ज्वालामुखी
कथा साहित्य | लघुकथा गोवर्धन यादव16 Oct 2014
भीषण ठंड पड रही थी।
अलाव के आसपास बैठे पाँच-सात लोग, अपनी बूढ़ी हड्डियों को गर्मा रहे थे और चिलम, बारी-बारी से एक के बाद दूसरे के बीच घूम रही थी। बातचीत का सिलसिला अभी शुरू नहीं हुआ था।
देर से पसरे सन्नाटे को तोड़ते हुए एक ने दूसरे से कहा- "सुबह का अखबार तुमने तो पढ़ा ही होगा? क्या जमाना आ गया है, मनचले लोग लड़कियों को अपना निशान बना रहे हैं और तो और वे बूढ़ी औरतों और नाबालिक बच्चियों तक को नहीं छोड़ रहे हैं। अपने ज़माने में तो ऐसा कभी सुनने में नहीं आया!"
“कलियुग नहीं, घोर कलियुग आ गया है, तभी तो ऎसा हो रहा है," -दूसरे ने कहा।
"अभी क्या हुआ है? देखते जाओ, आगे और क्या-क्या होता है," तीसरे का स्वर गूँजा था।
“मेरे अनुसार कानून ही लचर किस्म के हैं और फिर पुलिस भी तो निक्कमी बैठी रहती है, यदि सख्त कानून होता और पुलिस इन शोहदों की धर-पकड़ करे तो अंकुश लगाया जा सकता है," चौथे ने कहा।
सभी के पास अपने-अपने तर्क थे और बहस बढ़ती ही जा रही थी।
पास ही एक लड़का बैठा, बूढों की बातों को ध्यान से सुन रहा था। उसने पाँच साल पहले एम.काम. प्रथम श्रेणी में पास किया था और अब तक खाली बैठा है, फट पडा।
“शायद आप ठीक कह रहे हैं। लेकिन क्या आप में से किसी ने उसी अखबार में यह भी तो पढ़ा होगा कि सरकार ने उसके मातहत काम करने वाले कर्मचारियों के कार्यकाल में वृद्धि करते पैंसठ साल कर दी है, उसमें तो यह भी लिखा है कि भविष्य में उसे बढ़ाकर सत्तर कर दी जाएगी। क्या यह ठीक है? जबकि सरकार जानती है कि देश के लाखों लड़कों ने ऊँची-ऊँची तालीमें हासिल की हैं, वह भी अच्छे नम्बरों के साथ। उन्हें नौकरियाँ क्यों नहीं दी जा रही? क्या वे इस लायक नहीं है? मुफ़्त में बैठे-बैठे वे रोटियाँ तोड़ रहे हैं और माँ-बाप की छाती पर बैठे मूँग दल रहे हैं। यदि उन्हें अपनी योग्यता के आधार पर सम्मानजनक पद पर बैठा दिया जाए, तो अपराधों में कमी आएगी, पर बूढ़े हैं कि अपना सिंहासन छोड़ने को तैयार नहीं, जबकि उनके पैर कब्र में लटक रहे हैं।"
उसने बात को आगे बढाते हुए कहा- “दादा.. पुलिस को अकेले दोष देने से काम नहीं चलेगा। आप एक बात बतलाएँ... आपके शहर की जनसंख्या कितनी है? नहीं मालूम न! लो मैं बताता हूँ। इस शहर की जनसंख्या करीब डेढ़ लाख है, जबकि पुलिस-बल में कुल सात सौ पुलिसकर्मी काम कर रहे हैं। इनमें से लगभग दस-पंद्रह प्रतिशत छ्ट्टी पर रहते हैं। दस प्रतिशत आला अफ़सरों के घरों की निगरानी करते हैं। लगभग इतने ही लोग कोर्ट-कचहरी के काम पर तैनात होते हैं, और चौराहों पर ट्रैफ़िक कंट्रोल करते हैं। काम करते-करते कुछ बीमार भी पड़ जाते हैं अब आप ही बताएँ कि मुठ्ठी भर पुलिस कर्मी इतने बड़े शहर में क्या देखें और क्या पता लगाएँ कि अपराधी कब, क्या और कहाँ क्या करने जा रहा है? इसीलिए तो मैं कहता हूँ कि सड़कों पर आवारा घूमते पढ़े-लिखे लोगों को रोज़गार मिल जाए, तो उन्हें समय ही कहाँ मिल पाएगा कि वे अपराध करने लगेंगे?"
बूढ़े अब यह सोचने पर मजबूर हो गए थे कि लड़का शायद ठीक कह रहा है।
अलाव की आँच अब धीमी पड़ने लगी थी और बूढ़े धीरे-धीरे अपनी जगह से खिसकने लगे थे। लेकिन उस नौजवान के अन्दर धधकते ज्वालामुखी से लावा बह रहा था।
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