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प्रेमव्रती पुरुष

यूनिवर्सिटी की ‘टॉप रोल मॉडल’ मल्लिका ने जब कॉफ़ी हाउस में अभिषेक की कुर्सी के पीछे खड़े होकर उसके बालों को अपनी लम्बी अंगुलियों से झिंझोड़ कर बिगाड़ा, तो सीधा सादा अभिषेक भौचक सा कुर्सी से खड़ा होकर, मल्लिका को विस्मय भरी आँखों से एकटक देखने लगा। उसके ये हाव-भाव सर्वथा वाज़िब थे, क्योंकि कहाँ तो इन्द्र की अप्सरा रम्भा सरीखी पाँच फुट छह इंच की लावण्यमयी मल्लिका! और कहाँ मध्यम क़द काठी, गेहुँए रंग और औसत नाक नक़्श वाला एक साधारण सा बंदा अभिषेक। मल्लिकाजी तो अपने अभिनव अधुनातन कपड़ों, नित नूतन बड़ी गाड़ियों, पेरिस की सर्वश्रेष्ठ ख़ुश्बुओं का अम्बार अपनी शख़्सियत में समोये यूनिवर्सिटी के सारे युवाओं के दिलों पर एकछत्र राज करती थी, लेकिन अभिषेक लटका झटका हीन एक सीधा सादा मेधावी छात्र था, जिसे देख कर ग्रैगरी पेक, रॉक हडसन या अमिताभ बच्चन का नहीं, बल्कि बुद्ध, शाण्डिल्य, लाओत्से आदि का स्मरण हो सकता था। 

अभिषेक के प्रोफ़ेसर तक उसकी प्रतिभा, गम्भीरता, प्रखर मेधा और भलमनसाहत के क़ायल थे। वह आजकल के युवकों की तरह न तो कभी किसी के साथ मटरगश्ती करता दिखता और न ही उसे कभी किसी लड़की की गलबहियाँ करते देखा गया था। क्लास के बाद उसका अधिकाधिक समय लायब्रेरी या ‘प्रोफ़ेसर रूम’ में ही बीतता था। प्रत्येक पर्चे के प्राचार्य अक़्सर उससे ही सर्वाधिक प्रश्‍न पूछते और अभिषेक उन्हें कभी निराश नहीं करता था। 

हालाँकि अभिषेक की गिनती यूनिवर्सिटी के इने-गिने छात्रों में होती थी, फिर भी उसके बर्ताव में किसी घमंड या ‘एटीच्यूड’ की गंध तक नहीं थी। वह सब से हँसता हुआ मिलता और यथासंभव सब की समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न करता। समस्या चाहे पढ़ाई की हो या निजी, हर व्यक्ति अपने सारे राज़, दिल खोलकर उसके सामने रख देता था, क्योंकि परम विश्‍वास था कि अभिषेक रूपी ‘सेफ़ वॉल्ट’ में कोई चिड़िया तक पर नहीं मार सकती। प्रत्येक को यह पक़्का भरोसा था कि उसका राज़ अभिषेक से शुरू होकर उस तक ही ख़त्म हो जाएगा, इसलिए अभिषेक के सामने उस अप्रतिम सौंदर्य की मालकिन मल्लिका के ढेरों चर्चों का आना एक सहज सी बात थी। बावजूद इसके कि वह मल्लिका के कई चित्र विचित्र रूपों से परिचित था, वह उससे भी उसी सद्भाव और सरलता से मिलता, जैसे औरों से, और उसके रूप और चपल चंचल आकर्षणीय तौर तरीक़ों से पूरी तरह निरासक्त रहता। 

जहाँ यूनिवर्सिटी की अन्य लड़कियाँ उस ‘बोर’ पढ़ाकू अभिषेक को जानबूझ कर अनदेखा करती रहती थीं, वहीं मल्लिका हमेशा ठहरकर, उसे देखती, और सोचती: “इसकी इतनी ज़ुर्रत कि यह मेरी ओर देखे बिना ही मेरी बग़ल से पानी की तरह गुज़र जाए? यदि माप कर देखा जाए तो मेरे सामने इसकी औक़ात ही क्या है? फिर भी यह और लड़कों की तरह मेरे चारों ओर भौंरे सा क्यों नहीं मँडराता? जबकि वे लड़के! इससे देखने सुनने में, और धन धान्य में, हज़ार गुना बेहतर हैं, आख़िर यह अपने आपको समझता क्या है? हुँह! अब मुझे ही इस ‘विश्‍वामित्र बच्चू’ की हिमाक़त को पटखनी देनी होगी, जिसके परिणामस्वरूप यह मुझसी मेनका पर आसक्त होकर ‘बजरबट्टू’-सा घूमता हुआ पूरी पृथ्वी का चक्कर काटता फिरेगा।” दरअसल मल्लिका का अभिषेक के बालों से खेलना उसी ‘स्व-चुनौती’ की शुरूआत थी। 

मल्लिका का ग़ुस्सा इस बात से और भी बढ़ता जा रहा था कि अभिषेक उसकी इन नानाविध छेड़ख़ानियों को बिना नोटिस लिए ख़ारिज़ कर देता था। उसे अभिषेक के इस निर्लिप्त व्यवहार पर इतना अधिक क्रोध आता था कि कई बार तो उसे लगता कि वह अपने इस ग़ुस्से को सम्भाल नहीं पाएगी और कोई छोटा सा बहाना मिलते ही उस पर टूट पड़ेगी। पर अभिषेक की भद्रता और शिष्टता इतने ऊँचे पायदान पर स्थित रहतीं कि कि वह चाह कर भी उसे घेर नहीं पाती थी। 

अभिषेक उससे औरों की तरह ही एकदम सहज साधारण व्यवहार करता, जिससे उसके तन-बदन में आग-सी लग जाती। वह यह सोच-सोच कर सिर पटकती रहती कि क्या वह अन्य लड़के, लड़कियों-सी ही एक औसत लड़की है जो अभिषेक उसे ज़रा-सा भी अतिरिक्त भाव न देकर उस जैसे हीरे को, दूसरे पत्थरों के साथ, एक ही बाट से तौलता रहता है? अभिषेक के इस स्थितप्रज्ञ व्यवहार से क्षुब्ध होकर उसने प्रण किया कि “अब तो चाहे जो कुछ हो जाए, मैं साम, दाम, दण्ड, भेद से इस बेवक़ूफ़ अभिषेक को अपनी अहमियत समझाकर ही रहूँगी।” क्रमशः हुआ यूँ कि ऐसे विचारों को निरन्तर प्रश्रय दे-देकर मल्लिका रानी ने अपनी ज़िद को हठधर्मिता के शिखर तक पहुँचा दिया। 

बावजूद इसके कि मल्लिका को अपने सौंदर्य का भयंकर अभिमान था, उसमें ढेरों-ढेर गुण भी थे। कहा जा सकता है कि वह ‘जिसके छूते ही रेत सोना हो जाए’ कहावत का मूर्त्तिमंत रूप थी। वह न केवल पढ़ाई में बल्कि नाटक थियेटर आदि में, कविता पाठ में, स्मृति आवृति में, कहानी लेखन में अर्थात्‌ विश्‍वविद्यालय के कला संकाय की सारी विधाओं में प्राय: प्रथम श्रेणी में पास होती थी। 

उसके सारे तौर-तरीक़ों में एक ख़ानदानी रईसी की गंध थी, जो उसके पुरखों की धनाढ्यता और आभिजात्य अतीत की गाथा सुनाती थी। घर की इकलौती बेटी होने के कारण उसने कभी ‘ना’ शब्द तो सुना ही नहीं था। उसके माँ, बाप ही नहीं, दादा, दादी, नाना, नानी और बाक़ी के सभी सम्बन्धीगण भी उसके मुखचंद्र को चकोर की तरह देखते रहते। इस इन्तज़ार में रहते कि उसके मुख़ारविन्द से कुछ निकले या केवल भौंहों के इशारे से ही यदि कुछ व्यक्त हो, तो वे उसे तत्क्षण पारित करें। घर की मालकिन उसकी दादी तो हर वक़्त उसके तलुवों के नीचे अपनी हथेलियाँ रखे रहती थीं और उनका राजबाड़ी-सा घर, चौबीसों घंटे मल्लिका नाम के आहत और अनाहत दोनों नादों से गूँजता रहता था। अब ऐसी ‘पुंगलगढ़ की पद्मिणी’ को एक औसत शक्ल-सूरत का मध्यवर्गीय लड़का भला क्या कभी उपेक्षित कर सकता है? सब कहेंगे नहीं! ऐसा हो ही नहीं सकता, ‘न भूतो न भविष्यति’। लेकिन विधि के विधान की विचित्रता का ओर-छोर कहाँ? इसलिए इन सारे मानकों को तोड़ कर अभिषेक मल्लिका की जद से बाहर रहता और मल्लिका की झुँझलाहट और क्षोभ बढ़ते जाते। 

वैसे इस उपेक्षा के पीछे छिपी हक़ीक़त यह थी कि अभिषेक मल्लिका को वर्षों से बेइन्तहा प्रेम करता था। वह अपने प्रेम को रहस्यमयता के गहरे आवरण में ढके रखने के चक्कर में न कभी उसके नज़दीक आता था और न ही उसे अपने निकट आने देता था। उसके प्रेम का एकमात्र लक्ष्य मल्लिका को, पूर्ण समग्रता से अपना कर, उसे अपने सुरक्षा-कवच में सुरक्षित रखने का था, लेकिन मौसमी तितली मल्लिका के जीवन में न तो इन ‘मूल्यों’ की कोई वक़त थी, और न ही कोई अपेक्षा। वह तो नित नए प्रेम प्रकरण में विश्‍वास रखती थी और प्रेम के खिले फूल में ज़रा सी कुम्लाहट देखते ही, उसे ‘डस्टबिन’ में फेंक कर, दूसरे टटके ताज़ा ओस से भीगे गुलाब को सीने से लगाने में विश्‍वास रखती थी। वह अक़्सर ही चहकती-सी कंधे उचका कर अपने दोस्तों के बीच यह कहती नज़र आती: “अरे भाई, मैं ठहरी शास्त्रों की पुजारिन! इसीलिए तो चार्वाक की ‘ॠणं कृत्वा घृतं पिबेत’ को जीवन जीने का मूलमंत्र मान कर हर क्षण ‘पुनर्नवा’ होती रहती हूँ। अच्छा, तुम्हीं बताओ, जब दुनिया के सारे दार्शनिक कहते हैं कि यह ज़िन्दगी दुबारा नहीं मिलती, तो हमें क्या अधिकार है कि हम इसे फ़ालतू संबंधों का बोझ ढोने में बिता दें? जब हमारे दर्शनशास्त्र में भी ‘क्षणवाद’ को विशेष महत्ता प्राप्त है, तो यदि मैं अपने ढंग से ‘क्षण’ की सत्ता पर विश्‍वास करती हूँ, तो क्या ग़लत है?”

आश्‍चर्यजनक है यह तथ्य कि मल्लिका की ये स्वरचित परिभाषाएँ सुनकर भी अभिषेक का प्रेम उसके प्रति घटने की जगह और भी गहरा हो जाता। दरअस्ल अभिषेक की दृढ़ मान्यता थी कि मल्लिका ये थोथी बातें महज़ इसलिए करती है, क्योंकि उसके अन्तर में एक ख़ालीपन हाहाकार करता रहता है, और जिसे वह इन अर्थहीन बातों से भरने का प्रयास करती है। उसे विश्‍वास था कि जिस दिन मल्लिका सच्चे प्रेम का स्वाद चख लेगी, उस दिन उसके ये विचार नहीं रहेंगे। वह भी रत्नाकर डाकू की जगह आदि कवि वाल्मीकि बन जाएगी। अभिषेक के हिसाब से वह ‘बिना किसी खोट का सवा सोलह आने टंच सोना’ थी, जिस पर ज़माने की भौतिकता ने धूल जमा दी थी। जैसे ही कोई उसे ज्ञान के झाड़न से झाड़ पोंछ देगा, वह वापस ख़रे सोने सी ‘भल-भल’ चमकने लगेगी। 

यह स्थिति विचित्र ढंग से एक अर्से से चल रही थी और शायद नियति सही वक़्त का इन्तज़ार कर रही था। धीर-गंभीर अभिषेक में तो इतना अधिक ‘धैर्य’ था कि शायद वह जन्म-जन्मांतर तक सही वक़्त का इन्तज़ार करता रहता, पर स्वच्छंदमना अधीर मल्लिका में तो गाम्भीर्य का लवो-लेश भी न था, इसलिए अचानक एक दिन वह कोने में बैठे अभिषेक पर जा गिरी और उसके ‘हड़क’ कर खड़े होते ही, उससे ऐसी लिपटी कि कोई ‘चिप्पू बेल’ भी पेड़ से क्या लिपटेगी? उसकी इस भंगिमा से उनमें इतनी अधिक नज़दीकी आ गई थी कि दूर से देखने पर, वे दोनों एक ही शरीर लग रहे थे। मल्लिका की इस भंगिमा से ‘होशगुम’ होकर अभिषेक की जो हालत हुई, उसे हतप्रभ, किंकर्त्तव्यविमूढ़, निर्वाक्, स्तम्भित, हक्का-बक्का, भौचक आदि सारी उपमाएँ दी जा सकती हैं। वह पत्थर की मूर्त्ति-सा निस्पंद था और जिस अनिमेष दृष्टि से मल्लिका को देखते हुए भी नहीं देख रहा था, उसे केवल एक ही नाम दिया जा सकता था ‘स्थितप्रज्ञ का साक्षी-चेता भाव’। 

कई दशकों पर भारी उन कुछ क्षणों के बाद मल्लिका छिटक कर ज़मीन पर जा बैठी और घुटनों में सिर घुसा कर फूट-फूट कर रोने लगी। जैसा कि अवश्यम्भावी था, झीने आवरण से ढका अभिषेक का प्रेमल हृदय, उसके रुदन-ताप से मोम की तरह पिघलकर, मल्लिका के चरणों तले जा बिछा। 

इसके बाद का क़िस्सा तो वही सदियों पुराना है। घरवालों की किचकिच! वरमाला! सिंदूर-दान! गृहप्रवेश! और फिर छोटा-सा सुखी संसार, पर क्या सच ही सुखी? या भविष्य के गर्भ में कुछ और छिपा था? 

वैसे इसमें ग़लत भी क्या है? क्योंकि जिस ज़िन्दगी को हम रोज़ जीते हैं, जब वही हर क्षण, हमें अपने अजनबीपन से चौंकाती रहती है, तो क्या ‘विधाता का लिखा’ किसी संस्कार या घटना से सत्यापित होने के बावजूद आज तक इस धरती पर कोई पढ़ पाया है? 

अभिषेक एक अच्छी-सी नौकरी कर, इतना कमाने लगा था कि आराम से एक फ़्लैट और एक गाड़ी लेकर अपनी गृहस्थी जमा ले। पर चंचल चिड़िया-सी मल्लिका! कभी इस डाल पर, तो कभी उस डाल पर, फ़ुदकती हुई, कभी भी कोई स्थायी काम नहीं कर सकी। उसे बढ़िया से बढ़िया काम भी अपनी औक़ात से कम या बोरिंग लगता था, इसलिए कई जगह झक मारकर अन्त में उसने एक फ़िल्म प्रशिक्षण केन्द्र में दाख़िला ले लिया और जैसा कि सबका अनुमान था, वह अपने सौंदर्य और प्रतिभा के कारण कुछ ही दिनों में इस गोद से उस गोद में बैठती हुई, न केवल अभिनेत्री बन गई, बल्कि पटकथा लेखन, निर्देशन आदि भी करने लगी। 

अब फ़िल्मी दुनिया की चकाचौंध और तेज़ रफ़्तार ने मल्लिका की उड़ान भी ‘कोन्कोर्ड’ हवाई जहाज-सी ही तेज़ कर दी थी। ऊपरवाले की विशेष मेहरबानी की बदौलत वह दो बच्चे पैदा करने के बाद भी वापस वैसी ही ‘कनक छरी-सी कामिनी’ बनी रही और उस पर पहले की तरह ही हज़ारों दिल निछावर होते रहे। 

उसके नित नए पुरुष मित्र अभिषेक से छिपे नहीं थे, पर वह अपने दिल के हाथों ऐसा बिका हुआ था कि स्वयं की तो बात ही क्या, यदि कोई दूसरा भी मल्लिका के बारे में ज़रा-सा कुछ कह देता, तो वह अपना स्वभाव छोड़कर उससे लड़ पड़ता। हालाँकि मल्लिका उसकी चाहत और भलेपन की घोर प्रशंसक और एहसानमंद थी, पर न तो उसका अपनी महत्त्वाकांक्षाओं पर वश था और न ही आदतों पर, इसलिए कभी-कभार अपने दिल में उठते ग्लानि-बोध को वह अपने तर्क़ो से तितर-बितर कर देती और वापस वही बेफ़िक्र ज़िन्दगी जीने लगती। 

बाहर से अभिषेक और मल्लिका का दाम्पत्य जीवन गंगा की तरह पवित्र और कलकल-छलछल बह रहा था। उनके जीवन में खिले दो ख़ूबसूरत फूल हर क्षण सबका तन-मन हरते रहते थे। कई लोगों को उनके आपसी प्रेम को देखकर इस बात का बहुत मलाल होता कि: “वे बेकार में ही मल्लिका के लिए सोचा करते थे कि वह तो घर बसा ही नहीं सकती? जबकि उसने तो सुखी परिवार के सारे मानक ही तोड़ दिए हैं। पति-पत्नी के बीच होने वाली साधारण किचकिच तो दूर, उनमें तो कभी नोक-झोंक तक नहीं होती थी।” जबकि अंदरूनी हक़ीक़त यह थी कि अभिषेक की तो क्या बिसात है! मल्लिका तो कभी भूले-से भी बच्चों को कभी छूती तक नहीं थी, और न ही उनकी खोज़-ख़बर लेती थी। चूँकि अभिषेक का एकमात्र काम केवल देना ही था, इसलिए उनके गृहस्थ सागर की बाहरी सतह पर सर्वदा शान्ति छाई रहती थी। इसी वजह से दुनिया वालों की दृष्टि में मल्लिका अभिषेक का परिवार एक उदाहरणीय परिवार था। 

अभिषेक मल्लिका की किसी भी बात को तवज्जोह दिए बिना अर्द्धनारीश्‍वर-सा बच्चों की माँ और बाप दोनों का फ़र्ज़, पूरी तन्मयता और आह्लाद से निभाता रहता था। वह बच्चों को अहसास तक नहीं होने देता था कि उनकी ‘माँ के पास उनके लिए समय नहीं है। वह बच्चों को नित-नई चीज़ें मल्लिका के नाम से लाकर देता रहता और उनसे हमेशा यही कहता कि: ‘आज माँ तुम दोनों की बहुत बड़ाई कर रही थी। वह कह रही थी कि मेरे राजकुमार यश और राजकुमारी शुचि से प्यारे और तेज़ बच्चे तो पूरी दुनिया में नहीं हैं’। ‘देखो आज माँ ने शुचि के लिए कितनी बढ़िया आइसक्रीम लाकर रखी है’। या कि वाह ‘आज तो माँ ने यह इटालियन पास्ता ख़ासकर बेटे यश के लिए बनाया है!’ बच्चों को विश्‍वास दिलाने की ग़रज़ से वह उन्हें समझाते हुए कहता: ‘असल में माँ की जान तुम दोनों में ही अटकी रहती है! पर बेचारी क्या करे? चूँकि उसे बहुत काम रहता है, इसलिए तुम लोगों के साथ ज़्यादा समय नहीं बिता पाती। पर मुझसे हमेशा कहती रहती है कि तुम दोनों ही उसके चाँद-सूरज, और आँखों के तारे हो।’

जब कभी-कभार नन्ही शुचि तुतलाकर अभिषेक से कहती: “पापा! माँ न तो मुझसे बात करती है और न ही कभी मेरे गाल पर प्यार करती है। वह जब घर में रहती है, तब भी हमें न तो पिंकी और डॉली की माँ की तरह मचकाती है, न ही हमसे कुछ पूछती है, पापा! क्या हम बदमाश बच्चे हैं, जो वे ऐसा करती है?”

अभिषेक ढेरों-ढेर बहानों से उन्हें बहलाता तो रहता लेकिन वह स्वयं मल्लिका के बर्ताव से हैरान था कि मल्लिका कभी भी बच्चों की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखती है। जब कभी बच्चे उससे आकर चिपक जाते हैं, तो वह ज़ोरों से कपड़े झाड़ती हुई, उन्हें झिड़क कर कहने लगती है: “क्या बदतमीज़ी है, सारी ड्रेस ख़राब कर दी। अभिषेक, तुम दूर खड़े देख क्या रहे हो? इन्हें पकड़ते क्यों नहीं?”

मल्लिका शुरू से ही दो दिन-चार दिन के लिए शूटिंग के चक्कर में घर से ग़ायब हो जाया करती थी। हालाँकि अभिषेक ने कभी उसकी कोई फ़िल्म नहीं देखी, फिर भी उसने उलट कर मल्लिका से कभी कुछ नहीं पूछा और उसकी हर बात को ‘सत्यवादी हरिश्‍चन्द्र’ का वचन मानकर उन पर विश्‍वास करता रहा, लेकिन एक बार तो मल्लिका ने हद ही कर दी, वह बिना कुछ बताए अचानक एक दिन ग़ायब हो गई और क़रीब आठ-नौ महीने बाद, जब वापस आई तो बहुत ज़्यादा बुझी हुई-सी थी। उसका चेहरा एकदम श्रीहीन और निर्जीव था और उसके सिर के घने काले बाल नाम मात्र के ही उसके सिर पर बचे थे। उसने आते ही अभिषेक को हिदायत दी: “वह वहाँ केवल आराम करने आई है, इसलिए कोई परिचित तो दूर, अच्छा हो कि वह बच्चों को, और स्वयं को, भी उससे दूर रखे।”

बावजूद उसके इस असद्व्यवहार के वह ‘सती-पुरुष’ अभिषेक मल्लिका के आगमन से इतना प्रसन्न था, मानो रम्भा, उर्वशी, मेनका एवं अन्यान्य अप्सराओं ने उसे वरमाला पहना कर उसका वरण कर लिया है। नन्ही शुचि ने जब ‘हुमक’ कर मल्लिका से लिपटना चाहा, तो अभिषेक ने बीच में ही लपक कर उसे पकड़ लिया और आकाश में उछाल कर: “मेरी परी! मेरी स्नो वाइट! मेरी रेड राइडिंग हुड!” आदि नामों से पुकार कर उसे बहलाने लगा। 

मनौवैज्ञानिकों के अनुसार बच्चों की अन्तःप्रज्ञा काफ़ी प्रबल होती है, शायद इसीलिए बड़का यश माँ के बारे में कभी कोई प्रश्‍न नहीं पूछता था, मानो ‘ढके भरम ढके ही रहें’ कहावत का मर्म वह गहराई से समझ गया था। 
अचरज की बात थी कि इन विपरीत परिस्थितियों में भी अभिषेक का प्रेम मल्लिका के प्रति और भी गहराता जा रहा था। वह मल्लिका को जिन आँखों से देखता, जिस नर्म कोमलता से छूता, वह एक अविश्‍वसनीय दृश्य होता था। 

उसने शरद पूर्णिमा की रात को एक सफ़ेद बुर्राक़ पलंग पर मोगरा और जूही के फूल बिछाए और उसे घर के लॉन में रख दिया। मल्लिका को उस पर आराम से लिटाने के बाद, वह उसका सिर अपनी गोद में रख कर हलके हाथों से उसके माथे और बालों को सहलाता हुआ कहने लगा, “मल्लिका! सौन्दर्य के सारे उपादान तुम्हारे चरण पखारते हैं, घनी चमकीली केशराशि की स्वामिनी तुम! स्निग्ध रेशमी ग़ुलाबी त्वचा से शोभित तुम! तुम्हारे हाथ पाँव कदली-फल की तरह नरम और गोलाईदार! हरिण को मात देती तुम्हारी आँखें! किसी ख़ूबसूरत ईरानी प्रतिमा-सी तुम्हारी नाक! और कश्मीरियों-सी लचीली तुम्हारी मनोहारी क़द-काठी मल्लिका, तुम सच ही स्वर्ग की अप्सरा हो।”

मल्लिका की हैरानी का पारावार नहीं था और वह अभिषेक की ओर देखती हुई यह सोचने को बाध्य थी कि क्या यह इसी धरती का प्राणी है! या किसी और लोक से आया कोई गंधर्व? या इसके दिमाग़ में कोई विचलन हो गया है, जो इसे एक गंजी काली कलूटी प्रेतनी में भी अनिंद्य सुन्दरी दिखाई पड़ रही है? अन्त में उसने कह ही दिया, “अभिषेक! तुम्हें हो क्या गया है? तुम कालिदास की शकुंतला का जो रूप वर्णन कर रहे हो, अब मैं वैसी कहाँ हूँ? क्या तुम मुझ पर व्यंग्य . . . ”

मल्लिका के अधूरे वाक्य को उसके होंठों पर अँगुलियाँ रखकर, रोकता हुआ अभिषेक बिलख पड़ा, “मैं क्या करूँ मल्लिका? मेरी आँखों में तुम्हारा जो ‘प्रथम दर्शन वाला रूप’ ‘फ़्रीऽऽज़’ हो गया है, वह अमर है। मल्लिका, जब हम अपने भगवान को बिना देखे ही पूजते रहते हैं, तो मैंने तो तुम्हारे स्वरूप में उसके साक्षात्‌ दर्शन किए हैं और एक सात्त्विक भक्त की तरह मुझे अपने इस विश्‍वास पर ज़रा भी संदेह नहीं है!”

हृदय से सीधे निकले ऐसे सच्चे उद्गारों पर अविश्‍वास करने की गुंजायश कहाँ होती है? इसलिए मल्लिका एकदम चुप हो गई, और उस चपल-चंचला कठोरमना का हृदय पूर्णतः द्रवित होकर आँखों से बहने लगा। 

एक दिन बच्चों के स्कूल जाने के बाद अभिषेक नहलाने-धुलाने के बाद, मल्लिका को उसके प्रिय व्यंजन और पकवान खिला रहा था कि मल्लिका बोली, “हे मुझ पर पूरी तरह निछावर पतिदेव! मैं देख रही हूँ कि तुम बच्चों पर बहुत अधिक समय और धन ख़र्च करते हो, आख़िर यह सब कैसे चलेगा? सुनो अभिषेक, कम से कम अब तो स्वयं को कच्ची उम्र की भावुकता से मुक्त कर, अपने जीवन को एक सार्थक राह की ओर मोड़ दो। तुम ऐसा करो कि बच्चों को किसी बढ़िया बोर्डिंग स्कूल भेज दो और उनके ख़र्च का ज़िम्मा मेरे ट्रस्ट पर डाल दो। वैसे भी तुम कब तक किसी और की संतानों के लिए अपनी बलि देते रहोगे?” कहते न कहते उसने अपनी जीभ काट ली। 

अभिषेक ने एकदम शान्ति और प्रेम से उसके आलथी-पालथी मारे हुए घुटने को सहलाते हुए कहा, “मल्लिका! बच्चे मेरी जान हैं, यदि मैं उन्हें बोर्डिंग में भेज दूँगा, तो मान कर रखो कि मैं जल्दी ही मर जाऊँगा। हाँ! तुम्हें इस अनायास फिसले हुए सत्य के लिए जीभ काटने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि मुझे यह भेद शुरू से ही मालूम है। इन बच्चों की जन्मतिथियों ने मुझे समझा दिया था कि देश में मेरी अनुपस्थिति का समय ही इन दोनों के गर्भाधान का समय था।”

“क्याऽऽऽऽ?” की एक लम्बी चीख़ के साथ ही मल्लिका सरीखी निस्संग और निर्मोही महिला फूट-फूट कर रो पड़ी और अपनी छोटी मुट्ठी से अभिषेक को मुक्के मारती हुई, बस एक ही ‘पहाड़ा’ रटने लगी: अभिषेक, तुम आदमी हो या कोई अभिबोधित आत्मा? भगवान और भृगु की लात का पौराणिक क़िस्सा भी एक बार का ही है, पर तुम? तुम तो सालों से रात दिन मेरी हिक़ारत, अवहेलना, उपेक्षा और तिरस्कार को न केवल सहते रहे, बल्कि मेरे अहंकार को भी सहलाते रहे, तुम ऐसे क्यों हो? क्यों हो ऐसे अभिषेक?”

ग्लानि से भरी हुई उसकी यह अश्रुधार मल्लिका से ज़्यादा अभिषेक को विगलित कर रही थी। उसने आगे बढ़कर मल्लिका का सिर अपनी छाती से यों चिपका लिया जैसे ज़मीन पर गिरने से रोते हुए बच्चे को माँ अपनी छाती से चिपका लेती है। अचम्भे की बात कि उसकी आँखों से भी बाढ़ की तरह आँसू बह रहे थे, और ऐसा भान हो रहा था मानो वह उनसेे मल्लिका का सारा कल्मष धो कर उसे एकदम उजला और पवित्र कर देगा। 

अभिषेक के अनुसार मल्लिका सदा ही गंगा-सी पावन और साफ़ थी, जिसमें यदि ग़लती से कभी कोई गंदा नाला आ भी गिरा होगा, तो वह अभिषेक के प्रेम-झरने में बह गया होगा। 

अभिषेक ने मल्लिका से मात्र यह कहा, “मल्लिका, अरे पगली! तुम कौन-सी बाहरी गलियों में भटक गई? मत भूलो! मैंने तुम्हें प्रेम किया है और प्रेम बाह्य में नहीं, अन्तर में विश्‍वास रखता है। तुम्हारा अनूठा सौंदर्य औरों के लिए लुभावना रहा होगा, पर मेरे लिए तो तुम आज भी वैसी की वैसी हो, जैसी बीस साल पहले थी, समझी।” कहते हुए उसने मल्लिका के सिर पर हल्की-सी प्यार भरी चपत लगा दी। 

उसके इस कथन और सहज क्रिया से मल्लिका बहुत उद्वेलित हो गई और तड़प कर बोली, “बंद करो अपना लेक्चर! अगर तुम मेरी सच्चाई जान लोगे, तो मुझसे भयंकर घृणा करने लगोगे, जानते हो मुझे . . .”

अभिषेक ने उसके मुँह को हथेली से ढाँपते हुए कहा: “मैं जानता हूँ कि तुम्हें एड्स है। इसलिए बतौर एहतियात, मैं बच्चों को तुमसे दूर रख रहा हूँ। मैंने तुम्हारा चेहरा देखते ही तुम्हारा रोग काफ़ी कुछ तो पकड़ लिया था और बाद में एक दिन जब तुम अपने अमेरिकन डॉक्टर से पूछ कर अपना ‘प्रेस्क्रिप्शन’ लिख रही थी, तब मैं तुम्हारे लिए जूस लेकर कमरे में घुस रहा था। तुम्हारे रहस्य का हिस्सा कान में पड़ते ही मैं लौटा भी, पर मेरी बदक़िस्मती कि तुम्हारी बातचीत के उस टुकड़े से ही मेरी धारणा पुष्ट हो गई।”

मल्लिका ‘जल बिन मीन’ की तरह छटपटाती सी बोली, “अभिषेक! क्या तुम भगवान बुद्ध हो जो जवान और ख़ूबसूरत आम्रपाली को ठुकरा कर, कोढ़ी आम्रपाली की सेवा कर रहे हो?”

मल्लिका का पश्‍चातापी रुदन आकाश के पार जा रहा था और अभिषेक उसे पुचकार कर उसके कर्मों को ‘अनकिया’ सिद्ध करने की कोशिश कर रहा था। उसकी ये झूठी कोशिशें मल्लिका के अंतर को भीगे कपड़ों की तरह मरोड़ कर निचोड़ रही थीं और वह अंधी-सी कभी इन तो कभी उन विचारों की दीवारों से अपना सिर फोड़ रही थी। मीठे झरने सा अभिषेक उसे प्राणपण से उसे शीतलता प्रदान करने की चेष्टा कर रहा था कि अचानक मल्लिका का हाथ उसकी बाईं छाती पर गया, और उसने कराह कर अभिषेक की गोद में दम तोड़ दिया। 

‘डेथ सर्टिफ़िकेट’ लिखते समय उनके पारिवारिक डॉक्टर गुहा ने अभिषेक से कहा, “यह तो होना ही था। लापरवाह मल्लिका को कई वर्षों से दिल की बीमारी थी। लाख समझाने पर भी उसने कभी कोई परहेज़ नहीं माना, और हिप्पियों जैसा ख़ानाबदोश जीवन जीती रही। यह ‘कार्डियक अरेस्ट’ उसी बदपरहेज़ी का नतीजा है।”

मेधावी और कर्मठ अभिषेक ने मल्लिका के जाने के बाद बहुत नाम, इज़्ज़त और वैभव अर्जित किया। उसने दोनों बच्चों को ऐसा संस्कारी और भला बनाया कि सारा ज़माना उन्हें देखकर वाह-वाह करने लगता। ख़ास बात यह थी कि दोनों बच्चे ताउम्र अपनी माँ को देवी की तरह पूजते रहे। 

अभिषेक ने अपने घर के बड़े से बैठक-कमरे में मल्लिका का आदमक़द चित्र लगा दिया था, जिस पर वह रोज़ ताज़े सुगंधित पुष्पों की माला इस भाव से चढ़ाता जैसे उन फूलों की ख़ुशबू मल्लिका तक पहुँच रही हो। 

मल्लिका आज भी उसके वुजूद का अभिन्न अंग थी, और उसे सदैव लगता था कि वह हर क्षण उसके पास है! . . .

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