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संघर्ष तराशा कोहेनूर

कल कोर्ट में जब उससे टक्कर होने के बाद मेरे मुँह से ज़ोर की चीख़ निकली, तो वह चीख़ किसी से टकराने की नहीं, बल्कि आह्लाद और ‘भूत-देखे’ अचरज की-सी थी, और जिसके साथ ही मेरे मुँह से अनर्गल बकवास की तरह लगातार इस तरह के वाक्य निकल रहे थे: “सरला, तू? ना, ना। फ़ालतू बात। तू अठै? (यहाँ)? इम्पॉसिबल! ऊप्पर से वकील को चोगो? यो तो महामहाइम्पॉसिबल।”

मेरी ये उक्तियाँ किसी अनजान व्यक्ति को एक पागल का अर्थहीन प्रलाप लग सकती हैं, लेकिन क्या उपाय? वैसे मैंने भी जीवन में एकाध जादुई चमत्कार घटते देखे हैं, पर यह? यह तो हो ही नहीं सकता। किसी भी हालत में नहीं हो सकता। सोच-सोच कर मेरी गरदन स्प्रिंग वाली गुड़िया-सी ‘ना’ में हिलती ही जा रही थी। तभी, मेरी यह विचित्र दशा देखकर, वह काला चोगा तेज़ी से मेरे पास आया और कड़ाई से मेरी बाँह पकड़ कर कहने लगा: “ऐ कनक की बच्ची! क्या बेसिर-पैर की बके जा रही है तू! अरे भई! ध्यान से देख! मैं सरला ही हूँ। तेरे बचपन की ख़ास ‘भायली’ (मित्र) सरला! और अब अच्छी तरह आँखें फाड़ कर यह भी देख ले कि मेरे पाँव उलटे नहीं हैं और मेरी परछाईं भी धरती पर पड़ रही है!” उसका इतना कहना था कि मैं और वह ज़ोरों से हँसते हुए एक-दूसरे से लिपट गए और मुझे बरबस ही बचपन की वह घटना याद आ गई, जब अचानक एक दिन शाम के झुटपुट अँधेरे में मैंने वह भूतनीवाली कहानी सुना कर उसे काफ़ी सहमा दिया था। सघन बचपन की वह साधारण-सी बात सरला को पूरे ‘प्रॉप्स’ के साथ याद है, जानकर मैं आश्‍चर्यचकित स्वर में बोल पड़ी: “तुझे अभी तक मेरी वह लखनऊ वाली भूतनी याद है?” 

“कनक, तुझे और तेरी कहानियों को भूलना क्या किसी के भी बूते की बात है? फिर, सच कहूँ, तो तेरी वे बातें और तेरे दिखाए वे सपने ही तो मेरी ठंडी अँधेरी रातों को ऊष्मा प्रदान करते रहे हैं। यदि तेरी याद साथ न होती, तो मुझे जीवन की कड़ी धूप, तेज़ बारिश, आँधी-तूफ़ान और अँधेरों ने कभी का लील लिया होता।”

सरला मुहावरेदार बढ़िया भाषा में बोले जा रही थी और उसे एकटक देखती मेरी आँखें उसके भीतर छिपे हमारे अतीत में चक्कर काट रही थीं:

“तरबीणी, सरला, महाबीरी, सृष्टि, बिमला! आओ सब छाँत (छत) पर जल्दी सै आओ।” यह ‘हेला’ लगभग तीस वर्ष पहले रोज़ शाम पाँच बजे हमारे आँगन वाले पुराने मकान में ज़ोरों से गूँजता और लड़कियों की पाँत की पाँत तेज़ी से छत की ओर जाती नज़र आती। यह एक ऐसा आकर्षक कार्यक्रम था, जिसमें बारहों महीनों में कभी एक दिन का भी नागा (व्यतिक्रम) नहीं होता था। हाँ, तीज-त्योहार, हारी-बीमारी, बारिश-आँधी की बात और थी। फिर भी लड़कियों का यह गुच्छा ‘भेला’ (इकट्ठा) तो होता ही था, चाहे अवसर के अनुरूप उसका मुक़ाम बदला हुआ होता। इस गुच्छे की पक्की दोस्ती से इनकी माँओं को भी कोई उज़्र नहीं था, क्योंकि ये सभी एक-से परिवारों की, एक-सी लड़कियाँ थीं। कसी हुई दो चोटी ऊपर बाँधे, ये सारी लड़कियाँ छत पर इधर से उधर चहकती हुईं कभी खो-खो, कभी पहलदूज, कभी कबड्डी, तो कभी पतंग उड़ाती हुई नज़र आतीं और उनकी रौनक़ से वह सड़ा-सा मकान भी ‘नन्दन कानन’ बन जाता।

वैसे ये सहधर्मा, सहमना दिखती लड़कियाँ एक सरीखे परिवारों की होने के बावजूद पारिवारिक मानसिकताओं के कारण विभिन्न विचारणाओं और सोच से बुनी हुई थीं। जहाँ हमारे परिवार में लड़कों और लड़कियों को बराबर माना जाता था, वहीं तरबीणी और सरला के यहाँ उनका भाई कन्हैया प्रथम श्रेणी का नागरिक था और वे दोनों दोयम दर्जे और पिछड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व करती कन्याएँ थीं। उन्हें सुबह से शाम तक हर चीज़, खाना-पीना, कपड़े-लत्ते, बोलना-चालना, उठना-बैठना, स्कूल-कमरा आदि सब कुछ कन्हैया की तलछट का ही मिलता था। उनकी दो अपढ़ बड़ी बहनों का विवाह तो काफ़ी पहले ही हो चुका था और तीसरी पास करते ही तरबीणी ने भी स्कूल छोड़ कर ख़ुद को घर का धन्धा कूटने में लगा दिया था। बची मेरी दोस्त सरला! वह न केवल पढ़ने में तेज़ थी, बल्कि मेरी ही तरह ऊँची पढ़ाई कर, कुछ बनने की आकांक्षा भी रखती थी। सरला की चौथी का नतीजा आते-आते तरबीणी की शादी भी किसी सोने-चाँदी की दुकानवाले से हो गई और वह गहनों से लदी, इठलाती हुई अपनी ससुराल चली गईं। 

हर लड़की की विदाई पर ताईजी (सरला की माँ) कहतीं: “चालो, प्रभु-कृपा सै बोझो उतर्‌यो!” ऐसे में स्वाभाविक था कि अब वे सरला रूपी बोझ से भी नजात पाने की कोशिश में लग गई। 

सरला लम्बे क़द और छरहरी देहयष्टि के साथ, सुघड़ नाक-नक्शे और लुनाई लिए स्निग्ध त्वचा की मालकिन थी। ऊपर से उसकी बड़ी-सी स्वप्निल आँखों में एक ऐसा आकर्षण था, जो सहज ही सबको अपनी ओर खींच लेता था। ऐसे में भला ताईजी को उसके लिए दूल्हा ढूँढ़ने में क्या देर लगती? उन्होंने आव देखा न ताव, कलकत्ता की इस सम्भावनाशील लड़की को क़स्बानुमा शहर भागलपुर के एक मुफ़स्सिल क़स्बे में ब्याह दिया। जब मैंने विवाह के समय उस शरीफ़-से दिखनेवाले दूल्हे के कान में पूछा: “जीजाजी! क्या आप सरला को आगे पढ़ने देंगे?” तो उन्होंने “हाँ, सालीजी!” कहते हुए मेरे सिर पर हल्की-सी चपत लगा दी थी। उनका यह बरताव तो मुझे बहुत ही प्रेमिल और आत्मीय लगा, पर उनके सारे रिश्तेदार ‘लड़का वाले’ होने की धौंस में काफ़ी बदतमीज़ी भी कर रहे थे। उनकी हेकड़ी की पराकाष्ठा यह थी कि वे न केवल हम घरवालों से नौकरों-सा सलूक़ कर रहे थे, बल्कि बेहया की तरह विचित्र ढंग से हमारी शालीनता का मज़ाक उड़ाते हुए ही-ही, ठी-ठी भी किए जा रहे थे। उनकी इन टुच्ची हरक़तों से हमें ‘झाल’ (क्रोध) तो बहुत आ रही थी, पर अपने संस्कार और लड़कीवालों की इज़्ज़त की ख़ातिर हम सब उन ढीठों को झेले जा रहे थे। क़िस्सा कोताह यह कि उस सारे आँवे को देख कर मेरा जी सरला के लिए डूबा जा रहा था। 

फेरों के बाद सरला ने मुझे अपने पास बुलाकर कहा: “कनक! मुझे तेरे से एक चीज़ ‘माँगणी’ है। यदि तू मेरी पक्की ‘भायली’ है, तो तुझे मुझसे यह वादा करना होगा कि तू मुझे हर साल अपनी पास की हुई किताबें और नोट्स भिजवा देगी।” 

“पर कैसे?” पूछते ही उसकी बड़ी-बड़ी आँखों से ऐसे मोटे-मोटे आँसू टपके कि मैंने घबराकर ‘हाँ’ कह दी, पर इसका कोई उपाय ढूँढ़ पाती, उसके पहले ही उसने सुझा दिया: “कनक! तुम चाचाजी (मेरे पिता) से कह देना, मेरा पक्का विश्‍वास है कि वे यह काम ज़रूर कर देंगे।”

आख़िर यह एक ‘प्रज्ञावान’ का अनुमान ठहरा; क्योंकि बाऊजी ने न केवल इसके लिए ख़ुशी से हामी ही भर दी, बल्कि साथ ही यह भी कहा: “पुरानी क्यों? नई किताबें चली जाया करेंगी।” 

इस पर सरला ने ज़िद पकड़ कर कहा: “नहीं, कनक की ही किताबें! उसके ही नोट्स।” 

आज सोचती हूँ, कितनी दूरदर्शी थी वह ज़रा सी लड़की! सम्बन्धों की लम्बी उम्र की ख़ातिर उसने कितनी आसानी से इस एहसान को वज़नरहित कर दिया था। किताबों और नोट्स के आवागमन का यह सिलसिला कम से कम आठ-दस वर्षों तक चलता रहा होगा। सरला की ऊर्जा से भरी लम्बी चिट्ठियों में उसकी दिनचर्या के साथ पढ़ाई के तालमेल का वर्णन पढ़कर हम सब हैरान होकर सोचने लगते कि आख़िर यह लड़की खाती-सोती कब है? 

कुछ वर्षों बाद बाऊजी वह मकान बदल कर वहाँ से दूर एक बंगाली मुहल्ले में आ गए थे, इसलिए पीहर आई सरला से मिलना तो नहीं हो पाता था, पर उसके पत्रों और पुस्तकों की आवाजाही के कारण हमारी दोस्ती की ज़मीन मज़बूत बनी रही। बीच-बीच में अपनी एक ‘ऑल इंडिया रेडियो सहेली-सृष्टि’ से सारे दोस्तों की ख़बरें मिल जाती थीं और सरला के परिवार की ख़ैरो-ख़बर का पता माँ की मार्फ़त चल जाता था। वैसे माँ जब भी सरला के परिवार की ख़ैरियत बतातीं, उनकी बातचीत के समापन पर एक ‘नोट’ ज़रूर रहता: “सरला का वह लाड़ला भाई कन्हैया! वह न केवल फूल-फालकर भैंसा हो गया है, बल्कि बिगड़ कर पूरा ‘बारह-बाट’ भी हो गया है।” माँ अपने ठेठपन में कभी कन्हैया को गैंडे-जैसा ‘मोटा चमड़ा’ कहकर सम्बोधित करतीं, तो कभी कहतीं: “भगवान! ऐसे बेटे से तो निपूता ही रहने देता, तो अच्छा होता।”

अपनी ही दौड़ में दौड़ती हुई मुझसे सरला के सम्बन्ध का धागा खिंचे रबर की तरह धीरे-धीरे पतला होकर, टूट-सा गया और बी.ए. के बाद तो मुझे सरला की राई-रत्ती फ़िक्र भी न रही। 

समय के घूमते चक्र में अपने एक बंगाली सहपाठी के प्रेम में पड़ कर मैंने उसके साथ वक़ालत पास कर ली और कलकत्ता हाई कोर्ट में कनक मजूमदार नाम से एक तेजस्वी वकील के रूप में प्रतिष्ठित हो गई और तभी एक दिन यह भुतहा वाक़िया घटा। 

अचकचा कर अपने वर्तमान में लौटते हुए मेरे मुँह से निकला: “सरला, तू ऽऽऽ! क्या आजकल तू कलकत्ता में रहती है?” उसकी गर्दन नाही में हिलते देखकर, हड़बड़ी के कारण हकलाता-सा मेरा अगला प्रश्‍न था: “तो यहाँ कैसे?”
सरला शांत भाव से मुस्कुराते हुए मेरे पास आई और मुझे ख़ुद से कसकर चिपकाने के बाद मद्धम स्वर में बोली: “कनक! मैंने माँ-बाबूजी की तरफ़ से कन्हैया पर केस किया है, आज उसी की पेशी है। यदि अभी तुम ख़ाली हो, तो थोड़ी देर मेरे साथ चलो।”

मैं, कलकत्ता हाई कोर्ट की स्वनामधन्य वकील कनक मजूमदार, उसका आमंत्रण सुनकर भौचक-सी उसके साथ चल पड़ी और केस की पूरी कार्रवाई में सम्मोहित-सी विस्फारित आँखों, खुले मुँह और सन्नद्ध कानों से उस चौथी पास सरला के क्रिया-कलाप को निर्वाक-सी देखती रही। सरला पूरे विनम्र आत्मविश्‍वास से कलकत्ता के उस नामी-गिरामी ‘एकलखिया फ़ीसी’ घमंडी वकील के छक्के क़ानून के असंख्य ‘क्लॉज़ों’ के साथ भारतीय संस्कृति और दर्शन शास्त्र की गहन-गम्भीर सूक्तियों से छुड़ाए जा रही थी। उसने पूरी अदालत में एक सूई-पटक सन्नाटे-सा निस्तब्ध वातावरण सिरज दिया था, और उसके ‘टंच सोने’-से उद्धरणों के सामने वह एकलखिया वकील श्यामल बोस एकदम ‘बोका’ (मूर्ख) लग रहा था। मुकदमे के शुरू में बोस महाशय ने सोचा होगा कि इस देहाती मारवाड़न को तो वे मिनटों में रफ़ा-दफ़ा कर देंगे। पर यहाँ तो सरला ने पूरा पासा ही पलट दिया था। सारी अग़ले-बग़लें झाँकने के बाद अन्त में उन्होंने झक मार कर अदालत से केस की छान-बीन के लिए समय माँगा, तो सरला का नाटक देखने लायक़ था। उसने पहले तो गर्दन झुका कर, सीधे जज को सम्बोधित किया और फिर दर्शकों की ओर मुख़ातिब होते हुए अपनी बात यों शुरू की: “मी लार्ड! एण्ड फ्रेंड्स!..क्या हम सब मनुष्य हैं? यदि हाँ, तो क्या आपको मनुष्यता के लक्षणों में से एक भी लक्षण इस कन्हैया में मौजूद लग रहा है? मैं यहाँ सैकड़ों सबूत दे चुकी हूँ कि ‘अमानुष’ कन्हैया ने किस-किस तरह से फ्रॉड करके मेरे माँ-बाप की सारी सम्पत्ति हड़प ली और फिर उनके सारे पहचान-पत्र जलाकर उन्हें भिखमंगा घोषित कर, दर-दर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर कर दिया। मी लार्ड, यह सब करने के बाद भी इसे संतोष नहीं हुआ, तो इसने अपने गुंडों से उन कमज़ोर बूढ़े माँ-बाप पर क़ातिलाना हमले भी करवाए, जिससे ये प्रभु कृपा से बच गये। भाइयो, ध्यान से देखिए! एक समय ठाठ-बाट से रहने वाले ये दम्पति आज तार-तार कपड़ों में अपने तन को ढँकने की कोशिश कर रहे हैं। क्या आप कल्पना भी कर सकते हैं कि ये नाले के कीचड़ में से भात के दाने चुन कर खाने की चेष्टा करते हैं, ताकि ज़िन्दा रह सकें! 

“और मी लार्ड! आज मर्सिडीज़ में आए ये वकील साहब! और ऑडी में आया इनका यह मुवक्किल कन्हैया! इन दीन-हीनों से और समय माँग रहे हैं? मी लार्ड! ज़रा असमय बुढ़ाए हुए इस जोड़े को ग़ौर से देखिए! क्या इनके पास कोई समय बचा है? क्या आप यह गारन्टी ले सकते हैं कि ये वकील साहब के माँगे समय तक जीवित रहेंगे? मी लार्ड! यह तो भला हो उस महामना का, जो मेरे माँ-बाप की ऐसी हालत देखते ही रातों-रात मेरी ससुराल से मुझे यहाँ लिवा लाए। भगवान जाने, यदि वे ऐसा न करते, तो मैं अपने माँ-बाप को ज़िन्दा देख भी पाती या नहीं? 

“मी लार्ड! ज़रा सोच कर देखिए कि यदि आप या हममें से किसी के साथ भी ऐसा घटता, तो क्या वकील साहब को यह समय बख़्शा जाता? जज साहब! यदि आज आपने सही फ़ैसला नहीं दिया, तो कन्हैया जैसे बेटे शैतान बनकर यों ही अपने माँ-बाप के साथ जानवरों से भी ख़राब सलूक करते रहेंगे!” इतना कहने के बाद उसने अपनी आँखें रूमाल से पोंछीं और ‘तार’ बाँध कर भावुकता से भरी उक्तियों की ऐसी झड़ी लगाई कि पूरी अदालत ‘रोऊँ-रोऊँ’ हो गई। अपने माँ-बाप के ख़ुशहाल दिनों और आज के दरिद्रनारायणी फ़ोटो तो वह पहले ही जज की टेबल पर रखवा चुकी थी। अब उसने सैकड़ों पैबंद लगे फटे-सड़े ‘परान्ह’ पहने क़टघरे में दुबके कंगालियों-से अपने मरियल माँ-बाप को सहारा देकर नीचे उतारा और उन्हें ले जाकर सीधे जज के सामने खड़ा कर दिया। बेचारे वे दोनों ‘धुजती गठरी’-से किसी तरह सीधे खड़े होने की कोशिश कर ही रहे थे कि सरला ने एकदम फ़िल्मी अंदाज़ में अपने दोनों हाथ फैला कर भरी अदालत से उन पर रहम करने की भीख माँगना शुरू कर दिया। 

जज सहित पूरी अदालत हतप्रभ। किंकर्त्तव्यविमूढ़। यह नज़ारा तो ‘न भूतो न भविष्यति’-सा अनूठा था। कुछ क्षणों के सन्नाटे के बाद जब जज के हथौड़े से सबकी तंद्रा टूटी, तो किसी को फ़ैसले की प्रतीक्षा नहीं थी, क्योंकि मेरी ठेठ देसी माँ के शब्दों में: “क्या जज बेचारे के दो सिर थे, जो वो सरला के हक़ में फ़ैसला न देता? पर भई, मानना पड़ेगा! सरला नै आज साब्बित कर दिया कि बेट्टी बेट्टों से ज़्यादा बढ़ियाँ होती हैं।”

बाद में जब मुझे पता चला कि सरला को सूचना देने वाले वे भले बंदे मेरे बाऊ जी ही थे, तो मेरे मुँह फुलाने को अनदेखा कर उन्होंने कहा: “देख कनक! नख़रा छोड़ और कुछ सीख इस घटना से। बेटा, सदा याद रखना कि हम चाहे जितने बड़े हो जाएँ, पर हममें इतनी मनुष्यता तो रहनी ही चाहिए कि हम दूसरों के बारे में भी कुछ सोचें और सत्य चाहे जितना भी कठिन हो, उससे डिगें नहीं। दरअसल हुआ यह कि एक दिन मैंने भाई साहब और भाभी जी को सड़क पर रूलते देखा। मुझे लगा कि यह मेरा दृष्टि-भ्रम है। पर जब मैंने दूसरे दिन भी उन्हें गली के नुक्कड़ पर कपड़ा बिछाए चुपचाप उसके सामने बैठे देखा, तो समझ गया कि वे शालीन तरीक़े से भीख माँग रहे हैं। मैंने तुम्हारी माँ से बात कर उन्हें वहीं से घर भिजवा दिया और पहली गाड़ी पकड़ कर सरला को सारी बातें बताने निकल पड़ा। मुझे सरला का नाम इसलिए सूझा, क्योंकि वह मुझसे काफ़ी सम्पर्क रखती है। बुरा न मानो, तो तुमसे तो काफ़ी ज़्यादा। वैसे मेरे मन में सरला को फ़ोन पर ख़बर देने का विचार भी आया था। पर यह सोचकर कि यह घटना मृत्यु की ख़बर-सी ही गम्भीर है, इसलिए यदि वह अकेली लड़की कहीं ज़्यादा घबरा गई, तो उसे कौन सँभालेगा-सोच कर मैंने यह छोटी सी यात्रा कर डाली। सच मानो, सरला से मिलने के पहले तक मुझे भी नहीं पता था कि वह स्वाध्यायी लड़की प्राइवेट परीक्षाएँ दे-दे कर, अपने पारिवारिक वकील की सहायता से पक्की वकील बन गई है। कनक! मैं तुम्हें बता पाता, इसके पहले तुम ख़ुद ही सरला से जा टकराईं, तो बताओ मैं क्या करता? तुम ख़ामख़्वाह यह भ्रम पाल रही हो कि मैंने तुम्हें यह बात जानबूझ कर नहीं बताई, पर ज़रा सोचकर देखो। क्या मैं ऐसा सोच भी सकता हूँ?” उनकी तथ्यात्मक बातों की स्वीकारोक्ति में एक लम्बी हूँऽऽऽऽऽ-करती हुई मैं बाऊ जी और सरला से ऐसी आत्मीयता और विनय से मिली मानो अपने वर्षों की भूल का शोधन कर रही हूँ। इच्छा तो थी कि आकाशी ऊँचाइयों को पहुँची ‘उस लड़की’ के चरण छू लूँ, पर दोस्ती आड़े आ गई और मैंने उसे आँसू-भरी आँखों से अपने आलिंगन में भर लिया। 

तभी पीछे से सदा की तरह, सटीक टिप्पणी करने में माहिर माता जी की प्रेमल आवाज़ आयी: “सरला बेटा! तू तो साक्षात्‌ कोहेनूर है! बस तेरे ऊप्पर तो समय की धूल ‘जमगी’ थी।” सरला ने अपनी पीठ थपथपाते उनके दोनों हाथों को कस कर पकड़ लिया और पल भर में जवानी से बचपन की यात्रा तय करते हुए उनसे ज़ोरों से चिपक गई। उसकी आँखों से, मूसलाधार झड़ी की तरह, आँसू बरस रहे थे। उसके आँसुओं में सदियों का अंधकार, चक्रवात, पतझड़, हताशा, निराशा, अकेलापन आदि भरे पड़े थे, जो थमने का नाम नहीं ले रहे थे।

अन्त में हिचकियाँ खाते उसके शरीर को झकझोर कर माँ ने कहा: “सरला! या घड़ी आनंद मणाने की है। ‘रोण’ की नहीं! मैंने तुझे कोहेनूर कहा है ना? तो तू वैसी ही चमक और कठोरता को अपना बाहरी जामा बनाकर आगे बढ़। ध्यान रहे कि तेरा मन सदा फूल-सा कोमल रहे, पर शरीर कँटीली झाड़ी। तू इन दोनों को मिलाकर ही इस दुनिया को जीत पाएगी।

“तेरे आज के ये आँसू! ये अंतिम आँसू होणे चाहिए, जिन्हें तू अर्घ्य की तरह ज़रूरतमंदों को चढ़ा कर अपनी इस जीत के बीज जनमानस में बो दे-ताकि तेरे जैसी अनेकानेक संतानें टूटे-बिखरे माँ-बापों के हितों की रक्षा कर पाएँ।”
सुनने में आया है कि सरला ने अपने बूते पर एक ‘गुरुजन प्रेम केन्द्र’ की स्थापना की है, जिसे उसके माँ-बाप ने ही नहीं, मेरे माँ-बाप ने भी अपनी सारी जमा-पूँजी और श्रम समर्पित कर दिया है। 

ख़बर यह भी है कि उसकी सच्चाई और ईमानदारी से प्रभावित होकर प्रवासी भारतीयों ने भी अर्थ की बड़ी राशि उसे निरन्तर भेजने का आश्‍वासन दिया है। 

हाल ही में यह सूचना भी मिली कि विभिन्न जगहों में कई एक माँ-बाप ऐसे ही केन्द्र खोलने की पहल कर रहे हैं। 

ये आँकड़े सुन कर स्तब्ध हूँ और सोचने को बाध्य भी कि क्या सच ही सरला के कृत्य कोहेनूर से प्रतिद्वंद्विता कर रहे हैं?

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