अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

एक पारस पत्थर

“कुसुम जी! आपकी आज तक की दुनिया में ऐसा कौन सा आदमी है, जिसके लिए आपके मन में पूर्ण श्रद्धा है और कभी कोई प्रश्‍न-चिह्न नहीं लगा है?”

“याद आ रहा है,” डॉ. साहब के प्रश्‍न के उत्तर में मेरे मुँह से बेसाख़्ता निकला, “आनंद जी! . . . डॉ. साहब, मैंने भगवान को तो नहीं देखा है, पर लगता है, वह भी इनके आसपास की-सी कोई चीज़ होंगे!” यह उक्ति बेवजह नहीं थी। इसके पीछे वर्षों से देखे-सुने अनुभवों की लम्बी शृंखला थी! . . . 

“कुसुम! ज़रा आनंद के कमरे में झाँक कर देखो तो! वहाँ कौन है?”

“बाबू जी! आनंद भैया बैठे हैं और बिस्तर पर कोई बुज़ुर्ग सो रहे हैं।”

“जानती हो, वह कौन है?”

“ना।”

“जाकर आनंद से पूछो।”

“बाबू जी, आनंद भैया ने कहा, ड्राइवर जी हैं। तबीयत ख़राब है इसलिए कमरे में सुला रखा है।”

“क्या वह तुम्हें ‘राम’-सा (उनका ड्राइवर) लगा?”

“ना। तो फिर कौन है? भैया झूठ तो बोल नहीं रहे हैं, है तो ड्राइवर ही।”

“हाँ! ड्राइवर तो है, पर अपना नहीं। बग़ल के मकान में काम करता है।”

“क्याऽऽऽ! तो फिर अपने यहाँ कैसे?”

“अरे भई! यही तो मुसीबत है। . . . आनंद की दया का तो ओर-छोर है नहीं, पर घर के दूसरे लोग यह सब कैसे पसन्द करें। अपना ड्राइवर हो तो भी, ‘सर्वेन्ट क्वार्टर’ में ही सोता; फिर वह तो अत्यधिक पुराना और घर वालों जैसा होने के कारण ‘खट’ (बर्दाश्त) भी जाता, पर यह दूसरों का ड्राइवर! ख़ुद के फ़्लैट के अंदर! अपने कमरे में! अपने बिस्तर पर है!”

कह कर बाबू जी चुप हो गए। उनका हृदय भी गाँधीवादी था और वे एक बड़े समाज-सुधारक भी थे! पर करुणा का ऐसा विस्तार! जहाँ ‘स्व’ और ‘पर’ में कोई अंतर न रह जाए; क्या कभी भी व्यावहारिक कसौटी पर खरा उतरता है? 

मैं उनकी परेशानी को समझ रही थी, पर चूँकि आनंद भैया की भारी भक्त थी और इस घटना का कोई भी सीधा आक्षेप मुझ पर नहीं आ रहा था; इसलिए मैं आनंद जी की महानता की और भी क़ायल हो गई। मेरे मन:आकाश में उनकी परदुःख-कातरता के प्रताप का इतना सघन आलोक छाया हुआ था कि बाबू जी की असुविधा का एक छोटा सा अँधेरा कोना उसमें छिप गया था। संयुक्त परिवार के मुखिया की मजबूरी मेरी समझ में आ रही थी, पर उस आदमी का क्या किया जाए, जो करुणा का सागर है। उसके लिए बीमार और वह भी ग़रीब! . . . सिर्फ़ बीमार और असहाय ही है; फिर चाहे वे उसे अच्छी तरह पहचानते न भी हों, पर उनका ‘स्वयं’ का बिस्तर और कमरा तो उसके लिए हाज़िर कर ही सकते हैं। कुछ लोग तो ट्रेन और होटल में भी धुली हुई चादर व्यवहार करने में हिचकिचाते हैं, और अपना बिस्तर! वह भी किसी दूसरे के बीमार ड्राइवर को? . . . 

कुछ देर चुप रहकर धीर-गंभीर डॉ. साहब ध्यान से मुझे देखते रहे। . . . अब तक वे मेरे स्वभाव से काफ़ी परिचित हो चुके थे और जानते थे कि मैं सहज ही किसी की ऐसी अत्युक्तिपूर्ण प्रशंसा नहीं करती (काफ़ी कंजूस हूँ इस मामले में) थोड़ी देर बाद वे बोले, “तब तो उनसे तुरंत मिलना होगा और उन्हें जानने की कोशिश भी करनी होगी।”

अपने इस कथन के बाद मैं भी कुछ चकरा गई थी कि मेरे मुँह से ऐसी बात निकली कैसे? कौन सी घटनाएँ! कौन से कारण ऐसे थे! जिन्होंने अनायास ही मुझसे ऐसा कहलवा दिया? 

मन और मस्तिष्क में कई स्मृतियाँ कौंधने लगीं। मेरे दृश्य-पटल पर उनका झुरमुट इतना बड़ा हो गया था कि समझ में नहीं आ रहा था कि जिस व्यक्ति की मनसा, वाचा, कर्मणा, ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ; सिर्फ़! सिर्फ़!! अपने से परे देखती हों! जिनके क्रियाकलापों की आहट दूर रह कर भी अहर्निश आप तक आती रही हों! . . . ऐसी बातों का साझा कैसे हो? . . . 

और फिर क्या कभी किसी ने ऐसा व्यक्ति देखा या सुना है . . .? 

“डॉ. रेड्डी! आप इस तरह आँखें फाड़े ‘भुतासे-से’ (कुछ अनहोनी देखने से पैदा हुई घबराहट) क्यों लग रहे हैं, और यों तेज़ी से मेरी ओर क्यों बढ़े आ रहे हैं? देखिए, कहीं ‘आखड़’ (छोटी ठोकर लगने से गिरना) मत जाइएगा। आइए . . . बैठ कर बताइए, क्या विचित्र बात देख ली है आपने। वैसे आपके चेहरे से ज़ाहिर है कि बात विचित्र होते हुए भी दु:खपूर्ण नहीं है।” 

“नहीं-नहीं कुसुम जी! मैं घबराया हुआ नहीं हूँ, अचंभित हूँ। आपने मुझे आनंद जी के कई क़िस्से सुनाए हैं। जैसे कि वे अपने नौकर को ‘आप’ कह कर बुलाते हैं; ‘उसे अपने साथ बैठाकर खाना खिलाते हैं’; ‘वह इनके साथ के ही बिस्तर पर सोता है’ आदि। आपने यह भी बताया था कि वे रोज़ सुबह या शाम तीन-चार किलोमीटर चल कर मध्य कलकत्ते से नीमतल्ला स्ट्रीट (उत्तर कलकत्ता) जाते हैं, और वहाँ एक चौकीदार के बेेटे को वर्षों से पढ़ाते हैं और इस साल वह लड़का दसवीं पास कर लेगा आदि-आदि। ये सारी बातें मैं एक क़िस्से की तरह सुन लेता था और आपकी बातों में से कुछ को तो काट-छाँट दिया करता था और कुछ के लिए सोचता था कि कई पैसे वाले अपने आपको कम्युनिस्ट सिद्ध करने के लिए, ऐसी हरक़तें करते रहते हैं। ऐसा ही कुछ माज़रा यहाँ भी होगा, पर आज मेरी आँखें खुल गईं . . . ”

कह कर वे बाएँ-दाएँ (दक्षिणी भंगिमा) गर्दन हिलाने लगे जिसमें यह भाव था कि ‘मान गए, भई मान गए!’

“डॉ. साहब! डॉ. साहब!! आख़िर हुआ क्या? आप यों ही भूमिका बाँधते रहेंगे या आगे भी कुछ बताएँगे?”

“कुसुम जी! आज मैं हावड़ा स्टेशन की ओर टैक्सी से जा रहा था। टूटी-फूटी ट्राम लाइन के ऊबड़-खाबड़ पत्थर, इधर-उधर फैले होने के कारण रास्ता भयंकर जाम हो गया था। मैं टैक्सी से उतर पड़ा और सँभल-सँभल कर पग धरता अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा। इतने में देखा कि तुड़ा-मुड़ा मैला-सा कुर्ता और पाजामा पहने आनंद जी मेरी बग़ल से गुज़रे। उनके सिर पर एक अल्यूमिनियम का छोटा बक्सा था और हाथ में एक थैला! वे गिरने की परवाह किए बिना तेज़ी से आगे बढ़े जा रहे थे। 

“मुझे लगा धत्! मुझे वहम हुआ होगा . . . वे भला इस तरह स्टेशन की ओर क्यों भागेंगे? फिर उनकी पीठ को देखा और मुझसे रहा नहीं गया और मैं तेज़ी से उस भलेमानस की ओर बढ़ा; इस तैयारी के साथ कि निन्यानबे प्रतिशत वे आनंद जी नहीं हैं; अत: उस आदमी की डाँट तो मुझे खानी ही पड़ेगी। पर संदेह का बीज तो आप जानती ही हैं, कैसा होता है। जब मैंने आगे बढ़कर उनके कंधे पर हाथ धरा, तो वह मूर्ति वहीं स्थिर हो गई और मैं घूमकर उनके सामने आया और यह देख कर दंग रह गया कि हमारा चपरासी एकदम साफ़ शफ़्फ़ाफ़ करारे कपड़े पहने, हाथ में छाता झुलाए; उनकी बग़ल में ‘फ़नाफ़न’ रईस-सा खड़ा है; और आनंद जी उसका सामान अपने सिर पर धरे उसे स्टेशन पहुँचाने आए हैं। मेरी आँखों में ‘घुड़की’ का भाव देखकर चपरासी स्वतः ही मुझे सफ़ाई देने लगा, ‘हम का करें? . . . बाबू को बहोत समझाए, पर ये माने नहीं। कहने लगे, नहीं, हम चलेंगे; और हमारा बोझा भी ढोते रहे; यह कहकर कि अब तो देस में तुम्हें काम ही काम रहेगा और साथ ही इसलिए भी कि कहीं हमारे कपड़े गंदे न हो जाएँ।’

“आनंद जी ने बीच में ही बाधा देकर कहा, ‘यह बेचारा तो बहुत संकोच कर रहा था, पर डॉ. साहब, आप तो बुज़ुर्ग हैं; और जानते हैं कि घर का बच्चा यदि बाहर जाए, तो ‘घर के बड़े’ तो उन्हें पहुँचाने जाते ही हैं। आप ही समझाइए इसे’।”

हम दोनों के बीच एक मिनट का मौन छा गया। मानो हम इस अकल्पनीय घटना को आत्मसात करने का प्रयास कर रहे हों। 

थोड़ी देर बाद डॉ. साहब ने बात का समापन यों किया . . . 

“कुसुम जी!” यह बात उन्होंने इतनी सहजता से कही, मानो जीवन के मूलभूत सत्य को मात्र दोहरा रहे हों। “मैं आज तक आपसे जो सुन रहा था; उसमें काट-छाँट तो दूर, अब तो मुझे लगता है कि आपने मुझे बहुत कम बताया है।”

इस बात की रोशनी में मुझे भी एक ऐसी ही घटना याद आ गई, जो मैंने उन्हें बताई, “डॉ. साहब, मैं भी इसे सहजता से स्वीकार नहीं करती थी, लेकिन जब हम कोश बना रहे थे, तो मेरे यहाँ एक तेरह-चौदह वर्ष का अनाथ लड़का काम करता था। वह हम लोगों को मूड़ी-चाय आदि देने के लिए लायब्रेरी आया करता था। कोश बनाने में कई साल लगे और एक दिन जब वह आकर कुछ बोला, तो आनंद जी अपनी क़लम वहीं छोड़ कर, तेज़ी से उठे और उसे छाती से चिपका कर बोले, ‘अरे नरसिंह! तुम्हारी आवाज़ फट गई है। बेटा! तुम बड़े हो गए हो।’ फिर वे उसके गलबहियाँ डाले हुए उसे पास की दुकान पर मिठाई खिलाने चले गए। 

“मैं शर्म से ज़मीन में गड़ी जा रही थी और भुनभुना रही थी कि वह बच्चा दिन-रात मेरे पास रहता है, पर मुझे तो अपने स्वार्थ के सिवाय और कुछ सूझता ही नहीं है। मेरे अस्पष्ट-से उद्गार सुनकर पास बैठी निशा बोल पड़ी, ‘आनंद जी ने जब यह कहा कि कल उनका नौकर घर जा रहा था, तो उसका सामान देखकर लगा कि उनके पास तो उससे बहुत ज़्यादा सामान है। उनकी यह बात सुनकर मेरी भी गर्दन शर्म से झुक गई थी’।”

उनके ‘सर्वजन हिताय’ किए हुए काम इतनी बड़ी संख्या में हैं कि एक ओर ऊर्ध्वाकार उदग्र क्षितिज के पार की रेखा, दूसरी ओर की धरती के अंतिम छोर तक के अनुलम्बित विस्तार को ढँक लें। 

सत्य और करुणा की प्रतिमूर्ति आनंद जी ऐसा पारस पत्थर हैं कि उन्हें जो भी छू लेता है, सोना बन जाता है। उनके संस्पर्श ने ढेरों लेखकों और साहित्यकारों को जन्म दिया है, जिनमें से कई तो उनसे पहला वाक्य बनाना सीखकर आज अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुके हैं। उनके अनपढ़ नौकर-चाकर भी आज साहित्यिक पत्रिकाओं में छप रहे हैं, पुस्तकें प्रकाशित करवा रहे हैं। 

इन बातों का अविश्‍वसनीय लगना स्वाभाविक है, क्योंकि हमारे अनुभव क्षेत्र में इतनी ढेरों क्या, ऐसी एक भी गुणवत्ता से सम्पन्न कोई व्यक्ति नहीं आता है, लेकिन कई बार कोई धरती-पुत्र अपनी सीमाएँ तोड़ कर आकाश के भी पार चला जाता है . . . और आनन्द जी वही हैं। . . . 

हक़ीक़त तो यह है कि ये बातें उनके कृतित्व के परिमाण में बहुत कम हैं . . . 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

रेखाचित्र

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं