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आज का नाम ज़िंदगी

 

मुंबई के कांदिवली इलाक़े की एक पुरानी बिल्डिंग की तीसरी मंज़िल पर वर्मा परिवार रहता था—मध्यमवर्गीय लेकिन बेहद संतुलित और ख़ुशहाल।

राजीव वर्मा एक निजी बैंक में असिस्टेंट मैनेजर थे, उनकी पत्नी नीलिमा गृहिणी थीं, और उनका इकलौता बेटा आदित्य इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में पढ़ रहा था।

घर छोटा था लेकिन उसमें रिश्तों की गर्मी थी, भरोसे की रोटी थी, और सादगी की चादर।

हर दिन तयशुदा लय में चलता—सुबह राजीव का अख़बार पढ़ना, नीलिमा का चाय बनाना, और आदित्य की नींद में बड़बड़ाहट, “मम्मी, पाँच मिनट और . . .”

और फिर वो ठहाका जो रोज़ सुबह इस घर को जगा देता।

राजीव हर दिन 8:33 की चर्चगेट फ़ास्ट लोकल से दफ़्तर जाते थे।

वो वक़्त के पाबंद थे—घड़ी की सुइयों की तरह सटीक।

नीलिमा हर सुबह टिफ़िन में कुछ नया रखती और पीछे से आवाज़ देती, “सुनिए, कम से कम रविवार को तो फ़िल्म दिखाने चलिए। कब से कह रही हूँ!”

राजीव हँसते हुए पलटते, “अरे भागवान, अभी तो ज़िंदगी पड़ी है! रिटायरमेंट के बाद पूरा देश घूमेंगे, अभी बैंक और ईएमआई से ही फ़ुर्सत नहीं!”

नीलिमा हर बार मुस्कराकर रह जाती—उसके चेहरे पर शिकायत नहीं होती, सिर्फ़ इंतज़ार।

11 जुलाई 2006

बारिश थमी थी, हवा में नमी थी, और मुंबई अपनी तेज़ रफ़्तार से चल रही थी।

राजीव रोज़ की तरह तैयार होकर निकले, नीलिमा ने दाल-चावल का टिफ़िन पैक किया था।

बेटा आदित्य प्रोजेक्ट पर काम कर रहा था और बोला, “पापा आज जल्दी आना, कुछ दिखाना है।”

राजीव ने माथा चूमा, “आज तो बिल्कुल टाइम पर लौटूँगा बेटा!”

शाम के क़रीब 6:30 बजे नीलिमा टीवी पर समाचार देख रही थीं कि अचानक स्क्रीन पर ब्रेकिंग न्यूज़ आई:

“मुंबई लोकल ट्रेनों में सिलसिलेवार बम धमाके। सैकड़ों की मौत की आशंका।”

पलभर में नीलिमा के हाथ से रिमोट गिर गया।

आदित्य भागता हुआ आया।

उसने टीवी की तरफ़ देखा— दहशत, धुआँ, और ख़ून।

“वो तो चर्चगेट फ़ास्ट थी . . .”

आदित्य का चेहरा सफ़ेद पड़ गया।

राजीव का मोबाइल बंद जा रहा था।

अगले दो दिन नीलिमा और आदित्य ने अस्पतालों, पुलिस चौकियों, और मोर्चरियों के चक्कर लगाए।

हर दरवाज़े पर उम्मीद थी, हर नाम में राजीव की परछाईं ढूँढ़ते रहे।

तीसरे दिन नायर अस्पताल से एक सूचना आई।

एक शव मिला था, बुरी तरह झुलसा हुआ, चेहरा पहचानने लायक़ नहीं था लेकिन उनकी जेब से एक जली हुई चमड़े का वॉलेट बरामद हुआ, जिसमें उनका ऑफ़िस आईडी कार्ड, एक पुरानी पारिवारिक फोटो, और कुछ सिक्के थे।

राजीव वर्मा अब इस दुनिया में नहीं थे।

उस दिन के बाद नीलिमा की आँखों में आँसू सूख गए थे।

आदित्य ने घर की ज़िम्मेदारी सँभाल ली, लेकिन उसके शब्दों में पिता की तलाश हमेशा बनी रही।

राजीव के वादे, “कल करेंगे”, “रविवार चलेंगे”, “रिटायरमेंट के बाद देखेंगे” — अब घर की दीवारों में गूँजते थे।

एक दिन नीलिमा बालकनी में बैठी थीं।

सामने एक परिवार हँस रहा था, शायद पिकनिक की तैयारी कर रहा था।

नीलिमा ने धीमे से कहा—

“ज़िंदगी इंतज़ार की मोहलत नहीं देती।
जो कहना है, जो जीना है, जो प्यार जताना है-अभी कर लो . . .
क्योंकि कभी-कभी अगला रविवार . . .
कभी आता ही नहीं।”

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