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सुषम बेदी की याद में

कुछ लोग जीवंतता के प्रतीक होते हैं। सदैव हँसते, मुस्कुराते, जीवन को जीतते से प्रतीत होते हैं। ऐसे लोगों के भी जीवन का अंत होता है यह सोचना बड़ा मुश्किल है।

२१ मार्च की सुबह उठते ही ऐसी ही शख़्सियत के देहावसान की ख़बर मिली। फ़ेसबुक पर जितने भी लोग उनसे परिचित थे, सभी के पेज पर उनकी ही यादों की चर्चा थी।

हिन्दी साहित्य का जाना-पहचाना नाम, अमेरिका में हिन्दी अध्यापन क्षेत्र में सर्वोपरि लिए जाने वाला नाम, सुषम बेदी जी के देहावसान का समाचार किसी बहुत बुरे सपने की तरह सामने आया। 

सुषम बेदी जी जिससे भी मिलती थीं, उसे उतना ख़ास महसूस कराती थीं कि सभी को लगता था जैसे वह उनके बहुत क़रीब हों। कहा जाता है ना कि जीवन में पद प्रतिष्ठा से भी अधिक यदि कुछ मायने रखता है तो वह यह कि आप जिस जिसके जीवन को छूते हैं, उसे कैसे प्रभावित करते हैं या कैसी छाप छोड़ते हैं। 

उनकी साहित्यिक उपलब्धियों के विषय में तो सब ही जानते हैं। जितने लोग विदेश में, ख़ासकर अमेरिका में हिन्दी अध्यापन से जुड़े हुए हैं, वह भी सुषम जी को जाने बिना रह नहीं सकते। यू.एस.ए. में चंद ही नाम हैं जिन्होंने हम जैसे हिन्दी अध्यापकों के लिए बहुत काम किया है, कई तरह के मानकीकरण निर्मित किए हैं। अपनी भाषा को विदेशी भाषा की तरह कैसे पढ़ाया जाया, आसान कार्य नहीं है, पर सुषम जी ने इसे बखूबी कई वर्षों तक निभाया है।

२००४, जून में लंदन की एक सुहावनी शाम को तजेन्द्र शर्मा जी और दिव्या माथुर जी ने एक अनौपचारिक कवि गोष्ठी का आयोजन किया। मैं अपने माता-पिता के साथ बूआ के बेटे की शादी में सम्मिलित होने गई थी। साहित्यकार हरीश नवल और कवयित्री स्नेह सुधा की बेटी होने के नाते मुझे ऐसी औपचारिक-अनौपचारिक गोष्ठियों में जाने के अवसर मिलते ही रहते थे। तब अपने सौभाग्यशाली होने का अहसास नहीं था कि मैं इतने बड़े साहित्यकारों से यूँ ही मिल पाती हूँ। तब तो इन साहित्कारों से जो दुलार और प्यार मिलता था उसी की याद रहती थी। 

उस शाम गोष्ठी के विषय में कुछ ख़ास नहीं याद, पर जबसे सुषम जी नहीं रहीं यह सुना है, उस शाम की सुषम जी मेरे सामने बार-बार जीवित हो रही हैं। सुषम जी ने लम्बी नीली घेरदार स्कर्ट पहनी थी और मेहरून से रंग की शायद बिना बाजू की कोटी। उनका बेबाक हँसना, हवा के साथ लहराना, उनकी अदा में ऐसी मस्ती थी जो जबरन हम सभी को मस्त कर रही थी। याद नहीं कि मौसम के सुहाने होने के कारण वह मुझे इतनी सजीव लगीं थीं या उनके कारण मौसम ऐसा हो गया था। 

मैंने आज तक देश-विदेश में अपने माता-पिता के साहित्यकार मित्रों को बहुत संयत और औपचारिक रूप में देखा था। ख़ासकर किसी भी हिन्दी पढ़ाने वाली अध्यापिका को तो हमेशा ही साड़ी में देखा था। सुषम जी के अंदाज़ में जो ख़ुशबू और ताज़गी थी उसने मुझे स्वतंत्रता की याद दिलाई थी। मेरी सीमित सोच ने यह मानने से इंकार कर दिया था कि सुषम जी यूनिवर्सिटी में पढ़ाती होंगी। 

सुषम जी ने अपने सहज अंदाज़ में मुझसे बात की थी और मेरी कविताओं की सराहना भी की थी जो मेरे लिए शुभ समाचार था। जब उन्हें पता चला था कि मैं शादी करके अमेरिका आने वाली हूँ, तो थोड़े समय में ही उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ दी थीं जो मुझे आज भी काम आती हैं। सुषम जी ने मेरे मन को कुछ भाँप कर कहा था, “चिंता मत करो, सब अच्छा होगा।”

उनका इतना कहना भर ही मेरे लिए बहुत मायने रखता था। शायद उन्होंने यूँ ही कह दिया हो पर मुझे ऐसा लगा था कि मेरा कोई सहारा विदेश में भी है। 

इसके बाद २००७ में जब शादी के तुरंत बाद विश्व हिन्दी सम्मेलन में भाग लेने न्यू यॉर्क जाने का अवसर मिला तो एक बार फिर सुषम जी से मुलाक़ात हुई। इस बार वैसा ही रूप सामने आया जैसा मुझे साहित्यकारों को देखने की आदत थी। मंच पर अति औपचारिकतापूर्ण व्यवहार, सभा का मान रखते हुए अपने विचारों की प्रस्तुति आदि। इस रूप को देखकर मुझे लगा कि वह मुझे तीन साल में अवश्य भूल गई होंगी और क्योंकर पहचानेंगी?

लेकिन उन्होंने मुझे न केवल पहचाना पर उसी लंदन वाली शाम की तरह सहज होकर बातचीत भी की। मेरे पति का भी स्वागत किया। फिर तुरंत मुझे कुछ हिन्दी कवि कवयित्रियों के फोन नम्बर दिए जो जहाँ मैं रहती थी, वहाँ बसे हुए हैं। 

ये उनकी उदारता थी, वरना मैंने तो सुना था कि ऐसे लोग विदेश में अधिक मिलते हैं जो नए लोगों की नौकरी आदि में मदद नहीं करते। पर मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ, शायद इसलिए कि सभी लोग वह थे जो सुषम जी के जानकार थे, इसीलिए उन जैसे ही थे। उनके दिए गए फोन नम्बर और ई-मेल के कारण ही आज मैं कह सकती हूँ कि वर्जिनिया, मैरीलैंड और डी.सी. क्षेत्र के साहित्यकारों से मेरी अच्छी जान-पहचान है। यदि ये कहूँ कि मेरे विदेश निवास की नींव में सुषम जी का बड़ा हाथ है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। सुषम जी को चाहे इस बात का अहसास न हो पर मैं इसे कभी नहीं भूल सकती। उन्होंने मेरी एक दो नौकरियों के लिए उन्होंने रेफ़रेंस लैटर भी लिखे थे। 

२००७ के बाद से मैं उनसे ई-मेल पर सम्पर्क में रहती थी। मैं उन्हें लम्बी ई-मेल करती वह संक्षिप्त सा जवाब देतीं। उन्हें मैंने कभी भी लाग-लपेट के साथ बात करते नहीं देखा, हमेशा सारगर्भित बात करती थीं। वह अपनी कहानियाँ कवितायें भी कभी-कभी ई-मेल में भेजती थीं। ई-मेल के ज़रिए मैं उनसे बहुत कुछ सीख ही रही थी पर २००९, २०१० और २०११ में मैंने न्यू यॉर्क यूनिवर्सिटी में एक-एक दो-दो हफ्ते की तीन वर्कशॉप में हिस्सा लिया जिसमें वह कई अध्यापकों में से एक अध्यापिका थीं। यहाँ मेरा परिचय उस शिक्षिका से हुआ जिनमें विषय की पकड़ और छात्रों को समझने-समझाने की समझ कूट कूट कर भरी हुई थी। कक्षा में वह कभी सख़्त नहीं होती थीं पर फिर भी अपनी बात को बलपूर्वक कैसे रखना है, उन्हें आता था। 

कक्षा ख़त्म होते ही सभी से ऐसे मित्रवत हो जाती थीं जैसे वह भी वर्कशॉप में सीखने ही आई हों। सुषम जी की उम्र कुछ भी रही हो, उनमें जो जीवन को जीने की कला थी, वह किसी शिशु से कम नहीं थी। इन वर्कशॉप में सुषम जी को देख कर बहुत कुछ सीखा। हिन्दी पढ़ाने की कला के साथ-साथ वह अपने पारिवारिक क़िस्से भी खुले दिल से सभी के साथ साँझा करती थीं। 

उन्हें अपने नाम के ग़लत बुलाए जाने से ख़ासी दिक़्क़त थी। वह अक्सर बताती थीं कि उन्हें शहर की आपाधापी में ही सुकून मिलता है। उनकी लेखिका भी एकांत से अधिक शोरगुल में प्रमुख होती है। 

२०१३ में उन्होंने मुझे लेखिका के रूप में येल विश्विद्यालय में एक कहानी वर्कशॉप में हिस्सा लेने के लिए बुलाया। उनके कथाकार का रूप और वर्चस्व भी उतना ही प्रखर था जितना अध्यापिका का। वहाँ जाकर उनके साथ एक वाद-विवाद प्रतियोगिता में निर्णायक बनने का भी अवसर मिला। 

वर्कशॉप के बाद शाम को उन्होंने सभी लेखक-लेखिकाओं को अपने कमरे में आमंत्रित किया। उस कमरे में वह वही लंदन की शाम वाली सुषम जी थीं। कामकाज से दूर बस हँसी मज़ाक वाली सुषम जी। तब पहली बार उनके पति राहुल जी से मिलना हुआ। जब उन्हें पता चला कि मैं नई नई माँ बनी हूँ तो बेदी दंपती ने अपने उस काल की बातें बताईं जब उनके बच्चे छोटे थे।

सुषम जी से फिर कई बार मिली, एक बार वह धनंनजय जी के घर आईं और मेरा सौभाग्य कि धनंनजय जी और उनकी पत्नी ने मुझे भी बुलाया। कविता के साथ-साथ कई तरह की बातें हुईं। उन्होंने अपनी नातिन की बातें आँखों में चमक के साथ बताईं, अपने घुटने के दर्द का ज़िक्र किया, धर्म, राजनीति, रसोई, भाषा, किसी भी विषय पर सुषम जी अच्छा ही बोलती थीं। 

गत वर्ष अशोक सिंह जी ने वाणी प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक काव्य तरंग का सम्पादन किया जिसमें अमेरिका में रह रहे १६ कवियों की रचनायें हैं। उन सोलह कवियों में सुषम जी के साथ मैं भी हूँ। इस पुस्तक के विमोचन के लिए २०१९ जून में मैं न्यू यॉर्क गई। सुषम जी से मिलना होगा इस बात का उत्साह था क्योंकि कई बार उन्होंने कहानी वर्कशॉप या न्यू जर्सी में अनूप जी और रजनी भार्गव जी के घर में मिलने का आग्रह किया था पर दो छोटे बच्चों के कारण मैं जा नहीं पाई थी। तब मुझे पता नहीं था, किसी को कहाँ पता होता है कि कोई मुलाक़ात आख़िरी मुलाक़ात होगी। हम टैक्सी करके भारतीय विद्या भवन के पास पहुँचे ही थे कि मैंने सुषम जी को अपनी गाड़ी से उतरते देखा। मैं अपने पति और बच्चों को छोड़कर सुषम जी की ओर ऐसे भागी जैसे मुझे कोई अभिन्न मित्र, मनपसंद अध्यापिका या कोई खज़ाना ही मिल गया हो। अब सोच रही हूँ तो लग रहा है कि क्या कहीं मुझे पता था कि सुषम जी से यह आख़िरी मुलाक़ात होगी? सुषम जी ने हमेशा की तरह प्रेम पूर्वक ही स्वागत किया और बात करते करते हम भवन में पहुँचे। फिर पूरे कार्यक्रम में वह रहीं, मैं भी रही, सभी कवियों की साथ में फोटो भी खींची गई। उनसे फिरसे मिलने का सपना लिए विदा भी ली। फ़ेसबुक पर उनकी फोटो, लेख इत्यादि देखती रही। कभी कभी बात भी की।

पर यदि ऐसा कभी सोच पाती कि वह ना रहेंगी तो लग रहा है शायद और ज़्यादा बतिया लेती, कुछ और सीख लेती या उनकी कुछ और बातें सुन लेती। उनकी बीमारी की ख़बर मिली थी, उनके स्वास्थ्य के लिए भी प्रार्थना की थी लेकिन वह चली जाएँगी ये सोच के निकट भी नहीं आया। 

लेखिका, अध्यापिका, कलाकार, मंच संचालक, वक्ता, माँ, पत्नी, नानी, दोस्त, पथ प्रदर्शक, हर रोल में फ़िट थीं सुषम जी। उनकी जीवंतता सदैव जीवित रहेगी। मुझे ऐसा लगता है कि उन जैसे लोग कभी नहीं मरते। जितने भी लोग उन्हें थोड़ा भी जान पाए हैं उनमें तो वह सदा जीवित रहेंगी। 

मेरे लिए वह उसी लंदन की शाम की तरह महकती रहेंगी।

श्रद्धा सुमन
आस्था नवल
वर्जीनिया

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