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आकाश छूता, ज़र्रा ज़मीन का

वह आदमी कैसा होता है? 
जो ज़मीन पर रहते हुए भी आक़ाश का होता है।
वह आदमी कैसा होता है? 
जो काँटों के बीच रहते हुए भी
फूलों को ही जानता है।
वह आदमी कैसा होता है?
जो दुःख के सागर में भी आनन्दमग्न रहता है।
वह आदमी कैसा होता है? 
जो मृत्यु से घिरा होते हुए भी
आत्मा की अमरता खोज लेता है। 
कैसा होता है वह आदमी? . . .

‘भरतऽऽ! छोटूऽऽ!” की गुहार, और उसका यह प्रत्युत्तर ‘जी, आ गया’ हमारे पूरे घर में रात-दिन ऐसे गूँजता रहता, गोया यह किसी आदमी का नाम न होकर अलादीन के चिराग़ी जिन्न का पर्यायवाची हो। 

जब उसका दूर से ही ‘जी, आ गया’ सुन कर मैं उसका व्याकरण शुद्ध करने की कोशिश करती हुई उससे कहती, “अरे भई, ‘जी आ गया’ नहीं, ‘जी, आया’ होता है,” तो वह अपने सारे नाक-नक़्श लिये पूरे चेहरे से हँसता हुआ कहता, “माँऽ! वो अँग्रेजी में कुछ होता है ना! क्या पास्ट-प्रजेन्ट या कुछ और . . . वैसा ही आप इसे भी समझ लीजिए। वैसे भी मैं जवाब के पहुँचने तक, ख़ुद भी तो वहाँ पहुँच ही जाता हूँ, तो यही ठीक हुआ ना!”

उसकी बाल-सुलभ उक्तियाँ, बेइन्तिहा ईमानदारी और सच्चापन उसे किसी और ही लोक का प्राणी प्रतिष्ठित करते थे। आज के ज़माने में यदि किसी को पोलीथीन में लिपटी, दस भरी खाँटी सोने की कंठी, कचरापेटी में फेंकी हुई मिल जाए; तो क्या वह बिना किसी एहसान के उसे धीरे से लाकर मालिक के हाथ में रख देगा? भरत ने ऐसा ही किया था और शायद अपनी इन्हीं दिलेरियों के कारण वह घर में हर किसी का मनचीता बन गया था। 

प्लम्बर का काम हो, तो भरत! टीवी गड़बड़ है, तो भरत! बत्ती गड़बड़ है, तो भरत! सब्ज़ी में नमक ज़्यादा है, तो भरत! गाड़ी, टेलीफ़ोन, मोबाइल अर्थात् गृहस्थी के सैकड़ों छोटे से छोटे और बड़े से बड़े काम का हमारे यहाँ एक ही जवाब था: भरत। उसकी इस अप्रतिम प्रतिभा को देखकर मैं सोचने लगती कि आख़िर उसका यह तिलस्मी व्यक्तित्व गढ़ा कैसे गया? 

एक दिन एक और अविश्‍वसनीय वाक़िआ घटा। मेरी पोती के विवाह के समय, हड़बड़ी और घबराहट में मुझसे कोठरी में रखी घर की बड़ी तिज़ोरी सपाट खुली छूट गयी। भरत के सिवा पूरा फ़्लैट सूना था। रात गये जब हम सब घर लौटे, तो भरत ने मेरे पास आकर धीमे स्वर में कहा, “माँ! आप पहले अपनी कोठरी बन्द कर दीजिए।”

जब मैं अकबका कर भागती-सी सेफ़ के सामने जा कर खड़ी हुई, तो गहने-रुपये आदि का खुला प्रदर्शन देख कर स्तब्ध रह गयी। इस उम्र में अपनी इस बड़ी लापरवाही को कोसती हुई मैं उसे धन्यवाद या कोई इनाम देने की सोच ही रही थी कि वह वहाँ से उड़न-छू हो कर, अपने रोज़मर्रा-रूटीन के तहत, एकदम सहजता से रसोईघर में काम करता नज़र आया। उसकी कोई न कोई ऐसी विस्मयकारी ‘करनी’ प्रतिदिन, प्रतिक्षण मुझ तक आती और मैं अचरज-भरी उसे देखती रह जाती। 

इस दृश्य से निर्वाक्! मैं! हैरान-सी सोचने लगी कि क्या यह कोई शापग्रस्त ऋषि है, जिसे कोई भी लोभ और लालच बिल्कुल नहीं छूते? यहाँ तक कि यदि कभी-कभार उसकी हार्दिक प्रशंसा की जाती, तो वह भी उसे बिल्कुल नहीं सुहाती और वह बिना किसी भाव के वहाँ से चलता बनता। उसके क्रिया-कलाप और हाव-भाव देखकर भान होता था कि जैसे दूसरों की ममता भरी सेवा करने के सिवा उसका लगाव किसी भी चीज़ से नहीं है। 

वह हर काम पूजा की तरह करता, यहाँ तक कि यदि उसके हाथ में कूड़ेदानी में डालने के लिए कूड़ा भी पकड़ाया जाता, तो वह उसे यों लेता मानो भगवान का प्रसाद ग्रहण कर रहा हो। यदि वह नीचे झुकने में असमर्थ मालिक को जूते पहनाता, तो कम से कम दो बार अपने हाथ माथे पर यों लगाता, जैसे उसने भगवान के चरण छुए हों। 

दिन-प्रतिदिन मेरी यह आस्था प्रगाढ़ होती जा रही थी कि उसके माँ-बाप ने उसे बहुत ज़्यादा समझदारी, प्रेम, मेहनत और ईमानदारी से रच-बुनकर इतना संस्कारी बनाया है। 

अचानक एक विपर्यय घटा: एक दिन मैं अपने छज्जे पर खड़ी थी कि मुझे भरत ज़ोरों से हाथ हिला-हिला कर अपने उस ‘पूजनीय भाई’ से झगड़ता दिखा, जिसे वह भगवान मानता था। मैं हैरानी से उसे देखती हुई उस स्थिति की माप-जोख करने की चेष्टा कर ही रही थी कि उसकी नज़र मुझ पर पड़ी और वह वहीं शर्म से गड़-सा गया। जब मैंने उसे ऊपर आने का इशारा किया, तो वह पलक झपकते ही मेरे सामने आन खड़ा हुआ। 

“भरत! तुम धर्मेन्द्र से इतने ज़ोरों से क्यों लड़ रहे थे? तुम्हारी दोनों आँखें लाल भभूका हो कर कोटरों से निकली पड़ रही थीं और तुम मारे ग़ुस्से के ऐसे काँप रहे थे, जैसे तुम्हें ‘जूड़ी’ चढ़ गयी हो। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि तुम-सा ठंडा आदमी इस तरह क्यों बिफरा हुआ है! ठीक से बताओ कि आख़िर हुआ क्या है?” 

इस पर उसने अपनी नज़रें ज़मीन में गड़ाते हुए कहा, “माँ! कल भैया ने बाबू जी पर ज़ोर से कुर्सी दे मारी थी, सुनकर मुझे ग़ुस्सा आ गया और मैं उनसे लड़ पड़ा।” 

“धर्मेन्द्र ने ऐसी बदतमीज़ी की? ज़रा मैं भी तो सुनूँ कि उसे किस बात का इतना घमण्ड हो गया है? ठहरो! मैं अभी भैया (उसके मालिक) को फ़ोन करती हूँ।”

“ना माँ, ना! ऐसा मत कीजिए। आपको पूरी बात का पता तो है नहीं, बेकार में बड़े बाबू उनकी क्लास ले लेंगे। माँ, छोड़ दीजिए, बात को यहीं ख़त्म कर दीजिए।”

पर बात को ऐसे ही छोड़ दूँ, यह तो मुझ ज़िद्दी की फ़ितरत के ख़िलाफ़ है। हाँ, भैया से कुछ न कह कर मैंने सीधे धर्मेन्द्र को ही अपनी ‘हाज़री’ में बुला भेजा। 

“धर्मेन्द्र! ऐसा क्या हो गया था, जो तुमने अपने बाबूजी पर कुर्सी उठा ली? आख़िर वे तुम्हारे पिता हैं! उन्होंने तुम लोगों को बिना माँ के पाला-पोसा है! और तुमने उनके साथ ऐसी बदसलूक़ी की? भई, यह तो मर जाने लायक़ बात है!” 

धर्मेन्द्र अत्यन्त ही मितभाषी लड़का है। हालाँकि कई बार उसका यह चुप्पापन, लोगों को एक तरह का घुन्नापन भी लगता है। लेकिन जब उसने टूटे-फूटे शब्दों में अटक-अटक कर, मुझे उस स्थिति की वजह बताई, तो ख़ुद मुझे ऐसा क्रोध आया कि मैं अभी ही उसके बाप पर कुर्सी क्या, पूरी मेज़ ही दे मारूँ! उसका बताया क़िस्सा यों था: 

“बाबा, दादा के बिगाड़े हुए इकलौते बेटे होने के कारण, बचपन से ही दादा के कमाये पैसों को स्वाहा करने में लगे रहते थे। उन्हें छोटी उम्र से ही शराबख़ोरी, जुआख़ोरी, रंडीबाज़ी आदि लतें लग गयी थीं। और यह गधा छोटू! . . . जिसके लिए आपको डॉक्टर ने कहा था कि इसकी आँखों की नर्व ख़राब है, उसका कारण भी मेरे स्वनामधन्य पिताजी ही हैं। उन्होंने छह साल पहले ठंडा खाना देने के कारण इसके सिर के पिछले हिस्से पर पत्थर की सिल का भारी लोढ़ा उठा कर दे मारा था। फलस्वरूप इसकी दोनों आँखें चौबीस घंटों तक उलट गयी थीं। कल वे मेरे साथ भी कुछ वैसी ही हरक़त करने वाले थे कि मैं ग़ुस्से में यह ग़लती कर बैठा। वैसे मैंने बहुत ही पुरानी और टूटी-फूटी कुर्सी चुनी थी, क्योंकि मेरा विचार उन्हें घायल करने का नहीं, अपना बचाव और उन्हें धमकाने का ही था।”

हो न हो, धर्मेन्द्र झूठी कहानी गढ़ रहा है, सोच कर जब मैंने अपनी अविश्‍वास से भरी आँखों से भरत की ओर, उसकी सत्यता पर समर्थन का ठप्पा लगाने के लिए देखा, तो उसने शर्म से अपनी आँखें ऐसे झुका लीं, मानो पाप उसके बाप ने नहीं, उसी ने किया हो। कुछ तो उसकी आँखें वैसे भी केन्द्र में नहीं रह पाती थीं, पर उस वक़्त तो वे एक परकटे पक्षी की तरह ज़ोर-ज़ोर से फड़कते आकुल-व्याकुल, दाएँ-बाएँ, देखती हुईं छटपटाने लगीं। उसके चेहरे से पसीने की बूँदें चुहचुहा कर ज़मीन पर गिर रही थीं। बाप की बुराई से छोटू की ऐसी दशा देख कर मैंने धर्मेन्द्र को चुप रहने का इशारा किया और छोटू को हल्का करने की ग़रज़ से कहा, “भृगु की लात सह कर भी उसे क्षमादान देने वाले हे चतुर्भुज विष्णु! आप इतने भले क्यों हैं?” इसके बावजूद माहौल का भारीपन कम न होते देख कर मैंने उन दोनों की ओर मुख़ातिब हो कर कहा, “धर्मेन्द्र, तुम्हारी बात से लगता है कि वाक़ई तुम दोनों की कोई ग़लती नहीं है और बड़ों ने कहा भी है—‘बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि ले’। भरत! तुम सबके लिए अच्छी-सी चाय बनाओ और चौके से गर्मागर्म समोसे भी लेकर आओ।” हालाँकि वे दोनों ‘ना-नुकर’ करते रहे, पर बरसती बारिश का हवाला दे कर, मैंने उन्हें अंततः मना ही लिया। 

दरअस्ल, मैं ये ममत्व भरे तुच्छ-से प्रयास इसलिए करती थी; क्योंकि उसके दिन-ब-दिन ऊँचे होते क़द के सामने, मुझे अपने बौने क़द को सँवारने का कोई और बहाना सूझता ही नहीं था। 

अचानक एक दिन मुझे पता चला कि भरत ही हमारे घर के नौओं प्राणियों की सारी दवाओं का लेखा-जोखा रखता है। किस वक़्त! कौन सी दवा! किसे और कैसे देनी है! कब मँगवानी है! आदि सारे काम उसी के ज़िम्मे हैं। मेरा अनुमान था कि उसकी विद्या सिर्फ़ अक्षर-ज्ञान तक ही सीमित है, पर जिस धड़ल्ले से वह पत्तों से गोलियाँ निकाल कर सबको यथानुसार देता था और वे सारे पढ़े-लिखे प्राणी आँखें मूँदे हाथ बढ़ा कर उन्हें निगलते जाते थे, देख-जानकर मुझे लगा कि उसकी पढ़ाई के सम्बन्ध में मुझसे भूल हो गयी है। कुछ देर बाद जब वह मेरे सामने पड़ा, तो यह पूछने पर कि वह मिडल पास है या दसवीं, उसका उत्तर अत्यन्त चौंकाने वाला था:

“माँ! जब हमारी उमर आठ बरस की थी, तभी माँ ‘डेड’ कर गयी, तो हम कहाँ से पढ़ते?”

“तो तुम कभी स्कूल गये ही नहीं?”

“माँ के रहते दो साल में पाँच-छह महीना गये थे, पर उसके मरने के बाद से तो हम घर का, खेत का और ट्रक धोने का काम करने लगे।”

“हैंऽ! और तुम्हारा वह हट्‌टा-कट्ठा बाप! वह क्या करता था, जो तुम्हें यह सब करना पड़ता था?”

पूरे कमरे में उसके मौन का सन्नाटा पसर कर अपने वज़न से वहाँ की हवा को दबोच रहा था, पर उस बंदे ने अपने बाप के ख़िलाफ़ एक शब्द तक नहीं कहा। उसके बाप के प्रति मेरा संदेह बढ़ता जा रहा था, पर भरत ‘जड़भरत’ बना ठूँठ-सा ही बैठा था। अन्त में इन बातों की सच्चाई जानने के लिए मैंने धर्मेन्द्र को बुला भेजा। 

“धर्मेन्द्र, तुम्हारी माँ को कौन-सी बीमारी थी, जो वे इतनी छोटी उम्र में चल बसीं?” 

“कोई बीमारी नहीं थी, माँजी,” धर्मेन्द्र का संक्षिप्त-सा उत्तर था। 

“तो फिर? आख़िर कोई वजह तो होगी, जो एक स्वस्थ, जवान और कम उम्र की औरत अचानक चल बसी? तुम्हारे नाना-नानी तो अभी तक एकदम निरोग और चुस्त हैं! फिर माँ को ऐसा क्या हुआ था, जो वह भरी जवानी में चली गयी?”

धर्मेन्द्र की झुकीं आँखें और भी झुक कर उत्तरहीन होती जा रही थीं कि पीछे से काँपती हुई आवाज़ आई, “बाबा हमारी आँखों के सामने माँ को पीट-पीट कर मार डाले। जब उनके हाथ का पीतल का बड़ा कलछुल माँ को मारते-मारते टूट गया, तो बटलोई, सरिया, पीतल का हंडिया और घर में जो भी सामान था उठा-उठा कर उससे मारते रहे, और अंत में! . . .अंत में! . . .” कहते-कहते भरत की हिचकियाँ बँध गयीं और वह अपना सिर घुटनों में छिपाये, बेआवाज़, बेतहाशा इतने ज़ोर से रोया कि उसका पूरा शरीर हिचकोले खाने लगा। मैंने और धर्मेन्द्र ने उसका मनों भारी सिर ऊपर उठा कर उसे समझाने की बहुत कोशिश की, लेकिन सब वृथा। उसकी स्थिति देखकर ऐसा महसूस हो रहा था जैसे उसकी माँ की मृत्यु का वह दर्दनाक दृश्य सिनेमा की रील की तरह पूरा खुल कर उसके सिर में घुस कर बैठ गया था। एक तो मासूम बच्चा! जिसकी माँ ही उसकी पूरी दुनियाँ होती है। और उसी माँ की ऐसी भयंकर मृत्यु! . . . ऐसा भयानक दृश्य तो अच्छे-ख़ासे उम्रवालों को भी पागल बनाने की क्षमता रखता है और जब हम-जैसे दुनिया देखे हुए लोग तक उस दृश्य का संक्षिप्त वर्णन सुनकर ही सिहर रहे हैं, तो वह आठ-वर्षीय बच्चा तो उस दृश्य का सबसे संजीदा और अहम किरदार था, उस पर क्या बीती होगी! सच कहूँ, तो मेरे बूते में उसकी मर्मांतक पीड़ा का अनुभव कर पाना भी सम्भव नहीं था। रह-रह कर सोच रही थी, अनजाने में मुझसे यह कैसा पाप हो गया, जो मैंने यह वृत्तान्त छेड़ा! अब क्या करूँ! कि इस बच्चे को कुछ ढाढ़स मिले। 

मेरा मन लगातार ऐसे ही प्रश्‍नों का संजाल बुन रहा था, पर उनका कोई भी उत्तर नहीं मिल रहा था। लग रहा था कि भूल से मैं एक ऐसी अँधेरी गली में घुस गयी हूँ, जिसका कोई छोर नहीं है। उस गहन सन्नाटे ने वहाँ की सारी हवा को दबोच लिया था, उसका और सबकी भारी साँसों ने उस घुटन में बढ़ोतरी कर दी थी। तभी उस दमघोंटू सन्नाटे से सबको मुक्त करता भरत गर्दन नीची किये तेज़ी से उठा और मकान के बाहर चला गया। 

आश्‍चर्यजनक ढंग से वह उस शाम भी रोज़ की तरह घर के कामों में पूरी तरह मुब्तिला था, और उस पर सुबह की घटना का कोई असर नज़र नहीं आ रहा था। इतने कठिन समय से गुज़रने के बाद इस तरह सहजता से बात को आयी-गयी कर देना और स्वाभाविकता से काम पर आ जाना, मेरे आज तक के अनुभवों से अलग अनुभव था। मैंने इसे भी मेरी ‘भरत-असम्भव-सूची’ में जोड़ लिया। 

बिना पढ़ाई-लिखाई के सारी दवाइयों को पहले अक्षर से पकड़ कर हृदयंगम कर लेना! विज्ञान के मेधावी छात्रों की गुमी हुईं किताबों को कचरे में से ढूँढ़ कर ला देना आदि ढेरों-ढेर गुण उसकी अपरिमित मेधा के परिचायक थे, पर वह उन्हें अपनी विनम्रता और भोलेपन के आवरण में इस तरह ढँके रखता था कि वह बहुत ही नाकुछ और गँवार-सा लगे। उसके इन सारे गुणों की बदौलत ही हमारा पूरा परिवार उस जैसा सेवाधारी पा कर स्वयं को धन्य महसूस करता था। 

एक दिन भरत ने बताया कि उसका विवाह पक्का हो गया है और तत्क्षण ही उसने अपने मोबाइल पर हमें उस सुघड़ लड़की की तस्वीर बड़े चाव से दिखा दी। घर में सबका चहेता होने के कारण, सभी सदस्यों ने उसे कुछ न कुछ देने का मन बना लिया और उसके अहसानों तले दबी मैं भी उसे कुछ स्थायी उपहार देने की सोचने लगी। 

तभी एक दिन उसका उड़ा हुआ चेहरा और पपड़ीदार होंठ देख कर मैंने पूछा, “क्या बात है? कोई गड़बड़ ख़बर आई है क्या?” मेरा अन्देशा था कि हो न हो लड़की वालों ने ही कोई अनचाहा समाचार भेजा होगा! लेकिन जब उसने बताया कि उसका सिर ज़ोरों से घूम रहा है, तो मैंने तुरन्त पास वाले कम्पाउण्डर को बुला भेजा। कम्पाउण्डर से रक्त-चाप का नतीजा सुनकर हम सब स्तब्ध रह गये! इक्कीस साल के जवान बच्चे का यह प्रैशर? हमने रक्तचाप मापने की दो-तीन तरह की मशीनें मँगवा कर देखा, पर सबका पारा इस तरह ऊपर भागा मानो कोई चुम्बक उसे ऊपर खींच रहा है। कम्पाउण्डर की माप ज़रूर ही ग़लत है, सोचकर, हमने बड़े डॉक्टर को आपात्कालीन गुहार लगाते हुए बुलाया, तो उन्होंने भी पाँच-छ: बार प्रैशर चैक करने के बाद चिन्तित मुद्रा में गर्दन ‘हाँ’ में हिला दी। अब इसे दिल का गम्भीर दौरा मानकर उन्होंने भरत को तुरन्त अस्पताल के सघन चिकित्सा-कक्ष में भर्ती करवा दिया, लेकिन दुनियाँ भर की जॉंच-पड़ताल के बाद पता चला कि उसका दिल तो एकदम ठीक है, पर उसका किडनी स्तर काफ़ी ख़राब है। हम दबे कंठ से आपस में विचार-विमर्श कर ही रहे थे कि उस मेधावी भरत ने ‘किडनी’ शब्द सुन लिया और कहने लगा, “हाँ! तेरह वर्ष की उम्र में मेरे पहले वाले मालिक महन्त जी ने बनारस के एक डॉक्टर से इसके निदान के लिए मेरा थोड़ा सा इलाज भी करवाया था, पर फिर यह कह कर कि तुम ख़ुद अपना आयुर्वेदिक इलाज करवा लेना, महन्त जी हरिद्वार चले गये। मेरे पास तनख़्वाह से बचे हुए जितने पैसे थे, उतने से जो भी इलाज हुआ, वह करवा कर मैं महन्त जी के यहाँ जा कर उनकी सेवा करने लगा। वैद्य जी ने खाने-पीने का कोई नियम नहीं बताया था, इसलिए मैं महन्त जी के चढ़ावे में आए हुए मेवा-मिष्टान्न खा कर आनन्द से रहने लगा। महन्त जी अपने शिष्यों के यहाँ काम करने के लिए मुझे कभी पंजाब, कभी हरियाणा, तो कभी यू.पी. भेजते रहते थे और मैं यह बात भुला कर कि मुझे कोई तकलीफ़ है, पूरी लगन से वहाँ काम करता रहता था। धर्मेन्द्र भी पहले गुरु जी के एक शिष्य के यहाँ ही काम करता था, पर उनकी अकस्मात् मृत्यु के बाद वह इस शहर में उनके भाई के यहाँ आ गया। आपसे मिल कर उसे अच्छा लगा, इसलिए उसने मुझे भी बुला कर आपके यहाँ रखवा दिया।” 

“बच्चे! तुमने कभी बताया क्यों नहीं कि तुम्हें ‘किडनी’ की बीमारी है?”

“माँ! मुझे याद ही नहीं था, तो आपको बताते कैसे?” उसका सीधा-सा उत्तर था। 

जब उसे कलकत्ते के एक बड़े किडनी स्पेशलिस्ट को दिखाया, तो उन्होंने उसकी सारी स्थिति देख-समझ कर कहा, “इसकी दोनों किडनियाँ ख़राब हो चुकी हैं और इसको बचाने का एकमात्र उपाय, इसकी तुरन्त ‘डायलिसिस’ शुरू करवाकर नयी किडनी का प्रत्यारोपण करवाना है।”

ख़बर बेहद चौंकानेवाली और व्यय-साध्य थी, पर इस भोले-भण्डारी भरत की मदद के लिए हमारा पूरा परिवार ही नहीं, हमारे कई एक क़रीबी रिश्तेदार और मित्र भी आतुर थे। हमने यथाशीघ्र उसके ऑपरेशन के लिए एक बढ़िया सरकारी अस्पताल में परिचय ढूँढ़ निकाला और इस बड़े ऑपरेशन के बाद की अनुवर्ती महँगी दवाइयों के लिए भी दो-एक प्रायोजक जुगाड़ कर लिये। अस्पताल के पलंग पर चुपचाप लेटा भरत हमारी सारी गतिविधियाँ देखता रहता था। उसे देख कर हम आश्‍वस्त थे कि उसे हम पर पूरा भरोसा है और इसीलिए वह हमसे एक भी प्रश्‍न नहीं कर रहा। 

हम अपनी योजना को कार्यान्वित करने में जुटे हुए थे। ढेरों तरह के टेस्ट, सोनोग्राफ़ी, एक्स-रे आदि करते-कराते लगभग पच्चीस-तीस दिन बीत गये। तभी एक दिन उसने कहा, “माँ! हमारे एक फूफा जी, पटना में ऊँचे सरकारी अफ़सर हैं और पटना के एक बड़े डॉक्टर से उनकी बहुत जान-चीन है। उनकी इच्छा है कि एक बार उन्हें भी दिखा कर उनकी राय ले लेनी चाहिए।”

भला हमें इसमें क्या उज़्र हो सकता था कि उसके परिचित नामी-गिरामी डॉक्टर साहब उसे देख लें। 

हम लोगों की सहमति से जब वह पटना जाने लगा, तो मैंने डबडबाए मन से उसे कुछ ज़्यादा रुपए देने चाहे, इस पर उसने मुझे बरजते हुए कहा, “माँ! आप इस तरह घर को लुटाया मत कीजिए। बाबू बहुत खट कर, मेहनत से कमाई करते हैं और आप हैं कि मुझे बेहिसाब पैसे दिये जा रही हैं!” उसने यह बात महज़ कही ही नहीं, वरन् मुझे आधे से ज़्यादा पैसे वापस लौटा कर मेरी दोनों हथेलियों को अपने हाथों से दबा दिया ताकि मैं उस पर और ज़ोर न डाल सकूँ। 

मन तो किया कि उसे अपने से चिपका कर पूछूँ, “भरत, सच बताओ कि तुम कौन हो? और इस धरती पर क्या करने आये हो?” पर व्यावहारिकता के मद्देनज़र मैंने अपने आँसुओं को सँभाला और उसके सिर पर हाथ फेर कर वहाँ से हट गयी। 

एक हफ़्ते . . . दो हफ़्ते . . . तीन हफ़्ते . . . चार हफ़्ते! . . . समय बीत रहा था, पर न तो भरत का फ़ोन ही मिल रहा था, न ही उसकी कोई ख़बर ही आ रही थी। कुछ दिनों बाद बड़ी मुश्किल से एक उड़ती-सी ख़बर मिली कि उसका किडनी-प्रत्यारोपण नहीं होगा और उसकी शादी भी निश्‍चित समय से जल्दी हो रही है। 

‘क्या लड़की और उसके परिवार को भरत की शारीरिक स्थिति का ज्ञान है? . . . क्या वह लड़की जानबूझ कर सत्यवान की सावित्री की तरह भरत का वरण करना चाहती है?’ आदि शंका भरे प्रश्‍नों का मुझे एक ही उत्तर मिला—‘हाँ।’ गहराई में जाने पर पता चला कि भरत ने जब पूरी ईमानदारी से उन लोगों को सारी बातें विस्तार से बतायीं, तो उस लड़की ने केवल और केवल भरत से ही विवाह करने की क़सम खा ली। उस लड़की का कहना था कि पूरे गाँव में भरत ही एकमात्र ऐसा इन्सान था, जिसने शुरू से ही उसके माँ-बाप से एक भी अधेला लिये बिना, पूरे विवाह की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ली थी। यह पूछने पर कि “क्या उसे भरत की गम्भीर बीमारी का पता है ? . . . क्या वह जानती है . . .?” वाक्य को बीच में ही काट कर वह बोल पड़ी थी, “देखिए! जो हमरा नसीब में है, वही न होगा। हम तो कहते हैं कि ‘ये’ एकदम भले-चंगे हैं। आप लोग जरा भी फिकर न करें, ‘ये’ एकदम ठीक रहेंगे, और हमरा बिस्वास है कि इनकी उमर भी बहुत बड़ी होगी।” 

उसके दृढ़ भरोसे और आस्था की बातें सुन कर मैं भौचक थी। न मुझसे कुछ कहते बन रहा था, न सुनते, लेकिन प्रभु की माया देखिए, अन्त में हम अनास्थावान बुद्धिजीवी सिर पटकते रह गये और वे परम विश्‍वासी लोग जीवन-युद्ध में जीत गये। 

हाल ही में एक प्रत्यक्षदर्शी ने मुझे बताया कि भरत के आँगन में दो बच्चे खेल रहे हैं, जिन्हें उसकी पत्नी, किसी भी माँ से ज़्यादा प्यार और ममता से पाल रही है। मैं चकराई-सी यह जानने को आकुल-व्याकुल हो उठी कि यदि ये बच्चे भरत के हैं, तो क्या यह डॉक्टर की सहमति से हुआ है? और यदि नहीं, तो? . . . बिना ख़ास तहक़ीक़ात के ही मुझे इस पहेली का उत्तर मिल गया। पता चला कि धर्मेन्द्र की पत्नी के जुड़वाँ बच्चे पैदा हुए थे। भरत और उसकी पत्नी की भलमनसाहत की क़ायल धर्मेन्द्र-पत्नी ने पैदा होते ही अपना एक बेटा ‘ओलनाल’ सहित भरत-पत्नी की गोद में डाल दिया था। इस दान से भरत-पत्नी माँ-पने की ममता से ऐसी फूली कि उसके दूध उतर आया और अब वह अपने दूध से ही उस बेटे को पाल रही है। चूँकि वह बड़की से ज़्यादा कर्मठ और व्यावहारिक है, इसलिए बच्चों के पालन-पोषण का और घर का सारा भार उसी के ज़िम्मे है। चूँकि भरत अब गाँव के घर में ही रहता है, इसलिए उसनेे अपने घर के बरामदे में एक ‘सिले हुए’ कपड़ों की दुकान भी खोल ली है। धर्मेन्द्र नौकरी पर वापस शहर चला गया है और उसकी पत्नी कटाई, सिलाई में कुशल होने के कारण दिन-रात अपने हस्त-कौशल से कलकत्ते के बेशक़ीमती नमूनों की हू-ब-हू नक़ल करके, एक से एक पोशाक बना लेती है। बातचीत में मीठा एवं काम में कुशल भरत दुकान में बैठा हुआ, आराम से उन तैयार परिधानों बेच लेता है, और वे दोनों बच्चे डुगुर-डुगुर चलते हुए चाचा रूपी बाप के आसपास घूमते रहते हैं। घर और बाहर के सुंदर सामंजस्य के इस वर्णन को सुनकर मन हरा हो गया। हालाँकि ये सारे सुखद हाल-चाल सुनने के बाद भी एक बात मन के भीतर काँटे की तरह कसक रही थी कि दसियों बार कहने पर भी, भरत ने उन हरी-झंडी देने वाले डॉ. साहब से हमारी बात क्यों नहीं करवाई? 

इत्तफ़ाक़ से एक बार दिल्ली जाते वक़्त मेरे डिब्बे में सादी वेश-भूषा में एक अति सज्जन दिखते व्यक्ति आए, जो कि पटना के नामी-गिरामी डॉक्टर थे और एक अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में भाग लेने दिल्ली जा रहे थे। सफ़र लम्बा था, इसलिए औपचारिक परिचय के कुछ देर बाद ही हम लोग निहायत घरेलू ढंग से आपसी चर्चा करने लगे। यह पता चलने पर कि वे पटना के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल में वृक्कविज्ञान (नै़फ्रोलॉजी) के विभागाध्यक्ष हैं, मेरा मन किया कि उनसे भरत के बारे में पूछूँ! फिर यह सोच कर कि हज़ारों मरीज़ों में से किसी एक ‘भरत’ को जानना किसी के लिए भी सम्भव नहीं है, मैं उनसे भरत के बारे में पूछते-पूछते रुक गयी। लेकिन डॉ. साहब ठहरे महाबुद्धिमान! उन्होंने मेरी हिचकिचाहट भाँप ली और कहने लगे, “लगता है आपके मन में कोई प्रश्‍न है, पर आप संकोच कर रही हैं।” उनके आश्‍वासन का सम्बल पा कर मैंने कहा, “डॉ. साहब, इस हौसला-अफ़ज़ाई के लिए धन्यवाद! दरअस्ल, आपका कुलनाम भी ‘रावत’ देखकर एक निहायत ही बेवकूफ़ीपूर्ण जिज्ञासा मन में उभर आई है। लगभग दो साल पहले आपके अस्पताल में एक इक्कीस वर्ष का जवान लड़का भरत रावत अपने किडनी परीक्षण के लिए गया था। कलकत्ते के डॉक्टरों ने उसके रोग का एकमात्र उपाय ‘गुर्दा-प्रत्यारोपण’ बताया था, जबकि आपके यहाँ से उसे नियमित दवा सेवन की ताक़ीद दे कर छोड़ दिया गया। क्षमा कीजिएगा! इस लम्बे अर्से के बाद, इतने विस्तार से यह याद रख पाना तो आपके लिए बिल्कुल ही नामुमकिन . . . ”

मेरे अधूरे वाक्य को वहीं रोक कर डॉ. साहब ने अपने दोनों हाथ ऊपर उठा कर कहा, “सच ही! उसकी लीला रहस्यों से भरी है। मैं स्वयं अचंभित हूँ कि क्या कभी ऐसा भी घट सकता है? वे अदृश्य तार, जो प्रकृति ने न जाने कहाँ बुने थे! कभी यों एक-दूसरे से टकरा जाएँगे, देख कर मैं दंग हूँ।”

आगे उन्होंने कहा, “आपको यह जान कर आश्‍चर्य होगा कि आपका भरत मेरे गाँव का वासी ही नहीं, मेरा दूर का रिश्तेदार भी है। इसलिए स्वभावतः उसका क़िस्सा मुझे अक्षरशः याद है। याद है, उस छोटे से बच्चे की वे बड़ी-बड़ी बातें! . . . जिन्होंने मेरे ज्ञान-चक्षु खोल दिये और मुझ सरीखे व्यवसायी व्यक्ति को! कर्मकांडी-ढोंगी की जगह कुछ अर्थों में सच्चा धार्मिक बना दिया। दत्तात्रेय की तरह मैंने भी उसे उसी वक़्त गुरु का दरजा दे दिया! . . . आप यों हैरानी से मुझे मत देखिए! . . . मैं बिना एक शब्द के हेर-फेर के आपके सामने मात्र एक हक़ीक़त बयान कर रहा हूँ:

“बहन जी! जब मैंने उससे कहा, ‘छोटू, जब तुम्हारे मालिक पूरा पैसा दे रहे हैं, तो तुम गुर्दा बदलवा क्यों नहीं लेते हो?’ सुन कर उसने मुझसे जो कहा, वह यों है: ‘डॉक्टर दादू! क्या आप इस बात की पूरी गारंटी लेते हैं कि आपरेसन के बाद हम एकदम ठीक हो जाएँगे? और यदि पचास-पचास का चांस है, तो हम काहे को नाना-नानी को तकलीफ देवें कि वे हमरे खातिर अपनी जान साँसत में डालें। डॉक्टर दादू! पहले तो उनका ढेरों तरह का खून परीच्छा होगा और फिर सब जँचाई के बाद यदि मेल फिट बैठ जाएगा, तो उनका किडनी निकालकर हमरे में लगाया जाएगा! दादू! ई उमर में उनका इतना बड़ा आपरेसन सोच कर ही हमरा कलेजा थर्राता है और दिल जोर से धड़कने लगता है। आप हमको माफ करें, हम उनको यह तकलीफ नहीं देंगे। इस उमर में उनका सेवा करना तो दूर, हम उनका पेट कटा कर उनका किडनी निकलवा लें, यह सोच कर ही हमको गिलानी हो रहा है। दादू! अभी आप मालिक की बात बोले तो जरा सोच कर देखिए कि हम मालिक का इतना पयसा कईसे खर्च करावें? हमरा कोनो धन तो उनके ईंहा जमा है नहीं! और आगे आप ई भी बतावें कि आपरेसन के बाद जो हज्जारों रुपिया का दवाई हमको खाना पड़ेगा, ऊ सब कहाँ से आएगा?” 

‘छोटू! जब इतने सारे लोग मन-प्राण से तुम्हारी मदद करना चाहते हैं, तो उसका भी कोई न कोई इन्तज़ाम हो ही जाएगा। तुम इतनी चिन्ता क्यों करते हो?’ 

“सुनते ही वह मेरे पैरों पर गिर पड़ा और बोला, ‘डॉक्टर दादू! आप तो हमरा पूरा कहानी जानते ही हैं, और देख रहे हैं कि पिछले जनम का करज तो हम ई जनम में चुका ही रहे हैं! फिर इस जनम में भी दया का इतना बड़ा करज लेकर कैसे मरें? . . . ‘डॉक्टर दादू! आप तो भारी भगत आदमी हैं! क्या बिना भगवान की मरजी का कोई भी आदमी एक साँस जादा या एक कम ले सकै है? तो फिर हम काहे को अपने भले मालिक लोगन पर इतना जादा बोझ लादें? दादू! आप तो हमका ई रोग का सारा नियम-कानून, खाना-पीना, परहेज आदि समझा कर दवा का परचा लिख दीजिए, उसको पूरी तरह निभाने का गारंटी हमरा है। और एक ही असीस दीजिए कि हम जब तलक ई धरती पर रहें, किसी को तकलीफ न दें। परनाम।’

“बहन जी! सच मानिए, इस घटना के बाद मैं वह नहीं रहा, जो आज तक था। सुबह से शाम तक रुपयों की गिनती गिनता यह बुड्ढा उस नौजवान की सहज उक्तियों से अपने ग़िरेबान में झाँकने को बाध्य हो गया। उसने जैसे दर्शनशास्त्र के सार, जो मैंने आज तक पढ़े तो थे, पर ‘गुने’ नहीं थे; सबको मेरी हथेली पर धर दिया था और जिससे विनम्रता के आवरण में लिपटा मेरा अहंकार कच्चे काँच की तरह चूर-चूर होकर ज़मीन पर बिखर गया था। मेरी बेहिसाब दौलत मुझे कूड़े के ढेर के मानिंद लगने लगी और उसका बड़ा हिस्सा उसी क्षण ग़रीबों की मदद के लिए देने के बाद अब मैं यथासम्भव एक ईमानदार आदमी का जीवन जीने का प्रयास करता हूँ। बहनजी! ‘गुरुर्ब्रह्मा . . . गुरुर्विष्णु’ मंत्र के दूसरे छंद ‘अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शालाकया’ का सही अर्थ उसी वक़्त पहली बार समझ में आया था; क्योंकि अर्थ-पंक में पगी मेरी ज़िन्दगी को उस दलदल से बाहर निकालने का एकमात्र श्रेय भरत रूपी शलाका को ही है, जिसके लिए मैं आजन्म भरत का ऋणी रहूँगा। 

“बहन जी! जैसा कि भरत ने कहा था—पहले मैं बहुत ही कर्मकांडी व्यक्ति था, पर आज भी उस परात्पर के चमत्कारों पर मेरा गहन विश्‍वास है। आप मुझे यों हैरत से मत देखिए और यदि सच जानना चाहती हैं, तो सुनिए; सारी दुनिया के अधिकतर सर्जन-डॉक्टर भयंकर आस्तिक होते हैं। शायद इसका एक सीधा-सा कारण यह है कि अक़्सर ही उनका वास्ता चमत्कारों से पड़ता रहता है। मसलन जब डॉक्टरों के पास एक पचासी वर्ष का मरीज़, कई एक बड़े रोगों की सर्जरी के लिए आता है, तो डॉक्टर पहले उसके घरवालों से ज़िम्मेदारी के कई प्रमाण-पत्र भरवाते हैं; क्योंकि वह इतना बड़ा ऑपरेशन झेल पाएगा, इस बात पर उन्हें ज़रा सा भी भरोसा नहीं रहता। पर होता क्या है? वह तो आश्‍चर्यजनक ढंग से पूरी तरह से स्वस्थ हो कर ख़ुशी-ख़ुशी घर चला जाता है और इसके विपरीत जब एक पच्चीस वर्ष का हट्टा-कट्टा नौजवान दस मिनट की छोटी-सी सर्जरी के लिए डॉक्टरों के पास आता है, तो यह सोच कर कि काग़ज़-पत्तर की कोई ख़ास बात नहीं है, वे बाद में भरते रहेंगे! वे उसका ऑपरेशन शुरू कर देते हैं, लेकिन होनी देखिए! वह बन्दा न तो पुकार का जवाब देता है और न ही ऑपरेशन टेबल से उठता है। अविश्‍वास से भरे ढेरों डॉक्टर-नर्स उसकी छाती को बिजली के ‘शॉक’ दे-दे कर जला डालते हैं, पर उसकी गयीं धड़कनें नहीं लौटतीं। 

“बहन जी! मैं आपके अनबोले, पर आँखों में छाए हुए प्रश्‍नों को पढ़ पा रहा हूँ, पर साक्षात् भरत का सन्दर्भ ही लीजिए! उसकी वर्तमान स्थिति के लिए आपके पास क्या तर्क है? आप इसे क्या कहेंगी, दुआ! . . . इस जन्म के पुण्य! या ‘चमत्कार’? . . . 

“बहन जी! गुरुजन कहते हैं: कई बार माया बुद्धि को, बुद्धि विवेक को, और विवेक प्रज्ञा को इतना प्रभावित कर लेता है कि हमारी साधना के मार्ग में विचलन पैदा हो जाती है। मैं इन सभी अवरोधों से सुपरिचित होकर भी अपनी अन्तःप्रज्ञा पर पूरा विश्‍वास करता हूँ और उसके आदेश से ही उस परमपिता परमात्मा से प्रार्थना करता हूँ कि वह भरत रूपी जीवात्मा को दीर्घायु प्रदान करे; क्योंकि दुर्जनों और विसंगतियों से भरी इस पृथ्वी पर यदि एक भी शुद्ध आत्मा जीवित रहेगी, तो मनुष्यों का विश्‍वास तुममें और मनुष्यता में बचा रहेगा, वर्ना सब ख़त्म हो जाएगा। मैं परम मोहासक्त डॉ. रावत! दसों दिशाओं की साक्षी में अपने दोनों हाथ फैला कर भीख माँगता हूँ कि हे मेरे आक़ा! यदि तेरी कृपा हो जाए, तो तू कुछ भी कर सकता है। उसके एवज़ में तू चाहे तो मेरी बाक़ी उम्र ले ले, पर उसे उम्र दे दे मेरे प्रभु।”

विस्फारित आँखों से डॉक्टर साहब की विगलित मुद्रा को देखकर मैं अवाक् सोचे जा रही थी: क्या सच ही! भरत इस धरती की मिट्टी से रचा-बुना आदमी मात्र है? . . . 

आमतौर पर मैं इस प्रकार के अति उद्वेगपूर्ण भावों को गलदश्रु की श्रेणी में रखकर ख़ारिज़ कर दिया करती हूँ, पर उस अल्प परिचित व्यक्ति के चेहरे से सच्चाई का जो नूर बरस रहा था, उसको परे सरका देना मुझ जैसे ढीठ के बूते में भी नहीं था। वे जब भावावेश में बोल रहे थे, तो यों प्रतीत हो रहा था, मानो उनका कायान्तरण हो गया है और कोई अलौकिक शक्ति उन्हें यह सामर्थ्य प्रदान कर रही है। पता नहीं क्यों! इस सारी घटना के बरअक़्स मन में यह विचार आया कि जब कुंभ में अमृत की एक बूँद लाखों-करोड़ों को तार सकती है, तो एक शुद्ध जीवात्मा! ज्ञान-प्राप्ति का सहज निमित्त क्यों नहीं बन सकता? भारत की इस लाखों वर्ष पुरानी सांस्कृतिक मिट्टी में कब! कहाँ! ज्ञानांकुर फूट पड़ेगा, यह कौन जानता है? . . . 

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