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अजब मुहावरे, ग़ज़ब मुहावरे

मेरे एक मित्र हैं त्रिलोकी नाथ त्रिवेदी . . . ग़ज़ब के भाषाविद् और विद्वान। बातचीत के दौरान हमेशा अलंकार और मुहावरों का प्रयोग करते और सामनेवाले को अपने व्यक्तित्व से चमत्कृत करने की कोशिश करते। कभी-कभी वह ऐसे मुहावरे प्रयोग करते कि माथा ठनठना जाता, लगता कि ये मुहावरे किसने और क्यों बनाए। इनमें थोड़ा संशोधन हो जाए तो सारी उलझन ही जाती रहे। 

मैंने अनेक बार ग़लती करने पर पछतावा करने वाले व्यक्ति के लिए उनके मुँह से “सुबह का भूला शाम को घर लौट आए तो भूला नहीं कहलाता” मुहावरा सुना है। मुहावरे के भावार्थ पर मुझे उतनी आपत्ति नहीं है जितनी शाम को लेकर है। यदि भूला हुआ व्यक्ति दोपहर में ही लौट आए तो क्या उसे पछताने की क्लीनचिट के लिए शाम तक का इंतज़ार करना पड़ेगा। आख़िर शाम को लौटने पर इतना ज़ोर क्यों है? इसे मैंडेटरी बनाने के पीछे ज़रूर कुछ तो कारण रहे होंगे, जिन्हें मैं तो नहीं समझ सका और न ही कोई समझाने वाला मिला। यही वजह है कि मैंने आज तक इस मुहावरे से परहेज़ किया है। मैं भाषाविद्  होता तो इस मुहावरे में संशोधन करने की सिफ़ारिश कर इसे तर्कसंगत बनाने के लिए कहता। इसके लिए ज़्यादा कुछ नहीं करना है केवल “को” के स्थान पर “तक” करना है यानी कि अब यह मुहावरा इस तरह होगा, “सुबह का भूला शाम तक घर लौट आए तो भूला नहीं कहलाता।” देखिए हो गई न समस्या हल। 

किसी को बिल्कुल भी पसंद न करने के लिए त्रिलोकी जी अक़्सर “एक आँख न भाना” वाले मुहावरे का उपयोग करते हैं। किसी को एक आँख दबाकर देखना घोर असभ्यता मानी जाती है, यह हमें बड़े-बूढ़ों ने ही सिखाया है। यदि किसी महिला को एक आँख दबाकर देखने की ज़ुर्रत की तो शामत आ जाना लाज़िमी है। पर न जाने क्यों भाषाविदों का ध्यान इन बातों पर नहीं गया और उन्होंने यह मुहावरा रच डाला। यदि एक आँख के स्थान पर “दोनों आँखों न भाना” कर देते तो क्या बिगड़ जाता? इसी तरह सबको समान समझने के लिए “एक आँख से देखना” मुहावरा भी मैंने जब-जब उनके मुँह से सुना, मेरा मन दीवार से सिर मारने का किया है। भाई जब भगवान ने दो आँखें दी हैं तो मुहावरों में एक आँख पर इतना ज़ोर क्यों है? कभी-कभी तो लगता है किसी काने ने ये मुहावरे दो आँख वालों को जलाने के लिए बनाए हैं। और तो और “अंधा क्या चाहे दो आँखें” मुहावरे में ख़ूब दरियादिली दिखाई गई है। जब दो आँख वालों को एक आँख से काम चलाने की नसीहत दी जा रही है तो अंधे को दो आँखें ही क्यों चाहिएँ? वह एक आँख लेकर भी काम चला सकता है, पर नहीं उसे मुहावरेकार दो देने पर ही अमादा है। 

“एक टाँग पर खड़ा रहना” मुहावरा भी मुझे एक आँख की तरह ही परेशान करता है। दरअसल इस मुहावरे का आशय हमेशा काम करने के लिए तैयार रहने से है लेकिन एक टाँग पर खड़े होकर कोई कैसे तैयार या चौकस रह सकता है। स्कूल में हमने कई बार लँगड़ी दौड़ में हिस्सा लिया है और हर बार हम औंधे मुँह गिरे हैं। हममें से सभी ने एथलीटों को दौड़ने के लिए तैयार होने के लिए सदा रेफ़री को “ऑन योर टोज़” यानी की “पंजों पर” कहते सुना है तो फिर ये एक टाँग की बला कहाँ से आ टपकी! 

“ईंट का जवाब पत्थर से देना” तथा “ईंट से ईंट बजाना” मुहावरों में भी मुझे खोट नज़र आती है। पहले मुहावरे में मुहावरेकार की दिलचस्पी सामने वाले को करारा जवाब देने में है तो वहीं दूसरे मुहावरे में वह विनाश कर देना चाहता है। भाई जब किसी का विनाश ईंट से ईंट बजाकार किया जा सकता है तो करारा जवाब भी ईंट से ही दिया जा सकता है। प्रथम तो मुहावरे में पत्थर की साइज़ भी नहीं बताया है कि ईंट पर किस आयतन और वज़न का पत्थर भारी पड़ेगा। यदि किसी ने छोटे और हल्के पत्थर से करारा जवाब देना चाहा तो मुहावरा उल्टा होने का भी ख़तरा है। बेहतर होता ईंट का जवाब पत्थर से देने के बजाए बम से देने का संकल्प मुहावरे में होता तो फुस्सी बम भी ईंट पर भारी पड़ता। ईंट की लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई लगभग पूर्व निर्धारित होती है अतएव ईंट से ईंट बजा देने वाला मामला भी बराबरी का लगता है उसमें विनाश कर देने का भाव दिखाई नहीं देता। मैंने राह दिखा दी है अब तो कोई आगे आकर ऐसे कमज़ोर अर्थों वाले मुहावरों को तार्किक बनाने का प्रयास करे। 

नाचने को लेकर रचे गए मुहावरे भी मुझे परेशान करते हैं। “न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी” में तेल और नाच का सम्बन्ध मुझे आज तक समझ में नहीं आया। क्या स्टेज पर तेल का टेंकर उड़ेल कर राधा नाचने वाली थी? पता नहीं इस मुहावरे को बनाने वाले के दिल में क्या रहा होगा? इसी तरह “नाच न जाने आँगन टेढ़ा” का आशय भी कभी पल्ले नहीं पड़ा। आँगन ऊबड़-खाबड़ हो तो बात समझ में आती है लेकिन यदि केवल टेढ़ा भर है तो नाच जानने वाले को क्या फ़र्क़ पड़ता है? फ़र्क़ पड़ता होगा, ज़रूर पड़ता होगा तभी तो ये मुहावरा बना। वर्तमान परिस्थितियों में तो वैसे भी ये दोनों मुहावरे अप्रसांगिक हो चुके हैं। ‘मन’ नाम की यूनिट वर्षों पहले चलन के बाहर हो चुकी है . . . किसी भी बच्चे से ‘मन’ के बारे में पूछोगे तो वह आपको दूसरे गृह से आए जीव की तरह ताकने लगेगा। यही हाल आँगन का है। फ़्लैट कल्चर में जी रहे लोग आँगन के बारे में क्या जानें! 

त्रिवेदी जी के मुँह से सुने बहुत से मुहावरे तो सच में पुनर्लेखन के योग्य हो गए हैं। इनमें ऐसी-ऐसी गणनाएँ उपयोग में लाई गईं हैं कि बच्चों को तो छोड़िए हमारी उम्र के लोगों का सिर भी चकरघिन्नी होने लगता है। एक दिन पड़ोसी का पोता कहीं से “नौ दिन चले अढ़ाई कोस” मुहावरा सुनकर आ गया और अढ़ाई तथा कोस का मतलब जानने हमारे गले पड़ गया। अढ़ाई का मतलब तो जैसे-तैसे उसे दो दशमलव पाँच कहकर समझा दिया पर कोस के मामले में हम भी गच्चा खा गए। ढाई मील का एक कोस होता है ये तो कभी पढ़ा था पर एक कोस में कितने किलोमीटर होंगे यह केलकुलेट करने में ही दस मिनट निकल गए। पड़ोसी का पोता खिल्लीमय हँसी उड़ाता हुआ फुर्र हो गया। 

उस दिन मैं ऐसे मुहावरे प्रयोग न करने की सलाह देने त्रिवेदी जी के घर गया तो देखा मेरे वही पड़ोसी अपने पोते के साथ वहाँ जमे हुए हैं। पोता त्रिवेदी जी से कौड़ियों का अर्थ बताने की ज़िद कर रहा था। पता लगा कुछ देर पहले ही उन्होंने पड़ोसी से कहा था, “हरीराम अपना खेत कौड़ियों के मोल बेच रहा है आप ख़रीद लो उसे।” फिर क्या था पोते को नया शब्द मिल गया त्रिवेदी जी की बौद्धिकता को धता बताने के लिए। मुझे भी मौक़ा हाथ लग गया। त्रिवेदी जी को सम्बोधित करते हुए कहा, “बच्चे की बात का जवाब तो दीजिए, क्या टके सा मुँह लेकर चुपचाप बैठे हैं।” इतना सुनना था कि त्रिवेदी जी मुझे घूरते हुए चबूतरे से उठकर घर के अंदर चले गए और बहुत देर तक बाहर नहीं निकले। हारकर हम ही बिना उत्तर पाए लौट आए। 

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