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अँधेरे भेदती रज़िया

“आऽपाऽऽऽ!” की लहर के साथ दो नरम-सी हथेलियों ने जब कसकर मेरी आँखें मूँदीं, तो उन पर कोहनी तक हाथ फेरने के बावजूद समझ नहीं आ रहा था कि ये जवान हाथ और रेशम-सा गला, आख़िर है किसका? 
“ज़ाहिदा? ऊहूँ-रुबीना? ना! ना! सक़ीना?” फ़र्क़ मीलों का! कहाँ यह नफ़ासत भरा मीठा स्वर और कहाँ उनके खुरदरे कामकाजी गले का रूखापन! फिर यह कौन हो सकती है? . . . सोच-सोच कर थक जाने के बाद मैंने युवा भाषा में ही कहा: “ओके. गिव अप! गिव अप! . . . अब तो छोड़ो महारानी, मेरी क़ैद आँखों को!” 

मेरे हु़क़्म के साथ ही फूलों की लचकती डाल-सी रज़िया अपनी हँसी की ज्योत्स्ना से वातावरण को आलोकित करते हुए सामने आ खड़ी हुई। 

“अरे रज़िया तू? मुझसे मिलने इतनी दूर क्यों आई देवी! तुझे तो मेरा रूटीन पता ही है, मैं बुधवार और जुम्मे को यहाँ आती हूँ और शनि, मंगल और बृहस्पति, तुम्हारे घर के पास वाले मदरसे में बिना नागा जाती हूँ, फिर तुमने इतनी दूर आने की ज़हमत क्यों उठाई? वैसे तुम्हारे चेहरे के उतावलेपन से लग रहा है कि तुम कोई बड़ी ख़बर सुनाने आई हो। क्या भाईजान ने तुम्हारे और रिज़वान के रिश्ते के लिए इजाज़त दे दी?” 

‘साधारण बातों को परे हटाइए’ की मुद्रा में रज़िया ने अपने दाएँं हाथ से वहाँ की हवा को एक ओर सरकाते हुए, दुपट्टे के नीचे से लैपटॉप निकाल कर मेरी मेज़ पर धर दिया। 

लैपटॉप के स्क्रीन को देखते ही मैं समझ गई कि इसे देख कर ही रज़िया के पैरों में ऐसे घुँघरू बँध गए होंगे कि वह नाचती-नाचती मेरे पास आ पहुँची होगी। सच कहा जाए तो वाक़ई, वह नज़ारा ही कुछ ऐसा था कि मुझ जैसी उम्रदराज़ को भी थिरकने के लिए बाध्य कर रहा था। रज़िया ने ‘सैट’ के हज़ारों परीक्षार्थियों में चौदहवाँ स्थान हासिल किया था। मैं अपनी आँखें रगड़-रगड़ कर दो-तीन बार, उन आँकड़ों को घूर रही थी, पर रज़िया जी थीं कि चौदहवीं पायदान पर अड़ी बैठी थीं। आज तक मेरी पहचान के संसार में किसी ने भी यह दर्ज़ा हासिल नहीं किया था, इसलिए मेरा यों अवाक्‌ रह जाना लाज़िमी था। 

ठहरी धड़कन के लौटते ही मैं अपनी उम्र को ठोकर मारती हुई धड़फड़ा कर उठी और मैंने रज़िया को ज़ोरों से चिपका लिया। मेरे कोश में जितने आशीर्वाद थे, उन्हें उस पर लुटा कर, जब मैं वापस अपनी कुर्सी में धँसी, तो यों हाँफ रही थी मानो मीलों दौड़ लगा कर आई हूँ। 

“आपा! आपा! आपकी ख़ुशी का ज्वार आपके मन ही नहीं, तन की भी सारी हदें पार कर गया है। वैसे यह तो होना ही था! क्योंकि सब जानते हैं कि मेरी इस क़ामयाबी की एकमात्र हक़दार आप ही हैं। आपा! यक़ीन कीजिए कि अगर आपने हम लोगों के अँधेरे जीवन में पढ़ाई का दीया न जलाया होता, तो मैं और मेरी हमनवा कई लड़कियाँ ‘निरक्षर भट्टाचारजी’ ही रहतीं। ओफ्फ! कितनी लड़ाइयाँ लड़ी हैं आपने हमारे लिए! क़ुर’आन शरीफ़ के सही हवाले दे-दे कर, कितनी मेहनत से आपने मुझे एक-एक सीढ़ी पर चढ़ना सिखाया है! क्या मैं कभी सात जनमों में भी वह सब भूल सकती हूँ? आपा! दिल पर क़ाबू लाइए, क्योंकि असली जादू अभी बाक़ी है!” कहते हुए उसने मुझे विदेशों की बड़ी-बड़ी यूनिवर्सिटियों से आये हुए वे निमंत्रण दिखाने शुरू किये, जिनमें वे लोग रज़िया को न केवल छात्रवृत्ति दे रहे थे, बल्कि वहाँ खाना-रहना और आना-जाना भी मुफ़्त था। एकाध विश्वविद्यालय के शिक्षक ने तो उसका लेख पढ़कर उससे प्रार्थना तक की थी कि वह उनके यहाँ ही आ ही जाए। भारतीय होने के कारण यदि वह चाहेगी, तो उसके साथ एक कमरा उसके माँ-पिता को भी मुहैय्या करवा दिया जाएगा। 

यदि आपका बोया बीज! अंकुरित होकर पौधा! और फिर फूलों से भरा पेड़ बनकर चतुर्दिक ख़ुशबू फैलाने लगे! तो कार्यसिद्धि का जो आनन्द आपको होता है, क्या आप उसे लफ़्ज़ों में बयान कर सकते हैं? भीतर ही भीतर उस आनन्द-रस से ‘छक’ कर मेरी विचारणा रज़िया के भविष्य की रूपरेखा आँकने में जुट गयी। हमने ताबड़तोड़ आये उन निमंत्रण पत्रों की ख़ुर्दबीनी जाँच शुरू की, और उसमें से तीन यूनिवर्सिटियाँ छाँट लीं। अब उन तीनों को श्रेष्ठता की कसौटी पर कसने का सिलसिला शुरू हुआ और अंत में चारों ओर से पूछताछ करने के बाद हमने सर्वश्रेष्ठ को ‘हाँ’ लिख भेजी। अपनी अंगुलियों को आर-पार फँसाये, हम एक ओर उस अल्लाह ताला से दुआ किये जा रहे थे और दूसरी ओर नम्बर दो की यूनिवर्सिटी के लिए चिट्ठी भी तैयार कर रहे थे। 

उस दिन हमें उस लैपटॉप के तार सीधे उस ऊपर बैठे अल्लाह से जुड़े लग रहे थे, और हम उन्हें लगातार रिश्वत पर रिश्वत दिए जा रहे थे कि अचानक उस पूरे महिला केन्द्र में ख़ुशी की तरंगें उठने लगीं! रज़िया का दाख़िला अमेरिका की नम्बर वन यूनिवर्सिटी में हो गया था! 

मेरे विस्तृत परिचय-क्षेत्र में रज़िया अनोखी थी। ‘ग़रीब’ और ‘पिछड़ों’ के साक्षरता अभियान के तहत जब वह काफ़ी छोटी थी, तभी मेरा परिचय उसके परिवार से हुआ था। मैंने इस अभियान के अन्तर्गत ही एक ‘मुस्लिम महिला केन्द्र’ भी खोल लिया था, क्योंकि मेरा मानना था कि मुस्लिम महिलाओं को साक्षर करने की सर्वाधिक आवश्यकता है। पिछड़े मुस्लिम समाज में क़ुरान के ग़लत हवालों से औरतों को बेइन्तिहा दबा कर रखा जाता था और उनके अँग्रेजी पढ़ने को गुनाह माना जाता था। मुल्लाओं ने यह प्रचार कर रखा था कि यदि मुस्लिम औरतें पढ़ाई करेंगी, तो उन्हें निश्‍चित ही दोज़ख़ की आग में भूना जाएगा। 

एक सच्चे और शरीफ़ मौलवी साहब की मदद से हमने उन भोली औरतों को यक़ीन दिलाया कि यह उन्हें आगे न बढ़ने देने की पुरुष वर्ग की साज़िश है! इसलिए वे बेफ़िक्र होकर पढ़-लिख सकती हैं। इस पहल में ज़रीन ने मेरा सबसे ज़्यादा हौसला बढ़ाया था। ज़रीन रज़िया की अमेरिकावासी बुआ थी, जिसने हमें उन महिलाओं की बुनियादी बारीक़ कुंठाओं से रू-ब-रू करवा कर उनके दिलों में जमे हौल के बारे में बताया। वह बहुत ही खुले विचारों की तरक़्क़ी-पसन्द महिला थी और रज़िया की क़ाबिलियत की वजह से उसे बहुत प्यार करती थी। रज़िया की अम्मी ज़ीनत को ज़रीन फूटी आँखों नहीं सुहाती थी, क्योंकि वे हर वक़्त इसी ख़ौफ़ से मरी जाती थीं कि कहीं ज़रीन रज़िया को उनके दक़ियानूसी रीतिरिवाज़ों के ख़िलाफ़ भड़का न दे। 

रज़िया बहुत ही विनम्र और मीठी थी, पर उसकी बला की ख़ूबसूरती, उसकी नफ़ासत, उसका ज़हीन दिमाग़, उसका लम्बा छरहरा क़द, उसकी राजसी चाल-ढाल, नपे-तुले तौर-तरीक्रे और जवानी! सब मिला कर उसे इतना आकर्षणीय बना देते थे कि उसका ख़्याल आते ही ज़ीनत बेग़म का कलेजा दुगुनी रफ़्तार से धड़कने लगता। ज़ाहिदा और सक़ीना तो उसे हमेशा ‘मलिका-ए-आज़म रज़िया सुल्तान’ कह कर छेड़ती रहती थीं। उनकी छेड़ से रज़िया का चेहरा और सारा बदन उस गुलाबी फूल की मानिंद हो जाता, जिसकी पंखुड़ी के खुलते ही उस पर ओस की बूँदों और भौंरों ने साथ-साथ हमला कर दिया हो। उसकी रेशम-सी नरम और उजली त्वचा से झाँकता वह गुलाबीपन अपनी कांति से आसपास के चराचर प्राणियों को चुम्बक की तरह अपनी ओर खींच लेता था। 

ज़ीनत बेग़म के वहम को ख़्वाहमख़्वाह दोष न देकर यह जानना ज़रूरी है कि आख़िर क्यों वे अपनी ऐसी अनुपमेय बेटी के रूप से ख़ौफज़दा रहती थीं। दरअसल, सैयद परिवारों में उसके जोड़ का दूल्हा मिलना असम्भव-सा था। ऊपर से उनका परिवार हिन्दुस्तान के सैयद परिवारों में सबसे ज़्यादा पैसेवाला भी था। यदि वे लोग अपनी बिरादरी में किसी कम पैसे वाले के यहाँ भी सम्बन्ध करने का मन बनाते, तो वहाँ ऐसी बदहाली थी कि न सूरत, न सीरत! पर मिज़ाज ऐसे कि आसमान के पार जाएँ। झक मार कर जब पाकिस्तान में दो-चार सैयदी लड़कों की टोह ली गई, तो वे भी रज़िया के सामने एकदम ‘गावदी’ लगे। अपने से कमतर ख़ानदान में निकाह करने से बिरादरी में नाक कटने का भय था और उनकी बिरादरी एवं हैसियत का दूल्हा मिलना एक तरह से नामुमकिन था। 

हाँ! रज़िया में एक कमी ज़रूर थी (यदि उसे कमी कहा जाए तो) कि उसकी कनपटी के पास चाँद की तरह ही, एक हल्के भूरे रंग का दाग़ था। कहते हैं, कभी-कभार जन्म के समय ‘ओलनाल’ छू जाने से ऐसे दाग़ हो जाते हैं, जो किसी भी तरह मिटाए नहीं मिटते। हालाँकि आज के युग में यह एक निहायत ही बेमानी-सी बात है, पर बहाना तो ग़लत समय पर छींक आने का भी बनाया जा सकता है। 

रज़िया के ‘सैट’ के बढ़िया नतीजे विदेशी विश्वविद्यालयों के अनाप-शनाप बुलावे और मेरे दिखाए सपनों ने ज़ीनत बेग़म के दिमाग़ में बेहद हलचल पैदा कर दी थी। वे हर वक़्त बौख़लाई रहतीं और वजह-बेवजह रज़िया पर ख़फ़ा होती रहती थीं। उनका ग़ुलाम मन रज़िया के आज़ादी वाले परों को अपने मज़हब की कैंची से काटने को बेताब था, जिसका कुछ-कुछ अन्दाज़ा मुझे भी था। 

यूनिवर्सिटी के भेजे नि:शुल्क टिकट पर मैंने जी-तोड़ मेहनत कर रज़िया का पासपोर्ट और वीज़ा बनवा लिया, पर हुआ क्या? जब मैं उसका टिकट और वीज़ा लेकर उसके घर पहुँची, तो रज़िया का कोई अता-पता नहीं था। चूँकि उस दिन हमारा मिलना तय था, इसलिए मैं चकित थी कि उस जैसी गम्भीर लड़की ने यह लापरवाही कैसे की? फिर यह सोच कर कि वह आसपास कुछ लाने गई होगी, मैंने ज़ीनत बेग़म से पूछा, “भाभी जान! रज़िया कहाँ है?” 

उनका जवाब किसी भी मनुष्य को केवल निर्वाक नहीं बल्कि पत्थर-सा स्तम्भित करने को क़ाफ़ी था। उन्होंने एकदम रूखे स्वर में मुझे टका-सा जवाब पकड़ा दिया, “अपनी ससुराल गई है।” 

“ससुराल? कहाँ? किनके यहाँ? निकाह कब हुआ? क्या आपने रिज़वान को क़ुबूल कर लिया?” 

“भई कोमल! इतनी ढेर-सी बकवास करके हमारा सर न खाओ। खाड़ी से उसके क़रीम चचाजान (अत्यधिक धनाढ्य) आए थे, वे ही उसका निकाह करवाने उसे अपने साथ ले गए।” 

“भाभीजान! आपने न दूल्हे को देखा-परखा और न ही उसके घरवालों को! बस धकेल दिया बेटी को आँख मूँद कर, किसी हरम के अन्धे कुएँ में! कैसी माँ हैं आप? देखिएगा, आपको ज़िन्दगी भर रातों को नींद नहीं आएगी और आप पर ख़ुदा का क़हर बरसेगा।” 

जीवन में आज पहली बार न जाने कहाँ से मेरे मुँह से लगातार बद्दुआएँ निकल रही थीं कि उस दृश्य में रज़िया के अब्बा युसूफ़ भाई! अपने ढेरों सहमना रिश्तेदारों को साथ लिए आ धमके और मेरा घेराव कर, मुझे जान से मारने की धमकी देने लगे। भला हो हमारे संरक्षक पुलिस कमिश्‍नर कृष्णेन्दु दा का कि सक़ीना की ज़रा-सी सूचना पर वे ख़ुद हमारी राहत के लिए वहाँ आ पहुँचे, लेकिन यह देखकर मेरे आश्‍चर्य का कोई ठिकाना नहीं रहा जब उन्होंने न तो उन लोगों से कोई ख़ास दरियाफ़्त की और न ही उन लोगों को गिरफ़्तार करने की मेरी दरख़्वास्त पर ही ध्यान दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने हमें ही अपने साथ बाहर आ जाने को कहा। हमारे साथ बाहर आने के बाद वे अपने कान पकड़ते हुए बोले, “खोमा कोरो। पर यह मेरे अधिकार में नहीं है। यदि मैं उन्हें हल्का-सा हाथ भी लगा देता, तो वे इसे ‘अल्पसंख्यकों के हितों पर हमला’ की संज्ञा देकर, आज ही एक बड़ा राजनैतिक बवाल खड़ा कर देते, जो बढ़कर साम्प्रदायिक दंगों का रूप भी ले सकता था। सच मानो हम चाह कर भी इन मामलों में कुछ नहीं कर सकते, क्योंकि हमारे हाथ क़ानून की बेड़ियों से जकड़े हुए हैं।” 

कृष्णेन्दु दा की संवेदनशीलता से सुपरिचित मैं उन्हें दोष तो किस मुँह से देती, पर राजनीति से परहेज़ करनेवाला मेरा मानस आज बार-बार अतीत में लौट कर यह खोज रहा था कि किसने इस तरह के बेहूदा क़ानून बनाए हैं! आख़िर एक ही देश के नागरिकों के लिए अलहदा-अलहदा क़ानून कैसे हो सकते हैं? 

समय बीत रहा था, पर रज़िया का कोई अता-पता नहीं था। राम जाने उसे धरती खा गई थी या आसमान लील गया था, जो हमें उस ‘बच्ची’ का कोई भी समाचार कहीं से भी नहीं मिल रहा था। मैंने रज़िया की अमेरिका वाली फूफी को भी टटोलने की कोशिश की, लेकिन उनका फ़ोन भी ‘नो-रिप्लाई’ होता रहा। इसकी एक वजह उनका वापस लौट जाना भी हो सकता है, सोचकर मैंने बेशर्मी से ज़ीनत भाभीजान को यह कहते हुए फ़ोन किया कि मैं अमेरिका जाने वाली हूँ, इसलिए यदि किसी जान-पहचान वाले का फ़ोन या पता पास में हो, तो सुविधा रहेगी, मेहरबानी कर वे मुझे ज़रीन का नम्बर दे दें। पर उस चतुर माँ ने तुरन्त सफ़ेद झूठ बोल दिया, “कोमल! यक़ीन मानो, मेरे पास उसके नम्बर नहीं हैं।” 

“भाभीजान! युसूफ़ भाई से . . .” कहते न कहते उधर से लाइन काट दी गई थी। 

बेटी न होने के कारण मैंने अपने सारे सपने उस चार साल की रज़िया में ही बो दिए थे। मैं उन बीजों से फूटते अँखुए और उस पौधे के विकास के प्रत्येक पल की साक्षी हूँ। न केवल उसकी पढ़ाई-लिखाई के निर्णय, बल्कि आज के युग के अनुरूप उसे तराशने में मैंने किसी सधे हुए संगतराश-सी ही मेहनत की थी। अनगढ़े हीरे को कोहेनूर बनाना क्या सरल होता है? 

किसी बूढ़े माली का ख़ुशबूदार फूलों से महकता प्रिय पौधा, छेनी और हथौड़ी से छिली अंगुलियों वाले संगतराश की अनुपम मूर्ति, उम्रदराज़ ज़ौहरी का कोहेनूर, यदि लुट जाए, तो उनकी जो ‘गत’ होती है, कुछ-कुछ वैसी ही हालत मेरी भी हो रही थी। 

मुझे रह-रह कर ‘बाज़ार’ सिनेमा में नायिका का ‘पर-कटी क़बूतरी’ की तरह ज़मीन पर लोटकर दर्द से छटपटाना और जीन सैसन की उपन्यास-त्रयी की ‘प्रिन्सेस’ में चित्रित हरम के नारकीय दृश्य दर्द और जुगुप्सा से भर रहे थे। 

दर्द को लगातार सहना कठिन होता है, इसलिए ऊपरवाले को दो-चार गालियाँ देकर मैंने मन पर पत्थर रख लिया था। लेकिन स्मृतियाँ! उनकी अपनी ज़िदें होती हैं, इसलिए वे अक़्सर ही मेरे ऐकांतिक क्षणों में कौंध कर मुझे व्याकुल कर देतीं और मेरा हृदय रज़िया की याद से कराह उठता। 

हालाँकि समय का मरहम अपना काम कर रहा था, पर ज़ख़्म भर जाने पर भी उसका दाग़ तो रह ही जाता है! 
मेरे जीवन से रज़िया को विदा हुए लगभग सातेक वर्ष हो गए थे। यह अरसा उसकी यादों को धुँधला तो कर चुका था, पर पूरी तरह मिटा नहीं पाया था कि मैनहट्टन (न्यूयॉर्क) के बड़े हॉल के बाहर एक कुर्सी पर बैठी मैं उन काग़ज़ों को तरतीबवार सजा रही थी, जिन्हें आज दोपहर मैं एक ख़ास अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में पढ़ने वाली थी कि इतिहास के पन्ने फडफ़ड़ाए और जीवन्त होकर मेरे वर्तमान में आ खड़े हुए। 

किसी की ‘नरम-नाज़ुक’ अंगुलियों ने मेरी आँखें मूँद रखी थीं, जिन पर हाथ फेरकर कोहनियों तक पहुँची हुईं मेरी हथेलियाँ कुछ भी नहीं भाँप पा रहीं थीं। न्यूयॉर्क के सारे परिचितों के नाम लेकर जब मैं थक गयी, तो मैंने झुँझलाए स्वर में कहा, “कौन है भई? मज़ाक छोड़ो और सामने आ।” मेरा वाक्य अधूरा ही था कि मेरी आँखें छोड़ने के साथ ही एक चिरपरिचित मीठा स्वर गूँजा, “आऽऽ पाऽऽ!” अपने कानों पर भरोसा न करते हुए मैंने आँखों का सहारा लिया और उम्र का लिहाज़ किए बिना, सारे काग़ज़ों को ज़मीन पर इधर-उधर उड़ाते हुए झटके से उठ कर पीछे मुड़ी और संसार के ‘प्रथम और अंतिम आश्‍चर्य’ को देखकर चिल्ला उठी, “रज़ियाऽऽ! माशा अल्लाह, तू ज़िन्दा है?” 

“नहीं आपा! यह मेरा भूत है, जो आपको खाने आया है, हूँ . . . हूँ मानुष गंध।” मैंने रज़िया के मुँह पर हाथ धरते हुए, उसे इतने ज़ोर से चिपका लिया कि रज़िया ने फिर मसख़री की, “आपा! गई मैं तो! . . .गईऽऽऽ! मेरी सारी हड्डियाँ गईं!” 

जैसे गाय अपने बिछड़े बछड़े को चाटती है, उसी ललक से मैं उसके चेहरे, गरदन, कान, हाथ-पैर, पीठ, सब पर हाथ फिराने लगी। अन्धे को आँखें मिलने के आनन्द की तरह ही आज मेरे आनन्द का कोई पारावार नहीं था। 

हमारे ऊँचे स्वरों को सुनकर मेरे और साथी वहाँ दौड़ते-से आए और हमारी भीगी आँखें और उमगते चेहरों को देखकर बिना कुछ कहे-सुने ही अभिभूत हो गए! 

मैंने तुरन्त जाकर रजिस्ट्रार महोदय से अनुरोध किया कि यदि वे मेरा पर्चा आगामी सत्र के लिए स्थगित कर दें, तो बहुत मेहरबानी होगी। जब उन्होंने बिना किसी हील-हवाले के इसे स्वीकार कर लिया, तो मैं दौड़ती-सी रज़िया को लिए हुए अपने कमरे में जा घुसी। 

रज़िया मेरी उद्विग्नता और उतावलेपन को समझ रही थी, इसलिए उसने धीरज भरे शब्दों में आहिस्ता-आहिस्ता बताया: “आपा! मैं आपको वीज़ा वाले दिन से आज तक की पूरी कहानी सुना देती हूँ, क्योंकि यदि आप प्रश्‍न पूछेंगी, तो बात बेसिरे से शुरू होकर अन्धी गलियों में भटक जाएगी।” 

अरे वाह! यह लड़की तो जहाँ खड़ी थी, वहाँ से भी बहुत आगे बढ़ गई है! सोचकर मैंने फिर से हुमुक कर पहले तो रज़िया को मचमचा कर प्यार किया, फिर कहा, “पर पहले केवल दो प्रश्‍न प्लीज़! ख़ाली दो प्रश्‍न!” 

रज़िया की गरदन हामी में हिलते ही मैंने पूछा, “रज़िया! तुमने मुझे यहाँ ढूँढ़ा कैसे? और दूसरा, तुम्हारे चेहरे का वह दाग़ कहाँ गया?” 

रज़िया ने एकदम शान्ति से उत्तर दिया, “आपा! अमेरिका पहुँचते ही मैंने सबसे पहले आपसे सम्पर्क करना चाहा, पर पुराना ‘लैपटॉप’ न होने के कारण याददाश्त पर आधारित आपकी ई-मेल आई.डी. गड़बड़ा गई थी और मेरी समझ से आप लगभग दो महीनों से विदेश में हैं, क्योंकि आपका हिन्दुस्तानी फ़ोन घर पर होने के कारण बन्द पड़ा है। कई जगह टक्कर मारने के बाद इत्तफ़ाक से जब सक़ीना आंटी की लाइन मिली; और उन्होंने बताया कि आप फलाँ तारीख़ को यहाँ होंगी, तो फिर भला मुझे कौन रोकता? मैं ‘परों’ पर उड़ती हुई, आपके पास आ गई। और हाँ दाग़! तो आपा, आप तो जानती ही हैं कि मैं बदमाश नम्बर वन हूँ, इसलिए उस कमीने शेख़ से निकाह वाले दिन मैंने अपने दाग़वाले हिस्से को हल्क़ा जला कर ज़ख़्मी कर लिया। सब जानते हैं कि शारज़ाह में एक से एक उम्दा विदेशी डॉक्टर भरे पड़े हैं, इसलिए वे शेख़ साहब के हुक़्म से जब वे मेरे जे घाव का इलाज कर रहे थे, तो मैंने उनसे ग़ुज़ारिश की कि “यदि वे प्लास्टिक सर्जरी से मेरा यह दाग़ मिटा कर मुझ ग़रीब की मदद कर दें, तो अल्लाह ताला उन पर करम करेगा।” इस पर उन्होंने हाथ झटकते हुए कहा, “नो बिग डील” और मेरा दाग़! छू-मंतर हो गया। 

“अब आप मेरी आपबीती सुनिए: एक नम्बर के हरामी (माफ़ करें) करीम चाचा ने पहले तो ख़ुद मेरी अस्मत लूटनी चाही, फिर उनके बेटों और दोस्तों ने, पर जब मैं किसी के क़ाबू में नहीं आई, तो उन्होंने मुझे एक ख़ूब पैसे वाले शेख़ के हरम के लिए बेच दिया। बख़्शिश ख़ुदा की कि उस शेख़ को न केवल कमसिनों की, बल्कि बहुत ही कच्ची उम्र की लड़कियों की आदत थी। मसला तो उसने मुझे भी, पर जब उसे मज़ा नहीं आया, तब उस दरिन्दे ने अपना ग़ुस्सा दिखाने और मुझे दु:खी करने के लिए मेरी मौजूदगी में ही उन छोटी-छोटी लड़कियों को बुलाया और उन पर झपट्टा मारते हुए उनके कोमल जिस्मों में अपने नृशंस नाखून और दाँत गड़ा दिये। उनकी हृदय विदारक चीख़ें सुनकर वह राक्षस और भी मदोन्मत्त हो उठता था और नरभक्षी शेर की तरह उन्हें अपने शिकंजे में जकड़ लेता था। आपा! वे ‘रि . . . रि . . . ’ करते स्वर आज भी मुझे सिर से पैर तक सिहरा देते हैं।”

मेरे पास ख़बर थी कि उनमें से बहुत-सी बच्चियाँ तो ऐसे बेरहम बलात्कार के समय मर भी जाती हैं, इसलिए मैंने उन वीभत्स दृश्यों को छोटा करने की गरज़ से बीच में ही पूछ लिया, “तुम वहाँ से भागीं कैसे?” 

“हाँ! यह बहुत ही मस्त क़िस्सा है। सबसे पहले, मैंने दोपहर के उनींदे समय में चिलमनें हटा-हटा कर उन लड़कियों को ढूँढ़ा, जो मेरी ज़ुबान समझती थीं। उनसे थोड़ी दोस्ती होने पर मैंने उनके साथ मिलकर एक ‘फ़ूलप्रूफ़ प्लान’ बनाया, और उसके हिसाब से हमने पहले तो अपने आक़ाओं का मन लुभाकर उनसे ढेरों ज़ेवरात ऐंठ लिए और फिर चारों ओर नज़रें घुमा कर किसी लोभी-ग़द्दार को ढूँढ़ना शुरू किया। आपा! हम यह सारा काम इतने आहिस्ता-आहिस्ता कर रहे थे कि एक घंटे के काम को महीना भर लग जाता था। अन्त में तीन सालों तक लगातार घिस-घिस कर हमने पत्थर पर रस्सी के निशान डाल ही लिए और हम नौ लड़कियाँ अलग-अलग रातों को वहाँ से भाग कर अपने तस्कर के बताए हुए ‘आबू धाबी’ वाले अड्डे पर पहुँच ही गईं। उसने हमें हमारे पासपोर्ट, वीज़ा आदि वहाँ दिलवा तो दिए थे, पर उसकी हिदायत के अनुसार, हमने पहले कई इस्लामी देशों की यात्रा की, और फिर अमेरिका आए। 

“आपा! मैंने आपको सारी बातें ‘अब्रीज़्ड फॉर्म’ (संक्षेप) में बताई हैं, क्योंकि इस छह साल के दर्द और संघर्ष ने मुझे एक बात पुख़्ता तौर पर समझा दी है कि ख़ुशी को बार-बार याद करो और दु:ख को भूले से भी कभी ख़ुद में मत झाँकने दो। आपा! आपको यह जानकर अच्छा लगेगा कि मैंने यहाँ आते ही सबसे पहले रिज़वान को मेरी सारी डिग्रियों सहित यहाँ आने का निमंत्रण दे दिया है। आश्‍चर्यजनक ढंग से उसने भी इसी बीच ख़ासी डिग्रियाँ हासिल कर ली हैं और उनके साथ ही एक बड़ी नौकरी भी। 

“आपा! मैं आपको यह तो बताना ही भूल गई कि हम नौओं भागी हुई लड़कियों ने एक संगठन बनाया है, जिसके अन्तर्गत हम खाड़ी में फँसीं लड़कियों को आज़ादी मुहैया कराने की कोशिश करते हैं। चूँकि अभी हमारे पास बहुत पैसे और साधन नहीं हैं, इसलिए हम यह काम बड़े पैमाने पर नहीं कर पा रहे हैं। पर आपा! मुझे रोज़ उगते इस नए सूरज पर, इस आकाश पर, इस हवा पर, इस धरती पर और इस पर बसनेवाले बाशिंदों पर बेइन्तिहा भरोसा है; भरोसा है आपके दिलाए अहसास पर, कि अच्छा काम करते वक़्त रास्ते में कुछ काँटे और रोड़ें भी आएँगे, पर यदि उनसे डरे बिना कोई बंदा आगे बढ़ता जाएगा, तो फिर ख़ुदा की भी हिम्मत नहीं है कि उसे क़ामयाबी के हिमालय की फ़तह से रोक सके। आपने पूरे यक़ीन से हमें यह भरोसा भी दिलाया है कि ‘यदि तुम लोग अपने आप को पूरी तरह अच्छे कामों को सौंप दोगी, तो ऊपर बैठे उस ‘मौला’ की क्या औक़ात, जो वह दौड़ा नहीं चला आएगा?” तो बस आपा! उन्हीं भरोसों पर हमने इस आग में हाथ डाला है।” 

रज़िया के इस ‘बड़े सोच’ ने मुझे आह्लादित कर मेरी हिम्मत बढ़ा दी थी, इसलिए मेरे मुँह से बेसाख़्ता निकल गया, “रज़िया बच्चे! अब युसूफ़ भाई और भाभी जान को भी माफ़ी दे दो ना।” 

“आपा! आपकी शाग़िर्द हूँ, इसलिए इस भलमनसाहत से इत्तफ़ाक रखती हूँ। पर आपा! पहले मैं यहाँ अच्छी तरह से पैर जमा लूँ, फिर यह सब सोचूँगी। अभी मुझमें इतनी ताब नहीं है कि अपनी ज़िन्दगी के ख़ुरदरे रास्ते को समतल बनाए बिना और मुसीबतों को न्यौता दे दूँ। पर यक़ीन मानिए! कुछ लायक़ होते ही मैं उन्हें ज़रूर बुला लूँगी। 

“आपा! यदि साधारण समझ के औसत आदमियों को ़एक ज़हीनतरीन इन्सान माफ़ी न दे सके! तो उसकी समझ, किसी जाहिल की समझ से बेहतर कैसे मानी जाएगी? जाहिल आदमी तो फिर भी क़ाबिले-माफ़ी है, पर यदि कोई तहज़ीबयाफ़्ता यह ग़लती करे, तो उसे तो उस रहमदिल परवरदिग़ार के दरबार में भी माफ़ी नहीं मिलेगी। आपा! आप बेफ़िक्र रहें, मैं आपके नमक को लजाऊँगी नहीं। मेरा रोम-रोम आपका कर्ज़दार है। आपकी दी हुई हिम्मत की बदौलत ही आज मैं यहाँ खड़ी हूँ। मेरे लिए आपकी मंशा उस ऊपरवाले के हुक़्म से भी बढ़कर है। देखिएगा, कुछ ही दिनों में आप उनके बारे में यह खुशख़बरी सुन लेंगी।” 

हमें पता ही नहीं था कि अजाने ही मेरी और रज़िया की आँखों से आँसू बहे जा रहे हैं। हम दोनों ने शरमाते हुए उन्हें अपनी कोहनियों से पोंछा और एक-दूसरे से यों चिपक गए जैसे कई जन्मों से बिछड़ी हुई माँ-बेटी हों। 
रज़िया ने अपने कहे का मान रखते हुए, तीन-चार महीने बाद ही ज़ीनत भाभी और युसूफ़ भाई को अपने पास बुला लिया। 

संगोष्ठी ख़त्म होने के बाद मैं भारत लौटी ही थी कि सारे अख़बारों, टीवी, रेडियो आदि पर नारे की तरह एक ही नाम गूँजता सुनाई पड़ा, मलाला युसूफ़ज़ई! मलाला युसूफ़ज़ई! मलाला जैसे मसले से मेरे दिल का क़रीबी रिश्ता होने के कारण मैंने अपने सारे कामों को ताक़ पर रख कर, सबसे पहले उसकी किताब उठाई, और यह देख कर विस्मय से भर गई कि उस गिलहरी जैसी है, जिसने श्रीराम की मदद लंका का पुल बनाने में मदद इसलिए की थी कि वे सीता को मुक्त करा सकें। ध्यान देने की बात है कि मलाला के अब्बू रज़िया के अब्बू से एकदम उलटे थे। वे एक जाग्रत इन्सान थे। पर क्या उन्हें जगाने में रज़िया जैसी लड़कियों के बलिदान की कोई भूमिका नहीं थी? जब एक छोटा-सा कंकड़ तक नदी में लहर पैदा कर सकता है, तो इन हिम्मतवर लड़कियों के छोटे-छोटे पत्थरों ने क्या ‘आज़ादी का एक पुल’ नहीं रच-बुन दिया था? क्या सूर्य की इन किरणों ने ज़ुल्मों के घटाटोप अँधेरे में छेद कर रोशनी नहीं भरी होगी? . . . मेरा मानना है, कहीं न कहीं कोई न कोई फ़र्क़ ज़रूर पड़ा होगा!!

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