वो सिसकियाँ
काव्य साहित्य | कविता भूपेन्द्र ’भावुक’26 Jun 2017
उस अजीब से
सन्नाटे को चीरती
वो सिसकियाँ
झंकृत कर रही थीं
हृदय के तार
कंपा देती थीं
रह-रह के
चीथड़े बिखरे पड़े थे
जहाँ-तहाँ
मांस के लोथड़ों में
तब्दील थे शरीर के अंग
पहचान मुश्किल थी
स्त्री-पुरुष की
धुएँ का अंधकार
सिमट रहा था
धीरे-धीरे
शवों के ढेर के बीच
एक पैर और एक हाथ
ग़ायब एक शव से लगा
एक नन्हा
जिसके चेहरे का अंधकार
अभी तक कमा न था
झंकृत कर रही थीं
हृदय के तार
उसकी वो सिसकियाँ।
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