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रश्मिरथी माँ

 

सबीनाऽऽ! ओ सबीनाऽऽ! अरे कमबख़्त! कहाँ हो? मैं कब से चीख़े जा रही हूँ? . . . सबीनाऽऽऽ . . . 

बिल्कीस आपा करीमगंज वाले सेन्टर में अलमारी के नीचे घुसी हुईं, ‘तारे’, ‘सलमे’, ‘कंदले’ और ‘कांगणी’ के ढेर में बुलियन का गोला ढूँढ़ रही थीं, जो ढेरों झक मारने के बावजूद, हाथ नहीं आ रहा था। 

“११ बज रहे हैं, लड़कियों का हुजूम आने ही वाला है, यदि आते ही हाथ में काम न पकड़ाया तो सबकी सब, ही-ही ठी-ठी में लग जाएँगी, और फिर गया आधा दिन ‘भांग के भाड़े’।” 

मनुष्य स्वभाव इतना विचित्र होता है कि वह असंभावित ख़ुशी को न तो सुन पाता है, ना ही देख पाता है! . . . वह उसे अपने मन का भ्रम मात्र मान अनसुना कर देता है। बिल्कीस भी उसके लिए अपना पल मात्र गँवाए बिना उसी लगन से अपने काम में बझी रही, दोनों हाथ, सिर, आँखें, सब कुछ, उसी ड्रॉर में घुसाए!! पर वह ज़िद्दी आवाज़ कुछ और ऊँचे स्वर में फिर से सुनाई पड़ी, “सलाम आलेकुम आपा!!” अपनी अंगुलियों से सूत की लच्छियाँ और डोरे छुड़ाकर, उन्हें ज़ोरों से वापस ड्रॉर में पटकती बिल्कीस ने ज़ोरों से जवाब दिया “वालेकुम अस्सलाम भाई!! वालेकुम अस्सलाम, . . . सबीना बस्स!! कोई काम न धाम . . . जब से इस सलाम की ही रट लगा रखी है। गोया सलाम न हुई, काम न करने का बहाना हो गई . . . । मैं जब से तुम्हारे नाम के मनके फेर रही हूँ और आप हैं!! कि . . .?? ”

नेपथ्य में ज़ोरों से हँसी की आवाज़ सुन आपा ने घूर कर सलामवाली को देखा तो अचकचा गईं . . .  या ख़ुदा क्या ये हमारी कोई मददगार हैं (?) जिनसे मैं अनजाने में इतनी बदतमीज़ी से पेश आई हूँ? हालाँकि यह सबीना तो नहीं है . . . 

बिल्कीस के असमंजस को भाँप वह नारी-मूर्त्ति आगे बढ़ी और उसने श्रद्धा और अपनेपन से बिल्कीस के गले लगते हुए धीमे से कहा, “आपा! आपकी अपनी ज़ाहिदा!!” याद आया! . . . या और कुछ?? ज़ाहिदा?? अब बिल्कीस उसे एकटक घूर रही थी। दरअस्ल, उनकी आँखें ज़ाहिदा के चेहरे पर स्थिर थीं, पर उन आँखों में सिनेमा की तरह दृश्य पर दृश्य आ जा रहे थे। पटकथाहीन यह चलचित्र निरंतर अपनी नई कहानी लिखता और फिर उसे कुछ पूरा कुछ अधूरा सा छोड़ आगे बढ़ जाता। . . . 

ज़ाहिदा-रहमान की पूरी जीवनी का रंग वैसा ही था जो आमतौर पर न्यूनतम साधनवालों का होता है। रहमान के पास न कोई ज़मीन ज़ायदाद थी और न ही गाय-भैंस! कि गाँव में पेट पाल सकता इसलिए शहर आ गया था, पर यहाँ भी वही ढाक के तीन पात!! न तो अनपढ़ को नौकरी . . . और न ही रेज़ा-मजूरों की रोज़ाना ज़रूरत!! छिटपुट काम से छह प्राणियों का पेट कैसे भरे? ज़ाहिदा घरों में झाड़ा-पोंछा कर कुछ कमा भी ले तो बच्चों को कहाँ छोड़े? और ऊपर से अल्लाह का क़हर कि इन पेटों को ही पानी नहीं है और ऊपर से एक नया बच्चा पेट में आ गया है! . . . 

क्या? क्या? कहती हुई बिल्कीस लगभग चीख़ती-सी बोली, “माथा ख़राब है तुम लोगों का? तुम लोग आदमी हो कि कसाई? दमादम औलादें जन रहे हो! . . . भूखा मारने के लिए? या ख़ुदा रहम कर इन बेवुक़ूफ़ों पर . . .” कहते हुए उन्होंने अपना सिर दाहिने हाथ से पकड़ा और अपलक दृष्टि से मेज़ को देखती रहीं . . . कमरे में सन्नाटा छा गया। . . .  वैसे कोई उन बच्चों को देखता तो कहे बिना नहीं रहता, वाह! क्या बच्चे हैं? इतने सौम्य? इतने शांत? 

ज़ाहिदा का यह जवाब कुछ तसल्ली-बख़्श था, इसलिए बिल्कीस ने आगे की योजना बनानी शुरू की। इस क्रियान्विति के दौरान बिल्कीस का साबिका और कई तथ्यों से पड़ा। उसे पता चला कि रहमान और ज़ाहिदा इन दिनों निरन्तर अपना ख़ून बेच रहे हैं, ताकि बच्चे दो-जून पेट भर कर खा सकें। फ़ुटपाथ पर सोते हुए बच्चों की पहरेदारी ख़ासकर सुन्दर बेटियों की, कितनी कठिन है इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है, इसलिए रहमान ने किडनी का एक दलाल ढूँढ़ निकाला है, जो उसकी एक किडनी के बदले इतने पैसे दिलवा देगा कि पगड़ी देकर एक कोठरी कम भाड़े में ली जा सके!! यह चौंकाने वाला ख़बर सुनकर बिल्कीस ने माथा ठोकते हुए तड़पकर कहा, “बस! अब बस करो। . . . मैं सारी कहानी समझ गई हूँ। अब मुझे प्लान बनाकर फटाफट काम करने दो। हाँ, मेरी आदत तानाशाही की है। यदि तुम लोगों को मुझ पर पूरा भरोसा है, तो बिना प्रश्‍न पूछे और मीन-मेख निकाले, जैसे मैं कहूँ वैसे ही सारे कामों को अंजाम देते जाना, वर्ना इंशा अल्ला! तुम अपने काम लगो, मैं अपने!”

ज़ाहिदा और रहमान वैसे ही बिल्कीस के पुराने भक्त थे और अब ऐसी घड़ी में जब वे सपरिवार बीच मंझधार में डूब रहे हैं, और बिल्कीस बेग़म डूबते का तिनका नहीं पूरी की पूरी नौका बनीं हुई हाज़िर हैं तो भला उन्हें क्या उज़्र होता? और उनकी एक ज़ोरदार ‘हांई’ के साथ सभा का समापन हो गया। 

पता चला, बिल्कीस आपा ने आनन-फ़ानन में अपनी डॉक्टरनी भाभी से बात कर, ज़ाहिदा का गर्भपात और रहमान की नसबंदी करवा दी। जब वे दोनों क़ुरान पाक़ के हवाले से इसे नाज़ायज़ बताने चले तो, आपा ने ऐसी अकाट्‌य दलीलें दीं कि नामी-गिरामी मौलवी का भी हौसला पस्त हो जाए। उन्होंने कहा, “तुम्हें पता है ना कि मैंने क़ुरान-पाक़ का तर्ज़ुमा हिन्दी में किया है और उसकी पाबन्द भी हूँ। 

“यह लो तुम सबकी बम्बई की ट्रेन टिकटें और कपड़े, यह सारा ख़र्चा अपने केन्द्र की सुप्रिया चक्रवर्ती ने किया है, इसलिए उन्हें धन्यवाद-प्रणाम ज़रूर कह देना, . . . बम्बई में नरीमन प्वायंट पर मेरी मुँहबोली बेटी शकुन (धनाढ्‌य समाजसेविका) तुम लोगों की गार्जियन बनने को राज़ी हो गई है . . . । रहमान को बिजली का काम आता है, वह उनकी फ़ैक्ट्री में काम करेगा, और तुम उनका घर सम्हालोगी। उनके सर्वेन्ट क्वार्टर में तुम लोगों का रहवास होगा और तुम्हारे बच्चों को शकुन किसी अच्छी नि:शुल्क स्कूल में भर्ती करवा कर, प्रत्येक बच्चे के लिए एक प्रायोजक ढूँढ़ देगी। ख़ुदा के रहम से सब ठीक ही होना चाहिए और आगे तो उसकी मर्ज़ी और तुम्हारा नसीब।” 

उनके मनोभाव निश्‍चित रूप से उनके चेहरे पर आ गए होंगे, तभी तो उनके ऊहापोह की ‘मेंड़’ को तोड़ कर उनके अधिकार-क्षेत्र के भीतर घुसती ज़ाहिदा ने कहा, “आपा! मैं ज़ाहिदा ही हूँ-उसका भूत नहीं! आपा! आप क्यूँ मुझे यों अकचकाई सी देखे जा रही हैं? . . . मैं वही रहमान की बीवी ज़ाहिदा हूँ!”

ज़ाहिदा के सामने चार बच्चों का महत्त्वाकांक्षी भविष्य भी झूल रहा था इसलिए उसने इधर-उधर हाथ-पैर मारने शुरू किए। ज़ाहिदा देखने में आकर्षक थी और उसमें एक नफ़ीस सा सलीक़ा भी था। कई तरह के घटिया प्रस्तावों को ठुकराने के बाद उसे बग़ल के फ़्लैट की नौकरानी ने एक प्रस्ताव दिया, जिसे वह तुरन्त ना नहीं कर सकी, लेकिन? हाँ! एक बड़ा-सा लेकिन? उसके सामने अजगर सा मुँह बाए खड़ा था, और वह था मज़हब का। इस्लाम में रुपए के ब्याज तक को हराम माना गया है और यहाँ तो पूरा मामला ही टेढ़ा-मेढ़ा था। ज़ाहिदा के निर्णय ने बिल्कीस को अचंभित कर दिया और उसके मुँह से बेहिसाब आशीषें निकलने लगीं। ज़ाहिदा ने एक दुखियारी संतानहीना के बच्चे को अपनी कोख में पाल कर उसे मातृत्व के सुख से नवाज़ा था। उसने बताया कि बम्बई में एक एजेन्सी है जो ज़ाहिदा जैसी माँओं की पूरी जाँच-पड़ताल करके, उन्हें निरोग बनाकर, अपने वातानुकूलित स्वास्थ्य केन्द्र में रखती है। गर्भावस्था में रानी-महारानियों की तरह उसके लिए फूलों को ज़मीन पर बिछा दिया जाता है। उसके घरवालों को भी अनेक सुख-साधन प्रदान किए जाते हैं। गर्भवती कभी भी उस बच्चे के माँ-बाप से नहीं मिलती है, और बच्चा होते ही उसके माँ-बाप आते हैं और बच्चे को प्रथम पेय पिलाने के बाद पर्दे की आड़ से उसे ले जाते हैं। दान देने वाली माँ को वे इतनी सुख-सम्पदा से भर देते हैं कि सिवा शुभकामनाओं और आशीष के उसके मन में कोई विकार नहीं आता। उसकी उस छवि में कहीं भी किराए की कोख का ग्लानि बोध नहीं, दाता की उदारता का संतुष्टि भाव, परिलक्षित हो रहा था। लेकिन बिल्कीस को जब पैसों का पता चला तो उसने उसे घूर कर देखा और घुटने पर हाथ रख कर उठते हुए पूछा, “कितना कमा लिया, इस तरह बच्चे बेचकर? क्या तुम्हारा हाथ क्षणमात्र को भी कलेजे पर नहीं गया? कैसी माँ हो तुम? . . .” 

ज़ाहिदा ने पहले तो चौंक कर, और फिर ऐसी दया-दृष्टि से बिल्कीस को देखा, मानों वह पूरी ‘जड़भरत’ है, फिर उसने एक छोटा-सा लेक्चर बिल्कीस को दिया, जिसे सुनकर बिल्कीस का सिर चकरघन्नी सा घूमने लगा, उसे लगा, वह वाक़ई महामूर्ख है। 

ज़ाहिदा ने कहा, “आपा! मैंने सोचा न था कि आपके विचार इतने संकीर्ण होंगे। आपने हमें सदा सच्चाई और आत्म स्वाभिमान के साथ जीवन जीना सिखाया है। ऐसा जीवन जीने के लिए हम ग़रीबों को क्या कुछ नहीं करना पड़ता? पर उसके बावजूद हासिल क्या होता है? तन पर पूरे कपड़े नहीं! इलाज और पढ़ाई के पैसे नहीं! सिर पर छत नहीं! रात-दिन खट कर भी, घिघियाने पर जो पैसे मिलते हैं, उनसे खाना ही पूरा नहीं पड़ता, तो फिर आख़िर करें क्या? चोरी-छिपे जिस्म बेचें? चोरी-चकारी करें? छिनताई करें? आख़िर इस पेट की खोह को किस चीज़ से भरें? अच्छा आपा! रोज़ सरेआम ख़ून बेचना, किडनी बेचना, ईमान बेचना, चलता-रहता है, पर मैं, जो, यों भी हर साल इस धरती पर एक बच्चे की आमद कर देती थी! वही ज़ाहिदा! यदि अपनी उसी कोख़ से किसी वंचिता माँ की कोख भर कर उसके घर में उजाला भर देती है तो पाप करती है? . . . और मेरी इस मेहनत के एवज़ में यदि हमारी माली हालत कुछ सुधरकर बच्चों को रहना, खाना, पीना और पढ़ना मुहैय्या! करवा देती हैं, तो यह अन्याय है? . . . अचानक ही मैं माँ से डायन बन जाती हूँ? हाँ! यदि यही काम मैं मु़फ़्त में करती तो दयावान कहलाती, आप भी मेरी प्रशंसा के पुल बाँधते न थकतीं? क्यों? . . . ठीक कह रही हूँ ना मैं? 

“आपा! यह कैसा न्याय है आपका? जिसने आज भी अपनी आँखों पर पट्टी बाँध रखी है। क्या आप नहीं चाहतीं कि मेरे बच्चे अच्छे नागरिक बनें? क्या आप नहीं चाहतीं कि हमारा परिवार कम से कम छोटी-मोटी ख़ुशी का अनुभव कर पाए? . . . 

“आपा! दरअस्ल, आपलोग ख़ुद नहीं जानते कि आपलोग चाहते क्या हैं? एक ओर तो जब कोई धनाड्‌य महिला आपके केन्द्र को दान देती है तो आप उसे सिर आँखों पर बिठा लेती हैं पर यदि एक स्त्री किसी और को खुशियाँ देकर उसके घर को आनंद के प्रकाश से भरकर अपने लिए भी रोशनी के कुछ कण ले आती हैं तो आप उसे धिक्कारती हैं! . . . क्या यह विचारों का दोगलापन नहीं है? आपा! आपके इस छोटे से वाक्य ने मेरे मर्म पर ऐसी चोट की है कि आप उसका अंदाज़ नहीं लगा सकतीं। मैंने सोचा था, आप जैसी खुले दिमाग़ की समझदार औरत मेरी पीठ थपथपाएगी? पर आपने तो मुझे रसातल में पहुँचा दिया? आपा! मुझे आपसे यह उम्मीद नहीं थी!!” . . . कहती हुई ज़ाहिदा धीरे से उठी और भारी क़दमों से वहाँ से चली गई। 

बिल्कीस को पता नहीं कि वह कब तक यूँ ही सामने शून्य को देखती बैठी रही। जब किसी ने आकर कमरे में बत्ती जलाई, तो वह चौंक कर झटके से उठी, और मन को बहलाने के लिए अपनी प्राणसखा आरती के घर चली गई। 

बिल्कीस जब डुप्लिकेट चाबी से फ़्लैट खोलकर आरती के घर में घुसी तो फोन घनघना रहा था . . . । बिल्कीस ने तपाक से फोन उठा लिया, और हैलो कहते ही उस पार से आवाज़ आई, “ऐ! बींदनी (बहू) सुण! एक भोत चोखी ख़बर देणी है तन्नैं!!” 

“मामी जी! मामीजी! मैं बिल्कीस!” 

“अरे बिल्कीस बेटा! आरती नै भी बोल कि दूसरों फोन उठावैगी . . . । चोखो (अच्छा) होयो तू अठै (यहीं) ई है, नई तो तन्ने भी फोन करती . . .” फोन की घंटी सुनकर आरती पहले ही दूसरा फोन उठा चुकी थी। उसने लाड़ में कहा, “प्रणाम मामी जी! सुणावो के बढ़िया खबर है? मैं ‘झोली माँड’ (फैला) चुकी हूँ।”

“बींदणी! अदिति और निकुंज के आज खूब सोणो (सुन्दर) बेटो होयो है।”

“मामीजी! गजब . . . भोत बधाई! कि १८ बरस बाद यो दिन आयो। इत्ता सुन्दर माँ-बाप! इत्तो धन! . . . मामीजी बहुत ही बढ़िया ख़बर सुणाई! . . . थे तो डॉ. पारेख सै इलाज करायो थो के? . . . या ये लोग बिलायत गया था? . . . किसैस फ़ायदो होयो?” 
“ऐ बाई न तो पारेख, न तेरी निर्मला, ना ई बिलायत, कोई सै ही फायदो कोनी होयो!! आपाँ तो मुन्ने नै ‘सरोगेट’ करवायो है।”

“मामीजी! सरोगेट बच्चो नईं माँ होवै है!!” 

“ऐ बाई! इत्तो तो मन्ने बेरो कोनी? पण एकई बात है। बच्चो ‘सरोगेट’ होवे चाये माँ आपणै लिए तो एकी बात है।”

इन्हीं मामीजी ने अपने ख़ुशी से सराबोर शब्दों में अदिति की माँ बनने की पूरी कहानी यह कहने के बावजूद भी सुनाई कि “मामीजी बोला (बहुत) पिस्सा (पैसा) लागेगा, एस.टी.डी. है।”

आश्‍चर्यजनक ढंग से छोटे-छोटे एकाध अपवादों के सिवाय यह कहानी हूबहू ज़ाहिदा की कहानी से मिलती थी। वही कोई बाहरवाली एजेंसी, . . . वही माँ का चुनाव, . . . वही घरवालों की भी देख-रेख, आदि-आदि सारी बातें यकसाँ सी थीं। उन्होंने यह भी बताया कि ख़र्च तो बहुत हुआ, पर इस तरह का ख़र्च तो वे सारी दुनियाँ में डॉक्टरों को दिखा-दिखा कर कई बार कर चुके थे, और साथ ही समय और अर्थ दोनों की हानि भुगत चुके थे। इतने सुन्दर नतीजे के सामने उनके लिए रुपया क्या चीज़ है? अन्तिम वाक्य का अर्थ था, “हम सब तो दिन-रात उस औरत को ‘असीसते’ रहते हैं जिसने इस घर को इकलौता चिराग़ देकर निराशा के अंधकार की जगह उजाला ही उजाला भर दिया है।”

आरती हूँ, हाँ-करती जा रही थी और दूसरा फोन पकड़े बिल्कीस क्रमश: बर्फ़ की तरह गलती हुई . . . पानी पानी होती जा रही थी। उसकी आँखों पर से एकांगी ज्ञान के अहंकार का पर्दा हट रहा था . . . और उसका स्थान स्वयं की लानतमलामत ले रहा था। 

बिल्कीस को अपने किए पर गहरा पछतावा हो रहा था। रह-रह कर उसकी आँखों के सामने ज़ाहिदा का वह अविश्‍वास से भरा सहमा-सा चेहरा घूम रहा था . . .  पैर के अँगूठे से उसका ज़मीन को कुरेदते हुए ज़मीन को पकड़ने की चेष्टा करना, आँखों के कोरों तक आए ‘टल टल’ आँसुओं को थामने की विफल चेष्टा करना, आदि दृश्य उसका पीछा नहीं छोड़ रहे थे। 

आरती और बिल्कीस दोनों ही फोनों को हाथ में थामे, किसी भावलोक में खोई हुईं थीं, कि उस तन्द्रा को चीरती बिल्कीस की आवाज़ गूँजी, “आरती चल उठ। तुरन्त ज़ाहिदा के घर जाना है। उसका घर तेरे आसपास ही है, विद्यासागर सेतु के नीचे ही कहीं! . . . ठहर उसने पता दिया था!” . . . कहते हुए उसने अपने पर्स से पता लिखी एक छोटी-सी चिरकुट निकाली। 

आपस में बिना कोई बात किए दोनों उठीं और चल पड़ीं। आरती ने रास्ते में बच्चों के लिए चॉकलेट और मिठाई का एक बड़ा डिब्बा ख़रीद लिया।

नई बस्ती में बने एक चारमंज़िले छोटे मकान में तीसरे तल्ले पर दो बेडरूम के फ़्लैट की घण्टी बजाते ही सामने एक प्यारी से नवयुवती आ खड़ी हुई। पहले उसने आदाब बजाया और फिर नमस्ते करते हुए कहा, “आंटी, भीतर आइए! माँ अभी आ रही है।” फ़्लैट की सज्जा, अति साधारण, अति सुघड़, न बहुतायत, न अभाव, का परिचय दे रही थी। 

इतने में साफ़-सुथरे कपड़ों में सिर पर हैलमेट लगाए, हाथ में एक ब्राउन ब्रीफ़ केस लिए रहमान मुस्कुराता हुआ सामने आ खड़ा हुआ। वो बिल्कीस और आरती की उपस्थिति से इतना गद्‌गद्‌ था कि उसका प्रेम उसे बौराए दे रहा था। उसकी भंगिमा ऐसी थी मानों उसके वर्षों से साधे हुए भगवान अकस्मात् उसके यहाँ आ गए हों। कुछ स्थिर होकर उसने बताया कि यह फ़्लैट बनने से पहले ही बुक कर लिया गया था इसलिए ठीक-ठाक दाम में मिल गया, अब तो इसके दाम भी आकाश छू रहे हैं। 

बिल्कीस के दिमाग़ में फिर ज़ाहिदा को कहे हुए अपशब्द गूँजने लगे। लेडी मैकबेथ के तरह ही उसके हाथों से भी चिपका हुआ ख़ून छुटाए नहीं छूट रहा था, कि तभी चाय की ट्रे लिए ज़ाहिदा आ गई। 

उसके कमरे में घुसते ही बिल्कीस को लगा मानों वह पूरा कमरा एक पवित्र उजास से भर गया है। ज़ाहिदा उसे माँ धरती के मानिंद लगी जो सबका कष्ट झेलकर भी सबके जीवन को ख़ुशहाल करती है। 

माँ!! को भगवान के समकक्ष माना गया है, पर ज़ाहिदा तो माँओं की माँ हैं। उन सब दुखियारी स्त्रियों की माँ हैं, जिनकी ज़िन्दगी को उसने अपने वरद-हस्त से औढ़रदानी शिव की तरह संतान का दान देकर तृप्त किया है। यदि यही भ्रष्ट होना है, तो एक क़ानून बनाना चाहिए कि इन भ्रष्ट महिलाओं को समाज में अभिनन्दित किया जाए। इन्हें बड़ी उपाधियों से नवाज़ा जाए, आख़िर ये वह काम कर रही हैं जिसे करने में स्वयं भगवान भी असफल रहे हैं। 

ये देवी हैं प्रकाश की। ‘क़िराए की कोख’ जैसे घटिया शब्द का प्रयोग कर आप अच्छाई की परिभाषा को मत बदलिए! . . . ये प्रतीक हैं श्रद्धा की! ममता की! ये जननी हैं! ये माँ हैं! सार्वभौम माँ!! 

समुद्र के आकाश में/ हाथों के डैनों से डूबती-उतराती/ मेरी वनलता ने/अपनी पीठ से झाँप लिया है गुलाबी सूर्य लिए माँ धरती सी उसकी काया। सूर्य को पृष्ठभूमि में आश्‍वासित करती है/ अपने अमृत-पुत्रों को/नहीं है मृत्यु!। नहीं है ज़रा!। नहीं है कोई भय!! 

सत्य है सिर्फ़ अभयी का अमरत्व पान!! . . . 

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