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पुरुष-सती

सुबह की चाय ख़त्म करके, मैं अख़बारों को उलट-पुलट ही रही थी कि ग़ुस्से में भारी क़दम धरती शिवा ने कमरे में घुसते हुए कहा, “सुमन! सुना तूने? बिशू अपनी बेटी जाह्नवी को लेकर गोवा जा रहा है; ताकि उसकी पत्नी अपने पुरुष-मित्र के साथ कहीं घुमक्कड़ी करने जा सके!”

“लगता है तेरा दिमाग़ ख़राब हो गया है, चूँकि तुझे लवलीन पसन्द नहीं है इसीलिए तू दुनिया भर की ऊट-पटांग बातें सोचती रहती है। और सुन! बिशू चाहे जितना भला हो; है तो आख़िर हाड़-मांस का पुतला ही!! इसलिए बेफ़िक्र रह।” 

मेरी बात को बीच में ही काटते हुए शिवा ने कहा, “सुमन! यह सच है। जब उससे पूछा तो उसने कहा, ‘कभी ‘लवी’ को भी तो मातृभार से मुक्ति मिलनी चाहिए। क्या लवी की अपनी कोई इच्छाएँ नहीं हो सकतीं?’ और मेरे यह कहने पर कि ‘तुमलोग तो काफ़ी घूमते-फिरते रहते हो।’ उसने मुझे ही दक़ियानूसी बताते हुए कहा, ‘देखिए! शिवा दी! हर आदमी का अपना नज़रिया है। आपने एक लकीर-बँधा जीवन जिया है; और लवी को उन्मुक्त आकाश पसंद है; इसलिए एक पति होने के नाते मुझे उसे अधिकाधिक सुविधाएँ उपलब्ध करवानीं ही चाहिएँ।’ उसके आगे के वाक्य थे, ‘याद है दीदी! शादी के कुछ दिनों बाद ही लवी मॉडलिंग और सिनेमा में काम करना चाहती थी। मैंने जब आपसे उसकी सिफ़ारिश मृणाल सेन से करने को कहा, तो आपने मुझे डाँटा भी था। मैंने उस समय भी आपसे यही कहा था कि यह उसका जीवन है; मैं उसमें बाधक बनूँ; यह तो सम्भव ही नहीं है। दीदी! सच पूछें! तो मैं उसका ऋणी हूँ कि इतनी शौक़ीन होते हुए भी वह बच्चों को पाल रही है।’

शिवा ने आगे क्या कुछ कहा!! पता नहीं! अपनी प्राणसखी की दी हुई सूचना ने मेरे सामने ‘मल्टीप्लैक्स’ में चलते ‘लगातार सिनेमा’ की ढेरों-ढेर रीलें खोल दी थीं! जो हमारे बचपन, कैशौर्य, युवा और प्रौढ़ावस्था की यात्रा की दास्तान थीं . . . 

शिवा उवाच, “हे भगवान! हम ठहरे वैष्णव! जो भगवान तक में छुआछूत बरतते हैं; ‘एकनिष्ठ’ होने का दम भरते हैं; दूसरे देवताओं का प्रसाद तक ग्रहण नहीं करते। पर मेरा भाई बिशू? वह तो पूरा मलेच्छ है। उसे न संस्कारों से कुछ लेना-देना है; न धर्म से; और न ही मान-मर्यादा से। लगता है, वह किसी विचित्र ग्रह से आई हुई आत्मा थी; जिसने भूल से मेरी माँ के गर्भ से जन्म ले लिया।”

धाराप्रवाह बड़बड़ करती हुई शिवशंकरी को बीच में ही रोक कर मैं कह बैठी, “पर शिवा, जितना मैंने तेरी माँ को जाना है; वे तो इन नियम-क़ानून और लंद-फंद से परे एक छलछलाता हुआ ‘प्यार का सागर’ थीं। ऐसे में यदि बिशू भी उन-सा ही ‘एन्लाइटेन्ड’ या ‘लिबरेटेड आत्मन्’ पैदा हो गया; तो इसमें आश्‍चर्य की क्या बात है?” 

खा जाने वाली आँखों से मुझे घूरते हुए शिवा ने कहा, “ज़्यादा हाँको मत। मुझे इन ‘एनलाइटेन्ड आत्मन्’; ‘लिबरेटेड सोल’; आदि बड़े-बड़े ढपोरशंखी विशेषणों से चिढ़ है। आजकल किसी भी बेसिर पैर के काम को कोई अनोखा नाम देकर; स्वयं के ‘ट्रेंड सैटर’ होने का दावा करने वाले तुम बुद्धिजीवियों-सा ढोंगी और कोई हो ही नहीं सकता। जबकि हक़ीक़त यह है कि तुम लोग जीवन की सच्चाइयों से दूर अपनी साहित्यिकता के कूप में मंडूक बने कूद-फाँद करते रहते हो। देख सुमन की बच्ची! अभी मेरा ‘मूड’ बहुत ख़राब है, इसलिए ज़्यादा ज्ञान मत बघार; वरना मेरी ख़री-ख़ोटी सुनकर अपना मिज़ाज बिगाड़ती फिरेगी।” . . . कहती हुई शिवा झटके से उठी और अधूरी चाय प्याले में छोड़ कर तेज़ क़दमों से चल दी . . .  

एक बार तो मन किया कि आगे बढ़ कर उसे रोकूँ; पर शिवा का प्यार और शिवा का ग़ुस्सा! दोनों ही ‘अति’ की सारी हदों को तोड़ते रहते हैं, इसलिए समय की नज़ाकत को समझ कर मैं चुप रह गई। लेकिन मन ठहरा चंचल; यदि वह रोके रुकता; तो पूरे संसार का इतिहास ही कुछ और होता! . . . ऊपर से शिवा तो बाल्यकाल से ही मेरी प्राणसखा और मेरे रोम-रोम की भागीदारन थी। हमारे एक-से बिंदास और खिलंदड़े स्वभाव के कारण हम दोनों के घरवालों ने हमें एक ही नाम से पुकारना शुरू कर दिया था; “अरे ओ! ‘जमोज’ (बांग्ला में अर्थ, “जुँड़वा’) सुनो!” अर्थात् यदि हम दोनों में से एक भी वहाँ है; तो वह सुने; और दोनों हैं; तो दोनों सुनें; पर सम्बोधन दोनों का एक ही ‘जमोज’! 

‘जमोज’ मैं और शिवा ही नहीं थे; हम लोगों का बहुत कुछ ‘जमोज’ था। आसपास सटे घर; दोनों घरों में ही चार-चार बच्चे; और दो जोड़ा सुलझे हुए माँ-बाप। आज मुड़कर देखती हूँ, तो अचरज से भर जाती हूँ; कि उन छोटे घरों में कितना बड़ापन समाया हुआ था। भिन्न भाषा-भाषी, विभिन्न स्वभाव और विचार वाले लोग; एक छत के तले गंभीर विचार-विमर्श से लेकर ‘हा हा!-हू हू’ तक करते रहते; जिसमें कभी-कभार विचारों की टकराहट भी होती, तो वह थोड़ी रूठ-मनौवल के बाद दूर हो जाती, और फिर वहाँ वही छलछल, कलकल करता निर्मल आनंद बहने लगता। 

जैसे मैं और शिवा हमउम्र और एकदम एक-से थे; वैसा लड़कों में नहीं था। शिवा के छोटे भाई बिशू और मेरे बड़े भाई आनन्द का स्वभाव काफ़ी मिलता-जुलता था। 

मेरे गोल्डमेडलिस्ट बड़े भाई आनंद अपने बसे-बसाए घर-संसार एवं सम्पदा को तिलांजलि देकर पत्नी का साथ देने के लिए वृन्दावनवासी हो गए; और एक संवेदनशील, रसपगा और भावुक मन लिए वे जीवन पर्यन्त वहाँ के वातावरण से एकाकार होने का असफल प्रयास करते रहे। 

और उनका जोड़ीदार ‘बिशू’? उसमें आनन्द भाई के संवेदनशील गुणों के साथ; एक और गुण भी था; कि वह अपनी ज़िदों के कारण बार-बार मिट्टी में मिलता और पुनर्नवा-सा फिर से पल्लवित-पुष्पित हो जाता। सीधी पटरी पर चलती गाड़ी उसे कभी रास नहीं आई। वह हमेशा ‘आकाशी नागर-हिंडोले’ पर ‘रोलर कोस्टर’-सा ऊपर-नीचे होता रहता। उसके लिए सायबेरिया में तापमान से ५२ डिग्री नीचे की बर्फ़; और सऊदी अरब की तपती रेत एक-सी थी। अपना दुबला-पतला ‘पावहाड़िया’ शरीर लिए वह हर वक़्त पूरी बत्तीसी दिखाता, हँसता रहता; लेकिन इन सबके बावजूद उसके व्यक्तित्व में एक क़शिश . . . एक प्यारापन और एक ऐसी रहस्यमयता थी कि हम ही नहीं हमारे सारे मित्र तक उससे बेइंतिहा प्यार करते। 

‘बिशू’ ने १८ वर्ष की उम्र से ही स्टोर्स सप्लाई का काम शुरू कर दिया था। और २० वर्ष की उम्र में वह किसी व्यवसायी के ‘वेस्ट पेपर’ विभाग का प्रमुख और बाद में भागीदार बन गया। महाशय अभी साढ़े इक्कीस के हुए ही थे कि उन्हीं व्यवसायी की बड़ी बेटी के प्रेम-पाश में उलझ गए। लड़की उसके खुलेपन और प्रेमलहृदय पर मुग्ध थी, और लड़का उसके अभिजात्यपूर्ण सलीक़े पर। कच्ची उम्र का तीव्र आकर्षण! . . . बाँध तोड़ रहा था; पर पैसेवाले पिता इसे बेटी का अनर्गल प्रलाप मान कर निश्‍चिन्त बैठे थे। 

एक दिन उनकी निश्‍चिंतता को भय में बदलती जब उनकी बेटी हवा हो गई; तो न तो उन्हें अपनी आँखों पर विश्‍वास हो रहा था; न ही कानों पर; पर कोर्ट के उस फ़रफ़राते काग़ज़ के टुकड़े का वे क्या करते . . . जो उनकी बालिग़ बेटी के क़ानून-सम्मत विवाह की सनद था। जैसा कि आज तक होता आया है; उन्होंने उन लोगों को सादर वापस बुला लिया; और पूरे मान-सम्मान से ‘बिशू’ को अपना जँवाई घोषित कर दिया। बेटी को दहेज़ में एक फ़्लैट देकर, उन्होंने परोक्ष में उसे अलग रहने का सुझाव भी दे दिया। अब तक ‘बिशू’ ने अपनी कमाई से एक बढ़िया गाड़ी भी ख़रीद ली थी। 

नए फ़्लैट में जाने के बाद ‘बिशू’ का हमारे घरों में आना-जाना बंद-सा ही था कि एक दिन अचानक रात को शिवा की मित्र निशा ने उसे फोन करके अपने यहाँ बुलाया। उसके ड्राइंगरूम में ‘बिशू’; अपने और निशा के बच्चों के साथ बैठा हुआ टीवी देख रहा था और तरह-तरह की ‘जोकरी’ से सबको हँसा रहा था। वह पूरा कमरा ठहाकों और खिलखिलाहटों से गूँज रहा था। उसने सबके लिए ऑर्डर देकर ‘पिज्ज़ा’ भी मँगवा रखा था। यह असमय पार्टी शिवा की समझ में नहीं आ रही थी कि निशा ने उसे भीतर के कमरे में जाने का इशारा किया। अंदर आकर निशा ने बताया कि बिशू के दोनों बच्चों को सीढ़ी पर बैठा देखकर वह उन्हें अंदर लिवा लाई थी और बाद में ‘बिशू’ भी वहीं आ गया था। ‘बिशू’ ने इस घटना को ‘नाकुछ’-सा दर्शाते हुए, पूरी शाम हँसते-खिलखिलाते हुए एकदम सहजता से बिता दी थी। 

शिवा के यह पूछने पर कि क्या उसके फ़्लैट की चाबी खो गई थी जो बच्चे सीढ़ी पर बैठे थे? निशा ने सूचना दी कि आजकल अमृता के यहाँ ‘बिशू’ के एक घनाढ्‌य मित्र की ‘आवा-जाही’; मर्यादा की सीमा को पार कर चुकी है। हालाँकि जब भी निशा ने इस बाबत ‘बिशू’ से कुछ कहना चाहा, तो उसने उसका मखौल-सा उड़ाते हुए कहा, ‘निशा जीजी! आप किस ज़माने में ज़िन्दा हैं? . . . रामायण काल में? . . . अरे जीजी! यदि मेरा अन्तरंग मित्र मेरे यहाँ नहीं आएगा; तो कहाँ जाएगा? और यदि उसकी और अमृता की ‘बेवलेंथ’ मिलती है, तो यह तो उत्तम स्थिति है। आप ही बताइए इस दुनिया में कितनों को ऐसा मनचीता साझीदार मिल पाता है? जीजी! आप बेफ़िक्र रहिए, सब ठीक है।’

शिवा ने निशा को ये ख़बरें उसे न देने के लिए डाँट तो बताई, पर वह स्वयं भी हतप्रभ-सी; सही-गलत का निर्णय करने में असमर्थ-सी; एक ऐसे मोड़ पर खड़ी थी; जहाँ प्रश्‍न तो ढेरों थे; पर न तो किसी में उन्हें पूछने की हिम्मत थी; और न ही किसी को, किसी से, कोई सार्थक जवाब मिलने की आशा थी। 

नारी जाति के प्रति बिशू के मन में जो सच्ची श्रद्धा थी, वह मेरे लिए विरल थी; इसलिए मैं उससे भक्ति की हद तक स्नेह करती थी। शिवा इसलिए भी इस घटना को साझा मुझसे नहीं कर पाई थी; कि तभी! एक दिन ख़बर आई कि ‘बिशू’ की पत्नी ने कोर्ट से ‘एक्स-पार्टे’ तलाक़ लेकर ‘बिशू’ के उन्हीं स्वनामधन्य मित्र से विवाह कर लिया है और ‘बिशू’ पूर्णतः बेघर और बेकाम हो गया है। 

हम सब धक्क! . . . लेकिन उस पुनर्नवा ‘बिशू’ ने अपने चारों ओर बिखरे टुकड़ों को बटोरकर इस पूरी दुर्घटना को मिठास से स्वीकार कर लिया; और अपनी एकमात्र सम्पत्ति; ‘नई गाड़ी की चाबी’ भी पत्नी की इच्छानुसार उस सर्वसम्पन्ना को ही दे दी। 

ख़ैर . . . ‘हे हरिश्‍चन्द्र! हे दधीच! मरो तुम! अपनी, इन बेवकूफियों के साथ!!’ की मुद्रा में हम उसकी ओर से मुँह फेर कर खड़े हो गए। 

पर वो ठहरा—‘बिशू’ . . . ‘बेमिसाल . . . अजेय’! . . . उसने ढेरों दिन और अनगिनत रातें साक्षात्‌ गुडाकेश की तरह ही अहर्निश; अनेक समन्दरों, देशों और पहाड़ों की ख़ाक छानते हुए बिताईं। रूस, दुबई, सिंगापुर, अमेरिका, चीन आदि देशों में रह कर उसने नए-नए व्यवसाय किये; और सबको चौंकाता हुआ वह पुनः प्रतिष्ठित हो गया; पैसे से; पत्नी से; और बच्चों से! . . . 

उसकी सेक्रेटरी लवलीन उसका दुःख बाँटती हुई; उसके ‘पहले के बच्चों’ पर प्रेम लुटाकर उसके हृदय में घर बनाती हुई; उसके मनोराज्य की साम्राज्ञी बन बैठी। सुचित्रा सेन-सी सुन्दर; पढ़ी-लिखी; मिष्टभाषी ‘लवलीन’ ने बिशू को एक बेटे और एक बेटी से नवाज़ कर उसके परिवार को भी सम्पूर्णता दे दी। 

‘बिशू’ आधी रात को समुद्र की लहरों से लड़ता हुआ; उनसे सोना पैदा करता; और सुदूर शहर में बसे अपने परिवार को साधन-सम्पन्न करता रहता। कहीं कोई कमी नहीं थी। सुन्दर बच्चे थे; पैसा था; और सुन्दर समझदार पत्नी थी। अब उसका अपने माँ-बाप के यहाँ भी आना-जाना हो गया था; कि! अचानक एक दिन!! शिवा तेज़ गति से चलती मेरे यहाँ आकर बोली, “सुनो ज़रा! उस महारानी (लवलीन) के करतब; आजकल उसके फ़्लैट में ‘बिशू’ कम और उस देवी का एक दोस्त ज़्यादा रहता है।”

मेरा सहज-सा उत्तर था, “शिवा! ‘आइ रिपिट!’ चूँकि तू लवलीन को पसंद नहीं करती है इसलिए ख़ामख्वाह की बातें करती रहती है। तुझे क्या बिशू ने कुछ कहा है?” 

शिवा ने तुरन्त कहा, “अरे! वह क्या कहेगा? वह बेवक़ूफ़ तो अंधा है। आज सुबह उसका दोस्त अनन्त आया था और उसने ही यह सारा माज़रा सुनाया; और तभी यह भी पता चला कि यह क़िस्सा कोई नया नहीं, महीनों पुराना है।”

मैंने अचरज से कहा, “क्या ‘बिशू’ के ‘हिये’ की फूटी हुई है, जो वह यह सब बर्दाश्त कर रहा है?”

“अरे! तुमने उस करमजले की भली कही! ज़रा उससे कह कर तो देखो? वही अपना पुराना दर्शन बघारने लगेगा।”

फिर घबराकर मेरा हाथ पकड़ते हुए शिवा ने कहा, “सुमन! क्या यह भी हो सकता है कि उस ‘इडियट’ के विशाल हृदय में उस बदमाश ने भी अपनी जगह बना ली हो? सच पूछो तो! बिशू के बारे में सोचते ही मेरा तो माथा घूमने लगता है! अब तुम्हीं बताओ अपन को क्या करना चाहिए?” 

“देख शिवा! बिशू से मिलकर कहीं से भी नहीं लगता कि वह दुःखी है; रंच मात्र भी नहीं। और जहाँ तक मैं उसे जानती हूँ, वह एक सच्चा बच्चा है, नौटंकीबाज़ नहीं! . . . इसलिए तू ज़्यादा सिर मत खपा।”

अफ़वाहें उड़ीं; पर हवा, पानी न मिलने के कारण शान्त हो गईं। वैसे हम दोनों को पता चल गया था कि लवलीन का वह ‘पुरुष मित्र’ अपना सारा डेरा-डंडा लाकर उस बड़े से फ़्लैट में जम गया है; और किनारे का एक छोटा सा अतिथि-कमरा बिशू के लिए मुकर्रर हो गया है। बच्चे बोर्डिंग स्कूल में; और बिशू अधिकतर अपने समुद्री तट के स्थायी निवास में रहता है; और बीच-बीच में लवलीन और बच्चों को विदेशों की यात्राओं पर ले जाकर अनाप-शनाप शॉपिंग करवाता रहता है। 

अब हम दोनों दोस्तों का एक ही तकिया कलाम बन गया था ‘बिशू गधा!! जो इच्छा हो सो करे’! . . . कि तभी शिवा से प्राप्त इस ‘जाह्नवी’ वाली ख़बर ने मुझे बाध्य कर दिया कि मैं बिशू से मिलकर इस तिलस्मी परीकथा की सच्चाई का पता लगाऊँ। वैसे मैं सौ प्रतिशत आश्‍वस्त थी कि बात कुछ और ही निकलेगी! . . . क्योंकि मनुष्य आख़िर मनुष्य ही होता है! . . . चाहे वह देवत्व की संधि-रेखा पर खड़ा रहता है; पर उसका वुजूद तो आख़िर मानवीय कमज़ोरियों से रचा-बुना एक पिंजर ही है? फिर यह बिशू क्या भगवान है, जो अनहोनी को होनी करेगा? . . . 

मेरी छटपटाहट इतनी बढ़ी कि मैंने अवसर पाते ही बिशू को कटघरे में खड़ा कर; मेरे अंतर को मथतीं सारी बातें उससे कह दीं। मेरी प्रत्येक बात में ‘व्यंग्य’ एक शाश्‍वत तत्त्व की तरह मौजूद था; ‘आख़िर तुम हो क्या? . . . क्या समझते हो अपने आपको? . . . कैसे कर पाते हो यह सब? . . . क्या तुम पिछले जन्म में वह पौराणिक पात्र थे जो अपने पति को कंधे पर बैठाकर पर-स्त्री के घर पहुँचाया करती थी?।’ आदि ढेरों उपालम्भों के बाद मैंने अपने दोनों हाथ कोहनियों तक जोड़कर कहा, “हे देवता! आख़िर तुम ऐसा कर कैसे पाते हो? यदि तुम अनजाने में ही यह सब कर रहे हो; तब तो क्या ख़ाक़ बता पाओगे? पर यदि जानबूझ कर भी इतनी सहजता और प्रेम से यह कर पा रहे हो, तो निश्‍चित ही तुमने अपना कोई दर्शन रचा है जिसके तहत तुम इन घटनाओं को इतने साधारण ढंग से स्वीकार कर रहे हो! . . . क्या तुम मुझे बता सकते हो कि तुम यह सब कैसे कर पाते हो?” 

फिर थोड़ा रुककर मैंने एकदम सच्चे मन से कहा, “देखो ये प्रश्‍न मात्र प्रश्‍न नहीं हैं। मैं सचमुच वह जीवन-दर्शन जानने को अभीप्सित हूँ; जो तुम्हें यह सब करने की क्षमता प्रदान करता है! बताओगे मुझे?” 

मेरी अकुलाहट और सच्चाई देख; बिशू ने मेरे दोनों हाथों को थामकर अत्यन्त प्रेम से गोद में रख लिया और फिर अपनी सदाबहार निर्मल हँसी हँसने लगा। हालाँकि वह देखने में साधारण-सा है . . . पर उस समय उसका पूरा चेहरा एक दिव्य शान्तिमय कांति से दमक रहा था! . . . 

उसने सरलता से उत्तर दिया, “दीदी! पता नहीं क्यों बचपन से ही एक बात मेरे दिमाग़ में ‘खुबी’ हुई है कि जिसे जो करना हो; वह उसे करता ही है। ‘टेढ़ी अंगुली से घी निकालना’ कहावत का मर्म यदि आप गहराई से सोचें, तो यही निकलता है कि ‘साम, दाम, दण्ड, भेद’ से हम सब अपनी कामनाओं की पूर्ति करना चाहते हैं। ऐसे में यदि कोई बाधा आती है, तो हम छल-कपट से दुराव-छिपाव से; उसमें से कोई न कोई गली निकाल लेते हैं; पर ऐसी स्थिति में हम उन बाधाओं से कुण्ठित होकर उस वातावरण से, कुढ़ने लगते हैं; और यह कुढ़न नासूर बनकर हमारे अन्तर को दुर्गन्ध से भर देती है . . .  पर वचनबद्धता; सुविधा; समाज और बच्चे; जैसी स्थितियॉं उसे त्वचा की तरह ऊपर से ढके रखती हैं। सो दीदी! ‘बोथ द टाइम्स आइ जस्ट डिसाइडेड’ कि इसमें ऐसी क्या ख़ास बात है? जीवन तो बहता पानी है; मैं चट्‌टान बनकर उसे रोकने वाला कौन? अग्नि के सात फेरों को मैंने न कभी पूरे जीवन के सुख से बड़ा माना है, न मानूँगा। हाँ! जब मुझे पहली बार लवी के इतर-सम्बन्धों का पता चला; तो मैं कुछ स्तब्ध हुआ; पर फिर मैंने सारी स्थितियों पर गहराई से विचार किया, तो लगा कि इसके पहले कि रुका हुआ पानी सड़ने लगे; उसे बहने के लिए उन्मुक्त कर देना चाहिए।” . . . 

पता नहीं; मैं उसे एकटक देख कर भी कुछ देख रही थी या नहीं? सुनकर भी सुन रही थी या नहीं? विश्‍वास कर रही थी या अविश्‍वासों से भरी थी? 

पर यह सब सुनने के बाद भी मुझसे रहा नहीं गया और मैं कह बैठी, “पर यह तो तुम्हारी ‘अति’ ही है कि तुम्हारी बीवी ‘दोस्त’ के साथ घुमक्कड़ी करने जाएगी, इसलिए तुम बेटी को घुमाने के बहाने गोवा ले जाओ! भई बिशू! सच! तुम्हारा यह ‘भगवानपना’ मेरे पल्ले तो नहीं पड़ता! क्या तुमने इसके पीछे भी अपना कोई ख़ास दर्शन रच लिया है?”

“दीदी! आप भी कहाँ से दर्शन-वर्शन की बात ले बैठीं! मुझे तो दर्शन का ‘द’ भी नहीं आता। मैं एक साधारण-सा व्यापारी आदमी हूँ! जब जो घटता है, उसमें से अपना फ़ायदा ढूँढ़ कर क़दम उठा लेता हूँ। अच्छा आप ही बताइए—यदि मैं अपना सारा जीवन रोड़े अटकाने में ही बिता देता; तो जो सुनहरा जीवन मैंने अपने चार बच्चों, पत्नियों और आप सबके साथ गुज़ारा है; वह कैसे सम्भव होता? कभी कोई ख़ुदकुशी करता नज़र आता; तो कभी कोई चोर-डाकुओं की तरह कटघरे के पीछे खड़ा हुआ! . . . और इन सबसे मुझे क्या हासिल होता? 

“दीदी, सच मानिए! आज मेरे और ‘लवी’ के बीच जैसे सम्बन्ध हैं; वैसे कभी नहीं रहे। हम अपने दुःख-सुख सच्चाई से एक-दूसरे के साथ बाँटते हुए; पहले से कहीं बेहतर दोस्त हैं। हम दोनों इन दिनों अपने चतुर्दिक एक ‘स्वर्ण-युग’-सा महसूस कर रहे हैं। आज सुबह ही उसने मुझे अत्यन्त स्वादिष्ट नाश्ता बनाकर खिलाया है!” कहकर वह अपनी वही सहज हँसी हँसने लगा। 

“तो क्या तुम दोनों के बीच तलाक़ हो गया है?” पूछते ही उसका उत्तर आया, “हाँ! पूरी तरह।”

“पर अभी पिछले हफ़्ते ही तो तुमने उसे ‘बामलवा’ से ख़रीद कर एक बड़े हीरे की अँगूठी दी है?” 

और प्रत्युत्तर में? फिर उसी लापरवाह हँसी से भरा उत्तर ‘अपनी ख़ुशी के लिए।’

आज सुबह-सकारे; इस शीतोष्ण मौसम के निरभ्र आकाश को एकटक देखती मैं! उस ‘पुरुष सती’ बिशू के बारे में सोचती हुई अनेक संजालों से घिरी हुई थी कि फोन की घनघन ने तुरीयावस्था से जीवन के ठोस धरातल पर ला दिया। फोन के उस पार से बिशू की चहकती हुई आवाज़ आई-, “दीदी! एक ‘फेवर’ चाहिए।”

“अरे बिशू! बोल, क्या बात है? आज इतनी सुबह कैसे फोन किया? और यह ‘फेवर-वेवर’ की ‘फ़ार्मेलिटी’ छोड़ कर अपना काम बता।”

“दीदी! लवी और बच्चे दीपावली पर मेरे पास आ रहे हैं। आप मेरे ‘खाते’ में से उन लोगों के लिए ख़ूब अच्छे-अच्छे उपहार ख़रीद कर भिजवा दीजिएगा; कंजूसी मत कीजिएगा। और प्लीज़! शिवादी को मत बताइएगा; वे इसका मर्म तो समझेंगी नहीं; बस ‘झकना’ शुरू कर देंगी।” . . . 

और मैं सुमन!! अपना सिर पकड़े सोच रही हूँ, कि क्या मैं भी कभी बिशू के जीवन-दर्शन के ‘महीनपन’ को समझ पाऊँगी? उसने तो मात्र कहा ही नहीं, कर भी दिखाया; कि ‘वन कैन जस्ट लव; विदाउट टू बी लव्ड’ . . . पर ईमानदारी की बात तो यह है कि मैं इस सारे परिदृश्य की साक्षी होते हुए भी इस पर विश्‍वास नहीं कर पा रही। मुझे हर क्षण लगता है; कुछ न कुछ घटेगा; और हाड़-माँस का बना यह साधारण मनुष्य ‘बिशू’! हमारी ज़ात में शामिल हो जाएगा। 

“सच मान, बिशू! मैं तुझे असीसना चाहकर भी असीस नहीं पाती! हर वक़्त तुझसे जलती रहती हूँ, कि स्त्री-स्वतंत्रता के नगाड़े बजाती ‘मैं’ क्यों नहीं हक़ीक़त में तुम्हारा सहस्त्रांश भी हो पाई? और तुम? . . . जिसने कभी कोई दावा नहीं किया; उसने सबकुछ कर दिखाया?” 

“सोच रही हूँ कि क्यों हैं हम ऐसे अधम! कि यदि हममें से कोई एक आगे बढ़ कर देवत्व की पाली में पग धरता है; तो उससे ख़ुश होना तो दूर हम उसे ‘बेवक़ूफ़’ कह कर ख़ारिज़ कर देते हैं। दरअस्ल हम हक़ीक़ी लोग मज़ाजी लोगों में और चमत्कारों में विश्‍वास नहीं करते! और सच पूछें तो ‘बिशू!” एक चमत्कार ही तो है!! . . . ”
 

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टिप्पणियाँ

पाण्डेय सरिता 2023/01/05 08:30 AM

हर बार पढ़ कर विस्मित होती हूँ

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