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शब्दों के रेखा चित्र: कलावती

ज़िन्दगी में महत्त्वपूर्ण मुलाक़ातों की पूर्व पीठिका शायद पहले से निर्धारित व सुनियोजित होती है। मेरा मानना है कि ज़िन्दगी के ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर आगे बढ़ते हुए रोज़मर्रा की हमारी दिनचर्या को आसान बनाते, घर के काम-काज में हाथ बँटाते सहायक हों या घर-घर जाकर काम करती बाई, इनसे लगभग हर रोज़ हमारी गै़रज़रूरी-सी लगने वाली मुलाक़ातों की हमारी ज़िन्दगी में भूमिका, हमारी सफलता की सीढ़ियों को चढ़ने में, उपलब्धियों में उनका योगदान कुछ कम अहम् तो नहीं होता है। अक़्सर हम इन कर्मियों के प्रति उतने सहृदय नहीं रहते हैं, शायद उतना सम्मान देकर शुक्रगुज़ार भी नहीं होते जिसके वे वाक़ई हक़दार हैं। 

कलावती से मेरी मुलाक़ात कुछ महीनों पहले ही हुई थी। पैरों में बहुत दर्द रह रहा था और अपार्टमेंट में रीना भाभी ने सुझाव दिया कि दीदी आप कलावती को कुछ दिन बुला लीजिए। बताते चलें हमारे अपार्टमेंट में माहौल नितांत घरेलू है। हम कुछेक घरों का हाल तो कुछ ऐसा है कि कभी संगीत की महफ़िल, कभी भजन कीर्तन तो कभी चाय पकौड़े . . . चार दिन की मुख़्तसर सी ज़िन्दगी में कुछ पल एक साथ मिल बैठने का मौक़ा हम नहीं छोड़ते। शायद यही वजह है बच्चों के पास परदेस में बैठ कर भी मुझे वे सब और उनका स्नेह याद आता रहा और उसी शिद्दत से याद आती रही, हमारी कलावती। 

साधारण रूप रंग, अति साधारण सा रहन-सहन, एक बैग नुमा झोला लटकाए इस महिला की शख़्सियत कुछ असाधारण सा महसूस कराती हुई मेरे मन में महिला सशक्तिकरण की नुमाइंदगी करती है। 

मेरे लिए यह क़तई महत्त्वपूर्ण नहीं है कि कलावती अनपढ़ है और घरों में जा-जा कर बच्चों, महिलाओं की मालिश करने का काम करती है। सच यह है कि यही कार्य उसकी आजीविका है, उसकी गृहस्थी का सम्बल और यही उसकी सामाजिक सरोकार में भूमिका का साधन भी। 

बच्चों के साथ अमेरिका प्रवास के अनुभवों में वहाँ के परिवेश की सबसे ख़ास बात जो मुझे अच्छी लगती थी, वह थी कार्य का महत्त्व और सम्मान। वहाँ कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं है। इसीलिए बड़े-बड़े ओहदों पर बैठे लोग भी वहाँ किसी भी कार्य को करने में कोई शर्मिंदगी महसूस नहीं करते। 

‘कर्म ही पूजा है’ की उक्ति हमारी कलावती पर ख़ूब फबती है। उससे मिल कर मुझे अक़्सर महसूस हुआ कि वह जो भी करती है पूरे मन से, पूरे परिश्रम और पूरे समर्पण व सेवा भाव के साथ। उसके लिए हर काम, हर दायित्व अपने भोलेनाथ का आदेश होता है और हर काम को वह पूजा की तरह पूरी श्रद्धा से करने का सफल प्रयास करती भी है। 

कलावती से मेरी पहली मुलाक़ात थी . . . रीना भाभी ने उसे मेरे पास भेजा था। घंटी बजी, दरवाज़ा खुलने के साथ ही उसकी निर्मल सी हँसी सुनाई दी। हँसते हुए ही वह बोली, “मैम साब! हम कलावती . . . ऊपर वाली भाभी जी भेजी हैं . . . कि दीदी के दरद है।” हम कुछ कहते कि एक सवाल और कलावती की ओर से आ चुका था, “मैम साब आप रीना भाभी की दीदी हो?” 

“हाँ कलावती, हम रीना भाभी, अनामिका भाभी, विभा भाभी . . . सबकी दीदी हैं,” वह हँस पड़ी। 

“इत्ते लोगन की दीदी? दीदी, आपकों दीदी मैम साब कहेंयें हम तो . . .” 

“तुमाओ जो मन हो सो कहो,” हमने भी उसी की तरह जवाब दिया . . . 

“दीदी तुम तो हमाई लंगा की हो, बोली तें लग रओ हतो।” 

“हओ।” 

“कलावती दुआरें ठाड़े ठाडे़ बातें गुठलती रहियो के भीतर ऊ आइयो।” 

कलावती ज़ोर से हँस पड़ी, निर्मल उन्मुक्त हँसी . . . के साथ वह अंदर आ गई। 

कलावती ने आते ही मुझसे एक रिश्ता बना लिया . . . मुझे लगा यह बातूनी है पर कलावती तो बड़ी संजीदा निकली, मालिश करते वक़्त वह बात कम ही करती . . . अपने आप में मगन, भोले बाबा के ध्यान में बस बीच बीच में हँसती रहती और ओम नमः शिवाय का जप करती रहती . . . उसके साथ एक सकारात्मक ऊर्जा का अनवरत प्रवाह होता लगता . . . जो दर्द को सोखता जान पड़ता। 

कलावती जब-जब आती, उसके व्यक्तित्व के नये पहलू सामने आकर मुझे आश्चर्य चकित कर देते . . . मालिश के पैसों से वह अपना घर चलाती है, दान पुण्य करती है, भंडारे करती है और तो और अपनी स्वर्गीय बहन के बच्चों का पालन पोषण भी करती है। 

“दीदी, बहन मर गयी हती तो हम सोचे कि सब बच्चन-बिटियन को अनाथालय में छोड़ आयें, दीदी, हम गयेउ थे हुअंन, लेकिन मौड़ी रोउन लगी तो हमते‌ छूटी नहीं . . . दीदी जैसें तैते ‌वेऊ पल जइयें, सबन्न को अपनों अपनों भाग है, बताओ दीदी? भोले नाथ सब देख लियें।” 

भौतिक मानदंडों पर चरमराते हुए रिश्तों के इस दौर में जबकि वह स्वयं घोर आर्थिक अभाव में डूबी थी, चार अबोध बच्चों के पालन पोषण का ज़िम्मा वह उठा चुकी थी . . . घर में विरोध तो बहुत हुआ पर कलावती की ममता और मानवीयता जीत गयी, वैसे भी वह हर ज़िम्मेदारी अपने बलबूते पर लेती है, शायद अपने निर्णयों पर दृढ़ भी इसीलिए रह पाती है। 

कलावती शहर के मशहूर सिविल सर्विसेज़ इंस्टीट्यूट टावर की महिलाओं में ख़ासी लोकप्रिय है . . . किसने उसे घर दिलवाया, किसने बच्चों को डेली वेज पर लगवाया, किसने टरकाया . . . वह आती और अपने मन की परतों में छुपे क़िस्सों की पोटली खोल‌ देती . . . शायद यह सब कहकर वह अपने मन को हल्का करती है। उसे ज़्यादातर अच्छे लोग मिले, उनकी याद वह कृतज्ञ भाव से करती है। कुछ कड़वे अनुभव भी रहे, ऊँचे मकानों की नीची ऊँचाइयों से उसका साबका भी पड़ा, जिन्होंने उसके परिश्रम और सेवा का मोल देना भी गवारा नहीं किया, बस बच्चों के भविष्य के वादों के सहारे ही बेगार कराते रहे। ख़ैर . . .। 

कलावती स्नेही है, अपनत्व देती है और सरल स्नेह को बख़ूबी पहचानती भी है। उसे आश्चर्य होता कि हम नौकरी करते थे . . . “दीदी, एक बात बताएँ, हँसियो नहीं, सच्ची में तुम हमें बहुत नीकी लगती हो . . . दीदी वे ऊपर वाली विभा दीदी हैं, वे ई बताय रहीं तीं कि तुम अफसर हतीं . . . सच्ची दीदी! तुम तो ‌नेकउ घमंड नहीं करतीं . . . बतायें दीदी तुम तो देवी मज्जा हो।” बहुत दिन बाद समझ आया कि वह ‘य’ को ‘ज’ कहती है . . . देवी मैय्या को देवी मज्जा बोल रही थी। कलावती के अनुभवों में अफ़सर में ग़ुरूर और अफ़सरी ज़रूरी घटक रही होगी। मुझे उसकी बातें बहुत सच्ची और मज़ेदार भी लगतीं। 

कलावती खुल कर हँसती है, एक उन्मुक्त बिंदास, निर्मल हँसी जो किसी की हँसी उड़ाने की भावना से कोसों दूर है . . . अपने निर्मल मन और अच्छे स्वभाव के चलते वह सबकी प्रिय रहती है। 

“दीदी, तुम भैया के पास जाइयो, हमऊं अमरनाथ जात्रा पे जाइयें . . . भोले नाथ ने बुलाओ है . . . सच्ची दीदी हम तो ‌नाच नाच के जाइयें . . . मेरे भोले ने बुलाया है . . . कहते कहते कलावती बच्चों की तरह ख़ुश हो कर तालियाँ बजाने लगी। उसका उत्साह देखकर लग रहा था कि उसके भोले शिव शंकर ने उसे सचमुच उसे ही बुलाया है। अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति में कलावती कंजूसी भी नहीं करती। 

“जाइबे को इंतजाम एक दीदी कर रही है . . . दीदी वे मुसलमान है . . . उन्हींने सब फारम भरवाए, सारो इंतजाम दीदी करवाई है . . . बहुत अच्छी है।” 

हिंदू मुस्लिम में बँट रही नकारात्मकता कलावती को स्पर्श तक नहीं कर पाती। उसका इंतज़ाम स्वतः होता जाता है . . . कोई एयरबैग, कोई स्वेटर, कोई रुपये . . . हर कोई स्वेच्छा से कलावती की व्यवस्था में जुड़ गया . . . स्वान्त: सुखाय। सच तो ये है उसके लिए कुछ भी अतिरिक्त करना अच्छा लगता है। 

आज कलावती मनकामेश्वर मंदिर जा रही है . . . ऊपर वाली दीदी की मम्मी का कैंसर का आपरेशन है, कलावती अपने भोले से व्यक्तिगत प्रार्थना करेगी . . . यहाँ से पैदल जायेगी . . . सबके दुख दर्द में वह शामिल हैं, उसकी अपनी प्रार्थना और संकल्प, जिसे वह पूरी शिद्दत से पूरा करती है। 

मेरे घर आती तो कलावती पहले घर के मंदिर में जाकर पूरी श्रद्धा से माथा टेकती। “दीदी भोले नाथ पे तुमने चांऊर चढ़ाए बहुत नीको लग रहो है। दीदी, लड्डू गोपाल को एक दिना माखन मिसरी खवाय दीजो . . . उनें कुल्ल पसंद है . . .” 

एक रोज़ कलावती बहुत चुप और आहत थी हमने कुरेदा तो दुखी मन से बोली, “दीदी मैम साब, मौड़ा को तनखा नहीं मिल रही . . . दीदी तुम तो बस वाले विभाग में हतीं तो एक दिना डपट देव . . . दीदी का पता भोले बाबा नें जाइ ते तुम तें मिलवाओ हुइये।” 

कलावती बुद्धिमान है, मेरी आख़िरी पोस्टिंग परिवहन निगम में थी, वह पूछ चुकी थी . . . वह तो निगम के पुराने लगभग सभी प्रबंध निदेशकों को जानती है। शायद कुछ नामों को तो‌ हम भी नहीं जानते थे . . . किसने मदद की, किसने बहला दिया . . . कलावती की व्यावहारिक बुद्धि सब आकलन कर लेती है पर उसके मन की शुद्धता में किसी के प्रति कड़वाहट नहीं रहती। वह अपने भोले नाथ के सहारे ही रहती है . . . कुछ काम हो जाता तो कृतज्ञता रहती, नहीं हो पाता तो कोई शिक़ायत नहीं “भोले बाबा आगे देख लियें” का अदम्य विश्वास। हम सब हर परिस्थिति में समभाव रहना चाहते हैं सीखते हैं, कोशिश करते हैं पर कलावती तो समभाव में ही जीती है . . . न सर्दी न गर्मी। जो है, भोलेबाबा की कृपा से, जो नहीं है वो भी भोलेबाबा जानें। बहरहाल, उसका बेटा दैनिक भोगी था, अब कलावती को कुछ ख़ास पता तो नहीं था . . . बस उसे भरोसा था कि हम डपटेंगे तो तनख़ा मिलने लगेगी‌। 

अगली बार आयी तो कुछ सूचना लिखवा के लायी और अपने मोबाइल से बच्चे से बात भी करा दी . . . परिवहन आयुक्त कार्यालय में किसी और ज़िले में उसका बेटा था, बहरहाल जिन्हें हम जानते थे उनसे अनुरोध कर कहलवा दिया और उसका काम हो भी गया। 

“दीदी, भोले बाबा हमें भेजें हैं तुम्हारे ढिंगां, उन्हें पता रहत है की कहाँ ते काम हुयए, सच्ची दीदी।” 

कलावती का भरोसा था और उसके भोलेबाबा का आशीर्वाद कि मेरे रिटायरमेंट के बाद मेरे कहने पर तत्काल कार्रवाई हो भी गयी, सच तो यह था कि हमने ख़ुद भी इतनी जल्दी काम बन जायेगा नहीं सोचा था, अपने हॉस्टल की एक अपनी जूनियर से ही अनुरोध किया था कि देख ले, बस उसी को याद दिला देते थे और उसीके सहयोग से कलावती का काम बन भी गया। 

कलावती पढ़ी लिखी नहीं है . . . अपने मोबाइल में हर सम्पर्क के नम्बर के साथ वह अपने बच्चे से कोई चिह्न बनवा लेती है . . . उसी से पहचान पाती है कि किसका फोन है। किसी के नाम के आगे ॐ तो कहीं बल्ब तो कहीं स्टार . . .कहीं बंदर, कहीं सेव, हर सम्पर्क के अलग-अलग निशान। 

इस बार कलावती ने आते ही बता दिया कि वह पन्द्रह दिन को ओरछा जा रही है, “दीदी, जान- पहचान की एक मौड़ी है, बहुतई गरीब, कोई करबे वालों है नहीं तो बियाह कराइवे को जानों है . . . वह कई महीनों से पैसे जोड़ रही थी . . . जानकर हम लोग भी उसके इस नेक काम में जुड़ गये और यथा सम्भव हम सबने कुछ-कुछ देकर उसे विदा कर दिया . . . वह बहुत ख़ुश-ख़ुश ओरछा जा रही थी . . . उसके कुछ कहे बिना उसकी सोच से ज़्यादा सहायता मिल गयी थी, अब वह मनमाफिक विवाह करा सकेगी . . . भोले नाथ की कृपा से उसका काम हो रहा था। 

कलावती संतुष्टि के साथ वापस आ गयी, वहाँ की कुछ तस्वीरें भी ले आई। सारे हालचाल सुना रही थी। 

“दीदी, बतायें एक नेता जी आय ते हुंअन, आये और फोटू खिंचाय के चले गये। दीदी हम सोचें कछू तो मौड़ी को दै जइयें, दीदी वे तो कछू दये ही नहीं . . . बताओ दस-बीस किलो आटा ही भिजवाय देते तो ‌नेंक नीको रहतो, वे तो बस फोटू खिंचायवे को आये ते। बताओ दीदी।” कलावती जो बता रही थी, हम सब उसे महसूस कर पा रहे थे . . . समाज सेवा के नाम पर प्रचार-प्रसार और बढ़ते ढोंग से हम सब अनभिज्ञ भी नहीं हैं, पर कलावती उनसे भी नाराज़ नहीं हो पाती, “दीदी भोलेनाथ की किरपा ते सब निबट गओ” कलावती ने मेरी दी हुई लाल साड़ी दुलहन को विदाई में पहना कर विदा किया था . . . मुझे उसकी तस्वीर दिखाकर वह बहुत ख़ुश थी . . . वह जब ख़ुश होती तो ताली बजाने लगती, पैर छू लेती . . . भोले का गीत गाने लगती . . . कितना सहज था उसके लिए सब कुछ . . . कठिन परिस्थितियों में भी उत्साह के साथ मदद करने का जज़्बा रखना और हँसते रहना। 

कलावती जा रही है अपने भोले से मिलने, अमरनाथ यात्रा पर . . . उसकी ख़ुशी और बेताबी चरम पर थी . . . उसकी यात्रा सुगम और सुरक्षित रहें . . .। 

“बस दीदी, मेरो जाई में मन लगत‌ है।” 

“दीदी आप भैया के हिंयन से आत ई खबर कर दीजो, ऐसो करियो डिल्ली आय जाओ तो हुअंई ते फून कर दीजो, बहू की और छोटी देवी मज्जा की मालिश करयें, दीदी जल्ली बुलाय ‌लियो, दीदी उते जादा दिन मती रहियो, हमें तो दीदी अबहीं ते तुमाई याद आन लगी” कलावती धाराप्रवाह बोले जा रही थी। उसके चेहरे पर मेरे जाने से दुख की छाया आई और अपनी अमरनाथ यात्रा पर जाने, अपने भोले से मिलने की ख़ुशी में तत्काल तिरोहित भी हो गयी। 

कलावती अमरनाथ यात्रा से वापस आ गयी थी। वहाँ का जल, वैष्णोदेवी माता के मंदिर से सिंदूर वह मेरे लिए लायी थी जिसे मेरे वापस आने तक उसने सँभाल कर रखा था। मिलकर वह बहुत ख़ुश थी और उसकी ख़ुशी से हम भी। 

कृतज्ञता कलावती का सहज गुण है। किसने ग़रीबी में मदद की, किसने घर दिलाया, किसने बहू का इलाज कराने में सहायता दी . . . उसे हरदम याद रहता है . . .। उसके लिए परिश्रम और अपनी निर्मलता से बने तमाम रिश्ते अपने भोले बाबा की ओर से मिले प्रसाद ही लगते हैं। 

पुत्रवधू प्रज्ञा पाँच महीने की बेटी के साथ आ गयी थी . . . कलावती बच्चों की तरह उत्साहित रही, लगभग पंद्रह बीस दिन वह रोज़ आती। कलावती प्रज्ञा की बहुत तारीफ़ करती है। “ दीदी, बहू कुल्ल नीकी है, हिंदी पढ़ लेत है, पतो, हमाओ मोबाइल ऊ वाने ठीक कर दओ। दीदी तुमाई चिंता करत है बहू, कह रही थी माँ कै दरद‌ है, ठीक कर देव”। कलावती के लिए मेधावी और विदेश में नौकरी कर रही बहू को हिंदी आती है . . . यही योग्यता की सरल परिभाषा लगी। कलावती मुझसे स्नेह रखती है, मेरी बहू मेरे लिए फ़िक्रमंद है, यह बात उसे ख़ुशी देती है। प्रज्ञा ने एक रोज़ मुझसे कहा कि माँ कलावती पोलीथीन में खाना लाती है, उसके लिए कोई टिफ़िन ले लेते हैं . . . और उसका फोन बहुत पुराना और ख़राब हो गया है, नया दिला दें? कलावती के अक़्सर उपवास रहते थे, कभी कुछ खाती पीती तो छुपा कर, इधर वह नियमित आ भी रही थी तो प्रज्ञा ने ग़ौर किया। मुझे बहुत अफ़सोस हुआ कि हमने पहले क्यों ध्यान नहीं दिया। 

बच्चे वापस चले गये . . .। 

दो रोज़ पहले कलावती नया मोबाइल ले आई। “दीदी, बहू को फोटो खैंच के भेज दियो, उन्नें ई पैसा दये हते।” 

“अच्छा . . .” हमने अनभिज्ञता ज़ाहिर करते हुए उसके मोबाइल की फोटो खींच कर उसी के सामने प्रज्ञा को भेज दी। 

ज़िन्दगी की आपाधापी और भौतिकता के इस कठिन दौर में सबसे कठिन है सरल होना . . . और अपनी सरलता के एहसास से परे रहना। कलावती का सीधा सरल व्यक्तित्व एक सहजता के साथ दैवीय ऊर्जा का प्रवाह लेकर आता है। हमारी भारतीय संस्कृति में “सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया . . .” का कल्याणकारी उद्घोष निहित है . . . और हमारी कलावती तो हृदय तल से इस उद्घोष को चरितार्थ करती हुई हमें प्रेरणा देती है। 

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