अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

बाबूलोक की अन्तर्कथाएँ

‘तलाश’

बिटिया की शादी के बाद साहब और साहब का सरकारी क़ाफ़िला पूरे लाव-लश्कर और आन बान शान के साथ सूबे की राजधानी से देश की राजधानी की ओर कूच कर चुका था। 

बताते चलें, साहब जी पूरी तरह से सरकारी हैं। चौबीसों घंटे सरकार की सेवा में तत्पर रहते हैं . . . इसीलिए सरकारी सामान का साधिकार खुल कर प्रयोग करने में उन्हें कोई उज़्र भी नहीं होता। अब साहब सरकारी हैं तो लाज़िमी है कि शादी बियाह के इंतज़ामात भी सरकारी ही होंगे . . . उनकी समझ से बिटिया सरकार पोषित ही तो हुई। 

दरअसल, यह बड़े से भी बड़े साहब की बिटिया की शादी थी, इसीलिए सारा महकमा ही बिटिया की शादी में लगा था . . . शानदार व्यवस्था में सब कुछ सुव्यवस्थित, यहाँ तक कि काम-काज का बँटवारा भी . . . एक बाबूजी ने तो अपने आत्मविश्वास और योग्यता के चलते बाक़ायदा एक ऑफ़िस ऑर्डर ही छाप डाला कि किस अधिकारी को किस काम की ज़िम्मेदारी दी जाती है ताकि कोई भी बीच विवाह में कंफ्यूजियाये नहीं, पर बीच में न जाने कहाँ से मीडिया का कोई खोजी पत्रकार सूँघते-सूँघते बाबूजी के अद्वितीय ऑफ़िस ऑर्डर को पा गया। वो तो अच्छा हुआ साहब के खोजी दस्ते को भी समय से ख़बर लग गयी . . . नहीं तो . . .? साहब टीवी पर बिज़ी हो जाते, और क्या? अंदरूनी ख़बर है कि साहब ने उस खोजी पत्रकार के मालिक को ही तलब कर लिया था तब जाके मामला ठंडाया, नहीं तो बिटिया के विवाह में विघ्न आ ही गया था। मीडिया वाले साहब और उनके खोजी पत्रकार भैया भी विवाह में शाही पनीर का स्वाद लेते दिखाई पड़े तो लगा कि विघ्नहर्ता की पूरी कृपादृष्टि साहब पर पड़ चुकी है। 

 सेवा में ‘सेवा’ का विशेष महत्त्व होता है। बिटिया के शुभ विवाह के शुभ अवसर पर ‘विशेष सेवा‘ को समर्पित सभी लोग पूरी निष्ठा से, यथा भक्ति-यथा शक्ति डुबकी लगाना चाह रहे थे . . . मानो यह कुम्भ का अंतिम पर्व रहा हो और स्वामिभक्ति के पुण्य को बटोरने का एक आख़िरी मौक़ा भी। महीना भी फरवरी का . . . तो मार्च के बाद की सालाना प्रगति के आख्यान में इस पुण्य कर्म का लेखा-जोखा भी शामिल हो जायेगा . . . बाक़ी जून-जुलाई में तबादले के मौसम में तो पूरा प्रतिफल मिल ही जाना था . . . बस सब इसी आस विश्वास के साथ इस भक्ति में पूरी शक्ति से लग गये थे। कुल मिलाकर यह समय ग्रह-गोचर की दशाओं के लिहाज़ से सभी के लिए अनुकूल जान पड़ रहा था। सो . . . ड्यूटी लगा-लगा कर साहब के दरबार में मत्था टेकने की सभी की मनोकामना बलवती हो रही थी, कोई भी इस मौक़े को गँवाना नहीं चाहता था। 

छोटे साहब ने अपने सर, जिस पर बाल तो कुछ ही बचे थे, कंघी फिराते हुए . . . साथ में खखारते हुए अपनी आवाज़ में गाम्भीर्य पैदा करने की नाकाम कोशिश की . . . फिर सिद्धांत बघारते हुए घोषणा भी की कि वह तो व्यक्तिगत छुट्टी लेकर ही जायेंगे . . . साहब से उनके ‘व्यक्तिगत’ सम्बन्ध जो ठहरे . . . इसीलिए थोड़ा पहले चले जायेंगे . . . ताकि बड़े साहब की व्यवस्थाओं में अपने अतुलनीय योगदान को देने में चूक न जाएँ। छोटे साहब अपनी इस व्यक्तिगत यात्रा में सरकारी गाड़ी ज़रूर साथ लेते गये क्योंकि इस पुण्य कार्य में बेजान वस्तुओं का योगदान सजीव लोगों से कुछ कम नहीं होता। 

बहरहाल, विवाह सकुशल सम्पन्न हुआ। अब इस ‘सेवा दल’ की अपने बड़े साहब की अगुवाई में वापसी होनी थी। 

दरअसल विवाह में साहब के ओहदे और सेवा के बचे हुए सालों के गणित के चलते निर्जीव वस्तुएँ उपहार रूप में अनुमान से भी ज़्यादा आ गयीं थीं, इसे साहब ने अपनी क़ाबिलियत और ख्याति के प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में विनीत भाव से स्वीकार किया। दूरदर्शी मैमसाब ने उपहार के एक बड़े हिस्से को रोक लिया ताकि इसे साल भर के आयोजनों में बीच-बीच में बिटिया की ससुराल में भेजा जा सके। इन सब व्यवस्थाओं में सभी सरकारी विश्वास पात्र सेवक अपने अपने वाहनों के साथ पहले से ही अपनी विश्वसनीयता साबित करने को सावधान की मुद्रा में मौजूद थे। कुल मिलाकर इस अमले की पाँच छह गाड़ियाँ और बचे लोग सरकारी दबदबे के सौजन्य से वातानुकूलित बस से आगे बढ़े। 

मैमसाब, बिटिया और घर के सबसे छोटे सदस्य के रूप में सुंदर सा एक ‘पिल्ला’ . . . यही तीनों ग़ैर सरकारी या अर्ध सरकारी कहे जा सकते थे, बाक़ी सब तो सरकारी या सरकार के सौजन्य से ही था। अब ये ‘पिल्ला’ साहब के परिवार के सदस्य जैसा ही है तो इसे ‘पिल्ला’ कहने के बजाय पूरे सम्मान के साथ ‘श्वानराज’ कहना ज़्यादा सही होगा। 

‘श्वान राज’ सभी की आँखों के तारे थे, सफ़ेद, छोटे, झबरीले . . . लेकिन साहब की छोटी बिटिया के तो विशेष दुलारे . . . बिटिया उन्हें दिन रात चिपकाए बैठी रहतीं, पर इस बार मामला रात की यात्रा का था तो फ़ैसला हुआ कि श्वान राज अतिविश्वस्त कर्मचारियों के साथ आज ए सी बस से सफ़र करेंगे। 

 “साहब चिंता न करें अपने बच्चे से ज़्यादा देख रेख के साथ श्वान राज भैया को पहुँचा देंगे।” 

आश्वासन के बाद धीर गम्भीर साहब ने मुस्कुराते हुए अपनी सहमति भी दे दी . . . 

इस प्रकार ख़ुश-ख़ुश ये क़ाफ़िला अपने गंतव्य की ओर बढ़ चला। 

रास्ते में एक प्रमुख ऐतिहासिक नगरी के आसपास गाड़ी कुछ देर को रुकी तो स्टाफ़ भी शंका समाधान के लिए नीचे उतरा . . . श्वान राज भी दुबके-दुबके थक चुके थे तो उन्हें भी ससम्मान गाड़ी से नीचे उतारा गया, वो तो वैसे भी खुले आसमान तले शंका समाधान के आदी थे . . . अब इस शंका समाधान की बेख़याली में श्वान राज अँगड़ाई लेते हुए कुछ आगे बढ़ गये और . . . नन्हे से श्वानराज रात के अँधेरे में अपने लोगों से ही बिछड़ गये . . . 

इस ख़बर से स्वामिभक्त समुदाय में शोक और चिंता की लहर छा गयी . . . ऐसा लगा सारे पुण्य कर्मों में राहु-केतु की कुदृष्टि पड़ चुकी है . . .। गाड़ी चलने को तैयार और श्वान राज का कुछ अता-पता ही नहीं, ऐसे में तय हुआ कि एक स्टाफ़ यहीं उतर कर श्वान भैया को तलाशेगा, उन्हें लेकर आयेगा, बाक़ी लोग सामान सहित आगे चले जायें। 

अब कोई भी वहाँ उतरने का इच्छुक तो था नहीं . . . एक-दूसरे पर ठेला-ठेली होने लगी। इस तू तू-मैं मैं के बाद एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी गोपी को सबने बलि का बकरा बना लिया . . . तय हुआ ‘समझदार गोपी’ यहाँ रुक कर श्वान राज को तलाश करेगा। आज से पहले किसी को गोपी इतना समझदार नहीं लगा था। 

गोपी अपने आपको बहुत प्रताड़ित और ठगा हुआ महसूस कर रहा था, पर मरता क्या न करता, सो श्वान राज को तलाशने में जुट गया। बस अँधेरी रात में उसे छोड़़ कर जा चुकी थी। 

“इस ससुरे को भी क्या सूझी, कहाँ भाग गया . . . ये अमीरों के भी चोंचले हैं . . . दिमाग़ का दही बना दिया, अब कहाँ ढूँढ़े?” एक घंटे से गोपी अँधेरी रात में बड़बडाते हुए भटकता रहा पर श्वान राज भी पता नहीं किधर नाइट वाॅक करते निकल चुके थे . . .

 “क्या पता श्वान राज का कोई अपना हो इस शहर में?” गोपी सोच रहा था . . . 

“पता नहीं, साला ये कुत्तों में भी पूर्व जन्म जैसा तो कुछ नहीं होता . . .? या . . . इस शहर में कहीं अपने पूर्व जन्म की किसी मुमताज़ को तो ढूँढ़ने में नहीं लग गया, कुतुआ? आख़िर साला कहाँ भाग गया . . .?” एक छोटे से पिल्ले नें जिसकी ख़ूबसूरती के कल साहब के सामने हर कोई क़सीदे काढ़ रहा था, आज गोपी को गली के कुत्ते से भी बदतर हालत में लाकर खड़ा कर दिया था। 

गोपी के घर में पत्नी थी, एक छोटा बेटा और उससे भी छोटी तीन साल की बिटिया, जो उसकी राह देख रहे होंगे और वह क्या कर रहा है? . . . साहब के पिल्ले को ढूँढ़ रहा है। माथा पकड़े गोपी अब बुरी तरह ऊब चुका था, थक कर किनारे पड़ी ख़ाली बेंच पर “भाड़ में जाए . . . जो होगा, कल देखा जायेगा“ सोचते सोचते देह सीधी करने लेटा और झपक गया। 

श्वान राज को नहीं मिलना था सो वो उस दिन तो नहीं मिले, थक माँद कर गोपी भी शाम की बस से लुटा-पिटा सा वापस आ गया। रास्ते भर गोपी खिन्न बना रहा, उसे डर था कि अब न जाने किस पर गाज गिरेगी? महीना के ख़र्च में कटौती करके तो उपहार का कन्ट्रीब्यूशन दिया था . . . ये बाबू लोग तो इधर उधर से पूर्ति कर लेंगे . . . वो तो चपरासी आदमी, उसे कौन पूछता है . . . इक्का दुक्का कोई छोटे साहब से मिलाने के एवज़ में सौ-दो-सौ भले बख़्शीश स्वरूप पकड़ा जाये . . . घर में पत्नी को पहले ही नाराज़ छोड़ कर आया था . . . उसने तो समझाया भी कि बड़े लोगन की घंटी सुनके हम बड़े लोग थोड़े ही हो जायेंगे . . . पर उसे ही अच्छी बात देर में समझ आती है . . . पत्नी की तो मुश्किल से ही। वह खीझ रहा था . . . पाँच सितारा होटल देखने का शौक़ जो चर्राया था . . . इससे तो बढ़िया पत्नी को एक साड़ी ही दिला देता, कितने साल हो गये वह पत्नी को कुछ नहीं दिला पाया था . . . देख कर कितना ख़ुश हो जाती, एक दुइ महीना भी बिना खिट-पिट के शान्ति से गुज़र जाता। 

आँख मूँदे गोपी को पत्नी के निस्तेज चेहरे की छवि रह रह कर याद आ रही थी . . .। वह अपराधी सा महसूस करने लगा . . . मानों हर फ़साद की जड़ वही हो। 

गोपी देर रात घर पहुँचा, लुटी-पिटी सी हालत देख पत्नी ने कुछ नहीं कहा . . . गोपी, उसके कठोर दृष्टिपात से ही समझ चुका था कि मामला मुल्तवी हुआ है, अभी आर–पार की लड़ाई बाक़ी है . . . उसने चैन की साँस ली, चलो बग़ैर इसकी फटकार सुने आज की रात तो कटी। 

अब साहब को, क्या मुँह दिखायें? और . . . सवाल ये भी था कि कौन मुँह दिखाये? . . . और कौन सा मुँह दिखाये? पर बताना भी तो ज़रूरी था कि श्वान राज को तलाशने में अथक प्रयास किये गये पर अभी तक तो नाकामयाब ही रहे। सबकी निगाह छोटे साहब पर ही लगी थी, वह सीनियर भी थे और बताये थे कि ‘व्यक्तिगत’ सम्बन्ध भी हैं। 

उधर साहब की बिटिया ने अलग ही क़िस्म का बवाल मचा रखा था, अन्न जल छोड़़ कर . . . केवल पिज़्ज़ा और कोक पर ही बेचारी चल रहीं थीं, रो रो कर बेहाल अलग से। ख़ैर . . . छोटे साहब किसी तरह डरते-डरते बड़े साहब को ख़बर तो कर दिये . . . साथ ही बड़ी सलाहियत और सलीक़े से भरोसा भी दे आये कि ‘साहब अभी भी हम लोग कोशिश कर रहे हैं, ढूँढ़ने में कोई कसर नहीं रखेगे, ज़मीन आसमान एक कर देंगे’। 

बड़े साहब ने अप्रत्याशित ढंग से स्थिति को समझदारी से समझा और बिल्कुल भी नाराज़ न हुए। बस धीरे से, एक कोने में ले जाकर बहुत ही अपनेपन के साथ छोटे साहब को मीडिया से बचे रहने की सलाह ज़रूर दी . . . उन्हें डर था कहीं ये ख़बर भी मीडिया में न चली जाए, बेकार नमक मिर्च लगा कर तिल का ताड़ बनते देर न लगेगी।

छोटे साहब अभिभूत हो गये, साहब भी उनको अपना मानते हैं, तभी न इतने प्यार से समझा रहे थे। सो ऊर्जा से लबरेज़ छोटे साहब एक भी दिन शांत नहीं बैठे, जहाँ से श्वान राज बिछड़े थे वहाँ के डिप्टी कलक्टर साहब को भी फ़ोन घुमा दिये . . . अब गोपनीय तरीक़े से वहाँ का ज़िला कार्यालय भी श्वान राज की खोज में लग गया था। 

छोटे साहब ने अख़बार में इश्तिहार भी निकलवा दिया, श्वान राज की ताज़ातरीन तस्वीर और इनाम की घोषणा के साथ। अब श्वान राज तो अख़बार में अपनी तस्वीर देखकर लौटने वाले थे नहीं, बस एक उम्मीद थी कि किसी भले मानुष को वह दिखाई पड़ जायें और वह उनकी ख़बर दे दे। 

दो हफ़्ते तक एक गाड़ी और ड्राइवर को ख़ास इसी कार्य में लगा दिया गया। ड्राइवर भी रोज़ डीज़ल का कूपन लेता और पूरे जोश-ओ-ख़रोश के साथ खोज में निकल पड़ता और शाम उतने ही उत्साह से बैरंग लौट आता। 
 
इधर बिटिया तो श्वान भैया के विछोह से अवसाद में ही आ गयीं . . . और दफ़्तर ‘एकदम सकते’ में, किसी को समझ नहीं आ रहा था कि कहाँ से इस समस्या का हल निकाला जाये . . . श्वान राज का कोई जुड़वाँ भाई ही होता तो पकड़ लाते। 

बिटिया को मनोचिकित्सक को दिखाने की नौबत आ गयी . . . मनोचिकित्सक ने कई सेशन समस्या की जड़ तक पहुँचने में लगा दिये तब जाकर इस नतीजे पर पहुँचे कि कोई दूसरा, ज़्यादा ख़ूबसूरत नस्ल वाला . . . बिटिया को दिलाया जाये ताकि बिटिया श्वान राज के दुख से बाहर आ सकें। 

यह पता चलते ही छोटे साहब ने ग़ज़ब की तत्परता दिखाई सो बिना देरी किए मोबाइल कम्पनी के विज्ञापन में रोज़ टीवी पर आने वाले पपी जैसे को ले आये . . . अब कौन उनको पैसा अपनी जेब से देना था। बड़ी सूझ-बूझ के साथ ‘पपी भैया जी‘ को मख़मली गद्दी से सजी एक टोकरी में आदर से बिठा कर छोटे साहब मुस्कुराते हुए बड़े साहब के घर पहुँचे। 

नये जीते-जागते और पहले से भी ज़्यादा ख़ूबसूरत खिलौने को देखकर बिटिया का दुख जाता रहा साथ ही श्वान राज के साथ उनका मोह भी एकदम ही उड़न छू हो गया . . . वह तो बहुत ही ज़्यादा ख़ुश हो गयीं . . . उनके ख़ुश होने से मैमसाब ख़ुश हो गयीं . . .। और मैम साब की ख़ुशी से लाज़िमी है कि साहब भी बहुत ही ख़ुश हो गये . . . सेवा में जल के माफिक सुख–दुख का प्रवाह भी अधोगामी हो कर प्रवाहित होता है . . . सो साहब की ख़ुशी से पूरा महकमा ख़ुशी में डूबने-उतराने लग गया, चारों तरफ़ ख़ुशहाली ही ख़ुशहाली छा गयी, फागुन में बासन्ती वयार बहने लगी . . . 

छोटे साहब की ‘उत्कृष्ट सेवाओं’ और ‘अतुलनीय योगदान’ को देखते हुए उनका मनमाफिक जगह पर तबादला हो गया। 

गोपी भी आज पत्नी और बच्चों के लिए घर जलेबी ले के जा रहा था, पत्नी ने भी शर्माते हुए हमेशा की तरह उसे आज क्षमादान दे ही दिया। 

कथा का सुखान्त हुआ। 

अंत में . . . जैसन उनके दिन बहुरे सबके बहुरें।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'हैप्पी बर्थ डे'
|

"बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का …

60 साल का नौजवान
|

रामावतर और मैं लगभग एक ही उम्र के थे। मैंने…

 (ब)जट : यमला पगला दीवाना
|

प्रतिवर्ष संसद में आम बजट पेश किया जाता…

 एनजीओ का शौक़
|

इस समय दीन-दुनिया में एक शौक़ चल रहा है,…

टिप्पणियाँ

Dr U K Dwivedi 2022/02/13 08:09 PM

एक स्वस्थ व्यंग रचना । शासन - प्रशासन में व्याप्त चाटुकारिता , लोलुपता और पद के दुरूपयोग पर मीठा प्रहार । बस ऐसे ही लेखन चलता रहे । स्वस्थ व्यंग लेखन समाज के लिए एक हीलर का काम करता है । बिना किसी को व्यक्तिगत पीड़ा पहुचाये सामाजिक विसंगतियों की पहचान करके उन्हें हास्य के माध्यम से दूर किया जा सकता है , इसीलिए स्वस्थ व्यंग साहित्य की एक महत्वपूर्ण विधा है । सुनीता जी ने इसका सुंदर निर्वाह किया है ।

Dr. Sarita Pandey 2022/02/13 11:42 AM

उत्कृष्ट व्यंग्य के माध्यम से कथाकार ने सटीक अभिव्यक्ति प्रस्तुत की है आगे भी ऐसी कहानियों की प्रतीक्षा रहेगी

विजय कुमार 2022/02/13 11:40 AM

भई वाह ,एक छुपा हुआ कलाकर बाहर तो आया । व्यंग रचना खूब घुमाते हुए रोचकता को बरकरार रखते हुए सुखांत रही । बस लिखती जाइये ।सूक्ष्म घटनाओं के वर्णन की बधाई और उनका संतुलन भी बना रहा ।

Sudhir Kumar Gangwar 2022/02/12 10:45 PM

अत्यंत यथार्थवादी समसामयिक व्यंग्य जो नेपथ्य में 'बाबुलोक' की चापलूसियो और सामाजिक विद्रूपताओं को उजागर करता है।

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

रेखाचित्र

कहानी

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं