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न्याय चक्र

“ज़रा देखिए तो! वो ‘हंसा’ है ना?” उच्चरित होते न होते, “ऐ हंसाऽऽऽ! . . . ऐ पवन बाबूऽ! ज़रा ठहरो भी! यूँ काँख (बगल) मैं पोटला दबाए आधी रात नै कठै चाल्ले (कहाँ चले)?” 

मध्यरात्रि के सन्नाटे में दूध-घी खाई हुई, हरियाणवी सावित्री देवी की यह ‘दक्काल’ जब बेलियाघाटा के बंगाली मोहल्ले में गूँजी, तो उन रोते-बिलखते पति-पत्नी ने अपनी चाल में तेज़ी ला दी और वहाँ से जल्दी-जल्दी पार होने लगे। पर वे ठहरीं मंगतराय किरोड़ीमल की बेटी, जिन्हें यदि क्रोध आ जाए, तो उनकी धावक-गति को अच्छे-ख़ासे दौड़ाक तक न पछाड़ पाएँ! फिर ये बेचारे तो अपने आत्मजों के प्रहारों से अधमरे, मनमरे, आत्ममरे अर्थात्‌ मरने के सारे प्रकारों से मरे पड़े थे, अब भला उनकी क्या बिसात थी, जो लम्बी चोटी लहराती, ममता की धनी इस ‘सावाँ बेबे’ से ‘सक’ सकते? सावित्री देवी ने जैसे ही हंसाबाई के पल्ले को झटका देकर खींचा, हंसाबाई पलट कर टूटे बाँध वाली नदी-सी उनसे लिपट कर ज़ार-ज़ार रोने लगीं। हालाँकि उनके पति भी अनवरत रोए जा रहे थे, पर उन्हें इस तरह फूट-फूट कर बिलखते देख कर वे उनके सिर पर हाथ फेरते हुए उन्हें सान्त्वना देने की चेष्टा में लग गए। 

माँ के एकदम विपरीत मेरे पिता जी, जो कभी भी, किसी की भी ‘दुई-चुई’ (अड़ंगे) में नहीं पड़ते थे, ऊपर वाले बरामदे से इस दृश्य के साक्षी चेता बने हुए थे और टेलीफोन के काले चोंगे से मुझे इस घटना का सूक्ष्मातिसूक्ष्म आँखों देखा हाल सुना रहे थे। उनका यह निरासक्त रवैया, उनकी आत्मकेन्द्रितता के साथ ही माँ की परदु:खकातरता वाली इन रोज़मर्रा की आदतों के प्रति उनकी संचित खीझ का परिचायक भी था। साथ ही मुझे लगातार ख़बर देने के पीछे उनका यह अभिप्राय भी छिपा हुआ था कि “और करो, चौबीसों घंटे अपनी माँ की बड़ाई! ख़ुद ही देख लो, वह कैसे बात-बेबात झंझटों को बुलावा देती रहती है। अब तुम्हीं भुगतो अपनी ‘महतारी’ की दरियादिली को।” दरअसल बाबू जी की दुनिया बहुत ही छोटी थी, जिसमें मात्र उनका घर-परिवार और एकाध मित्र भर थे। जबकि माँ की दुनिया! . . . उसका विस्तार तो शायद पृथ्वी के बाहर तक फैला हुआ था, जिसमें गली-मुहल्ला क्या, पूरे शहर के शहर समाए हुए थे! ऊपर से इन्तहा यह कि उसमें केवल आदमी ही नहीं, वहाँ के पेड़-पौधे, गाय-भैंस, कुत्ते, चिड़िया, कबूतर, चींटियाँ, बिजली का ‘फ़्यूज़्ड’ खम्भा, पानी का टपकता नल आदि का भी बराबर का हिस्सा था। 

कहना बेकार है कि माँ के रायगढ़ी मामा की बेटी, हंसादेवी, मय अपने पति के, माँ के कमरे में आ विराजीं, और माता जी अपना बोरिया-बिस्तर लेकर फ़्लैट के सबसे छोटे वाले कमरे में जा बसीं। 

हमेशा की तरह ऐसी घटनाओं के बाद सुबह होते न होते मेरा माँ के यहाँ पहुँचना, एक ऐसा अनकहा फ़रमान था जिसे मानना मैं अपनी नियति नहीं, ख़ुशनसीबी समझती थी। माँ की चहेती बेटी होने के अलावा मेरे मन में माँ के ऐसे कामों के प्रति भक्ति के स्तर तक पहुँचा हुआ आदर भाव था। मुझे लगता है कि हम दोनों के बीच माँ-बेटी होने के अलावा भी संवेदनाओं से भीगा एक ऐसा तार जुड़ा हुआ था, जो अधिकांश बातें बिना कहे ही एक-दूसरे तक पहुँचा देता था। हो सकता है, माँ ने मेरे अजाने ही कभी अपने इन ‘सनकी कारनामों’ के कीड़े से मुझे भी कटवा दिया था, क्योंकि मैं भी अपने परिवेश की रचावट-बुनावट के विरुद्ध माँ की इन ‘करतूतों’ में जितना सम्भव हो पाता, साझेदारी करने का प्रयास करती थी। 

मेरे घर में घुसते न घुसते माँ की आवाज़ आई, “उमा आ गई, यहाँ आ।” 

बाबू जी ने कहा भी, “अरे ज़रा ठ्यावस (धैर्य) राख। इसनै (इसे) साँस ले कर कुछ पाणी-वाणी तो पी लेने दे।” पर तब तक तो माता जी ने वहाँ आकर मेरा बायाँ हाथ पकड़ा और मुझे खींचती हुई, बीच कमरे में बैठे हुए उन टूटे-फूटे दम्पति के सामने ले जाकर खड़ा कर दिया। उन दोनों के चेहरे पर ऐसी मुर्दनी छाई हुई थी, मानो घर में किसी जवान की मौत हो गई हो। मुर्दनी क्या, वे तो ख़ुद ही मुर्दे-से दिख रहे थे। माँ का वह कमरा, जो सर्वदा उनकी रचनात्मक ऊर्जा से स्पन्दित होता रहता था, आज मरा हुआ-सा मूक क्रंदन के ‘अनहद नाद’ से भरा था। 

मैं धीमे से पीछे की ओर सरकती हुई वहाँ पड़ी एक काठ की कुर्सी पर बैठी ही थी कि माता जी ने मुझे झिंझोड़ कर कहा, “उमा, ध्यान से सुन! तेरे दुनिया भर के सम्पर्क और दोस्तियाँ किस दिन काम आएँगी? अभी अपने ‘भायले’ (मित्र) पुलिस कमिश्‍नर को फोन कर और इसके ‘बेटे-बहू’ के हथकड़ी लगवा। कह कि वे दोनों एक नम्बर के कमीने, बदज़ात और घटिया इन्सान हैं। अरे! पत्थर-सी बैठी सोच क्या रही है, कर फोन।” 

माँ के मुँह से निकली इन गालियों से उनके दुःख भरे क्षोभ का परिचय मिल रहा था। माँ, जो कि अपनी ममता, उदारता और मिठास के चलते जगतख्यात ‘माँ’ थीं, आज अपना ही विपर्यय बनी हुई अपने ग़ौर वर्ण को तम्बई किए दे रही थीं। उनकी लक्ष्मी-पार्वती-सी शान्ति-कान्ति, धीरे-धीरे दुर्गा का शक्ति-रूप धारण कर रही थी। अपने प्रणाम के प्रत्युत्तर में जब मैंने उन लोगों का फटा हुआ कंठ-स्वर सुना, तभी मेरी समझ में आ गया कि माँ ने सारी रात इनकी दर्दभरी कहानियाँ सुनते बिताई है और इसीलिए मुँह से कभी अपशब्द न निकालने वाली सावित्री देवी आज माँ काली बनी हुई हैं। मैं कुर्सी से उतर कर माँ के घुटने के पास जा बैठी और उसे सहलाते हुए प्रश्‍न भरी दृष्टि से उनकी ओर देखने लगी। माँ बिना किसी भूमिका के कहने लगीं, “उमा! हंसा के जो बेटे-बहू इन्हें माँ जी! पिता जी! अम्मा जी! बाबू जी! कहते न अघाते थे,‘ बैंक लॉकर’ खुलवा कर रुपए निकालने के बाद वे ही इनके तन-मन को अपने बत्तीसों दाँतों से ‘बटके’ (काटने) भरने लगे थे। उन्होंने बुढ़ापे की दुहाई देकर हंसा का रसोई घर में घुसना वर्जित कर दिया, पर इसके पीछे छिपी उनकी मंशा से इनका यह हश्र हुआ कि सुबह-सकारे चाय पीकर घूमने जाने वाली दम्पति यदि दोपहर को बारह बजे भी चाय माँगते, तो स्टील के गिलास में चुल्लू भर ठंडी चाय उनके सामने इस ‘सीठने’ (व्यंग्य) के साथ पटक दी जाती कि ‘लीजिए, ठूँस लीजिए, अपने ‘झेद’ (बड़े पेट) में! बच्चे खाएँ न खाएँ, स्कूल जाएँ न जाएँ, पर आप लोगों को तो हर वक़्त हाय चाय! हाय नाश्ता! हाय खाना! हाय भूख! यह बात इतर है कि वे दोनों बेचारे तो महीनों से ‘नाश्ता’ शब्द ही भूल गए थे, और अपनी किसी भी घिघियाती पुकार के पहले वे यह सम्पुट लगाना नहीं भूलते थे कि बींदणी (बहू)! बच्चे स्कूल और संजय काम पर चला गया हो तो ज़रा-सी चाय दे दो। गोया वे ऐसे निरीह भिखारी हों, जिनके श्‍वास-प्रश्‍वास की आवाजाही भी इन लोगों की कृपा पर ही निर्भर करती हो।” 

मैं ठहरी अत्यधिक तार्किक, इसलिए ‘झट’ से पूछ बैठी, “इन्होंने अपना ‘बैंक लॉकर’ उन दुष्टों को दिया ही क्यों?” यह सुनते ही माँ ने मुझे ऐसी नज़रों से घूरा जिनमें साफ़ लिखा था, ‘ओफ् उमा! तू कितनी बेवक़ूफ़ है।’ पर बाहर से उन्होंने केवल यही कहा, “बेटा! माँओं की मजबूरियों से तुम्हारा परिचय नहीं है और न ही शैतान सन्तानों की नीच चालाकियों से, इसलिए जब तुमने यह महत प्रश्‍न उठा ही दिया है तो फिर पूरी गाथा सुनो, “एक दिन यह बहाना बनाकर कि उन लोगों को किसी रिश्तेदार के यहाँ विवाह में जाना है, वे दोनों हंसा को बहला-फुसला कर बैंक ले गए और उसका लॉकर खुलवाकर, उसमें अँगुलियाँ फेर-फेर कर ऐसी झाड़ू लगाई कि कोई राई-रत्ती सोना और नगदी किनारों में न रह जाए। हंसा फटी आँखों से उनकी यह बदतमीज़ी देखती रही, फिर ख़ुद को यह दिलासा देकर कि अपने बच्चे ही तो हैं, विवाह के बाद ख़ुद ही सारा सामान लौटा देंगे, वह निश्‍चिन्त हो गई, लेकिन भोली हंसा! चिड़िया-चुगी खेत-सी, स्वयं को महाबेवक़ूफ़ की उपाधि से विभूषित कर उस अवसर का इन्तज़ार करती ही रह गई, और उसकी सयानी बहू ने यह कह कर कि यह धन तो सन्तानाधिकार के अन्तर्गत आता है, उस सारी सम्पत्ति को अपनी ‘फ़ाइल’ में घोषित करवा लिया। सन्तान के मोह की मारी हंसा ने कब और कहाँ हस्ताक्षर किए, उसे इसकी कोई ‘ग्यान-गिनती’ (हिसाब) नहीं थी। अब भला वे बदमाश सन्तानाधिकार से प्राप्त गहने क्यों लौटाते? 

“ख़ैर . . . गहने चले जाने की ‘समाई’ (सब्र) करने के बाद जब हंसा ने अपने बेटे से पूछा कि भाई! हमारे जीवन भर की जमा की हुई जो पूँजी तुमने एक दिन में लौटाने को कहकर ली थी, तो वह कब तक दे दोगे? सुनते ही बेटे ने दाएँ हाथ से थप्पड़ खींचा और चेहरे पर सारी दुनिया की घृणा समेट कर होंठों को टेढ़े-मेढ़े सिकोड़ता हुआ बोला, ‘कैसी डायन माँ हो तुम! तुम्हें ज़रा भी शरम नहीं आती, हाय रुपया-हाय रुपया करते हुए, यहाँ मैं व्यापार के घाटे की चिन्ता में मरा जा रहा हूँ, रात-दिन खट-खट कर अपने हाड़ गला रहा हूँ, और तुम्हें अपने रुपयों की पड़ी है? अच्छा हो कि यह बात दुबारा मुँह पर लाने से पहले तुम डूब मरो। तुम्हारी जैसी माँ से तो माँ न हुई ही अच्छी।’

“हंसा पथराई-सी बेटे की विष भरी कटूक्तियाँ झेलती रही, फिर एक कोने में जाकर इतने ज़ोरों से फूट कर रोई कि बग़ल का पड़ोसी घबरा कर आया और इनके फ़्लैट की घंटी बजाने लगा। पर जो ख़ुद इतने ख़तरनाक हों, उन्हें किसी और ख़तरे की क्या परवाह! बेटे ने आँखें दिखाते हुए दोनों हाथों से माँ का मुँह दबोच लिया और बहू ने ज़ोरों से टीवी पर रोने का सीरियल लगा कर, दरवाज़े पर खड़े पड़ोसी महोदय से मीठी-मीठी बातें बनाकर उन्हें हँसते-हँसते विदा कर दिया।” 

मैं आँखें फाड़े उन दोनों को देखती हुई, सोचे जा रही थी कि पढ़ा और सुना तो बहुत था कि माँ-बाप की ममता अन्धी होती है, पर विश्‍वास नहीं किया था। लेकिन ये दोनों अपने कृतित्व से इस बात पर ‘मुहर’ लगा रहे थे कि मैं इस बात को सवा सोलह आने सही मान लूँ। 

मेरे स्वभाव की सिफ़त ठहरी चपल-चंचल! मुझमें उनका ‘रोंदला’ (रोता हुआ) इतिहास सुनने का धैर्य कहाँ था! इसलिए माँ को बीच में ही टोक कर मैं बोल पड़ी, “ये सब तो बीते कल की बातें हैं, पर आज ऐसा क्या घट गया था, जो ये लोग आधी रात को यों कंगालियों की तरह मुँह छिपाए भाग रहे थे? इनके पास न तो कोई रुपया-पैसा था और न ही कोई सामान, तो क्या ये लोग आत्महत्या करने जा रहे थे?” 

मेरे बड़बोलेपन पर मुझे माँ की करारी डाँट पड़ने ही वाली थी कि हंसाबाई ने अपनी ऊबड़-खाबड़ साँसों से यह जवाब दिया, “उमा! एक बार मन में तो यही बात आई थी! फिर यह सोचकर कि हम तो आराम से चले जाएँगे, पर गाँव-दुनिया इन पर थू-थू करेगी, ऊपर से संजय की बदनामी होने से अनन्त के विवाह में भी ‘आँट’ (बाधा) आएगी, हमने वह विचार त्याग कर यह सोचा कि कंडक्टर के सामने रो-गिड़गिड़ा कर किसी तरह बिना टिकट, रायगढ़ की रेल में बैठ जाएँगे। इसीलिए हम सियालदह स्टेशन की ओर जा रहे थे।” 

मैं हैरान थी कि जिन लोगों ने इन पर बेतहाशा ज़ुल्म ढाने के बाद, इन्हें मार-कूट कर, दर-दर की ठोकरें खाने के लिए घर से निकाल दिया, उन्हीं के यश-अपयश के लिए ये आज भी मरे जा रहे हैं! मुझे लगा मैंने ही ग़लत सुन लिया है, इसलिए मैंने दुहराया, “बदनामी?” इस पर हंसाबाई का जवाब था, “हाँ उमा! तू ही बोल, संजय की बदनामी तो होती ही ना!” 

यह सारी चर्चा सुनते समय माँ क्रोध से लाल भभूका हो रही थीं, जिसका एक कारण यह भी था कि हंसा जीजी की बहूरानी माँ की बचपन की सहेली ‘गोबली गाय’ (अति भली) विद्या की बेटी थी और वे ही इस विवाह की घटक थीं। माँ ने एक अपराधी की तरह गर्दन झुकाकर कहा, “मैंने उस ‘चंडिके’ को विद्या का हवाला देकर कई बार समझाने की कोशिश भी की, पर राम जाने वह देवी माता किस धातु की बनी हुई हैं! उस पर किसी बात का कोई असर ही नहीं होता था और वह हर वक़्त अपने पूरे ‘जोम’ में जालसाज़ियों से भरी कारगुज़ारियाँ करने में ही मशग़ूल रहती थी। जब इन दिनों हंसा ने मुझे कोई ख़बर नहीं दी, तो मैंने सोचा-हो सकता है, वह देवी ‘मंढ’ (यथास्थान) में आ गई होगी और अब हंसा आराम से होगी।” 

अभी माँ का वाक्य अधूरा ही था कि हंसा जीजी ने पहले तो अपने माथे पर दोहत्थड़ मारा और फिर अपने सिर को ज़ोरों से भड़ाभड़ ज़मीन पर पटकने लगीं। उनकी सभी मुद्राएँ किसी पागलख़ाने से छूटे व्यक्ति सरीखी थीं, इसलिए हम लोगों ने उनके दोनों हाथ और सिर पकड़ लिए और माँ ने डपट कर कहा, “हंसा, के होया, जो पागलाँ की तरियाँ करै सै? (हँसा, क्या हुआ, जो पागलों की तरह कर रही हो?)” 

उस लम्बी-चौड़ी कहानी की जान यह है कि बेटे-बहू ने पहले तो हंसा का सारा ‘स्त्री धन’ बैंक के ‘लॉकर’ से निकालकर हड़प लिया और फिर कल दोपहर, जब हंसा के पति काम से बाहर गए हुए थे, बेटे ने माँ को ‘पोट’ (पटा) कर उससे फ़्लैट के काग़ज़ों पर दस्तख़त करवा लिए। यह क्या है, पूछने पर सुपुत्र जी ने अपनी ज़ुबान में मिस्री घोल कर माताजी से कहा, “माँ! तुम्हारी कई दिनों से इच्छा थी ना कि तुम कोई बड़ा दान करो, तो इन दिनों मेरेे बहुत ही अच्छी कमाई हुई है, इसलिए मैं इन ‘स्टैम्प पेपर’ पर उसे लिख कर तुम्हें अर्पित कर रहा हूँ।” 

बेटे-बहू पर आशीषों का ख़ज़ाना लुटा कर, हंसा जीजी उस रात आनन्द की नींद सोई ही थीं कि बहू ने आधी रात को झटक कर सास की चादर खींचते हुए कहा, “अब उठिए भी, बहुत सो लिए! हमारी आधी जवानी तो आपकी ‘खेचल’ (कष्टप्रद काम) करते हुए ख़त्म हो ही चुकी है, क्या बाक़ी बची हुई ज़िन्दगी में भी आप लोग यों ही हमारी छाती पर बैठे मूँग दलते रहेंगे? यदि आप लोगों में ज़रा भी हया बची हो, तो इसी घड़ी अपना काला मुँह लेकर चुपचाप यहाँ से दफ़ा हो जाइए, वर्ना दोपहर में पड़ोसी दस तरह के प्रश्‍न पूछेंगे।” 

वे दोनों स्तब्ध और हतप्रभ फटी आँखों से उस ‘बहू’ को संज्ञाशून्य-से देखे जा रहे थे कि अगला वाक्य गूँजा, “आप लोग मनों खाना तो मिनटों में भकोस लेते हैं, और अब आप से हिला नहीं जा रहा है? अरे! यों आँखें फाड़े देख क्या रहे हैं! झट से उठिए और निकलिए यहाँ से! अब तो बख़्शिए हमें।” कहते हुए उसने हंसा जीजी को इतनी ज़ोर से धक्का दिया कि वे पलंग से नीचे जा पड़ीं और किसी तरह बोलीं, “इतनी रात को! रास्ते में कुछ ‘हो-हवा’ गया तो?” 

“अरे! क्या होने को पड़ा है आप लोगों को? लुटेरे क्या अन्धे होते हैं, जो आप लोगों पर हमला करेंगे? और माँ जी! यदि आपको कुछ हो भी जाए, तो भगवान को धन्यवाद दीजिएगा कि मुक्त हुए!” 

‘हे भगवान! यह औरत है या जल्लाद।’ सोच कर मरती-पड़ती-सी हंसा जीजी उठीं और पथराए पति को हल्के हाथ से उठा कर बोलीं, “आओ! चाल्लाँ।” ज़ीना उतरते हुए उन्होंने बीच सीढ़ी पर बैठ कुछ देर अपनी ऊपर-नीचे होती साँस को सँभाला और यह ‘जँचाने’ लगे कि कहाँ जाएँ। तभी ऊपर खड़ी बहू ने ससुर को ऐसी-ऐसी गंदी गालियाँ देना शुरू किया कि हंसा के पतिदेव अपने कानों पर हाथ धर कर, लु़ढ़कते हुए-से नीचे आ गए। पर हाय रे माँ का कलेजा! मरे बराबर अपमान होने के बाद भी यह सोचकर कि सुबह जब लोग उन्हें घर के अहाते में पोटली लिए बैठे देखेंगे, तो उनके बेटे-बहू की क्या इज़्ज़त रह जाएगी, वे अँधेरी रात में ही वहाँ से उठ कर आड़ेे-तिरछे क़दमों से रोते-बिलखते अपने गन्तव्य स्टेशन की ओर जाने लगे कि तभी उन्हें ‘सावाँ बेबे’ की कड़कती आवाज़ सुनाई पड़ी।” 

कथा पर अर्द्धविराम लगते ही माँ ने तड़प कर कहा, “हंसा! तुझे ज़रा-सा तो सोचना चाहिए था कि आख़िर तू किस ख़ानदान की है? तेरे बाबाजी तो साक्षात्‌ मृत्युंजय थे और उनके गोद आया हुआ तेरा बाप भी कुछ कम नहीं था। किसी और दिन तुम लोगों को उनके क़िस्से सुनाऊँगी, फ़िलहाल तो शर्म की बात यह है कि उस बहादुर ख़ानदान की बेटी होते हुए भी तुमने इस तरह अपने ‘हाण’ (हिम्मत) खो दिए।” 

किर्च-किर्च हुई हंसा जीजी को यों बिखरते देख कर माँ का क्रोध सातवें आसमान पर जा पहुँचा। पर चूँकि वह बेचारी तो दुर्दिन-मारी थीं, इसलिए माँ ने उन्हें कुछ न कह कर मेरी ओर मुख़ातिब होकर, हमेशा के विपरीत, ख़ासे कड़वे स्वर में कहा, “उमा! तुम यों छिटकी-सी खड़ी, कोई तमाशा देख रही हो क्या?” 

“हं! हैं!” करते हुए मैं कुछ कहती कि उनका आदेश सुनाई पड़ा, “अभी फोन करो अपने भायले (मित्र) पुलिस कमिश्‍नर को और उनसे कहो कि तुरन्त इसके बेटे-बहू का वारंट कटाकर उनके हथकड़ियाँ डाले।” 

“माँ! यह कोई मज़ाक है क्या? हर चीज़ का अपना एक तरीक़ा होता है।” 

माँ ने चश्मे के पीछे से झाँकती अपनी बड़ी आँखों को और भी फाड़ कर कहा, “तरीक़ा? हद्द हो गयी भई! मरते आदमी को ऑक्सीजन देते वक़्त तो बिना आगा-पीछा और तरीक़ा देखे उसके मुँह से मुँह चिपका कर साँस दे दी जाती है! और इन मरे-पिटे लोगों के लिए तुम भाषण और क़ानून बघार रही हो? शर्म आनी चाहिए तुम्हें! लाओ, मुझे दो फोन!” 

इसके पहले कि मैं कुछ कहती मेरा मोबाइल माँ के हाथ में था। 

“हैलो! सुकान्त बाबू! हाँ! हाँ! मैं सावित्री! उमा की माँ बोल रही हूँ।” और पलक झपकते ही माँ ने उनके साथ बातचीत कर एक तदबीर निकाल ली। 

माँ की सत्संग-मंडली में पास के थाने के तीन सिपाही भी शामिल थे। वे आला दर्ज़े के ईमानदार और धार्मिक थे। उनमें से एक उस वक़्त थाने में मौजूद था, उसने तुरन्त एफ़आईआर आदि दर्ज़ करके, उसके आधार पर बड़े थाने से ‘सर्च वारंट’ और पति-पत्नी के नाम का गिरफ़्तारी वारंट कटवा लिया। कमिश्‍नर साहब के हवाले से आनन-फ़ानन में ही वहाँ दो इंस्पेक्टर भी आ गए। 

सारी साज-सज्जा तैयार होते ही माताजी बिना झंडे के झाँसी की रानी बनी हुई, उस बटालियन के साथ, हंसा जीजी के घर जा धमकीं और अपना ‘पाञ्चजन्य’ फूँक कर रंगरलियाँ मनाते बेटे-बहुओं से बोलीं, “वाह भाई वाह! यहाँ तो एकदम होली-दिवाली-सी रौनक़ हो रही है, क्या ख़ास बात है, जो इतनी ख़ुशियाँ मनाई जा रही हैं?” हँसता-खिलखिलाता वह जोड़ा, झेंपता हुआ-सा ‘अरे मौसी जी! . . . अरे दीदी! आइए! आइए।’ के आगे कुछ कह पाता कि माँ के पीछे खड़ी क़तार को देख, सहम कर पीछे हट गया। पर अब हट कर, कहीं जाने की गुंजाइश कहाँ थी? इतने में ही माँ की कड़कदार आवाज़ छज्जों-चौबारों को पार करती पूरे मोहल्ले में गूँजी, “हवलदार साहब! घाल (डाल) दीजिए इन दोनों को हथकड़ी! बेहया, बेशर्म कहीं के! जिस ज़बान से गाली निकालते हैं उसी से हमारा स्वागत कर रहे हैं!” 

कहना नहीं होगा कि शाम ढलने के पहले ही माँ ने वकील की उपस्थिति में वह फ़्लैट छुड़वा लिया और हंसा का सारा धन एक नए लॉकर में रख कर, उस पर एक सही अपनी भी करने के बाद उसकी चाबी भी अपने पास ही रख ली। फ़्लैट के क़ागज़ात ‘घरू’ (पारिवारिक) वकील को सौंपते हुए माँ ने कहा, “वकील जी! आज से आप ही हंसा के गार्जियन हैं (वकील माँ के ही गाँव के और उनके पिता के पोसे हुए थे)। मैं रहूँ न रहूँ! आपको हवाला मेरे बाप का कि आप इस ‘छोरी’ की सदा सँभाल रखेंगे।” 

माँ ने हंसा जीजी का सारा ‘जाचा-जचा’ (सब कुछ ठीक) कर उसके बेटे-बहू से कहा, “निकलो तुम दोनों यहाँ से, और कहीं और ठौर-ठिकाना करो।” पर माँओं की कहनी और करनी क्या कभी एक होती है? 

हंसा के बेटे-बहू अपनी माँ और मेरी माँ के पैरों में पड़-पड़ा कर वापस आ गए और सुनने में यह भी आया कि हंसा और उसके पति का अपने पोते से बेइन्तहा मोह भी हो गया है। 

चाबियाँ अभी भी माँ के ही क़ब्ज़े में थीं, शायद इसलिए भी वे शरीफ़ज़ाद बने हुए माता-पिता की सेवा में लग हुए थे। ‘हंसा माँ’ सारा कटु अतीत बिसरा कर बेटे-बहू का गुणगान करने लगी थीं जिससे पास-पड़ोस को भी उन दोनों की भलमनसाहत पर यक़ीन होने लगा था, और हंसा जीजी को लगने लगा था जैसे अब चारों ओर सतयुग ही सतयुग है। 

माँ के जाने के कुछ दिनों बाद तक तो मैंने हंसा जीजी की चाबी सँभाल कर रखी, पर मुझमें माँ-सी उदारता कहाँ! इसलिए एक दिन मैंने बहुत प्यार से वह भार उसकी मालकिन को ‘सम्हला’ दिया। चाबीवाले दिन हंसा जीजी के पोते के रंग-ढंग देखकर मैं कुछ चकराई भी! पर जब हंसा जीजी ने उसे ख़ुद से चिपकाते हुए यह कहा, “उमा! यह कहावत एकदम सही है कि मूल से सूद ज़्यादा प्यारा होता है। अब देख ना! इस छोरे में मेरा मोह इसके बाप से हज़ार गुना ज़्यादा है और यह भी मुझे अपनी माँ से ज़्यादा प्यार करता है, तो मुझे लगा मैं बेकार में ही सब पर शक़ करती रहती हूँ।” 

अभी मुझे हंसा जीजी की ख़ुशहाल ज़िन्दगी से ख़ुुश हुए ज़्यादा दिन नहीं हुए थे कि मेरे पास उनकी आपदा-विपदा की छोटी-मोटी ख़बरें आने लगीं। माँ के जाने के बाद वृहत् मातृपक्ष वालों के साथ आई दूरी के कारण, मुझे उनसे कटने का बहाना मिल गया था और जीवन की अफ़रा-तफ़री के साथ ख़ुद के जंजालों से घिरे मेरे जीवन में हंसा जीजी का अता-पता क्रमश: खो गया था। 

अचानक एक दिन जीजाजी (हँसा-पति) के देहावसान की ख़बर आई। रिश्तेदारी में मरे-जिए में जाना आवश्यक होने के कारण, जब मैं वहाँ गयी, तो हंसा जीजी को देख कर दंग रह गई। उनके वैधव्य की व्याकुलता के पीछे भी उनके दैनन्दिन की दीनता साफ़ नज़र आ रही थी। मेरी प्रश्‍न भरी आकुल दृष्टि को जब हंसा जीजी ने देख कर भी अनदेखा कर दिया, तो उनकी अंदरूनी ख़स्ता हालत मुझसे छिपी नहीं रही। हालाँकि मैं उनके बहुत क़रीब नहीं थी, फिर भी पड़ोस में रहने के कारण, बचपन में ‘जीजी! जीजी!’ का रट्टा तो मैंने भी मारा ही था, इसलिए सही जानकारी के लिए मैंने उनकी ‘पड़ोसन ताईजी’ का पल्ला पकड़ा। हंसा जीजी के बाबत उनकी बताई हुई कहानी यूँ है: 

“सावित्री बाई के जाने के बाद, हंसा का बेटा एकदम निडर और ढीठ हो गया और उसने ख़ूब चालाकी से अपने बेटे रूपी जाल में इन सीधे-सादे पति-पत्नी को फँसा लिया। प्रौढ़ावस्था में दुबारा बचपन का आनन्द लेते हुए हंसा और पवन बाबू देखते ही देखते हर वक़्त ‘अनन्त! अनन्त!’ की माला जपने लगे। पर वह बछड़ा कब साँड़ बन गया, इससे ग़ाफ़िल हंसा जीजी उसे ‘नई ब्याही’ गाय की तरह रात-दिन अपने वात्सल्य रस से भिगोती रहीं, और बाँध टूट कर बहा उनका मातृत्व-प्रपात ‘अनन्त रूपी जीवात्मा’ को बारह महीनों के चौबीसों घंटे आपादमस्तक सिंचित करता रहा। 

“एक तो ओछे माँ-बाप की संकीर्णमना परवरिश से पालित, ऊपर से दादी की स्नेह-पगी धन की बौछार! ऐसे में किसी भी युवा के अशिष्ट और उद्दण्ड बन जाने की सम्भावना तो रहती ही है, ऊपर से अनन्त के माँ-बाप अब भला ‘करेले को नीम चढ़ने’ में क्या देर लगती। इन दिनों वह हर व़क़्त बात-बेबात दादा-दादी को ‘सिरड़ी’ (किचकिचिया) मूर्ख आदि कहकर झिड़कता रहता। आहिस्ता-आहिस्ता यह स्थिति हो गई कि दादा-दादी को देखते ही उसे जैसे बिजली का करंट-सा छू जाता और वह अनाप-शनाप बकवास शुरू कर देता। उसके अपमानों से असमय बुढ़ाए दादा-दादी अपने आँसू पोंछते हुए उसकी बदतमीज़ियों को बचपना कह कर टालते रहते। 

“हमेशा की तरह, परसों रात जब वह नशे में धुत्त होकर घर लौटा, तो दादा के ज़रा सा टोकने पर, उसने सूट लटकाने का भारी हैंगर उनके सिर पर ज़ोरों से दे मारा, और वे बेचारे ‘औसान चूक’ (हतप्रभ)-से उस अकल्पनीय प्रहार से घबरा कर सिर के बल ज़मीन पर जा गिरे, नतीजन उनके ‘ब्रेन हैमरेज’ हो गया। चीनी की बीमारी होने के कारण उनकी हालत और भी ‘ताब’ में नहीं आई और वे चल बसे। जब थाने से आए सावित्री बाई के धर्म भाई सिपाहियों ने हंसा से मृत्यु का कारण पूछा, तो उस संकट के समय में हंसा ने उन्हें बिना अटके कह दिया, ‘आधी रात को पेशाबघर में ‘आक्खड़’ (ठोकर जगना) गये थे।’ 

“हंसा जीजी को समय न दे पाने के अपने ढेरों बहानों पर ग्लानि होने के बावजूद भीतर ही भीतर मेरा ‘दिद्दा’ (मन) हंसा जीजी की ज़िम्मेदारी लेने का नहीं था। वैसे इसमें हंसा जीजी की भागीदारी भी कुछ कम नहीं थी। मैंने जब कभी हाल-चाल पूछ कर उनके जीवन में घुसने की चेष्टा की, तो अपने चेहरे पर छाई अवसाद की परत को पीछे सरका कर, वे मुस्कुराते हुए अपने दोनों हाथ आकाश की ओर उठा कर कह देतीं, “एकदम ठीक स्यूँ, तैं चिन्ता मत कर।” मेरा यह प्रस्ताव कि रामदरश मामा (हवलदार) रोज़ उनका हाल-चाल पूछ लिया करेंगे, उन्होंने इस तरह ख़ारिज कर दिया, मानो मैंने उनके सामने किसी बम आरोपण की बात कह दी हो। 

एक दिन मेरी गहरी उद्विग्नता देख कर उन्होंने कहा, “उमा! तुम ज़्यादा माथा मत लगाओ और मुझे मेरे भाग्य पर छोड़ दो। क्या ‘साँवा बेबे’ चाह कर भी मेरे बुरे समय की घड़ी को उलटा घुमा पाईं? मेरे भाग्य के आगे जब उन जैसे ॠषि व्यक्तित्व का ही वश नहीं चला तो तुम और मैं तो हैं ही क्या?” 

उनकी दिलासों से भरी हुई मैं रास्ते भर सोचती रही कि माँ के अनुसार हंसा जीजी जैसा साधु स्वभाव सदियों में किसी एकाध प्राणी का ही होता है। साथ ही उसमें वे यह नुक़्ता भी जोड़ दिया करती थीं कि “पता नहीं यह ऊपरवाला भी अपने ख़ास बंदों को ही ज़्यादा तकलीफ़ क्यों देता है!” पर उनके जैसी धर्मपरायण महिला भगवान को कैसे दोषी मानती, इसलिए वे यह कह कर भगवान को माफ़ी दे देतीं कि “हो सकता है वह इसी बहाने हमारे पूर्वजन्म के पाप कटवाता हो।” इस प्रकार प्रकट की गईं अपनी उक्तियों का समापन वे हमेशा दर्शन भरे इस वाक्य से करतीं, “उमा! सदा विश्‍वास रखना कि भले ही उसके यहाँ देर हो जाए, पर अँधेर नहीं हो सकता। इसलिए देखना एक न एक दिन भगवान हंसा का न्याय भी ज़रूर ही करेगा।” 

ऐसे ही विमर्शों के जाल में फँसी मैं बार-बार अपने मन में माँ से पूछ रही थी, “क्या हुआ तुम्हारे भगवान के न्याय का? अब यह मत कहना कि अभी हंसा के पाप कटने बाक़ी हैं। सच तो यह है कि ये सारे आश्‍वासन ही ‘फ्रॉड’ हैं, नक़ली हैं। ज़रा पूरी दुनिया में आँख घुमा कर देखो, चारों तरफ़ दुष्ट बैठे राज कर रहे हैं, और भले नरक भोग रहे हैं। अब तुम्हीं बताओ! सुबह से रात तक सबका भला चाहने वाली हंसा जीजी को क्या कभी भी इन दारुण मानसिक कष्टों से मुक्ति मिली है, या मिलेगी?” 

मुस्कराने की अपनी जन्मना आदत के तहत शायद माँ मेरे उपालंभों के जवाब में ज़ोरों से मुस्कराई होगी, क्योंकि दो-एक दिन बाद ही एक भयंकर ख़बर मिली, “सशस्त्र गुंडों ने हंसा जीजी के घर पर हमला कर उनके बेटे-बहू को मार डाला। बहू ने उस वक़्त दुनिया भर के ज़ेवर पहन रखे थे और बेटा कहीं से रुपयों भरा ‘ब्रीफ़केस’ लाया था। ज़्यादा ना-नुकर और हाथपाई करने पर अन्तत: हमलावरों ने उन दोनों की जान ले ली। 
 यह पूछने पर कि हंसा जीजी की क्या ख़बर है! पता चला कि वे अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ गई हुई थीं, इसलिए बच गईं। कुल के चिराग़ अनन्त के बारे में तहक़ीक़ात करने पर, जो तथ्य सामने आए, वे अत्यधिक चौंकाने वाले थे। पुलिस ने बताया कि उन गुंडों में से तीन को पकड़ लिया गया है और उनके अनुसार यह सारी योजना अनन्त की ही बनाई हुई थी। चूँकि वह ‘ड्रग’ लेने के साथ-साथ और भी कई बुरे धन्धों में फँस गया था, इसलिए उस पर ‘गुंडा-सरदार’ का बड़ा क़र्ज़ हो गया था। उन लोगों ने घर की विस्तृत जानकारियों वाला एक नक़्शा और घरवालों की समय-सारणी भी पुलिस को दिखाई, जिससे पुलिस का सन्देह अनन्त पर पुख़्ता हो गया। 

मेरे यह कहने पर कि जब यह साबित हो चुका है कि यह सारी साज़िश अनन्त की ही है और वही इस काण्ड का ‘मास्टर माइंड’ (कर्ता-धर्ता) है, तो उसे गिरफ़्तार क्यों नहीं किया जा रहा, मुझे उत्तर मिला कि वह ख़ुद को बहुत शातिर समझता है, इसलिए अभी फ़रार है, पर शायद वह नहीं जानता कि हमारे हाथ भी बहुत लम्बे हैं और कुछ ही देर में हमारे लोग उसे पकड़ चुके . . . वाक्य के बीच में ही हमने कमिश्‍नर साहब को अपने वायरलेस पर यह कहते सुना, “वेल! . . . वेरी गुड! . . . थैंक्यू! . . . उसे तुरन्त ‘लॉक-अप’ में डालो, मैं आ रहा हूँ।” 

वहाँ से लौट कर जब मैंने माँ की फ़ोटो देखी, तो मुझे लगा कि उनकी अचल तस्वीर जीवंत होकर, अलौकिक भावों से भर गई है और उनकी वही शाश्‍वत मुस्कुराहट मेरी सारी दुविधाओं का जवाब दे रही है।

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