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आंचलिक उपन्यासकार: मैत्रेयी पुष्पा 

यथार्थवादी रचनाकार का उद्देश्य जीवन की यथार्थता में पड़कर उनकी मानवीय संभावनाओं पर प्रकाश डालना होता है। सामान्य यथार्थवादी उपन्यासकार के उद्देश्य और आंचलिक उपन्यासकार के रचनागत उद्देश्यों में अगर किंचित भिन्नता है तो मात्र इतनी कि सामान्य यथार्थवादी उपन्यासकार व्यापक जीवन यथार्थ का अध्ययन व्यापक और विस्तृत सामाजिक परिवेश में करके मानव मूल्यों की स्थापना करने का प्रयत्न करता है और आंचलिक उपन्यासकार एक सीमित क्षेत्र या विशिष्ट अंचल के सामाजिक-सांस्कृतिक अध्ययन के आधार पर उन्हीं मूल्यों की स्थापना करना चाहता है। आंचलिक उपन्यास का उद्देश्य स्थिर स्थान पर गतिमान समय में जीते हुए अंचल के समग्र पहलुओं को उद्घाटित करना है।

हिंदी उपन्यास में आंचलिक तत्त्व का समावेश पहले से ही दृष्टिगोचर होता है पर वे आंचलिक उपन्यास नहीं कहे गए क्योंकि उनकी दृष्टि अधिक व्यापक रही है, चित्रफलक अधिक विस्तार पूर्ण है। प्रेमचंद्र के प्रेमाश्रय, कर्मभूमि, रंगभूमि और गोदान में बनारस और उसके समीपवर्ती ग्रामीण अंचल के सजीव चित्र मिलते हैं, पर वहाँ ग्रामीण कथा के साथ-साथ नगर की कथा समान गति से चलती रहती है। उनमें ग्रामीण प्रदेशों के चित्र यथा तथ्य नहीं कहे जा सकते, उनके पीछे वह सूक्ष्म निरीक्षण नहीं; ब्यौरों की बारीक़ियाँ नहीं; धरती की सौंधी महक नहीं जो आंचलिक उपन्यासों में आवश्यक है। यह नहीं कि प्रेमचंद्र ऐसा करने में असमर्थ थे, वस्तुत: उस ओर उनका ध्यान ही नहीं था। उनकी दृष्टि सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक समस्याओं पर थी, अंचल की संस्कृति या प्रकृति पर नहीं। 

प्रेमचंदोत्तर युग में सामाजिक यथार्थ का ही आगे चलकर जिन नाना रूपों में प्रस्फुटन हुआ इनमें ‘आंचलिक यथार्थ’ भी एक है। डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत के विचार से यथार्थवाद के नये क्षितिज खोलने के प्रयत्न के रूप में ‘रेणु’ लिखित ‘मैला आंचल’ का बहुत बड़ा महत्व है। इनके द्वारा प्रस्तुत किये गये यथार्थवाद को ‘आंचलिक यथार्थवाद’ की संज्ञा दी जाने लगी है। इसे आंचलिक यथार्थवाद इसलिए कहते हैं कि इसमें एक अंचल के संपूर्ण जीवन का संश्लिष्ट और यथार्थरूप प्रस्तुत किया गया है।

शिल्प के परिप्रेक्ष्य में अनांचलिक और आंचलिक उपन्यासों में जो सर्वाधिक प्रमुख भिन्नता होती है वह है उपन्यासकार की भाषा में। सामान्य उपन्यासों में लेखक के वर्णन-विश्लेषण की भाषा परिनिष्ठ साहित्यिक भाषा होती है। परन्तु आंचलिक उपन्यासों में साहित्यकार की भाषा अंचल के रंग में रँगी होती है। किसी विशिष्ट क्षेत्र या अंचल के समग्र पहलुओं का उद्घाटन अथवा उसका यथातथ्यात्मक चित्रण या जीवन यथार्थ का अध्ययन अपने आप में कोई उद्देश्य नहीं होता; हालाँकि ऐसे भी विचार व्यक्त किये गये हैं कि हर यथार्थ अपने आप में संदेश वाहक भी होता है परन्तु मेरे विचार से कोई भी यथार्थ चित्रण या किसी भी स्थिति का यथार्थपरक अध्ययन-विश्लेषण केवल एक पृष्ट भूमि तैयार करना होता है; जिसके आधार पर रचनाकार कोई निष्कर्ष निकालता है और स्थापनाएँ करता है; जो उसका जीवन-दर्शन बन जाता है। इसलिए हर अध्ययन और विश्लेषण विशेष उद्देश्य-प्रेरित होता है। 

आंचलिकता एक प्रवृत्यात्मक विशेषता है। जिसकी पहचान आंचलिक उपन्यासों के वस्तु तत्त्व से लेकर शिल्प तत्त्व तक सर्वत्र की जा सकती है। परन्तु यह आवश्यक नहीं कि उपन्यास पूर्णत: आंचलिक ही हो। गैर आंचलिक उपन्यासों में भी किसी गाँव विशेष (गोदान का ‘बेलारी’ गाँव; रागदरबारी का ‘शिवपालगंज’ कस्बा; मृगनयनी का ‘बुंदेलखंड’ अंचल आदि) की कहानी है।

ये उपन्यास आंचलिक तत्त्व प्रधान उपन्यास हैं; क्यों कि बेलारी गाँव के स्थान पर अवध के किसी गाँव को रख सकते हैं। बेलारी गाँव के किसानों की समस्याएँ या शिवपालगंज की राजनीतिक, सामाजिक स्थिति अन्य किसी गाँव या कस्बे की स्थिति के समान ही है या बहुत भिन्न नहीं है। इन उपन्यासों में स्थानीय रंग के प्रयोग पर ध्यान न देकर वहाँ की समस्याओं को उभारा गया है।     

आंचलिक उपन्यासों में ‘देशकाल एवं वातावरण’ तत्त्व सर्वोपरि विधायक तत्त्व है। लेखकीय दृष्टि से इस उपन्यास के कारण ही आंचलिक उपन्यासों में स्थान विशेष (अंचल) के भौगोलिक तथा प्राकृतिक वर्णनों और वहाँ के निवासियों की विशिष्ठ भाषा; खान-पान; वेश-भूषा, पर्व-त्योहार, लोकाचार, लोक-कथा एवं सामाजिक रीति-रिवाज़, परंपराओं और नैतिक-अनैतिक संबंधों का सूक्ष्म एवं विस्तृत वर्णन-चित्रण होता है क्यों कि ये सब मिलकर ही समवेत रूप से अंचल के वातावरण का निर्माण करते हैं। इस प्रकार अंचल अपने भौगोलिक-प्राकृतिक रूप से बहिरंगता और सामाजिक सांस्कृतिक रूप से अंतरंगता से युक्त होकर एक वैशिष्ट्यवान जीवंत पात्र का स्वरूप धारण कर आंचलिक उपन्यास का केंद्र बिंदु अथवा नायक बनकर हमारे सामने उपस्थित होता है। अधिकांश आंचलिक उपन्यासों में कथा का प्रारंभ और अंत व्यक्ति पात्र न होकर अंचल पात्र में होना इसी तथ्य का प्रमाण है।

आज इस भौतिकवादी युग में जब कोई आदमी किसी विशेष उद्देश्य के सुदूर जंगलों; पहाड़ियों के बीच रहने वाली जनजातियों के ऊबड़-खाबड़ विचित्र ज़िंदगी और दुर्गम ग्रामांचलों में अशिक्षा; अंध विश्वास; ग़रीबी तथा अनेक तरह की सामाजिक-आर्थिक विकृतियों से पूर्ण जीवन-यथार्थ का अध्ययन चित्रण करने के लिए ही भला क्यों तैयार होता? ‘रेणु’ की ‘परती परिकथा’ में पतिता भूमि; परती जमीन; बंध्या धरती… कछुआ-पीठा जमीन की अव्यक्त कथा की कोई रहस्यमय गंध मिली थी… अनहद गूँज सुनाई पड़ी थी; तभी तो इन्हें महसूस हुआ; कथा होगी अवश्य इस परती की भी… व्यथा भरी कथा वंध्या धरती की… ।

आंचलिक उपन्यासकार किसी राजनीतिज्ञ या दार्शनिक की भाँति अपने जीवन दर्शन तथा मानवीय समस्याओं के अध्ययन से प्राप्त अपने निष्कर्षों को सीधे तो नहीं व्यक्त कर सकता; उसे अपनी कृति की राह से गुज़रते हुए स्वयं वहाँ तक पहुँचना पड़ता है और पाठक को भी पहुँचाना पड़ता है। यही वह यात्रा होती है जिसमें उपन्यासकार को अपने कलाकार-रूप और चिंतन-रूप में उचित समन्वय करने की ज़रूरत पड़ती है। 

अत: मंज़िल एक होते हुए भी राजनीतिक; दार्शनिक अथवा अन्य समाजशास्त्राीय और कलाकार के वहाँ तक पहुँचने या इस यात्रा के दौरान प्राप्त निष्कर्षों की अभिव्यक्ति में अलग-अलग माध्यमों और तरीक़ों को अपनाना पड़ता है।

उसी तरह आंचलिक उपन्यासकारों ने ग्रामीण अंचल के जनजीवन को उजागर करने के लिए राजनीतिक व दार्शनिक की भाँति उनके समूह तक पहुँचे। उनका गहराई से अवलोकन किया तथा अपने चिंतन रूप और कलाकार रूप को समन्वित करते हुए उनकी स्थिति को जन-जन तक पहुँचाया। अपने उद्देश्य का प्रतिपादन अपनी कृति में कलात्मकता के साथ की; जबकि एक समाजशास्त्री सीधे व सपाट तरीक़े से करते हैं। 

लोक-भाषा के इस सामर्थ्य को सबसे पहले और सर्वाधिक रूप में फणीश्वर नाथ रेणु ने पहचाना; क्योंकि आंचलिक जीवन से उनकी गहरी संबद्धता और उसे कथाबंध में बाँधने की लालसा ने उन्हें ही सबसे पहले वह भाषायी तलाश-यात्रा शुरू करने की प्रेरणा दी थी।

फणीश्वर नाथ रेणु को ही लोक भाषा के उस अक्षय भंडार की चाभी भी सर्वप्रथम मिली यही कारण है कि रेणु ने हिंदी के प्रथम आंचलिक उपन्यास अपने ‘मैला आंचल’ में ही भाषिक संरचना का जो प्रतिमान स्थापित कर दिया, वह एक तरह से आंचलिक उपन्यासों के भाषा-शिल्प के लिए मानक बन गयी।

मैत्रेयी जी ने फणीश्वर नाथ रेणु के ‘मैला आंचल’ से प्रभावित हो इदन्नमम की रचना की तथा समग्र बुंदेलखंड अंचल की संस्कृति व रहन-सहन को भाषा-शिल्प के साथ इदन्नमम में उतार दिया। इस उपन्यास में आंचलिकता के तत्त्व के अतिरिक्त लोकभाषा तत्त्व भी मिलता है। वहाँ की स्थानीय बोली (बुंदेलखंडी) के कुछ विशिष्ट शब्दों और मुहावरों का प्रयोग; आंचलिक शिल्प और आंचलिक भाषा का वह गहरा रंग है जो आंचलिक उपन्यास की भाषिक रचाव की जान है।

आधुनिक उपन्यासकारों में मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों में आंचलिक यथार्थवाद दृष्टिगत होता है। इन्होंने अपनी आत्मकथा ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ में स्वयं ही लिखा है जो सह-सम्पादक ने उन्हें कहा था- “एक तो तुम्हारा पाजेटिव पाइंट है; वह है भाषा। तुमको आंचलिकता की ओर गौर करना चाहिए। रेणु ने यही किया था; कहाँ से कहाँ पहुँच गए। जड़ें ही तो फलती-फूलती है। अपनी जड़ों से जुड़े रहो।”

इन्होंने इदन्नमम, बेतवा बहती रही, चाक, अल्मा कबूतरी इन सभी उपन्यासों के माध्यम से अंचल विशेष तथा वहाँ की संस्कृति और सभ्यता तथा विशेष रूप से नारियों की स्थिति को उजागर किया है। मैत्रेयी जी नारियों की स्थिति के प्रति बहुत संवेदनशील हैं। वो नारियों को समाज में बराबर का स्थान दिलाना चाहतीं हैं। उनका मानना है कि ईश्वर ने जब सृष्टि करते हुए नारी और पुरुष में कोई भिन्नता नहीं की तो समाज में भी उन्हें बराबर का स्थान मिलना ही चाहिए। आपने चाक में स्वयं ही लिखा है “जानवरों के बाद अगर किसी को खूटें से बाँधा जाता है तो वे हैं आँगन लीपती; घर सहेजती, खेतों में काम करती औरतें।”

मैत्रेयी जी की भाषिक संरचना-शिल्प की सबसे बड़ी उपलब्धि और इन क्षेत्रों में उनकी महत्वपूर्ण देन एवं अभिनव प्रयोग है; लोक भाषा के विविध उपादानों-लोकगीत; लोक-कथाएँ; लोक-मुहावरे आदि का भाव-संप्रेषण के माध्यम के रूप में साहित्य-स्तर पर कथा साहित्य में विपुल प्रयोग। ये अछूते अंचलों में बहुआयामी जीवन-संदर्भों की संश्लिष्टि और सतरंगी अनुभूतियों को वाणी देने एवं तेज़ी से बदलते हुए आंचलिक जीवन परिवेश की गतिशील प्रक्रिया को पकड़ने वाली आंचलिक उपन्यासकारा हैं।


मैत्रेयी जी जब किसी घिसी-पिटी परंपरागत भाषा और उसके कोशीय शब्दों तथा मुहावरों को असमर्थ पाया; तब उनकी अभिव्यक्ति ने इस संकट का सामना करने के लिए संप्रेषण के नये-नये माध्यमों की तलाश शुरू की। इस तलाश यात्रा का प्रथम चरण था परंपरागत औपन्यासिक शिल्प के घिसे-पिटे-पुराने ओर संकीर्ण ढाँचों को तोड़ना और भाषा के साहित्यक-अभिजात्य से विद्रोह कर अपनी नवीन वस्तु; उद्देश्य और मूल संवेदना के अनुरूप एक निजी भाषा-शैली का अविष्कार करना। और इस भाषा का दूसरा चरण था भाषा की संपूर्ण संप्रेषण-क्षमता-अर्थवत्ता; सांकेतिकता; ध्वन्यात्मता; व्यंजकता; प्रतीकात्मकता तथा बिंबात्मकता आदि का नये-नये संदर्भो में प्रयोग करना। यात्रा के तीसरे चरण में इन्होंने लोक-भाषा के उस अक्षय भंडार का पता लगा लिया व्यक्ति अभिव्यक्ति की असीम क्षमता वाले एक से बढ़कर एक सशक्त उपकरण लोक-गीतों; कथाओं; कहावतों में सूक्ष्मातिसूक्ष्म भाव-व्यंजना की असीम शक्ति अंतर्निहित है; जो मैत्रेयी जी की उपन्यासों में प्रतित होता है।

मैत्रेयी जी के जीवन दर्शन या उद्देश्य की खोज करना चाहें तो उनकी प्रक्रिया कुछ इस प्रकार है– 

अनचिन्हें; अनछुए अल्पज्ञान; धूली-धूसरित, उबड़-खाबड़ अंचल, अशिक्षा, अंधविश्वास, दमघोंट ग़रीबी, अमानवीय शोषण, कुरीतियों, कुप्रथाओं, स्वार्थलिप्त गंदी राजनीति की कीचड़ तथा जाति और वर्गवाद की घिनौनी नाली के आकंठ डूबी वहाँ की ज़िन्दगी; टूटते-बिखरते आपसी रिश्ते, धसकता हुआ पारिवारिक ढाँचा; यौन विकृतियाँ आधुनिकता और प्राचीनता की टकराहटें, सामंती और सर्वहारा मानसिकता का संघर्ष, आधुनिकता की ललक, प्राचीनता का हठ; विज्ञान और औद्योगीकरण का प्रभाव; शहरी जीवन के प्रति आकर्षण और ग्रामीण जीवन के प्रति विकर्षण; समस्या ग्रस्त जीवन; बहुरंगा परिवेश, फिर भी लोकगीत गुनगुनाते होठ, लोक कथाओं से गूँजते चौपाल, लोकनृत्यों में थिरकते चरण; ढोल-मंजीरों की ध्वनियाँ, मुसकराते-हँसते खेत, लहालहाते पौधे, इठलाती-बलखाती नदियाँ; झरनों का संगीत। ये सभी तत्त्व मैत्रेयी पुष्पा की अंचल यात्रा में दृष्टिगोचर होते हैं जो कि आंचलिकता के मूल तत्त्व हैं।

मैत्रेयी पुष्पा की इस खोजपूर्ण अंचल यात्रा का उद्देश्य केवल इस अंचल की ग़रीबी; जहालत, शोषण, अंधविश्वास तथा रूढ़ियों से ग्रस्त जिन्दगी के चित्र उतारना, ग्राम चेतनागत प्राचीन और नवीन मूल्यों की टकराहट तथा सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्य-शेषता को दिखाना, नृत्य व गीत सुनाना-दिखाना, धान के खेतों और आम के बगानों में पाठक को टहलाना; ज़मीन के झगड़ों और राजनीतिक पार्टियों के पैतरों से परिचय कराना नहीं है बल्कि आंचलिक उपन्यासकारों की ही तरह अंचल-अन्वेषण-यात्रा का उद्देश्य कुछ अधिक गहरा, गंभीर और महत्वपूर्ण है। 
मैत्रेयी जी के उद्देश्य प्रतिपादन पद्धति में यही कलात्मकता ही कला की ख़ास विशिष्टता है, जो अन्यों से विलग करती है। इनकी रचना इदन्नमम; चाक; अल्मा कबूतरी ऐसी ही कलाकृति है इसमें उद्देश्य-प्रतिफलन कलात्मक पद्धति से हुआ है।

 इसी आशा और विश्वास ने नये मानव-मूल्यों की स्थापना तथा सामान्य जन की प्रगति और उत्थान के लिए अपनी संचित संस्कृति उर्जा का संबल लेकर संघर्ष पूर्ण विकास-यात्रा प्रारंभ की। इनके उपन्यास युग-युग से उपेक्षित; तिरस्कृत; शोषित और प्रताड़ित इन्ही लघु मानवों-सामान्यजनों का मानवीय प्रतिष्ठा; यानवोचित जीवन तथा मानवाधिकार प्राप्त करने की दिशा में किये गये तथा किये जाते हुए संघर्षो की व्यथा-कथा कहते हैं। इस व्यथा में कीचड़ भी है; कमल भी; धूल भी है, फूल भी, स्वार्थ भी है, उदारता भी, टूटन भी है, आस्था भी, लेकिन इनसे भी बड़ी दो चीजें है - मानव की जिजीविषा और जिगीषा।

मैत्रेयी जी अपनी संवाद योजना व भाषा-बोली में सुख-दु:ख की उन भींगी हुई अनुभूतियों का वर्णन-विश्लेषण भी करती चलती हैं। उनकी मानसिकता भी अंचल के पात्रों की मानसिकता बन जाती है। वस्तुत: यहाँ उपन्यासकार नही स्वयं अंचल बोलता है; अपनी कथा वह स्वयं कहता है। इसलिए उपन्यासकार व पात्रों की भाषा का अंतर यहाँ प्राय: मिट जाता है। जो आंचलिक उपन्यासकार अपने को अंचल के साथ आत्मसात करने में जितना ही सफल होता है और जिस आंचलिक उपन्यास में पात्रों और लेखक की भाषा के बीच की दूरी जितनी ही कम होती है वह उपन्यासकार और वह उपन्यास उतना ही श्रेष्ठ तथा सफल आंचलिक कहा जा सकता है। मैत्रेयी जी की रचनाओं में आंचलिकता के तत्त्व भरपूर रूप से पाये जाते हैं। उनकी अभिव्यंजना शैली अंचल को भी आत्मसात करते हुए उद्देश्य की ओर बढ़ती है।

फणीश्वर नाथ रेणु के ‘मैला आंचल’ और ‘परती परिकथा’ तथा नागार्जुन के ‘रतिनाथ की चाची’ की श्रेष्ठता और सफलता का यही रहस्य है। इसी शृंखला को और आगे बढ़ाते हुए मैत्रेयी जी ने बुंदेलखंड अंचल की पूरी संस्कृति को अपने उपन्यासों में तो उभारा ही साथ ही इन्होंने भाषा और शैली को भी वहीं के रंग में रँगकर प्रस्तुत किया। जिस कारण आंचलिकता की संपूर्ण छवि उसमें नज़र आने लगती है। कभी-कभी पाठक इनकी रचना- इदन्नमम, चाक, अल्मा कबूतरी को पढ़ते हुए ऐसा महसूस करने लगता है कि वह इसी बुंदेलखंद परिक्षेत्र में घूम रहा है।

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