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रिश्तों की परिधि में स्थायीत्व की तलाश करती नारी का यथार्थ : पानी केरा बुदबुदा

 
समीक्ष्य पुस्तक : पानी केरा बुदबुदा
लेखिका : सुषम बेदी
सजिल्द : 167 पृष्ठ
प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन
संस्करण वर्ष : 2017
आईएसबीएन : 9382114289

सुषम बेदी वर्तमान की उन कथाकारों में प्रमुख हैं जिन्होंने भारत और पश्चिमी परिवेश को बड़े नज़दीक से देखा है। यही कारण है कि उनकी कथाभूमि के केंद्र में भी दोनों संस्कृतियाँ रहीं हैं। अपने सद्यः प्रकाशित उपन्यास ‘पानी केरा बुदबुदा’ के माध्यम से सुषम जी भारतीय और अमेरिकी परिवेश से गुज़रती एक उच्च शिक्षित एवं आत्मनिर्भर नारी के मानवीय रिश्तों की परिधि में स्थायीत्व की तलाश कर रही हैं। यह उपन्यास इस विचारधारा को सीधे-सीधे ख़ारिज करता है कि उच्च शिक्षा और आर्थिक सम्पन्नता ही व्यक्ति के जीवन में शांति एवं सुख के आधार होते हैं। उपन्यास की नायिका पिया जिस मानसिक त्रासदी और अस्थिरता के दौर से गुज़र रही है वह पूरी दुनिया की उन लाखों महिलाओं की त्रासदी है जो उच्च शिक्षित हैं, आत्मनिर्भर हैं और भौतिक संसाधनों से पूर्णतः संपन्न हैं फिर भी पति द्वारा लगातार प्रताड़ना की शिकार बन रही हैं। नारी की आर्थिक आत्मनिर्भरता नें अपना ख़ुद का भला कितना किया, यह अलग से विचार करने का एक आयाम हो सकता है लेकिन इसने सामाजिक सोच में जो परिवर्तन किया वह यही है कि, जो पुरुष पहले पत्नी की कमाई खाने में अपनी हेठी समझता था वही आज उसी पत्नी की कमाई के पैसे गिनते तो गर्व का अनुभव करता है लेकिन पत्नी पर नियंत्रण के अंकुश में कोई ढील देना नहीं चाहता। घर से बाहर गई कामकाजी पत्नी के एक-एक क्षण का हिसाब रखना उसे अपना प्राथमिक कर्त्तव्य लगता है। उसकी पत्नी उसे पैसे भी कमाकर दे और अपनी पारिवारिक ज़िम्मेदारियों का बख़ूबी निर्वहन भी करे। वैसे भी सामंजस्य का पलड़ा हमारे समाज में सदा से नारी वर्ग का ही भारी रहा है। आज भी अपनी दोहरी – तीहरी ज़िम्मेदारियों का पालन करने में उसे गर्व की अनुभूति होती है। इन सबके बाद भी उसे दोयम दर्जे का नागरिक मानते हुए जब कोई उसके मान-सम्मान को ही कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करता है तो वह तिलमिला उठती है। आख़िर, एक समय आ ही जाता है जब वह अपने ऊपर लगने वाले अंकुश के विरुद्ध आवाज़ उठाने के लिए विवश हो जाती है। जिसकी गूँज बहुत लम्बे समय तक समाज और कई पीढ़ियाँ महसूस करती हैं। समाज की इसी मानसिकता पर ज़ोरदार प्रहार करती हुई सुषम बेदी अपने पुरुषत्व के अहम् में डूबे पुरुष से पूछती हैं - ‘औरत अगर घर और बाहर दोनों को सँभालने की योग्यता रखती है और बाहर की दुनिया में अपनी पुरुष जैसी या उससे ज़्यादा ही योग्यता रखती है तो उसके लिए उसे अपने पुरुष से मान्यता भी चाहिए। आख़िर उसके जीवन के केंद्र में तो उसका पुरुष ही होता है। तब अगर वही उस योग्यता को नकार दे तो औरत का आत्मविश्वास और आत्मसम्मान तो धक्का खायेगा ही। अगर पुरुष का अपना अहं है और वह औरत से अपने अहं के सम्मान की अपेक्षा करता है तो औरत के अहम् के प्रति वह संवेदनशील क्यों नहीं होता? पत्नी की इस ज़रूरत को क्यों नहीं समझना चाहता?” प्रश्न तो बेदी जी का सोलह आना उचित है। लेकिन, दामोदर जैसा पुरुष पत्नी के अहं को समझेगा क्यों? उसके लिए तो पति होना ही उसकी सबसे बड़ी योग्यता है और वही उसे पत्नी पर पूर्णतः अंकुश लगाये रखने का अधिकार दे देता है। शायद वह सोचता है कि पत्नी तो पत्नी ही है। चाहे वह कमाने वाली हो या घर काम वाली हो। फिर, उसको नियंत्रण में रखने का अधिकार तो पति को प्रकृति द्वारा प्रदत्त है। यह उपन्यास इस प्रकार की विकृत पुरुष मानसिकता के विरुद्ध एक शंखनाद है। 

यह उपन्यास पिया की तरह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर लेकिन पति द्वारा अति नियंत्रित उन तमाम महिलाओं की हुंकार है जो दामोदर जैसे अपने स्वार्थी पति के पतित्व के पतन की घोषणा कर चुकी हैं। यह उपन्यास सामान्य लोगों के इस भ्रम को भी तोड़ता है कि केवल निम्न वर्ग या मध्यम वर्ग तक की नारी, अशिक्षित अथवा पति पर पूर्णरूपेण आश्रित नारी ही शारीरिक अथवा मानसिक प्रताड़ना की शिकार बनती है। सच्चाई तो यही है कि जिस सुविधा संपन्न समाज को हम बड़ी ललचाई नज़रों से देखते हैं, या कभी- कभी जिसे हम किसी दूसरे नक्षत्र का जीव समझ लेते हैं, वहाँ भी नारी के लिए स्थितियाँ कोई बहुत भिन्न नहीं हैं। पिता की अपेक्षाओं पर खरी उतरती पिया डॉक्टरी की पढाई पूरी करती है, पिता की मृत्यु के बाद सगे सम्बन्धियों और माँ की बातें मानती हुई न चाहते हुए भी दामोदर से विवाह के लिए सहमत होती है, उसके व्यवसाय के लिए अपना व्यवसाय छोड़कर दिल्ली से अमेरिका जाती है, वहाँ भी बेटे रोहन सहित पति के प्रति सभी उत्तरदायित्वों का निर्वाह करती हुई नौकरी करती है लेकिन पति की निरंतर प्रताड़ना से आजिज़ आकर जब एक बार घर छोड़ देती है तो जीवन की तमाम झंझावातों को सहती है लेकिन किसी भी संकट में पुनर्वापसी की बात नहीं सोचती। यहाँ आते-आते पिया के व्यक्तित्व की आत्मनिर्भरता और उसकी वैचारिक दृढ़ता का परिचय पाठक को मिलने लगता है। शायद लेखिका यहाँ संकेत करना चाहती हैं कि शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता की ही परिणति है कि पिया अपने पति के जिस भयानक पिंजरे से निकल कर एक बार स्वतंत्र हुई है, उसमें उसे दुबारा नहीं जाना पड़ता है। यद्यपि कि सामाजिक बन्धनों से स्वतन्त्रता की राह भी नारी के लिए उतनी आसान नहीं है। पिछले कुछ दशकों में अपनी मेहनत के बल पर उसने प्राप्त तो अवश्य कुछ कर लिया है लेकिन बहुत कुछ अभी ‘शेष’ भी है। इस उपन्यास में पिया की पीड़ा के माध्यम से लेखिका नारी वर्ग के उसी ‘शेष’ की खोज करती दिखाई देती हैं।  

 यह उपन्यास नारी और पुरुष के आपसी संबंधों के यथार्थ और दोनों से एक दूसरे की ज़रूरतों को भी स्वीकृति देता है। नारी–पुरुष संबंधों का टूटना केवल किसी वस्तु का टूटना नहीं होता और न ही इसका प्रभाव किसी एक पर पड़ता है बल्कि यह टूटना दोनों को गहराई तक और दूर तक प्रभावित करता है। कभी–कभी पूरी ज़िन्दगी इस टूटन की कसक बनी रहती है। पिया के पति दामोदर को अविवाहित रखकर लेखिका नें पुरुष वर्ग की उसी पीड़ा को चित्रित करने का एक सराहनीय कार्य किया है। पिया की आर्थिक आत्मनिर्भरता और नारी-पुरुष संबंधों की पूर्ण स्वतंत्रता भी उसे शान्ति नहीं प्रदान कर पाते। इस संसार की सच्चाई भी तो यही है कि इसके संचालन में नारी और पुरुष के समान भागीदारी की दरकार होती है और भारतीय समाज इसका सदैव से समर्थक रहा है। निश्चित ही इस स्थिरता के पीछे हमारे समाज में नारी वर्ग नें सर्वाधिक त्याग किया जबकि लाभ सदा पुरुष वर्ग के ही साथ रहा। फिर भी हर पुरुष के ऊपर अप्रत्यक्ष रूप से ही सही एक सामाजिक दबाव तो था ही जिसका अतिक्रमण करना उसके लिए भी बहुत आसान नहीं था। हम सभी इस बात से अवगत हैं कि नारी जागरण और उसकी आर्थिक आत्मनिर्भरता के पीछे शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इन दोनों नें नारी के वास्तविक सामर्थ्य से समाज को परिचित कराया। अब वह सोचने लगी कि नारी पुरुष की भोग्या मात्र नहीं है बल्कि पुरुष से अलग भी उसका अपना एक अस्तित्व है। जिसकी स्वामिनी वह स्वयं है। होना भी चाहिए। जब वह समाज के सित–असित सभी पक्षों का सामना स्वयं कर रही है तो अपने जीवन के रास्तों की तलाश कर लेने का अधिकार भी उसे मिल ही जाना चाहिए। मिला भी। फिर भी, इस उपन्यास से एक प्रश्न तो यहाँ तो खड़ा हो ही जाता है कि अपने-अपने अधिकारों की हेकड़ी जमाने वाले पति-पत्नी एक दूसरे को चुनौतियाँ देकर भी कितना ख़ुश रह पाते हैं। दामोदर से अलग हुई पिया अनुराग से जुड़ती है, निशांत से जुड़ती है, दोनों जगह की अलग-अलग विशेषताओं को महसूस करती हुई समय तो व्यतीत करती है लेकिन स्थायीत्व की तलाश उसे आजीवन व्यग्र बनाये रहती है। निशांत और अनुराग के बीच झूलती पिया उस स्थायीत्व के अभाव में बार-बार अपमान का अनुभव करती है। यहाँ तक कि अमेरिकी संस्कृति में पले–बढ़े अपने बेटे रोहन के जीवन में भी वह उसी स्थायीत्व को ढूँढ़ना चाहती है, जिसकी कमी स्वयं आजीवन महसूस करती है। इसीलिए बेटे की पहली प्रेमिका के अलग हो जाने के जब वह दो बेटियों की माँ पैट से शादी करने की बात कहता है तो पिया उसे स्वीकार नहीं करती। बल्कि, उसके मर जाने पर ‘उसे अहसास हुआ कि वक्त ने अपने आप ही सही फैसला कर दिया।’ यहाँ नारी मन की एक और विडंबना उभर कर आती है कि एक बच्चे की माँ स्वयं पिया जहाँ अपने दोनों प्रेमियों से विवाह करने की बात तो कहती है लेकिन वही बात उसे अपने बेटे के जीवन में स्वीकार्य नहीं है। यदि पिया को अपने प्रेमियों पर अधिकार की आवश्यकता है तो उसे पैट को भी वह अधिकार रोहन से दिलवाना होगा। ये घटनायें इस बात की द्योतक हैं कि सुषम बेदी किसी वाद या विमर्श की सीमा से परे होकर सामाजिक यथार्थ के धरातल पर इस उपन्यास के कथानक का तानाबाना बुन रही हैं। यहाँ नारी और पुरुष दोनों वर्गों की व्यवहारिकता स्वतः उभरती जाती है और उपन्यास एकांगी होने से बच जाता है। 

उपन्यास के माध्यम से लेखिका ने भारतीय समाज की परम्पराओं, यहाँ के सरकारी कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार और कश्मीर के लोगों की आंतरिक पीड़ा को भी अभिव्यक्त किया है। आतंकवादियों के जिस डर से पिया के पिता जी कश्मीर छोड़ते हैं और अपना परिवेश छोड़ने की जिस चिंता के कारण उनकी मृत्यु होती है उसका स्पष्ट ख़ौफ़ पिया की बातों में आजीवन झलकता है। अमेरिका जाने के बाद भी अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए एक वह जगह कहती है ‘अनुराग, ये घाव तो उम्र भर नहीं भरने वाले! अभी भी दहला देती हैं वे ख़ौफ़नाक यादें।’ अमेरिकी लड़कों के प्रति भारत के लोगों का आकर्षण और दूर के ढोल सुहावन की दुष्परिणति को भी लेखिका ने बड़ी यथार्थता के यहाँ उद्धृत किया है। आज भी हमारे भारतीय समाज में किसी बहके हुए युवक की शादी कर देना उसको सुधार लेने का सबसे अच्छा माध्यम माना जाता है। लेकिन, ऐसी परिस्थितियों में नवविवाहिता युवती को किन परिस्थितियों से जूझना पड़ता है इसकी चिंता लड़के-लडकी किसी पक्ष के लोग नहीं करते। इस उपन्यास में पिया सहित अन्य कई लड़कियों के साथ सम्बन्ध रखने वाला अनुराग जब भारत आता है तो उसके माता-पिता सबकुछ जानते हुए भी उसका विवाह एक अत्यंत सुन्दर लड़की से कर देते हैं। परिणाम वही – विवाह के बाद बच्चे और तलाक़। वैसे लेखिका ने अनुराग और निशांत के रूप में ऐसे ही पुरुष पात्रों की सर्जना की है जिनके लिए नारी केवल शरीर मात्र है। वे दोनों अपनी आवश्यकतानुसार पिया के साथ रहते हैं लेकिन शादी और स्थायीत्व के नाम से ही भाग खड़े होते हैं। इन दोनों के साथ रहते हुए पिया का मनोवैज्ञानिक अध्ययन भी लेखिका ने बड़ी सूक्ष्मता के साथ किया है। यद्यपि कि अपमान उसे दोनों जगह मिलता है और यह उच्च शिक्षित और पूर्णतः सम्पन्न नायिका दोनों के साथ अपनी शारीरिक ज़रूरतों को पूरी करती हुई भी स्थायीत्व की तलाश में भटकती दिखाई देती है। निशांत के साथ पंद्रह वर्ष रहने के बाद उसे लगता है कि ‘आख़िर, उसे मिलता क्या है निशांत से? कुछ भी तो नहीं। न तो वह उससे प्यार करता है, न कभी शादी करेगा तो किस उम्मीद के साथ रहा जाए।’ एक प्रश्न तो यहाँ उठता ही है कि दूसरों को मनोवैज्ञानिक सलाह देने वाली पिया को अपने मन का विश्लेषण करने में अथवा निशांत को समझने में पंद्रह वर्ष क्यों लग जाते हैं? ठीक इसी प्रकार रात को ग्यारह बजे अपनी नई प्रेमिका रोमा के आने की सूचना पाकर अनुराग जब पिया को होटल के कमरे से बाहर निकल जाने के लिए कहता है तो उसका सम्मान जागता है और वह रात को ही वहाँ से चल देती है, तब वर्षों बाद अनुराग उसे अपने जीवन में केवल ‘एक आता-जाता फिनामिना’ लगता है। स्थायीत्व की यह पीड़ा उसे अपने से अधिक बेटे के जीवन की उलट-फेर में महसूस होती है। इस समय वह सोचती है ‘कितने अजीब हैं यह औरत–मर्द के रिश्ते! साथ चल रहे हों जैसे सारी दुनिया साथ चल रही होती है और जब टूटते हैं तो भीतर को तोड़-मरोड़ जाते हैं। क्यों होता है ऐसा? कैसी नियति है रिश्तों की भी। विवाह हो तो छीजते जाते हैं, न हो तो इस तरह हिलाकर रख देते हैं।’ इन घटनाओं से स्पष्ट है कि नारी-पुरुष का सम्बन्ध केवल शरीर तक ही सीमित नहीं होता बल्कि उसकी और भी अलामतें होती हैं। जिसके लिए रिश्तों का स्थायीत्व न केवल भारत बल्कि अमेरिकी परिवेश की भी माँग है। यहाँ अपनी दो बेटियों को लेकर रोहन के साथ पैट इसीलिये रहने लगती है कि वह उससे शादी करके उसके साथ स्थायी रूप से रहना चाहता है। 

इस उपन्यास की कथा आगे चलकर दो पीढ़ियों के बीच की कथा बन जाती है। जिसके माध्यम से लेखिका भारतीय और अमेरिकी समाज में पले–बढ़े पिया और रोहन की सोच और उनकी व्यावहारिकता के अंतर को भी स्पष्ट कर देती हैं। रोहन बार-बार अपने प्रेम की असफलता–सफलता की तुलना अपनी माँ के विवाह और प्रेम की सफलता-असफलता से करता है। प्रेमी-प्रेमिका और पति-पत्नी के जो सूत्र पिया के जीवन में नहीं खुल पाते वे रोहन के जीवन में खुल जाते हैं। दामोदर, अनुराग और निशांत इन तीन पुरुषों के साथ रहकर भी जीवन की जिस घुटन को पिया नहीं समझ पाई उसे रोहन बड़ी सरलता पूर्वक समझाते हुए कहता है – ‘माम! बस वह हवा होती है न। हवा जो हम दोनों के बीच गुजरती है वही स्टेल या कहें बासी होने लगती है। बासी हवा में कोई कब तक साँस ले सकता है। घुटन नहीं होगी तो और क्या!” 

उपन्यास का उत्तरार्ध आते-आते लेखिका पुरुष वर्ग के समक्ष प्रश्नों की एक शृंखला खड़ी कर देती हैं। ये प्रश्न कहीं औरत की आज़ादी से डरे हुए पुरुष वर्ग पर सीधा हमला बोलते हैं तो कहीं समाज के बदलाव में नारी का साथ न निभा पाने वाले पुरुष वर्ग को साथ चलने की झिड़की भी देते हैं – ‘सिर्फ़ औरत के बदलाव से तो समाज में संतुलन आने वाला नहीं। बात वहीं की वहीं रह जाती है। क्या मर्द कभी ख़ुद को बदल नहीं पायेंगे? जो औरत हर तरह से ख़ुद को पुरुष के साथ क़दम मिलाकर चलता हुआ, उनके क़द का पाती है, उसे एक पत्नी के रूप में देखने से ये पुरुष झिझकते क्यों हैं?’ पिया के ये विचार केवल अपने हक़ की तलाश में समाज से जूझती एक नारी के विचार ही नहीं हैं बल्कि वर्तमान की ज़रूरत भी हैं। आख़िर, जिस स्वस्थ समाज की परिकल्पना दुनिया आज कर रही है उसके लिए पहली आवश्यकता स्वस्थ परिवारों की है जिसकी नींव में नारी-पुरुष के बीच संतुलन का होना महत्वपूर्ण तत्त्व है। इस उपन्यास में लेखिका ने नारी जीवन की वास्तविकता को चित्रित करते हुए समाज के अन्य पक्षों में निरंतर आ रहे बदलावों को भी स्वीकार किया है। 

भारतीय और अमरीकी दोनों परिवेशों की सच्चाइयों से रूबरू कराने वाले इस रोचक उपन्यास के लिए सुषम बेदी जी को बहुत सारी शुभ कामनायें।

हिन्दी विभाग
तोक्यो यूनिवर्सिटी ऑफ़ फॉरेन स्टडीज़ 
तोक्यो, जापान    

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