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बालक की मुस्कान

कल सावन मास का पहला सोमवार आयेगा, शिव मंदिर सजेंगे। पुष्प वालों से लेकर शिव-मंदिर के ट्रस्टी राम दयाल की आय बढ़ जाना कोई अनहोनी नहीं है। अक़्सर छोटे बच्चे शाम को अपने अभिभावकों के साथ रोज़ मंदिर आया करते हैं। वहाँ राम दयाल इन बच्चों को मंदिर के मंडप में बैठाकर, प्रवचन दिया करते हैं। उनके प्रवचन में उनका ख़ास मुद्दा एक ही रहता है कि, मंदिर में ज़्यादा से ज़्यादा दान कैसे आये? वे इन बच्चों और साथ आये उनके अभिभावकों को मंदिर में दान देने की महिमा को समझाया करते। “चिड़ी चोंच-भर ले गयी नदी न घटियो नीर . . .” इस दोहे को वे बार-बार अपने प्रवचन काम में लिया करते। कारण यह ठहरा कि, इस दान की बढ़ोतरी होने से स्वत: राम दयाल की आय बढ़ जाया करती है। 

इस मंदिर के इतिहास को देखा जाय तो सत्य यह है कि, यह मंदिर ख़ाली पड़ी सरकारी ज़मीन पर क़ब्ज़ा करके राम दयाल ने, इस मंदिर का निर्माण लोगों से इकट्ठे किये गये चंदे से करवाया था। और मंदिर तैयार होने के बाद, वे इस मंदिर के ट्रस्टी बन गए। बाद में रफ़्ता-रफ़्ता इन्होंने मंदिर की चारदीवारी पर सरकारी ज़मीन और क़ब्ज़ा करके, दुकानें, लोगों के चंदे से बनवा डालीं। इसके बाद इन दुकानों को कम किराये पर बेनामी किरायेदारों के नाम एलोट करके, दुकानें अपने क़ब्ज़े में रखकर वे व्यापार करने लगे। 

लोगों की नज़रों में राम दयाल पाक-साफ़ आदमी, और प्रभु के भक्त माने जाते हैं। इस मोहल्ले में कोई धार्मिक उत्सव होता तो, जनाब व्यवस्थापक बनकर सबसे आगे रहते हैं। इस तरह इन धार्मिक कार्यों को करते-करते उनकी ख्याति, भगवान के भक्त के रूप में फैल गयी। जिसका फ़ायदा उन्होंने, नगर-पालिका के वार्ड मेंबर के चुनाव में खड़े होकर उठा लिया। इस चुनाव में, वे भारी मतों से विजयी रहे। वार्ड मेंबर बने भी ऐसे प्रभावशाली कि पालिका के हर काम में इनका हस्तक्षेप रहता था। इस तरह जनाब, चारों तरफ़ से चाँदी कूटते हुए भी, लोगों की नज़रों में पाक-साफ़ बने रहते। 

मोहल्ले में रहने वाले जनवादी पत्रकार लतीफ़ साहब की नज़रों में, जनाब राम दयाल की कारिस्तानी छुपी नहीं है। वे कभी अपने दर पर, इन चंदा माँगने वालों को चंदा नहीं दिया करते। 

अभी कुछ देर पहले मैं लतीफ़ साहब के ग़रीबखाने बैठकर, चाय के साथ उनसे गुफ़्तगू कर रहा था। तभी अमर चंद पुष्प वाले का आठ साल का मासूम बच्चा जीना चढ़कर वहाँ आ गया। उसके हाथ में काग़ज़ और क़लम थी, जिसमें वह चन्दा देने वालों का नाम लिख करके उसके आगे दी गयी राशि लिख लेता। वह हमारी गुफ़्तगू में दख़ल देता हुआ, लतीफ़ साहब से कहने लगा, “अंकल, कल सावन का पहला सोमवार है। शिव-मंदिर के लिए चन्दा दीजिये ना।” 

लतीफ़ साहब ने उस बच्चे को सर से लेकर पाँव तक देखा। उस बच्चे ने, फटी कमीज़ और पैबन्द लगा हाफ-पेंट पहन रखा था। मगर, वह इन फटे कपड़ों में भी ख़ूबसूरत लग रहा था। उसके बड़े-बड़े नयन, मासूमियत लिए अपने अन्दर कुव्वते जज़्बा रखते थे। जो लतीफ़ साहब को अपनी ओर खींच रहे थे। फिर क्या? लतीफ़ साहब के लबों पर, तबस्सुम छा गयी। उन्होंने उस बच्चे को एक सौ एक रुपये देकर, उसकी पीठ थपथपा दी। वह मासूम बालक रुपये लेकर ख़ुश हुआ, फिर चहकता हुआ चला गया। मेरी यह जानने की उत्कंठा बढ़ने लगी कि, “ये वही लतीफ़ साहब हैं, जो इस तरह मंदिर के लिए कभी चन्दा नहीं देते, यह दुनिया का सातवाँ अजूबा कैसा? कैसे आज उन्होंने इस बालक को चंदा दे डाला?” 

मेरे पूछने पर लतीफ़ साहब बोले, “ज़रा, बालकनी से नीचे झाँकिए। और देखिये, वह मासूम बालक अपने अमीर दोस्तों से क्या कह रहा है? बस, आप यही सोचिये कि, मैंने इस बालक की मुस्कराहट को बरक़रार रखा है। जानते हो, बालक ख़ुद ईश्वर का रूप होता है, यह बालक नहीं बल्कि मुझे तो इसमें ईश्वर मुस्कराता हुआ नज़र आ रहा है।” 

जैसे ही मैंने, बालकनी से नीचे झाँककर देखा। वह बालक, मुस्कराता हुआ अपने अमीर दोस्तों से कह रहा था, “देखो, आज सबसे पहले, मैंने चंदे की राशि हासिल की। जहाँ तुम सभी, लोगों के घर दस दफ़े चक्कर काट चुके हो। मगर, इस राशि से ज़्यादा इकट्ठी न कर पाए। अब कहो, मोहल्ले का लीडर कौन?” 

उस ग़रीब बच्चे का चहकना और उसके लबों पर छाई मुस्कान को देखकर, मैं दंग रह गया। 

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