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काला पारिजात

“कुशुमऽऽ! ओय कुशुमऽऽ! कोथाय आछीश बापू तुई? . . . शोत्ति! . . . तोमाके पावा, तो भोगोबान के पावा थेकेओ कोठिन . . . तोबे ताके मोनेर माझे पावा जाय . . . किन्तु तोमाके? . . . ऐकेबारे ओसोम्भव!”

“मिनोती दी!! केनो ऐतो चैंचाच्छो! तुमि निजेई तो बोलले, शेई . . . ‘मोनेर माझेर कोथा’ . . . ता होले ऐकबार ओखानेई ऊँकी मेरे देखे निते!!” (ऐ कुसुमऽ! . . . कहाँ हो तुम? सच! तुमसे मिलना तो भगवान से मिलने से भी ज़्यादा कठिन है। उसे तो फिर भी अपने अन्तर में पाया जा सकता है!! . . . पर तुम्हें? एकदम असम्भव! 
 . . . मिनती दी! तुम बेकार ही इतना नाराज़ हो रही हो!! तुम्हीं ने तो कहा उसे फिर भी अन्तर में पाया जा सकता है तो वहीं झाँक कर देख लेतीं? ) 

इस उत्तर से निरुत्तर; मिनोती दी ने हँसते हुए हथेली से चपत की मुद्रा बनाते हुए मुझे आदेश दिया कि मैं तुरन्त जाकर हमारी मित्र-मंडली की प्रधान डॉक्टर रोहतगी से मिल लूँ; क्योंकि वे बरामदे में बैठीं बड़ी बेसब्री से मेरा इन्तज़ार कर रही हैं! . . . मैं लगभग दौड़ती-सी शीला दी के पास जा पहुँची . . . उन्होंने चिहुँक कर मुझे गले लगाते हुए गद्‌गद्‌ कंठ से कहा, “सुन देवी! तेरी बेटी पिंकी ने अंत में लड़का पसन्द कर लिया है, और वह उसे लेकर कलकत्ते आ रही है। देख बच्चू! तू अपने आप को बिल्कुल ख़ाली रखना; क्योंकि तुझे ही सारा काम सम्हालना है। आख़िर संयुक्त परिवार की होने के कारण तूने अब तक बीस-तीस विवाहों के प्रबंध तो करवाए ही हैं। तो बस!! . . . भई, तुम आज से ही कमर कस लो।”

इतना कहकर वे अपनी आँखों में हल्का-सा पानी ले आईं और बताने लगीं कि कैसे? मैंने बेटी न होने के कारण पिंकी को बचपन से ही अपनी बेटी ही माना है; . . . कैसे? एकबार मैं शीला दी के कहने पर अपने भाँजे तक से लड़ ली थी कि वह पिंकी से दूर रहे; . . . कैसे? पिंकी के विदेश जाने पर मैं फूट-फूट कर रोई थी; . . . और कैसे? जब उसने अपने लिए एक चीनी लड़का चुन लिया था, तो मैंने कई दिनों तक युक्तिसंगत तर्क और उदाहरण दे-देकर, उसे समझा-बुझाकर मना लिया था-आदि-आदि। 

मैंने उन्हें एक हाथ से बरजते हुए कहा, “बस कीजिए जीजी! आप मुझसे यों बेगानों की तरह बातें मत करिए। सच मानिए! मैं अपने सुख के सिवा कुछ भी नहीं करती। मुझे आपकी यह गुड़िया-सी पिंकी बहुत प्रिय है; इसीलिए मैंने यह सारी मशक़्क़त की; और जीजी! आपको ज़रा भी शर्म नहीं आ रही है; जो आप उन बातों को यों ‘गिना’ रही हैं? . . . एहसान मान रही हैं? . . . यदि मैं अपने जीवन में आपके प्रेम और योगदान की चर्चा करूँ, तो एक पूरी रामायण तैयार हो जाएगी . . . इसलिए फ़ालतू बातें बंद कीजिए; और मुद्दे की बात पर आकर सारी बातें विस्तार से बताइए कि आख़िर यह सब हुआ कैसे? और अब क्या करना है? इस बार आप पिंकी के चुनाव से बेहद प्रसन्न हैं यह बात तो आपका रोम-रोम कह रहा है; शब्दों से भी ज़्यादा आपके भाव और मुद्राएँ आपके उस आनंद की गाथा कह रहे हैं; जो आपके अंदर घटित हो रहा है”—कहते हुए मैंने उनके दोनों हाथ अपने हाथों में लिए और प्रश्‍नवाचक मुद्रा में उनकी ओर देखने लगी . . . । 

शीला दी ने पिंकी की जो प्रेम कहानी अथ से अंत तक सुनाई उसका सार-तत्त्व यह था कि ‘जोनाथन’ अच्छे खाते-पीते घर का एक अद्भुत लड़का है। पिंकी से दूना पढ़ा-लिखा; भारतीय योगशास्त्र में गहरी आस्था रखने वाला; वहाँ के गणमान्य लोगों में अपनी सामाजिक सेवा के लिए प्रतिष्ठा प्राप्त; पिंकी को ‘पलक-पाँवड़ों’ पर बिठाकर झुलाने वाला; उसकी ‘पगथली’ के नीचे अपनी हथेली रखनेवाला; अर्थात् सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग के सारे प्रेमियों से भी महान प्रेमी है; ‘जोनाथन’!! अपूर्व, अनन्य और अप्रतिम; जो सात जन्मों के पुण्य संचय से पिंकी की झोली में आ गया है; वरन् साक्षात् पार्वती भी जब मन मनन्वतरों तक तपस्या करती रहती हैं तब कहीं ‘कर्पूर गौरम् शिव’ उन्हें मिलता है; पर सौभाग्य पिंकी का! और देने वाला वह!! कह कर उन्होंने अपने दोनों हाथ आकाश की ओर उठाकर उस अगोचर अव्यक्त को धन्यवाद मुद्रा में प्रणाम किया। उनकी आँखें भरी थीं और होंठ थरथरा रहे थे। स्वयं को कुछ संयत करके उन्होंने आगे कहा कि ‘जोनाथन’ और ‘पिंकी’ ११-१२ तारीख़ तक भारत आ जाएँगे और फिर यहीं भारतीय पद्धति से सम्पूर्ण परिणय-संस्कार होगा। पंडित पूजा-सामग्री आदि की भी सारी व्यवस्था करनी है। वकील साहब (उनके पति) का मन है कि विवाह ऐसी धूमधाम से हो कि लोग अर्से तक याद रखें; . . . आख़िर हमारी इस पुरातन ‘ख़ानदानी हवेली’ की वह इकलौती संतान ही तो है? . . . 

शीला दी के उत्साह का ज्वार पूर्णिमा की लहरों-सा ऊपर ही ऊपर उठता जा रहा था। उनकी इस परमानंदी स्थिति को देख कर हम सब भी अत्यन्त प्रफुल्लित थे; . . . और अपनी कल्पनाओं को, काग़ज़ पर काग़ज़ रंग कर लिखे जा रहे थे। हम तीन-तीन, चार-चार कॉपियाँ बना कर एक दूसरे से विचार-विमर्श करते और फिर निष्कर्ष निकालते कि नहीं! यह ‘द बेस्ट’ नहीं है; . . . कुछ और बढ़िया . . . । कुछ और अनोखा! . . . दिन पंख लगाकर उड़ रहे थे कि मामाजी की बीमारी के सिलसिले में मुझे बम्बई जाना पड़ा। मैंने जाते वक़्त सारी हिदायतें अच्छी तरह मिनोती दी को समझा कर दे दीं और कहीं कुछ अटकने पर मुझे फोन करने की सनद भी दे दी। 

बम्बई में मेरी उलझनें बढ़ती गईं! . . . वैसे तो फोन पर लगातार बातें होती रहती थीं, पर बार-बार निमंत्रण-पत्र का नमूना भेजने का आग्रह करने पर भी जब मिनोती दी ने उत्तर दिया कि “अभी जल्दी नहीं है, क्योंकि विवाह स्थगित हो गया है!” तो मैं स्तब्ध रह गई; पर उन्होंने यह कहकर कि “बाक़ी बातें मिलने पर होंगी” लाइन काट दी। उनका यह तरीक़ा मुझे बहुत ही अटपटा लगा; पर फिर यह सोचकर कि उन्हें कोई ख़ास असुविधा हो गई होगी? . . . मैं चुप रह गई . . . । इधर शीला दी का मोबाइल फोन हर वक़्त अनुत्तरित!! चेम्बर; और घर; दोनों के ज़मीनी फोन ‘नो रिप्लाई’!! . . . 

उसी समय घर से फोन आया कि “मुझे बम्बई से तुरन्त पूना पहुँचना है, क्योंकि वहाँ हमारे एक अंतरंग मित्र किसी बड़ी बीमारी से जूझ रहे हैं और ‘अब-तब’ में हैं।” पूना जाने के बाद दुःखद घटनाओं का ऐसा घटाटोप छाया कि न दिन का ज्ञान रहा न रात का . . . । 

लम्बे समय के बाद कलकत्ता लौटते ही मैंने मिनोती दी से फोन पर धाराप्रवाह प्रश्‍न पूछने शुरू किए . . . “पिंकी का विवाह कैसा रहा? . . . लड़का कैसा है? . . . पिंकी कैसी लग रही थी?” आदि-आदि। मेरी जिज्ञासाएँ अंतहीन थीं कि अचानक मुझे लगा फोन के उस ओर से कोई ‘हुँकारे’ कि हूँ-हाँ तो दूर; . . . किसी साँस तक की आवाज़ भी नहीं आ रही है! . . . तो क्या मिनोती दी ने लाइन काट दी है? . . . या फोन ही कट गया है? . . . और मैं हूँ कि अपनी धुन में एकालाप किए जा रही हूँ? अन्तर्मन के प्रश्‍नों की बौछार को रोकते हुए मैंने ज़ोरों से आवाज़ देकर पूछा, “मिनोती दी! लाइने आछो?” मिनोती दी का मरा-सा उत्तर आया, “शोब शुनछी।”

मिनोती दी की बोली का ऊँचा स्वर और चहचहाहट, उन्हें ‘हल्ला गाड़ी’ के ख़िताब से सुशोभित कर चुके हैं! वही मिनोती दी ऐसी मरी-मरी-सी क्यों बोल रही हैं? आख़िर इन पन्द्रह-बीस दिनों में ऐसा क्या घट गया? उनके स्वर का ‘रोंदलापन’ किसी बड़ी दुर्घटना की सूचना दे रहा है!! . . . अत: घबरा कर पूछा, “मिनोती दी! होलो की? तुमि ऐतो मोरा गोलाय बोलछो केनो?” (मिनोती दी, आख़िर हुआ क्या? तुम ऐसी मरी आवाज़ में क्यों बोल रही हो?) . . . सुनते ही मिनोती दी के सब्र का बाँध ऐसा टूटा कि जल-थल सबको एकमेक कर गया। 

उन्होंने सारी घटनाएँ एक कहानी की तरह सिलसिलेवार सुनानी शुरू कीं। ‘जोनाथन’ और ‘पिंकी’ के उत्साह का पारावार नहीं था; इसलिए उन्होंने शादी से कुछ दिन पहले ही यहाँ आने की योजना बना ली। शीला दी ने हम सबकी ‘बटालियन’ बटोरी और दल-बल सहित गजरे, मालाएँ और गुलदस्ते आदि लेकर एयरपोर्ट जा पहुँचीं . . . । यात्रियों के आने तक उनका आनंदातिरेक से भरा अनर्गल प्रलाप चारों ओर गुंजरित हो रहा था कि तभी! सबको पिंकी आती दिखाई पड़ी!! . . . एक साथ कई हाथ उठे और हवा में हिल-हिल कर उसका स्वागत करने लगे! पर दूल्हा? . . . दूल्हा कहाँ है? नज़र क्यों नहीं आ रहा है . . . आदि प्रश्‍न सबके मर्म को बेध रहे थे। 

‘पिंकी’ के पास आते ही कई सम्मिलित स्वर “दूल्हे राजा कहाँ हैं?” कहते सुनाई पड़े; और पिंकी ने तुरन्त ही एक छह फुटिया नौजवान का हाथ पकड़ कर कहा, “जोनाथन, प्लीज़ कम फ़ारवर्ड टू मीट माई फैमिली।” ‘जोनाथन’ हँसते हुए आगे आया; और वहाँ उपस्थित सारे चेहरों को कुम्हलाता हुआ; . . . शीला दी के पैर छूकर; उन्हें प्रणाम कर; गले लगाता दिखा! . . . पर शीला दी? . . . वे उसे क्या ख़ाक़ आशीष देतीं? उनकी काया तो अचेत होकर जोनाथन की सुदृढ़ बाँहों में झूल चुकी थी। 

 . . . “क्या? क्या? क्या मारे ख़ुशी के उन्हें फिर से दिल का दौरा पड़ गया? . . . हे भगवान! उन्हें पिछले दिनों ही तो दिल का प्राणघाती दौरा पड़ा था! . . . ऊपर से हाई प्रेशर! और शुगर! . . . कहाँ हैं जीजी?”

“कुछ दिनों आई.सी.यू. में रखने के बाद अब उन्हें घर ले आए हैं और अब घर पर ही रात-दिन की नर्स और ‘व्हीलचेयर’ से किसी तरह उनका काम चल रहा है; . . . और हाँ! उन्हें दिल का दौरा नहीं पड़ा था; दिमाग़ में तेज़ झटका लगने से ‘सेरीब्रल हैमरैज़’ होते-होते बचा था।”

दिमाग़ पर ऐसा आघात? . . . आख़िर क्यों? . . . यह प्रश्‍न मन में घुमड़ ही रहा था कि मिनोती दी के अगले वाक्य ने उसका उत्तर दे दिया . . . “कुशुम! ‘नीग्रो’ होयेओ केऊ ओतो शेबा! ओतो जोत्नो कोरते पारे! भाबा जाए ना!! जोनाथोन तो ऐकेबारे ‘जोगीराज’!! . . . पिंकी निजेर मेये होएओ ऐतो शेबा कोरे ना; ओ कोखोनो शोखोनो रेगे ओ जाय, किन्तु माँ जे रोकम निजेर पागला बाच्छा के शाम्लाय शेई भावे ऐई छेले टी हाशि मुखे शारा दिन-रात ओनार शेबा कोरे जाच्छे।” (नीग्रो होकर भी कोई इतनी सेवा, इतना जतन कर सकता है, यह मेरी समझ से परे है। उनकी बेटी चाहे ग़ुस्सा हो जाए, पर वह तो जैसे एक माँ अपने पागल बच्चे की सेवा करती है; वैसे ही रात-दिन उनकी सेवा और देख-रेख में लगा रहता है। सच! कुसुम! वह तो साक्षात् योगीराज है; एकदम भगवान!) 

पता नहीं; मैंने मिनोती दी को क्या कहा; क्या नहीं; क्योंकि ‘नीग्रो’ शब्द की टंकार मेरी स्मृतियों के गर्भगृह के दरवाज़ों से जा टकराई और माइकल वाला पुराना दर्द फिर से कराँसने लगा। 

“कल न्यूयार्क से मेरा दोस्त माइकल आ रहा है . . .  विशेषकर सबसे मिलने और हिंदुस्तान देखने।”

“अच्छा? वाह भाई! ज़रा हमसे भी मिलवाना।”

“अरे! मिलवाना क्या है! वह तो अपने यहाँ ही रहेगा . . .  बल्कि ऐसा करो कि तुम उसे भी अपने यहाँ खाने पर बुला लेना; तुम्हारे यहाँ सबको बहुत मज़ा आएगा।”

“हाँ हाँ, क्यों नहीं!! उससे मिलकर बच्चे तो बहुत ही ख़ुश होंगे; . . . हम ऐसा करेंगे कि अपने दो-चार और दोस्तों को बुला लेंगे; अच्छी ख़ासी पार्टी हो जाएगी।”

“हाँ हाँ, क्यों नहीं! अरे, वह बड़ा ही मज़ेदार लड़का है; बहुत बढ़िया गाता है; और अत्यधिक घुमक्कड़ी करने के कारण उसके अनुभव भी कहानियों-सा ही मज़ा देते हैं; . . . सच! सबको बड़ा आनन्द आएगा; क्योंकि ‘ही इज़ अ पार्टी चार्मर’।”

सिर्फ़ सरला ही नहीं; कमोबेश हमारे सारे मित्र और रिश्तेदार इस ‘पार्टी चार्मर’ की प्रतीक्षा में रत थे, लेकिन उसके आते ही सब एकदम चुप्पी साध कर बैठ गए; चारों ओर मौत से भी ज़्यादा गहन सन्नाटा छा गया! मेरी ऊहापोह और असमंजस का कोई ओर-छोर न था; आश्‍चर्यजनक बात यह थी कि मेरे ख़ास मित्र भी मुझसे आँखें बचा कर कन्नियाँ काट रहे थे। मैं हैरान थी! क्योंकि माइकल वही था! उसके क़िस्से भी मज़ेदार थे। वह गाता भी बढ़िया था। सरल, मीठा, सादा, लुभावना आदि-आदि; सारे विशेषण भी उस पर फ़िट बैठते थे! आख़िर हुआ क्या? महान गड़बड़ी हो गई थी कि सबको लकवा मार गया था? 

तभी निराश काली रात में ज्ञान का प्रकाश कौंधा; कि उसकी चमड़ी सफ़ेद नहीं! . . . श्यामल तम्बई थी!! सफ़ेद चमड़ी के प्रति हमारा पूर्वाग्रह इतना रुढ़िगत है कि हम चाहकर भी उससे मुक्त नहीं हो पाते! हालाँकि उसके पुरखे सदियों पहले अ़फ्रीका से आकर अमेरिका में बस गए थे। प्रकृति के कारण या शायद अन्यान्य जातियों से विवाह-सम्बन्ध के कारण; उसके होंठ की बनावट और त्वचा की स्निग्धता, किसी भारतीय जैसी ही थी। छरहरे बदन का छह फुटिया जवान माइकल चीते-सी चपलता; और फ़ुर्ती अपनी देहयष्टि में; और आँखों में सारी दुनिया की भावुकता समेटे अनोखे व्यक्तित्व का धनी था। पर रंग? हाँ रंग!! वह साँवला ही था; . . . और जाति? . . . हाँ! वह ‘नीग्रो’ था। 

मेरे परिचितों में क़हर बरप गया। जो भी उसका इन्तज़ार कर रहे थे, सब ऐसे चुप हो गए कि जैसे जन्मजात गूँगे हों। वे मुझसे यूँ कतराने लगे; मानों मैंने उन्हें कोई बड़ा धोखा दे दिया हो (?) मुश्किल तो तब हुई, जब माइकल ने मुझसे पूछा कि अब उसे क्या करना है (?) क्योंकि मैंने ही एयरपोर्ट पर उसे चहक-चहक कर बताया था कि लोग कितनी तत्परता से उसका इन्तज़ार कर रहे हैं। मैंने द्विधाग्रस्त मानस से सरला को फोन किया। यह बताने पर कि माइकल बेलूरमठ, बोटॉनिकल गार्डेन आदि जगहें देख चुका है . . . इसलिए हम लोग सोच रहे हैं कि वह अब घरों का ‘मिलना-भेंटना’ सलटा ले; सरला ने पाला मारे स्वर में उत्तर दिया, “ऐसा करो, कल शाम की चाय मेरे यहाँ रख लो।”

उसका यूँ छिटक कर बात करना कुछ समझ में तो नहीं आ रहा था; . . . पर फिर सोचा कि शायद नौकर-चाकर कम होंगे या तबीयत कम ठीक होगी; इसलिए भीड़ नहीं करना चाहती होगी! ख़ैर, जब हम वहाँ पहुँचे, तो पता चला कि उसकी सास और बच्चे बाहर गए हैं, और खा-पीकर लौटेंगे। 

मैंने सरला के पति मदन से कहा, “मदन! . . . यदि असुविधा थी, तो यह प्रोग्राम कल का रख लेते? माँ और बच्चे भी माइकल से मिल लेते! अभी तो माइकल दो-चार दिन यहाँ है?”

सरला को मैं अपना अंतरंग मानती हूँ; शायद इसलिए भी वह मुझे यह बताने को बाध्य हुई कि एक ‘नीग्रो’ के साथ खाना-पीना उसके घरवालों को पसंद नहीं है; इसलिए वे जान-बूझकर बाहर चले गए हैं। उन लोगों के हिसाब से मैं तो ख़ब्ती हूँ ही; अब सरला को भी अपने साथ ख़ब्ती बना रही हूँ!! . . . वर्ना गंदे लोगों! हाँ! यही शब्द कहे थे उसने!! . . . उससे दोस्ती तो दूर; मेरी उनके साथ उठ-बैठ भी क्यों है? . . . 

मैं ‘सैंग-बैंग’-सी एक अजब सी मानसिकता से घिरी घर लौटी . . . माइकल की ओर देखते ही मुझे रोना आ रहा था। यह वही माइकल है; जो जब कभी मेरी छोटी बच्ची को गोद में लेता है, तो वह बच्ची उसकी छाती से इस तरह चिपक जाती है मानों उसे एक ममता भरी कोख में आश्रय मिल गया है। उसकी पूरी काया ‘माइकल-देह’ की लय में एकाकार होकर उसका हिस्सा लगने लगती है। 

इस ममतालु, प्रेमल माइकल की हँसी ऐसी निश्छल, पवित्र और उजास भरी है कि वह संसार के सारे आइनों और फ़ानूसों को अपनी चमक से जगमगा दे; यह माइकल!! यह गंदा है? यह उचक्का है? इससे दोस्ती गुनाह है? मन किया कि एक प्रश्‍न पूछूँ इन सबसे कि “परिभाषाएँ व्यक्ति की होती हैं; या जाति की; या रंग की? . . . क्या सारे गोरे भले होते हैं? . . . अमेरिका और इंग्लैण्ड में होने वाले ख़ून-ख़राबे की सारी ज़िम्मेदारी क्या सिर्फ़ काले लोगों की है?” लेकिन अच्छा हुआ, मैंने कुछ पूछा नहीं; क्योंकि बिना पूछे ही जो बातें मुझे सुननी पड़ीं, वे मुझे स्तब्ध कर देने को काफ़ी थीं . . .

“आप चाहे जो भी कहें, बहन जी! बिलायत जाकर देखिए; यदि नीग्रो की टैक्सी होगी, तो महागंदी और सड़ाँध से भरी; . . . लूट-पाट, चोरी-चकारी जैसे कामों में तो ये लोग हमेशा आगे ही रहते हैं। क्या मजाल कि आप रात-बिरात इनके मुहल्लों से सुरक्षित गुज़र जाएँ; ऐसी बदनाम क़ौम यह! कि इसने पूरे बिलायत को असुरक्षित और बदनाम कर दिया है!! . . .”

“क्यों? क्या कहीं किसी गोरे की टैक्सी गंदी या सड़ाँध वाली नहीं होती? जिस काली चमड़ी को आप हिक़ारत से देख रहे हैं, क्या उसी हिक़ारत से गोरे आपकी गेहुँआ चमड़ी को नहीं देखते? . . . उनके कसे हुए टेढ़े होंठ! क्या आपसे जबरन अधिक टिप की माँग नहीं करते? . . . या वे अक़्सर छुट्टा लेकर भाग नहीं जाते? . . . 

“चोरी-चकारी और लूट-पाट का मेरा अपना अनुभव कालों से ज़्यादा गोरों के विषय में ख़राब है। फिर भला किस देश में ग़रीब पेट भरने को बटमारपना नहीं करते? इससे चमड़ी के रंग का क्या लेना-देना?”

छिपाते-छिपाते भी कुछ बातें उस संवेदनशील माइकल के कानों में पड़ ही गईं। वह मेरा क्षोभ और बौखलाना भी देख रहा था। 

दूसरे दिन हम दोनों अकेले बैठे चाय पी रहे थे . . . शायद उस समय भी झुँझलाहट के कुछ चिह्न मेरे चेहरे को घेरे होंगे? . . . माइकल ने धीरे से अपना समझदारी भरा हाथ मेरे घुटने पर रखा; मानों मुझे सांत्वना दे रहा होः . . . फिर धीमे स्वर में बोला, “कुसुम! दुःखी मत होओ . . . । मैंने इन आठ दिनों में तुम्हारी इस पीड़ा की वजह को लोगों की आँखों में पढ़ लिया है। बस में; चौराहे पर; पर्यटनस्थलों पर; हर जगह मुझे बार-बार लगा है मानों! . . . मैं कोई छुतही बीमारी फैलानेवाला कीटाणु हूँ! . . . पर इसके लिए तुम औरों को क्यों दोषी मानती हो? . . . क्या यह सही नहीं है कि आज भी; हम सबको गोरा रंग ज़्यादा आकर्षक लगता है? ठीक है! तुमको मुझमें कुछ दिख गया; या कि तुम्हें एक बात जँच गई; पर इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है? सदियाँ लगेंगी जड़ों तक जमी इस गहरी मनोधारणा को टूटने में! . . . हाँ! यहाँ आकर मुझे एक अचरज ज़रूर हुआ! . . . मैंने सोचा था; यहाँ के लोग स्वयं भी साँवले होने के कारण मुझे अपना मानेंगे; प्यार देंगे; लेकिन हुआ उल्टा! . . . यहाँ के लोगों की आँखों में तो मेरे लिए अमेरिका के लोगों से भी ज़्यादा घृणा है।”

एक भारी सन्नाटा हम दोनों के बीच खिंच गया। शब्द बेज़ुबान थे। 

मुझे याद आया, ‘मिसीसिपी मसाला’ का वह संवाद, “बको मत! मेरी कज़िन मीना!! और उस कालू के साथ? दिमाग़ ख़राब है तेरा?”

उस फ़िल्म में भारतीय मूल की लड़की मीना का सम्बन्ध एक नीग्रो नायक के साथ इतनी बारीक़ी और ख़ूबसूरती से फ़िल्माया गया है कि मीरा नायर के कैमरे और संवेदनशील समझ को साधुवाद देने का मन करता है। फ़िल्म में बाद का घटना-चक्र भी इस माइकल वाली घटना का विस्तार ही है, जो इस तथ्य को भी स्थापित करता है कि आदमी अपने से बड़े (गोरे) के सामने कैसे घिघियाता है और छोटे (काले) के सामने कैसे गुर्राता है। क्या सचमुच जंगल-राज ख़त्म हो गया है? क्या सचमुच आदमी सभ्य हो गया है? . . . 

अपनी पुरानी स्मृति के बोझ से लदी मैं सीधी शीला दी के घर जा पहुँची। सामने ही एक सुदर्शन नवयुवक; हाँ! सचमुच ही सुदर्शन!! . . . बशर्ते कि हमारी कसौटी मात्र रंग ही न हो; . . . मुस्कुरा कर मेरा स्वागत करता दिखा। देह-सौष्ठव ऐसा कि माइकल एंजेलो की मूर्तियों की होड़ करे; नाक बहुत सुतवाँ नहीं, तो ‘चपटी’ भी नहीं; होंठ भी काले और मोटे नहीं . . . । जब वह अपनी छरहरी दमकती देहयष्टि लिए मेरी ओर बढ़ा, तो मन किया कि एक छोटे से बच्चे की तरह मैं उसे अपने से चिपका लूँ। उसके साँवले रंग से स्निग्धता और शराफ़त ऐसे चू रही थी कि अपनी ओक की अंजलि में उसे भर कर पीने को मन अभीप्सित हो गया। मैंने उसके सिर और पीठ पर अपने हाथ फिराते हुए ‘अजपा जाप’ की तरह मन ही मन आशीषों का सहस्र पाठ शुरू कर दिया। उसे एकटक देखती मैं सोच रही थी कि सुबह हो जाएगी, पर मेरा मन नहीं भरेगा!! 

पता चला कि वह ‘योग’ में कोई बड़ी डिग्री ले चुका है। उसके कारण वह ‘बेवरली हिल’ के ‘हॉलीवुडी सितारों’ से थोड़े समय में ही अनाप-शनाप कमा लेता है . . . वह रोज़ तक़रीबन पाँच-छः घंटे ज़रूरतमंदों को मु़फ़्त राहत पहुँचाता है . . . । उसका दृढ़ विश्‍वास है कि एकमात्र प्रेम ही ऐसा ख़ज़ाना है, जो बाँटने और ख़र्च करने से बहुगुणित होता है; इसलिए वह इस ख़र्चे में ज़रा भी कोताही नहीं बरतता, दोनों हाथों से लुटाता रहता है। 

मैंने पिंकी की ओर देखकर पूछा, “और भविष्य के लिए संचय?”

उस भौतिकवादी पिंकी का जवाब अप्रत्याशित था . . . “मासी! चिंता मत कीजिए। हम एकदम मज़े में हैं! . . . दोनों कमाते हैं और दोनों ही ख़र्च करते हैं। जिस दिन ऊपरवाला तीसरा प्राणी भेजेगा, तो उसका भाग्य भी तो साथ भेजेगा! . . . और न सही उसका भाग्य! . . . हम उस दिन से कुछ और प्लान कर लेंगे!!” क्या यह वही पिंकी बोल रही है? . . . जो एक-एक पैसे के लिए ‘किचकिच’ करती थी! . . . जिसे हाय पैसा! . . . हाय पैसा के सिवा कुछ सूझता ही नहीं था? 

 . . . मैं धप् से वहाँ पड़े एक मोढ़े पर बैठ कर उन दोनों अजूबों को अनिमेष देखने लगी। इच्छा हुई पूछूँ ‘जोनाथन’ से . . . कि “भाई! तुम आदमी हो या ‘पारस पत्थर’, जो ‘बधिक घर पड़े’ ‘लोहे’ को भी ‘टंच सोना’ बना देते हो? . . . क्या तुम उसी दबी-कुचली जाति के हो; जिन्हें सदियों से हम असभ्य और जंगली कह कर अपनी क्रूरता, असभ्यता और जंगलीपन का परिचय देते रहे हैं? . . . क्या तुम्हें देवताओं ने पढ़ा-लिखा कर भेजा है; कि धरती पर आकर हम सरीखे मतिमंदों के बंद ज्ञान-द्वारों को खोलो? . . . हम मूर्खों के अहंकार-जाल से घिरे; झाड़-झंखाड़ी जीवन को काट-छाँट एवं झाड़-पोंछ कर शुचिता प्रदान करो? 

“या तुम? . . . हमें सिर्फ़ यह सिखाने आए हो कि तुम कोई अजूबा नहीं; . . . बस! . . . ग़ालिब की प्रसिद्ध पंक्ति ‘आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्सां होना’ वाले इन्सां का मूर्त्तिमंत रूप हो . . .? शायद तुमने इन्सानियत की सम्पूर्ण विचारणा को ही आचरण में ढाल लिया है; और इसीलिए तुम्हारा यह अपरूप रूप सूर्य की किरण की मानिंद जगमगा कर हम सब को ज्योतिर्मय कर रहा है! . . . ”

‘जोनाथन’ की ज्योतित कांति और अलौकिक पारिजात ख़ुशबू के घेरे में खड़ी मैं आज स्वयं से भी रू-बरू हूँ; और पूछ रही हूँ कि “सभ्यता के सारे दिखावे सीखने के बावजूद भी क्या हम सचमुच सभ्य हो पाए हैं?? . . . रोज़ नाखूनों को काट कर गिराते हम; अपने अंदर कितने तीखे नाखून छिपाए घूम रहे हैं; इसका कोई अन्दाज़ है हमें? . . . 

“मीठे-मीठे बोल बोलते हम! . . . समदर्शी होने का ज्ञान बघारते हम! . . . सभ्य-शिष्ट शब्दावली का प्रयोग करते हम! . . . देशी-विदेशी ढेरों डिग्रियों का बोझ ढोते हम . . . क्या इन ढेरों गुणों का उपयोग मात्र अपनी धूर्त्तता के लिए नहीं करते? . . . क्या सचमुच; सभ्यता? . . . अर्थात् मनुष्यता का ककहरा भी हम सीख पाए हैं??? . . . ”

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टिप्पणियाँ

shaily 2022/11/02 10:56 PM

रंग भेद की मानसिकता को दिखती बहुत सुन्दर रचना ।

पाण्डेय सरिता 2022/11/02 01:57 PM

बेहद भावुक और संवेदनशील रचना

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