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ऐ घड़ी! ठहरना ज़रा

प्रख्यात रंगकर्मी प्रतिभा अग्रवाल
 

गंगू बाई हंगल ने आवाज़ दी, “सूरज, ठहरना ज़रा! मैं राग तोड़ी गा रही हूँ।”

बिस्मिल्ला खाँ ने कहा, “‘सा’ यहीं खड़े रहो, हिलना मत! दुनिया के सारे वादक ‘सा’ मिला रहे हैं।”

“इंगला पिंगला ताना भरनी . . .”

सरस्वती ने धीमे से कहा, “ईऽऽऽऽ-ईड़ाऽऽऽ”

कबीर ने कहा, “शांत रहो। इंगला पिंगला ही सही है। और! . . . और! . . .”

प्रतिभा दी ने कहा, “ऐ घड़ी! ज़रा ठहरना! हम लौट कर आते हैं, फिर तुम्हें घंटों में बाँटेंगे; तब तक तुम चौबीस घंटे मत बजाना।”

अब भला सूरज, सरगम, सरस्वती और घड़ी की क्या बिसात जो ज़रा भी ना-नुकर करे। सबने ज़र-ख़रीद दासानुदास की तरह ‘हामी’ में गर्दन हिलाई और इन विभूतियों के हु़क़्म के इन्तज़ार में प्रतीक्षारत रुके रहे। 

प्रतिभा दी दसों काम सलटा कर आईं और घड़ी के चौबीस घंटे, अड़तालीस कर दिए। घड़ी चुप्प! . . . बोले भी तो क्या! जानती है यह एक ऐसी देवी हैं, जो असम्भव को भी सम्भव कर सकती हैं। समय-काल-देश सबको अपनी कर्मठता, अपने परिश्रम, अपनी निष्ठा, अपने कार्य-कौशल से लचीला बनातीं यह ‘महिला महर्षि’ (मंत्री जतीन चक्रवर्ती द्वारा दिया गया सम्बोधन) प्रतिभा अग्रवाल आख़िर हैं कौन? कहाँ से आईं और कैसे बंगाल के आकाश में उभरते सूरज की तरह शनैः-शनैः आगे बढ़ती, भारत के बड़े हिस्से पर छा गई हैं? . . .

“आमि जानि बाच्चादेर ऐई द्विधा आर अतथत भाव” मुझे बच्चों की इस पीड़ा का अनुभव है। साँउली मित्रा (प्रख्यात रंगकर्मी) के ‘गैसवाले गुब्बारे’ के उड़ जाने पर संसार डूबने-सी अनुभूति पर प्रतिभा दी की यह प्रतिक्रिया! . . . हम अचरज से भरे सुन रहे थे, “मुझे याद है, गर्मी के दिनों में आइसक्रीमवाला हाँक लगाता हुआ! नीचे से जब गुज़रता था, तो हम दौड़ कर उसे खिड़की से देखते रहते। ख़ैर, रोज़ तो कहने का सवाल ही नहीं था, एकाध-दिन के अंतराल से बहुत ही संकोच से जब तीन पैसे माँग कर दौड़ते हुए बड़ा आँगन पार कर गली में पहुँचते, तो अधिकतर आइसक्रीमवाला जा चुका होता। उस व़क़्त जो हताशा-बोध हमें होता था, उसे शब्द नहीं दिए जा सकते। आँखों में अटके आँसू न बाहर गिरते, न भीतर रहना चाहते और हथेली में बँधे पैसे सालने-से लगते! . . .”

बच्चों की दुनिया के ये अनुभव प्रतिभा दी साँउली मित्रा से कह रही थीं और मेरी आँखें उनके चेहरे पर ठहरी हुई थीं। उजले रंग का साफ़-श़फ़्फ़ाफ़ चेहरा, जिससे आभिजात्य यों चू रहा था कि घड़े के घड़े भर जाएँ। सादा रंग-ढंग और पहनावा, पर सबमें एक राजसी ठमक। बोली ऐसी कड़कदार कि किसी ज़मींदारिन की क्या होगी (?) कहीं से भी तो नहीं लगता कि इनका बचपन अभावों में बड़ा हुआ है . . .। सुना है, ये उसी भारतेन्दु भवन में रहती थीं, जिस पर चौक से गुज़रते हुए, औचक नज़रें ऐसी ठहर जाती हैं, मानों कोई पुराना प्रासाद ग़लती से गली में आ खड़ा हुआ हो। फिर यह भी सुना है कि इन्होंने अपने दादाजी भारतेन्दु हरिश्‍चन्द्र के फुफेरे भाई प्रसिद्ध साहित्यकार बाबू राधाकृष्ण दास के मुहावरों और लोकोक्तियों के शुरूआती काम को ४०० पृष्ठों के एक अद्भुत शोध-ग्रंथ के रूप में तैयार किया है! भारतेन्दु भवन में रहना, बाबू राधाकृष्ण दास के चरणों में बड़ा होना! जहाँ सरस्वती (सर्वविदित) और लक्ष्मी का (बाह्यविदित) चौबीसों घंटे राज रहता था, वहाँ कष्ट कैसा? . . . अभाव कैसा? . . .

पर किनारे बैठकर लहरें देखनेवाले कहाँ जान सकते हैं कि सागर के हृदय में भी भयंकर ‘बड़वानल’ जलता है, जो बड़े-बड़े जीव को पूरा निगल लेता है। बाहर से तो वह नीला, पवित्र, शांत और सुंदर ‘रत्नाकर’ दिखता है, पर वह भी हर क्षण अपने अन्तर्जगत की ज्वालाओं से जूझता रहता है . . .। उसी तरह राजप्रासाद के ही किसी कोने में पलता-बढ़ता औसत स्थिति का परिवार, अभाव की दोहरी मार से घायल होता है: प्रथम तो अपना अभाव और दूसरा निकटवर्तियों का रईसी ठाठबाट, जिसके साथ कहीं न कहीं, असंवेदनशीलता का तत्त्व भी जुड़ा रहता है और ऐसे परिवेश में पलता बच्चा . . . (?) शायद ये अभाव ही ऐसे बच्चों में एक ऐसी अद्भुत जिजीविषा भर देते हैं कि वे कठोर से कठोर परिस्थितियों का मुक़ाबला कर उन्हें अपने अनुरूप ढाल लेते हैं, लेकिन सब ऐसा कहाँ कर पाते हैं। बस प्रतिभा दी सरीखा ही कोई एकाध ऐसा कर गुज़रता है। 

इनका ऊपरी जीवन-वृत्त यदि बारह-तेरह पृष्ठों में अँटता है, तो उसका अंतरंग कितना बड़ा होगा यह कल्पनातीत है; क्योंकि एक पंक्ति में समाई हुई यह सूचना कि फलाँ नाटक सन् १९४३ में, फलाँ पुस्तक सन् १९६० में, कितने घंटों, दिनों, महीनों, वर्षों के अजस्र परिश्रम, कठोर साधना और पूर्ण समर्पण से सम्भव होती है—यह तथ्य अजाना नहीं है। 

अहर्निश, निरंतर . . . एक युद्ध . . . समय के साथ . . . उसके सदुपयोग के साथ! और जिसमें दोयम दर्ज़े का कोई समझौता नहीं। करेंगे तो पूरी तरह करेंगे, नहीं तो छोड़ देंगे . . .। टेक को अपना ध्येय बनाकर जब कोई आगे बढ़ता है, तो रास्ते में काँटे उग आते हैं . . ., राजमार्ग सिकुड़ कर ऊबड़-खाबड़ पगडंडियाँ बन जाते हैं, और कुछ भी! कुछ भी सहज-सुलभ नहीं होता . . .। पर एक दृढ़ संकल्पधारी महिला इसे सुलभ बनाने पर तुल जाती है, और वह भी उस युग में, जिसमें ‘स्त्री ज़ात’ की कोई ख़ास वक़अत न हो। बिना किसी विरोध के सकारात्मकता और रचनात्मकता को अपना अभिन्न साथी बनाकर वह कैसे सारे मोहरे अपने पक्ष में कर लेती हैं यह देखना और जानना एक विस्मयकारी आह्लाद से भर देता है। 

सीतारामजी सकसेरिया (नारी शिक्षा के लिए प्रख्यात एक समाजसेवी) ने प्रतिभा दी के आरम्भिक विकास की चर्चा करते हुए बताया था कि “एक दिन मेरे पास मदनमोहनजी अग्रवाल, एम.ए. अपनी पत्नी को लेकर आये और कहने लगे, “बाबूजी! यह है प्रतिभा, मेरी पत्नी! अभी ही ब्याह कर लाये हैं बनारस से। आपके आशीर्वाद के साथ आपसे एक माँग भी है, आप इसे आगे पढ़ाइये।” मैंने उनकी पत्नी की ओर देखा, तो मुझे एक अत्यन्त रूपवती बच्ची-सी युवती ऊँचे-ऊँचे कपड़े पहने मदनजी की बग़ल में खड़ी नज़र आई। उसकी आँखों का प्रेम और मासूमियत मुझे आज भी याद है। याद है पढ़ाई के नाम पर उसके चेहरे पर बिखरती ख़ुशी की किरणें।”

ख़ैर, पढ़ाई शुरू हुई, और प्रतिभा दी ने बाबूजी के अद्भुत संरक्षण में दसवीं पास कर ली . . . (जो कि उस समय एक अजूबा ही था), पर प्रतिभा दी को इससे संतोष न हुआ और उनके आग्रह पर मदनजी ने उन्हें इंटर करने शांतिनिकेतन भेज दिया। उस समय के परिवेश में अग्रवाल ख़ानदान की बहू शांतिनिकेतन के हॉस्टल में रहने जाए, यह तो कभी घटता ही नहीं था (यह बंगालीपन अभी तक ग़ैर-बंगालियों में नहीं आया था), पर मदनजी का प्रतिभा दी पर गहन विश्‍वास और प्रतिभा दी के आत्म-विश्‍वास ने इसे सम्भव कर दिखाया। शांतिनिकेतन में हजारीप्रसादजी द्विवेदी (प्रख्यात साहित्यकार) से नज़दीकी सम्पर्क बना। पारिवारिक परिचय तो साथ था ही। पर उनका नज़दीकी स्नेह इतना प्रगाढ़ हो गया कि हजारीप्रसादजी आजीवन प्रतिभा दी को दुलार से ‘नवाब साहब’ कहकर सम्बोधित करते रहे। 

तत्पश्‍चात् प्रतिभा दी की पढ़ाई की गाड़ी पटरी पर ऐसी चढ़ी कि फिर उतरी तो नहीं ही! कहीं ठहरी भी नहीं! . . . बस चलती ही रही और आज भी चल ही रही है, . . . कभी डिग्रियों के रूप में, कभी किताबों के रूप में, कभी अभिनय के रूप में, कभी शिक्षिका के रूप में, और कभी नाट्‌य शोध संस्थान के निर्माण के रूप में। लगता है सरस्वती इस ज़िद पर अड़ी बैठी हैं कि मैं अपनी इस पुत्री को कभी विश्राम नहीं करने दूँगी। इसे सोते-जागते, उठते-बैठते मुझे तो ‘ध्याना’ ही होगा, और यह ‘भक्तन’ भी ऐसी कि अपनी देवी की ज़िद को पूरा करने पर तुली हुई हैं . . .। तभी तो बी.ए., एम.ए., पीएच.डी., डि.लिट्. तमाम डिग्रियाँ उपाधियाँ लेने के साथ ही प्रतिभा दी ने स्कूल और कॉलेज में पढ़ाया (साक्षी हूँ कि बहुत अच्छी शिक्षिका थीं) घर-गृहस्थी को सुचारु रूप से चलाया, दो सुघड़, सुसंस्कृत पुत्रियों को संस्कारित कर उनका घर बसाया, ढेरों नाटक खेले, ढेरों पुस्तकें लिखीं, ढेरों अनुवाद किये। यहाँ ढेरों शब्द का प्रयोग ‘अनुप्रास’ के लिए नहीं, हक़ीक़त के लिए है। आज़मा कर देखा जा सकता है कि यदि इनकी कृतियों का एक स्तूप बनाया जाए, तो वह प्रतिभा दी के शारीरिक आकार से दसियों गुन होगा। 

सन् १९४३ से १९९६ तक प्रतिभा दी ने ४० नाटकों में या तो अभिनय किया या रूपान्तरण या सूत्रधार का पद सँभाल, लेखन के साथ ‘उवाच’ भी किया—अर्थात् ये वर्षों तक रंगमंच पर निरंतर क्रियाशील रहीं और किसी-किसी वर्ष तो इन्होंने नाटकों की दो प्रस्तुतियाँ भी दीं। 

इनकी विरचित ‘प्यारे हरिचंद जू’ (भारतेन्दु हरिश्‍चन्द्र की जीवनी) को विद्वानों ने बहुत पसंद किया। निस्संदेह यह पुस्तक एक अनोखी अदा और मन-लुभावन शैली में बिना तथ्यों को तोड़े-मरोड़े लिखी गई है, लेकिन फिर भी इसमें भारतेन्दु की सुदृढ़ भित्ति और मज़बूत नींव ने भी अपनी भूमिका निबाही है, लेकिन इनकी ‘दस्तक ज़िन्दगी की’ भाषा की रवानगी और सुघड़ खड़ी बोली का सरस मीठा गद्य . . . कि जिसकी तुलना द्विवेदी-युग के कई सुलझे लेखकों से और कहीं-कहीं महादेवी वर्मा से भी की जा सकती है, अद्भुत है! यह उस समय के घरों के अंतरंग का; बनारस का; हिन्दी समाज का और एक तरह से करवट लेते भारत का . . . आँखों-देखा दस्तावेज़ है। 

कई बार अधिक संख्या में काम करनेवाले, उसकी गुणवत्ता से समझौता कर लेते हैं और औसत-सा कार्य कर उस कार्य को निपटा लेने का संतोष हासिल कर लेते हैं, पर जिन्होंने प्रतिभा दी को अभिनय करते देखा है, उन्हें याद होगा कि होरी के इस कथन पर: ‘वह तुम्हारी बहुत बड़ाई कर रहा था’ गोदान की धनिया का आग के गोले की जगह धीरे-धीरे पिघल कर पानी हो जाना; उसके चेहरे की एक-एक मांसपेशी, शिकन और सिमटीं सलवटों का खुलना; माथे की ‘सलों’ का मिटना; चेहरे पर क्रोध से खिंचे हुए होंठों में शिथिलता और ढीलापन आना और फिर धीमे से एक स्मित रेखा का पूरे चेहरे पर खिंच जाना! . . . एक क्षण में घटनेवाली यह एक ऐसी अद्भुत रासायनिक, शारीरिक और मानसिक प्रक्रिया थी; जिसने कलाप्रेमियों को ‘अश! अश!’ करने को बाध्य कर दिया था। इसके बरअक्स मन में आया कि कला के ये विदेशी स्कूल, जो इस विषय पर दुनिया भर का ढिंढोरा पीटते हैं कि ‘अमुक स्कूल की फलाँ अमुक छात्रा’ बिना ख़ास मेकअप किए मांसपेशियों की हरक़त से बड़ी या छोटी उम्र को बयाँ कर देती है, उन्हें यहाँ आकर बिना किसी ख़ास प्रशिक्षण के स्वयं-प्रशिक्षित इस महिला को देखना चाहिए, हो सकता है शायद उन्हें अपनी राय बदलनी पड़े। 

‘आषाढ़ का एक दिन’ की ‘मल्लिका’, जिसमें स्वयं से चौगुनी उम्र की महिला का अभिनय करती और ‘सुहाग के नुपूर’ में बुज़ुर्ग ‘चेलम्मा’ के अभिनय में युवा सुंदरी ‘माधवी’ (अरुणा कपूर) पर भारी पड़ती प्रतिभा अग्रवाल को जिसने मंच पर देखा है, क्या वो कभी प्रतिभा दी के अभिनय कौशल को भूल पाएगा? 

इन सबके साथ ही प्रतिभा दी ने और भी क्या-क्या नहीं किया! . . . ‘अनामिका’ स्थापित करने में सहयोग दिया। इस नाट्‌य संस्था की १९५५ में संस्थापक सचिव बनीं सो आज भी उसमें प्राण डाले हुए हैं और अध्यक्ष हैं। १९६५ में ‘फुलब्राईट’ स्कॉलरशिप के अन्तर्गत संयुक्त राष्ट्र अमेरिका गईं . . . १९८१ में ‘उपचार ट्रस्ट’ की स्थापना की और टी.बी. अस्पताल में ‘उपचार कक्ष’ का निर्माण करवा कर ‘महर्षि महिला’ की उपाधि प्राप्त की। 

प्रतिभा दी ने ४१ से ज़्यादा पुस्तकों के अनुवाद, रूपांतर, नाट्‌य रूपांतर, बाँग्ला से अँग्रेज़ी, हिन्दी और गुजराती में किये और कुछेक के हिन्दी और बाँग्ला दोनों में किये हैं। पाँच प्रतिष्ठित मौलिक पुस्तकें लिखीं, जिनमें से ‘प्यारे हरिचंद जू’ और ‘दस्तक ज़िन्दगी की’ अपने अनोखेपन के लिए विशेष सराही गईं। ११ पुस्तकों का सफल संपादन किया, जिनमें से ‘भारतीय रंगकोश’ मील का पत्थर माना गया। माना यह भी गया कि इस बहु-प्रतीक्षित कार्य का इतनी सुघड़ता से संपादन सहज नहीं था, पर प्रतिभा दी के पास वो नेपोलियन बोनापार्ट का शब्दकोश है; जिसमें ‘असम्भव’ शब्द ही नहीं है। 

इस कर्ममय यात्रा में कब (?) कैसे (?) लोगों को सुध आई (मेरी समझ से कम ही आईं) कि इन्हें कुछ पुरस्कारों और सम्मानों से भी नवाज़ा जाना चाहिए। इन्हें १९७५ में उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी का ‘रत्न सदस्य’ सम्मान, १९८९ में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का अनुवाद पुरस्कार, ‘दस्तक ज़िन्दगी की’ के लिए १९९३ में मध्य प्रदेश साहित्य परिषद पुरस्कार, १९९७ में भारतीय अनुभाव पुरस्कार और २००५ में संगीत नाटक अकादमी ने इन्हें जीवन-सिद्ध रंगमंच सम्मान लाइफ़ टाइम एचीवमेंट अवार्ड प्रदान किया। अनेकानेक संस्थाओं ने आपको अपना न्यासी बना कर स्वयं को धन्य माना। 

पर यदि आपको नाटक का ‘ताजमहल’ देखना हो, तो आप इस महिला द्वारा कल्पित, रेखांकित, चर्चित और निर्मित ‘नाट्‌य शोध संस्थान’ अवश्य जाएँ। वहाँ आप देखेंगे कि उसमें ग़रीबों की बेगारी नहीं, रंगप्रेमियों का प्रेम बोल रहा है। वहाँ की घास, हवा, धरती, भवन, सामग्री आदि में सृजन का एक ऐसा इतिहास है, जो शायद भूगोल की सीमा के परे है। हम जब विस्मय भरे विस्फारित नेत्रों से उस भवन और इस ‘प्रतिभा पुंज’ को देखते हैं, तो ‘एहसासे-कमतरी’ से भर कर जलते नहीं, बल्कि स्वयं को धन्य मानते हैं कि हमने भी इन प्रतिभा दी को थोड़ा सा देखा-सुना-जाना और समझा है, इनका थोड़ा सा स्नेह पाया है, इनकी दिव्यता और भव्यता से स्पंदित और पुलकित हुए हैं . . .!

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