। खैर मैंने यह सोचकर पर्ची भर दी कि आगे जो भी होगा देखा जाएगा।

गेट पर एक चुलबुली सी आकर्षक मैना, जो इधर-उधर उछल-कूद करती फिर अपनी जगह आकर बैठ जाया करती थी, सभी का ध्यान आकर्षित किए हुए थी।

अन्दर एक सीमेन्ट की नकली गुफ़ा सरीखी बनी हुई थी, जिसमें सभी को रुकने को कहा गया। वहाँ दर्जनों विदेशी सैलानी भी अपनी बारी का इन्तज़ार करते पाए गए। बाहर का दृश्य एक दम साफ़ था। एक बड़े भूभाग में दर्जनों शेर आराम फ़रमा रहे थे। उन पर सूर्य की किरणें न पड़े, इसे ध्यान में रखते हुए, बड़े-बड़े छाते उन पर तने हुए थे। कुछ समय पश्चात वहाँ के एक कर्मचारी ने हमें बाहर लाइन लगाकर खड़े होने को कहा। अब आगे क्या होता है, प्रायः यह सवाल सभी के माथे को मथ रहा था।

तभी दो-तीन बौद्ध-साधु, जिनके हाथ में छोटी-छोटी लाठियाँ थी, ने आगे बढ़कर शेरों को उठाया और आगे बढ़ने लगे। मामूली से बेल्ट अथवा लोहे की चेन में बंधे वनराज उनके पीछे हो लिए थे। तभी एक कर्मचारी ने सभी को पंक्तिबद्ध होकर उस साधु के पीछे-पीछे चलने को कहा और यह भी बतलाया कि आप निश्चिंतता के साथ शेर की पीठ पर हाथ रखकर चल सकते हैं। यदि कोई उस दृश्य को कैमरे में कैद करना चाहता है तो साथ चल रहे कर्मचारियों के पास अपने कैमरे दे दें, वह आपकी फ़ोटो खींचता चलेगा। उसने यह भी बतलाया कि शेर की पीठ के आधे हिस्से तक ही आप उसे छू सकते हैं।

लोगों ने अपने-अपने कैमरे कर्मचारियों के हवाले कर दिए थे। वे शेर के साथ फ़ोटो खिंचवाते और फिर लाइन से हट जाते। फिर दूसरा सैलानी आगे बढ़ता, शेर के साथ फ़ोटो खिंचवा कर लाइन से हट जाता। इस तरह हर व्यक्ति जंगल के राजा को छूते हुए उसके साथ अपने को जोड़ते हुए गर्व महसूस कर रहा था।

अब मेरी बारी थी। मन के एक कोने में भय तो समाया हुआ ही था। मैं उस जंगल के बादशाह को छूने जा रहा था, जिसका नाम लेते ही तन में कंपकंपी होने लगती है, अगर सामने पड़ जाए तो मुँह से चीख निकल जाती है और जिसकी दहाड़ सुनते ही अच्छे-अच्छे सूरमाओं की घिग्गी बँध जाती है, फिर उसे छूना तो दूर की बात है।

शेर के पुठ्ठे पर हथेली रखते ही मेरी हथेली एक बार काँपी ज़रूर थी, लेकिन तत्क्षण ही मैं नार्मल भी हो गया था और अब मैं भयरहित होकर जंगल के राजाजी के साथ फ़ोटू खिंचवा रहा था।
करीब आधा-पौन किलोमीटर का यह सफ़र शेरों के साथ गुज़रा। उसके बाद जहाँ दो ओर से लाल-सिन्दूरी रंग में रंगी पहाड़ियाँ अर्धचन्द्राकार आकार बनाती है, वहाँ बड़े-बड़े छाते तने हुए थे, के नीचे शेरों को आराम की मुद्रा में बैठा दिया गया। पास ही एक टिनशैड था जिसमे पर्यटकों के बैठने की समुचित व्यवस्था थी। अब बौद्ध मांक ठंडे पानी की बोतलों से शेरों के ऊपर बौझार कर रहे थे। मतलब तो आप समझ ही गए होंगे कि वे ऐसा क्यों कर रहे थे? आप जानते ही हैं कि शेर ठंडे स्थान में रहना पसंद करते हैं। उन्हें तेज़ धूप नहीं सुहाती। फिर वह एक लंबा चक्कर धूप में चलते हुए आया ज़ाहिर है कि उसकी त्वचा गर्मा गयी होगी।

दर्शकदीर्घा में बैठे हुए हम, एक नहीं-दो नहीं, बल्कि दर्जनों शेरों को एक साथ बैठा हुआ देख रहे थे। कुछ के गलों में लोहे की चेन बंधीं थी, ज़ाहिर है कि वे कभी भी आक्रमक हो सकते थे। कुछ के गलों में कपड़े का बेल्ट बंधा हुआ था, शायद इसलिए कि वे कम गुस्सैल होंगे। कुछ तो बिना चेन के भी थे, मतलब साफ़ था कि या तो वे बूढ़े हो चुके होंगे या फिर एकदम शांत स्वभाव के होंगे। बौद्ध साधुओं का इशारा पाते ही उनके सहायक आगे बढ़े। सभी की नीले रंग की पोशाकें थी। एक ने आकर कहा कि आप सभी, जिनके पास अपने कैमरे हैं, लाइन बना कर खड़े हो जाएँ। इशारा पाते ही लोग पंक्तिबद्ध होकर खड़े हो गए। सभी को इस बात का इन्तज़ार था कि आगे क्या होता है। एक सहायक के साथ एक पर्यटक हो लिया। कैमरा अब उस सहायक के हाथ में था। वह उस पर्यटक को शेर के पास ले जाता और विभिन्न मुद्रा में बिठाते हुए, फ़ोटो खींचता। इस तरह वह बारी-बारी से अन्य शेरों के पास पर्यटक को ले जाता, फ़ोटो खींचता और अन्त में पर्यटक को दर्शकदीर्घा तक छोड आता।

संभवतः टाईगर टेम्पल विश्व का एकमात्र ऐसा अभ्यारण्य है जहाँ इन्सान निडर होकर शेरों के बीच रह सकता है। शायद यही वज़ह है कि विश्व के कोने-कोने से पर्यटक यहाँ पहुँचते हैं। टेम्पल का शुद्ध शाब्दिक अर्थ मंदिर होता है। ज़ाहिर है कि मंदिर में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं होती। ऐसी मेरी अपनी सोच है। कुछ लोग तो यह भी कहते हुए सुने गए कि शेरों के दाँत तोड़ दिए गए हैं, इसीलिए वे आक्रमण नहीं करते। यह बात गले से नहीं उतरती। उतरना भी नहीं चाहिए ,क्योंकि शेर के दाँत हों, अथवा न हो, लेकिन शेर तो आखिर शेर ही होता है। यदि वह हिंसक नहीं होगा तो वह भूखों मर जाएगा। वह दाल-रोटी खाकर तो गुज़ारा नहीं कर सकता। उसे हर हाल में मांस चाहिए ही चाहिए। बौद्ध साधु तो उसका जबड़ा खोलकर भी बतलाते हैं। कुछ का यह मानना है कि साधु वशीकरण-मंत्र जानते हैं, इसीलिए वह आक्रमण नहीं करता। मंत्रों में शक्ति होती है और हो सकता है कि वे उन पर इसका प्रयोग करते होंगें। इस पर मेरी अपनी निजी राय है कि यदि जंगली जानवरों को भी मनुष्यों के बीच रहने दिया जाए तो वे भी एक अच्छे मित्र हो सकते हैं और यही संदेश जिसे भगवान बुद्ध का संदेश ही मान लें, यहाँ उसे फ़लित होते हम देख सकते हैं। इससे एक संदेश यह भी जाता है कि पर्यावरण को स्वस्थ बनाए रखने में जितना मनुष्य अपना रोल निभाता है, उतना ही एक जंगली जानवर भी। शेर अपनी सीमा में रहकर पर्यावरण को कभी नुकसान नहीं पहुँचाता, जितना की एक आदमी। अतः उसे चाहिए कि वह अपनी सीमा का अतिक्रमण न करे, तो यह पर्यावरण को शुद्ध बनाने की दिशा में एक कारगर कदम होगा और यदि ऐसा होता है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अति विनम्रता
|

दशकों पुरानी बात है। उन दिनों हम सरोजिनी…

अनचाही बेटी
|

दो वर्ष पूरा होने में अभी तिरपन दिन अथवा…

अनोखा विवाह
|

नीरजा और महेश चंद्र द्विवेदी की सगाई की…

अनोखे और मज़ेदार संस्मरण
|

यदि हम आँख-कान खोल के रखें, तो पायेंगे कि…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

ललित कला

कविता

सामाजिक आलेख

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

सांस्कृतिक कथा

ऐतिहासिक

पुस्तक समीक्षा

कहानी

स्मृति लेख

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं