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पतराम दरवज्जा

“जी यो ठैरा आस्सके का बास; . . . उनकी ही कोठियाँ; . . . उनकी ही दुकानें; . . . उनका ए यो नया बँगला और यो दरवज्जा ‘आस्सके का दरवज्जा’ कुहाव से।”

“हाँ! हाँ! मैंने भी इनका नाम सुना है। कहते हैं आशारामजी ने अँग्रेज़ी ज़माने में यह एलान कर रखा था कि जो भी माई का लाल भिवानी से आएगा उसे १०० रुपये का रोज़गार दिलवाएँगे और छत पर सोने की जगह देंगे।”

आज यह जानकर हैरत होती है कि उस छत पर सोने वालों में से दो व्यक्ति मंगतराय और किरोड़ीमलजी—करोड़पति बन गए। किरोड़ीमल का बसाया किरोड़ीलाल नगर (छत्तीसगढ़) और विभिन्न शहरों में बनाए हुए अनेकानेक स्कूल-कॉलेज उनकी सफलता की कहानी कहते हैं। 

‘दरवज्जे’ का यह क़िस्सा यों शुरू हुआ कि मुझे मंडावा (राजस्थान) जाना था और दिल्ली से मंडावा के रास्ते में रोहतक, भिवानी, पिलानी आदि पड़ते थे। चूँकि मेरे मायके वाले भिवानी के हैं अत: मैंने ड्राइवर से आग्रह किया था कि वह मुझे थोड़ा-सा घुमा-फिरा दे। 

कई बाज़ार, कई दरवज्जों और कई बाग़ीचों से गुज़रते हुए जब हम एक ख़ूब ऊँचे से दरवज्जे के नीचे आए तो उसने कहा, “और जी! यह है पतराम दरवज्जा!”

“इनके बँगले और कोठियाँ?” 

“जी! इनका कोई परिवार नहीं है; कोई ठिकाना नहीं; कोई नाम लेवा नहीं है।”

“बेकार की बात क्यों करते हो! यदि पता नहीं हो तो ‘ना’ कहने में कौन-सी इज़्ज़त हतक होती है? कम से कम ग़लत जानकारी तो मत दो।”

यह आक्षेप सुनते ही वह तिलमिला गया। आख़िर वह ठहरा पूरा हरियाणवी . . .  बोला तो कुछ नहीं पर उसका चेहरा ग़ुस्से से लाल हो गया। 

स्थिति को बिगड़ते देख कर मेरे पति ने मेरी कुहनी पर ‘बरजने’ का ठोका मारा पर मैं भी ठहरी आधी हरियाणवी। उसे एकटक देखती रही कि देखूँ क्या जवाब देता है? 

थोड़ी देर चुप रहकर वह गंभीर आवाज़ में बोला, “जी! ये जात के तो बनिए थे पर थे पूरे साधु। मैंने घर के बड़ों से सुना है कि भरी जवानी में ही इनका नाम हो गया था। इनके बारे में मशहूर था कि इनके मुँह से जो निकल जाए वह घटता ही था। कइयों से सुनी एक चर्चा यह भी है कि उन्होंने अपना घर-बार सब कुछ लुटा दिया था . . . । मैं तो जवान हूँ पर घर के बड़ों से सुना है कि वे जीते जी कहानी बन गए थे। मैं आपको उनकी जग देखी और कानों सुनी एक घटना सुनाता हूँ—

“पतरामजी रोज़ सुबह अपनी धोती धोकर बाहर सुखाते थे। शाम को सूखी धोती उतारते वक़्त उन्हें वह मुसी-मुसाई मिलती। खोज़-ख़बर की तह में जाने पर पता चला कि बाँझ महिलाएँ उनकी धोती निचोड़कर उसका पानी पी लेती हैं और उन्हें संतान प्राप्त हो जाती है। यह पता लगते ही उन्होंने अपनी धोती अंदर सुखानी शुरू कर दी।” 

“सच! कह रहे हो? क्या लोग उन्हें जीते जी भगवान मानने लगे थे? ज़रूर वे ग़रीब रहे होंगे! नहीं तो अपने कपड़े ख़ुद क्यों धोते? और कोठी तो दूर की चीज़, कम से कम कोई टूटा-फूटा सा घर तो बनवाते?” 

वह जवान मुझे यूँ घूरने लगा जैसे मैं पागल हूँ। फिर बोला, “भैणजी! आप पढ़े-लिखे लगते हो। जरा सोच समझ के तो बोल्लो। ल्यो वहाँ खड़ा है मेरा बाप, पूच्छो उससे पतरामजी के बारे में! हुँह; गरीब होंगे?”

देखा कि, सत्तर के आसपास का एक हट्टा-कट्टा आदमी सामने की दुकान के छज्जे तले खड़ा, हमारी ओर ही देख रहा था। उसने ज़ोर से आवाज़ दी, “रै, घणश्याम कै होया? थोबड़ा (चेहरा) क्यूँ बिगाड़ राख्या सै।”

“बापू या मेमसाब कहै सै कि पतरामजी दलिद्दर थे के? बताओ मन नहीं बिगड़ैगा तो के ठीक रैगा?” 

उनकी आपसी बात में आया हुआ मेरा ऐसा परिचय मुझे अचकचा गया। मैंने लपककर गाड़ी का दरवाज़ा खोला और अपने हाथ जोड़कर उन बुज़ुर्ग महाशय से कहा, “जी! मैं बी म्यानी की ही बेटी सूं! बिचला बाजार वाले ‘भूरा नरसिंह’ की। जाणना चाहूँ हूँ कि ये पतरामजी कौण थे।”

उन्होंने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा और जब उनके यह ‘दिलजमई’ हो गई कि मेरे मन में कोई पाप नहीं है; केवल जिज्ञासा और श्रद्धा है; तो वे हल्का-सा मुस्कराकर बोले, “पूच्छो के पूछणा है।”

और उनका उत्तर यह था . . . 

“पतरामजी कोई साधारण आदमी ना थे। वे आपणे लोगाँ की बुद्धि से भोत आगै कै आदमी थे। और तो के कहूँ, हाँ, समझ लो एक तरहाँ के भगवान ऐ थे। रही उनकी गरीबी की बात तो सुणो; मेरे बाप की बताई हुई है। 

“पतरामजी बड़े सेठ थे और उस समय यो चलन था कि साधारण स्थिति वाले भाई बंदों के सादी-ब्याह भी अमीर रिश्तेदारों के घरों से हों। 

“पतरामजी के यहाँ परिवार की लड़की का विवाह था। मीलों लम्बी बरात-बेरी (गाँव) के सेठ के यहाँ से आई थी। पंगतें बिछीं और ज्यौनार शुरू हुई। मिठाई नमकीन आणे में कुछ ज्यादा समय लग गया। बड़बोले बरातियों ने ताना कस दिया ‘कै बात सै? इतनी देरी क्यां में लाग रही सै? थम के हमनै सोना-चाँदी परसोगे?’ 
बात सेठ के कानों तक पहुँची। 

हरकारे ने मुनीमजी को हाज़िर किया . . . 

सेठजी ने तलब की कि “क्या तिज़ोरी में इतनी गिन्नियाँ हैं कि प्रति बाराती दो-दो गिन्नी परसी जा सके?” 

मुनीम ने नीची नज़र किए स्वीकृति में सिर हिलाया। 

‘प्रत्येक पत्तल में दो-दो गिन्नी परस दी जाए’ सेठजी ने हुक्म दिया। 

“यह नज़ारा देख बराती ख़ूब आनंदित हुए। व्यंग्य करने से हुई कमाई पर वे सब विजयी मुद्रा में लपके और गिन्नियाँ उठाकर जेबों में रखने लगे। 

“परसने वालों ने बाअदब, बामुलायज़ा हाथ जोड़कर कहा, “हुजूर! इन्हें ‘जीमिए’ (खाइए) जेब के लिए दूसरी हैं।”

“सारे बाराती हक्का-बक्का . . . 

“खिसिया कर मुँह लटकाए हुए पत्तलों को घूरते रहे। 

“कुछ देर बाद घर की भंगन (जमादरिन) की बुलाहट हुई और वह सारी पत्तलों को बटोर कर उन्हें आशीर्वाद देती हुई, वहाँ से चली गई।”

मैं उन्हें अविश्‍वास से घूरती रही क्योंकि मुझे बाबूजी (सीतारामजी सेकसरिया) ने बताया था कि उस ज़माने में एक रुपए-चौदह आने में वे पूरा घर ख़र्च चला लेते थे—ऐसे समय में यह कैसे घट सकता है? मैं उलझी और चकराई सी गाड़ी में बैठ गई और बड़बड़ाने लगी। 

“बकवास बातें हैं। सारी काल्पनिक कहानियों पर ही तो इतिहास रचे जाते हैं फिर ये बेचारे तो साधारण लोग हैं। इन्हें किसी बात की प्रामाणिकता की क्या ज़रूरत है?” 

सोचा . . . ठीक है कलकत्ता लौटकर अपने पिताजी (राधाकिशन केजड़ीवाल) से पूछूँगी। वे न केवल ८८ वर्ष के हैं बल्कि बहुत ही व्यावहारिक, तार्किक और नाप-तौल कर प्रशंसा करने वालों में से हैं। 

लेकिन मेरा अंदाज़ ग़लत निकला। पिताजी ने कहा कि पतरामजी की बाबत ये सारी बातें सही हैं। न केवल यही बल्कि और . . . 

उन्होंने आगे जो बताया, वह तो बेहद ही चौंकाने वाला था। इस हद तक कि लगे यह झूठ है; केवल झूठ!! 

“पतरामजी की पंचायती (मध्यस्थता) प्रसिद्ध थी। एक बार जींद (पास का गाँव) में दो बनियों में तकरार हो गई। वे आमने-सामने दुकानें लगाते थे और आपस में सारे दिन नोंक-झोंक करते रहते थे। एक दिन बात इतनी आगे बढ़ी कि एक ने ‘देख बच्चू! तुझे मज़ा चखाता हूँ’ की रौ में अपनी बही में लिख दिया—अमुक को . . . अमुक घड़ी में . . . अमुक दिन . . . दो सौ रुपये नगद दिए . . .  अब आप ऊपर वाले का नाटक देखिए! दूसरे ने भी अपनी बही में वही बात पहले वाले दुकानदार के नाम लिख दी। 

“उस ज़माने में विश्‍वास की तो ऐसी इन्तहा थी कि बोला हुआ ही काफ़ी होता था और बही में लिखा तो सवा सोलह आने सच ही माना जाता था। 

“पंच भौचक! पंचायत भी बुलाई। पर कोई नतीजा नहीं निकला। अंत में सारे पंच दोनों बनियों और दोनों बहियों को लिए हुए पतरामजी के पास पहुँचे। और उन लोगों ने उनसे निपटारा करने की प्रार्थना की। 

“पतरामजी ने दोनों बहियाँ रखवा लीं और कहा कि ‘आप लोग हफ़्ते भर बाद आइएगा।’

“आठ दिनों के पहले ही पंचों को ख़बर मिली कि दोनों बनियों में सुलह हो गई है। पंचों ने पतरामजी से बहियाँ माँगी तो उन्होंने कहा कि वे उन्हें बनियों को ही लौटाएँगे . . .  इसलिए पंच वापस लौट गए। 

“लेकिन इसका मर्म बिन्दु दिवाली के अवसर पर उजागर हुआ। ज़माना सच्चाई का था और झगड़ा मिट चुका था। 

“पहला बनिया दूसरे के पास आकर बोला ‘भाई! माफी दे दे और ले ये तेरे दो सौ रुपए।’ दूसरे ने अपने ‘क़लमदान’ से दौ सौ की गड्डी निकाली जिस पर पहले बनिए का नाम लिखा था और उसे लौटाने लगा। 

“दोनों अवाक्‌। पर अभी भी उनमें कुछ समझदारी बाक़ी थी। दोनों दौड़े पंचों के पास; . . . पंच दौड़े पतरामजी के पास! . . . वे चार सौ लौटाने जो उन्होंने झूठी क़लम के एवज़ में अपने पास से दिए थे। लेकिन पतरामजी ने इन्कार में कहा, ‘मैं इनका क्या करूँ? जाइए किसी अच्छे काम में लगा दीजिए।’

“आज यह बात छोटी-सी लग सकती है पर छोटी है नहीं क्योंकि बूँद से समुद्र का और छोटी बातों से ही बड़ी बातों का विस्तार जाना जाता है।” 

पिताजी ने आगे कहा, “सही है कि उनके परिवार में कोई नहीं बचा, और इसका भी एक कारण था। 

“एक बार पतरामजी राजस्थान के एक गाँव से गुज़र रहे थे। रास्ते में एक कुएँ पर रुके और पीने का पानी माँगा। कुएँ पर एक बच्चा बैठा था। उसने लोटा भर कर आगे बढ़ाया और उनसे एक आना (छ: पैसे) माँगा। 

“पतरामजी के हाथ से लोटा छूटते-छूटते बचा। पानी के पैसे? . . . यह कैसा कलियुग आ गया . . .  तब तक इस गाँव में पतरामजी के आने का हल्ला मच गया था। 

“गाँव वालों ने उन्हें बताया कि यह बच्चा और कुआँ एक जवान विधवा के हैं, जिसके पास बस यह कुआँ ही बस है। अत: इसी के पानी से वह अपना और बच्चे का ख़र्च चलाती है। 

“यह सुनकर पतरामजी सनाका खा गए। उन्होंने कुएँ के पाँच सौ रुपये देकर उसे निःशुल्क करवाया और फिर लोटा भर कर डूबते-सूर्य को अर्घ्य चढ़ाते हुए प्रार्थना की; ‘हे प्रभु! यदि मुझ में ज़रा भी सत है तो मुझे निरवंश कर दे! नहीं तो क्या पता कभी मेरा कोई वंशज भी पानी बेचने लगे (?)’ 

“आप इसे भ्रम मानें या सच!! झूठ या बकवास!! लेकिन पूरी भिवानी साक्षी है कि जैसे ही पतरामजी घर लौटे उनका एकमात्र जवान बेटा चल बसा।” 

पिताजी ने आगे बताया कि पतरामजी ने न केवल भिवानी और आसपास के गाँवों में बल्कि राजस्थान में भी कई अनाम कुएँ, बावड़ी जोहड़ आदि बनवाए। पतराम दरवाज़े के बाईं ओर जो बड़ी धर्मशाला खड़ी है वह उनके पुरखों का घर था। उन्होंने बिना किसी आहट और आवाज़ के उसे अपने रोम-रोम के साथ दान कर दिया। वे भले ही निपूते मरे लेकिन उन्हें लावारिस नहीं कहा जा सकता। 

शायद, यह किसी गाँव के इतिहास में पहली और अंतिम बार घटा होगा कि यह दरवज़्ज़ा जो “पतराम दरवज़्ज़ा’ के नाम से प्रसिद्ध है किसी के वंशज ने नहीं . . . बल्कि गाँव वालों ने बनवाया है। 

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