फ़ैसला
कथा साहित्य | कहानी प्रवीन वर्मा 'राजन'1 Mar 2022 (अंक: 200, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
खड़खड़े पर बैठते ही शीघ्र गाँव पहुँचने की लालसा हृदय को आंदोलित कर रही थी। दस साल बाद गाँव वापसी हो रही थी, पुरानी स्मृतियाँ तरोताज़ा हो गईं। मन उन्मुक्त मेघों सा उमड़ रहा था। गाँव काफ़ी बदल चुका था, नहीं बदला था तो सिर्फ़ मेरा अतीत। यादों में खोए-खोए कब गाँव आ गया पता ही नहीं चला। माँ-बाबू जी से मिला सभी की आँखें नम हो गईं। सारे कार्यों से निवृत्त होकर अपने पुराने मित्रों से मिलने भागा चला गया। छोटी बहन बुलाती ही रह गई, “माँ-देखो न भैया यूँ ही चले गए।”
भागा-भागा पुराने आम के बाग़ वाले झुरमुट में पहुँचा। सभी मित्र वहीं थे। गले मिलकर आँसू नहीं रोक पाया। वही श्यामू, मोहन, रमेश सब वैसे के वैसे।
श्यामू बोला, “प्रतीक, तुम कितना बदल गए हो।”
मैंने बस सर हिला दिया।
“सब कुछ छोड़ो बताओ राधा कैसी है?” मैंने पूछा
“हाँ! तुम तो चले गए थे,” मोहन बोला, “अधूरा प्रेम छोड़कर क्या करती बेचारी? सौतेली माँ थी, बापू की चलती नहीं थी, ब्याह दिया एक नशेड़ी के साथ। बेमन होकर चली गयी थी उसके साथ। आख़िरी भँवर तक तुम्हारी राह तकती रही बेचारी!
“वहाँ जाकर उसे पता चला कि उसके पति की एक और बीवी है। राधा को काटो तो ख़ून नहीं। एक दिन नशेड़ी डूब कर मर गया। ससुराल वालों ने ज़मीन के लालच में घर से निकाल दिया, चली आयी रोती। बापू वैसे भी मर गया था। सौतेली माँ ने रहने नहीं दिया, अलग झोपड़ी डालकर रहने लगी।”
मेरा हृदय ग्लानि से भर गया। शायद मैं अपराधी था। मैं सहन नहीं कर सका और दौड़कर उसके घर के सामने खड़ा हो गया, भाव शून्य चेतना विलुप्त, मन कुंठा से भरा हुआ जैसे मेरा अन्तर्मन मुझे झकझोर रहा था। शायद, उसकी इस हालत का मैं ही ज़िम्मेदार था। एक साथ पले-बढ़े, खेले-कूदे कब प्यार हो गया पता ही नहीं चला। एक साथ जीने-मरने की क़समें खाईं थीं। जाति हम दोनों के मध्य दीवार बनकर खड़ी हो गयी।
“कैसी हो राधा?”
इन शब्दों को सुनकर जीवंत सा हो उठा उसका चेहरा, जैसे मुरझाए फूलों को प्रातःकाल ओस की बूँदें जीवंत कर देती हैं। नयन झर-झर कर बह उठे।
बेमन हँसकर बोली, “ठीक हूँ प्रतीक बाबू?”
हमेशा चमकता चेहरा, अल्हड़ हँसी ठिठोली करती लड़की, भाव शून्य सी निस्तेज खड़ी थी।
मैं बिल्कुल शून्य . . . कहने को शब्द नहीं जैसे समय ठहर गया हो।
उसके गले लग गया जैसे हम कभी अलग ही न हुए हों। वह बोली, “मैं सिर्फ़ तुम्हारे लिए ज़िन्दा थी मुझे यक़ीन था तुम आओगे।”
“मेरे साथ चलोगी?”
इतना सुनते ही पुरानी चमक पुनः आ गयी और उसी समय किया एक कठोर फ़ैसला . . .
सब कुछ व्यवस्थित करके घर आ गया।
रात के घने अंधकार में चुपके से सबको एक बार देखा, फिर किवाड़ खोलकर कभी न लौटकर आने के लिए घर से निकल गया। दोस्त इंतज़ार कर रहे थे, राधा वहीं थी, मुझे स्टेशन तक ले गए। पहली ट्रेन सुबह तीन बजे की थी सभी दोस्तों से गले मिलकर आभार व्यक्त किया और फिर ट्रेन में बैठकर निकल लिया अंतहीन यात्रा पर।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कहानी
गीत-नवगीत
कविता-मुक्तक
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं