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आख़िरी पत्र

घर की डोर बेल बजी! अब इस समय कौन आ गया? भुनभुनाते हुए आराधना दरवाज़े की तरफ़ बढ़ी। दरवाज़ा खोकर देखा तो डाकिया था अरे! डाकिया! 

“मेम साहब आपका पत्र।”

पत्र! अचंभित हो गयी आराधना। डाकिये से पत्र लेकर कमरे में आ गयी। इस टेक्नालॉजी में भी कोई पत्र भेजता है क्या? चलो लगता है कोई इस प्रथा को अभी भी जीवंत रखना चाहता है। धीरे से लिफ़ाफ़े को एक तरफ़ से फाड़ा तो फटते ही उसके अंदर से एक सूखा हुआ गुलाब नीचे गिर गया। गुलाब? पूरा पत्र खोला तो वह तीन पेज का था। बहुत ही सुन्दर लिखावट। मोतियों जैसे अक्षर मन को मोह ले। न चाहते हुए भी आराधना ने पत्र पढ़ना शुरू किया।

 

प्रिय अनु, 

मुझे पूर्ण विश्वास है तुम आनन्दमय जीवन व्यतीत कर रही होगी। मैं तुमको अनु कहकर संबोधित भी कर सकता हूँ कि नहीं इसका उत्तर मेरे पास नहीं है। शायद ये कहने का अधिकार मैंने खो दिया है। अब तो तुम मुझे भूल भी गयी होगी मुझे ये भी नहीं पता कि तुम इस पत्र को पढ़ोगी भी की नहीं। 

क्योंकि मेरे द्वारा किये गये कृत्य से तुम्हारा ग़ुस्सा होना जायज़ भी है। लेकिन क्या करूँ अनु? नियति के आगे किसी का बस नहीं चलता। 

तुम्हें याद है अनु, जब तुम कॉलेज में पहली बार आयी थी। अनुपम सौंदर्य की धनी लड़की थी। तुम्हें पहली बार देखते ही सम्मोहित सा हो गया था। शायद तुम्हें न याद हो जब छात्र परिचय सम्मेलन में मैंने एक कविता सुनाई थी। तुमने बहुत तारीफ़ की थी। मुझे लगा तुम मुझसे प्रभावित हो। उसी दिन से मेरे हृदय में तुम्हारी मोहब्बत के बीज स्फुटित हो गए थे। मुझे मालूम है अब इन बातों का कोई मतलब नहीं और मैं तुम्हारी माफ़ी के क़ाबिल भी नहीं हूँ। 

मेरा यूँँ अचानक तुम्हें छोड़कर बहुत दूर चले आना, तुम्हें मेरे प्रति क्रोध की अग्नि में ज़रूर जला रहा होगा। क्योंकि तुम सब कुछ छोड़कर मेरे साथ आना चाहती थी। हमारे प्रेम में स्वार्थ की कोई जगह नहीं थी। माँ गंगा की तरह पवित्र था तुम्हारा प्रेम बिल्कुल निःछल। लेकिन क्या करूँ? मनुष्य परिस्थितियों का दास होता है। लास्ट सेमेस्टर था और मेरे पास फ़ीस के पैसे नहीं थे। मैंने बहुत सोचा कि तुमसे कहूँ पर मेरी हिम्मत ही नहीं हुई। 

कॉलेज में सभी लोग कहते थे कि पैसे के लिए मैंने तुम्हें प्रेमजाल में फँसाया है। अगर तुमसे फ़ीस के पैसे ले लेता तो लोगों का कहा सच हो जाता। ज़िन्दगी के ऐसे मोड़ पर खड़ा था जहाँ क्या करता कुछ समझ में नहीं आ रहा था। पिता जी से कुछ बता नहीं सकता क्योंकि उनके ऊपर वैसे भी बहुत क़र्ज़ था मेरी पढ़ाई को लेकर। कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था। डॉक्टर बनने का स्वप्न शायद अंधकार में विलीन होने को तैयार था। तपस्या व्यर्थ जाती दिख रही थी। 

फिर मैं चल दिया अंतहीन डगर पर। मैंने, सोचा यहाँ से चले जाना ही उचित है, देखता हूँ भाग्य कहाँ ले जाता है? तुमको छोड़कर चले जाने का साहस ये हृदय कर नहीं पा रहा था। 

लेकिन फिर सोचा कि परिस्थितियाँ ठीक होगी तो फिर तुमसे बात कर के माफ़ी माँग लूँगा। तुमसे बताता तो तुम आने न देती। 

सामान बाँधकर प्लैटफ़ॉर्म पहुँच कर ट्रेन के बारे में पता किया तो दो घण्टे लेट थी। मन व्याकुल था। तुम्हारे साथ व्यतीत पल मन व हृदय को व्यथित कर रहे थे। आँखों के समक्ष अँधेरा छा रहा था। तभी अचानक एक झटका सा लगा एक अत्यंत ख़ूबसूरत लड़की जैसे संगमरमर से तराशी मूरत हो जिसको देखते ही मेरे शरीर में तैंतीस हज़ार की विद्युत तरंगें एक साथ प्रवाहित होने लगीं। साँसें रुकने सी लगीं। सब कुछ शून्य सा हो गया। उसके बाद मुझे कुछ नहीं याद। जब आँखें खुलीं तो ख़ुद को उसी लड़की के घर पर पाया। 

आश्चर्यचकित हो गया। उसे देखे बिना चैन ही नहीं आ रहा था। 

उसकी सुंदरता के आगे तुम्हारा प्रेम बौना नज़र आ रहा था तो क्या तुमसे मेरा प्रेम सिर्फ़ एक आकर्षण था। इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। मेरे सोचने की शक्ति प्रायः समाप्त हो चुकी थी। उसकी मधुर आवाज़ जैसे किसी नव ब्याहता के पैरों की पायल की रुनझुन के सिवाय कानों को कुछ भी सुन नहीं रहा था। 
तुम्हारे विषय मेंं सोचता तो उसके चेहरे की अलौकिक चमक तुम्हारे चेहरे को फीका कर देती। वो जब पास आती तो जीवन मरण के सारे प्रश्न स्वतः ही समाप्त हो जाते। रोम-रोम पुलकित हो जाता। उससे दूर होने की चेष्टा तो बहुत करता लेकिन उसके बन्धनों से ख़ुद को आज़ाद नहीं कर पाता। 

अनु—इसे तुम मेरी कायरता समझो या कुछ और, मैंने तुम्हारे बारे में उससे बात भी की तो जानती हो उसने हँसकर क्या कहा, कि ’मैं सब कुछ जानती हूँ’। मैं निरुत्तर हो गया। 

उससे मेरी समीपता दिनप्रति दिन प्रगाढ़ होती जा रही है। 

मेरी सोचने व समझने की सम्पूर्ण शक्ति क्षीण हो चुकी है। लेकिन पता नहीं क्यों तुमसे अंतिम बार मिलने की इच्छा प्रबल हो रही है। अनु, समय से बड़ा निर्णायक इस दुनिया मेंं कोई नहीं है। मैं चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहा हूँ। इस बात का अंदाज़ा शायद इसे हो गया है कि मैं तुम्हारी यादों से विरक्त नहीं हो पा रहा हूँ। इसीलिए मुझे शीघ्र ही अपना बनाने के लिए विवाह बंधन में बाँधने की इच्छा जताई है। कहते हैं चाँद को सिर्फ़ दूर से निहारा जा सकता है उसे अपने आँगन में नहीं उतारा जा सकता। लेकिन चाँद ख़ुद मेरे आँगन में उतरने जा रहा है। शायद तुम्हें ईर्ष्या भी हो रही हो लेकिन मेरी महबूबा चाँद जैसी ही है। तुम्हारा सौंदर्य उसके आगे कुछ भी नहीं। तुमसे मिलने की इच्छा पर उसने मना कर दिया। बहुत अनुनय-विनय करने पर एक आख़िरी पत्र लिखने की अनुमति दी है। मैं तुम्हें पत्र लिख रहा हूँ और वह मन्द-मन्द मुस्कुरा रही है और मुझे इशारा कर रही है कि पत्र लिखना बन्द करो और सदा के लिए मेरे हो जाओ। शायद अब मैं तुमसे कभी न मिल पाऊँ। जब तक तुम्हें पत्र मिलेगा मैं हमेशा के लिए किसी और का हो जाऊँगा। तुम्हारे द्वारा दिया गया गुलाब तुम्हें वापस कर रहा हूँ। 

मेरी अनु हमारी विवशता को समझते हुए मुझे माफ़ कर देना और ख़ुश रहना। 

 अश्रुपूर्ण नेत्रों से 
 तुम्हारा अविनाश

 

पत्र पढ़ने के बाद अनु की आँखों से आँसू अपने आप ही गिरने लगे। अविनाश के प्रति उसके मन में नफ़रत के भाव जाग्रत होने लगे। लेकिन तभी लिफ़ाफ़े के अंदर एक और मुड़ा हुआ काग़ज़ था। अनु ने उसे बाहर निकाला उसमें भी एक लेटर था लेकिन लिखावट बदली थी। 
कौतूहलवश अनु उसे भी पढ़ने लगी . . . 

 

आराधना जी, 

आप शायद अविनाश को अब भूल भी चुकी हो। 

मैंने अविनाश द्वारा आपको लिखा पत्र पढ़ा जबकि अविनाश ने सौगन्ध दी थी कि पढ़ना मत। आपका नाम आराधना है ये मुझे अविनाश ने ही बताया था। पता नहीं आप मेरे प्रति क्या धारणा बनाओ? लेकिन एक सच आपको बताना ज़रूरी समझती हूँ। 

मैं सिटी हॉस्पिटल मुम्बई की न्यूरो विभाग की अध्यक्ष स्वाति शर्मा हूँ। अविनाश दो साल पहले मेरे विभाग में भर्ती हुआ था। भर्ती होते ही सबसे पहले उसने हमसे यही पूछा था, कि ’दीदी मैं कब ठीक हो जाऊँगा?” 

उसका हँसमुख चेहरा, उसकी मासूम सी बातें सभी को अपनी ओर खींच लेती थीं। सभी जाँचों के उपरांत पता चला कि उसके बचने के चांसेज सिर्फ़ पाँच प्रतिशत ही हैं। रिपोर्ट देखने के बाद उसे बताने की हिम्मत नहीं हो रही थी। लेकिन हम लोगों का पेशा ही ऐसा है कि बताना ही पड़ता है। जैसे ही उसके पास पहुँची वह चहकते हुए बोला दीदी बताओ न मैं कब अपनी अनु से मिल पाऊँगा? उसका दीदी कहने का अंदाज़ ही ऐसा था कि मैं अपने आँसू रोक नहीं सकी बस इतना ही बोल पाई कि तुम बहुत जल्द ही ठीक हो जाओगे। न्यूरो विभाग के सभी सीनियर्स से डिस्कस करने के बाद ये पता चला कि यदि हम लोग ऑपरेशन करते हैं तो इसका बचना बहुत मुश्किल है। दवाइयों द्वारा कुछ दिनों तक बचाया जा सकता है। जब ये बात उससे बताने पहुँची तो वह उदास बैठा था। मैंने सोचा की किसी ने बता दिया है क्या? 

“अविनाश तुम बिल्कुल ठीक हो जाओगे।” 

“दीदी काहे झूठ दिलासा दे रही हो।” 

“अरे नहीं बिल्कुल सच कह रही हूँ,” ये कहते हुए मेरी आत्मा मुझे धिक्कार रही थी। लेकिन उससे एक ऐसा रिश्ता बन गया बन गया था कि सच बता नहीं सकती थी। उसके पास बैठो तो सिर्फ़ तुम्हारी बातें ही करता था। शाम को थोड़ी देर के लिए उसके पास ज़रूर बैठती थी। बहुत अच्छी-अच्छी कविताएँ सुनाता, सभी को हँसाता बड़ा मज़ा आता लगता ही नहीं था कि वह थोड़े दिनों का मेहमान है। रेलवे स्टेशन पर भी उसे अटैक ही पड़ा था। 

एक दिन उसे उसी तरह का अटैक पड़ा उसका मासूम चेहरा विकृत सा हो गया। मुझसे देखा न गया। आईसीयू में एडमिट कर दिया, जबकि जानती थी कि इससे कुछ होगा नहीं। किसी तरह दो साल निकल गए पता ही नहीं चला। 

एक दिन ऐसा हुआ कि हम लोगों की सारी कोशिश व्यर्थ हो गयी। अटैक इतना तगड़ा था कि अब उसका बचना नामुमकिन था। उसकी आँखों से गिरते आँसू मेरे हृदय को बेधने लगे। दो घण्टे की कड़ी मशक़्क़त के बाद उसे होश आया। जाँच करने पर पता चला सिर्फ़ कुछ ही घण्टे हैं उसके पास। तुमसे बात करने की बहुत कोशिश की लेकिन नम्बर ही नहीं मिला। तब तुम्हारे हसबैंड के पते पर अविनाश ने ख़ुद ही पत्र लिखने का निर्णय लिया। वो तुमसे इतना प्यार करता था कि तुम्हें सच नहीं बता सकता था। वह कहता था—मेरी अनु को सच मत बताना नहीं वह जी नहीं पाएगी। अविनाश को हम लोग बचा नहीं पाए। 

तुम्हारे द्वारा दिये कुछ गिफ़्ट और एक डायरी मेरे पास है तुम्हें ज़रूरत हो तो ले लेना आकर। लेकिन उसे ग़लत मत समझना। 

स्वाति शर्मा
न्यूरो विभाग अध्यक्ष
सिटी हॉस्पिटल मुम्बई

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