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एक अनार सौ बीमार

कई साल पहले नाथद्वारा मंदिर के गुसाईजी महाराज ने सोचा कि, “श्री कृष्ण के भक्तों की संख्या बहुत है, इन भक्तों में बेचारे भीलों को प्रसादी कभी मिलती नहीं। अत: हमें उनको प्रसाद वितरण ज़रूर करना चाहिए।” इस तरह उन्होंने दीपावली के दूसरे दिन का समय तय किया और भील-समाज में घोषणा करवा दी कि, “इस दिन सभी भीलों को महाप्रसाद वितरित किया जाएगा।”उन्होंने इस महाप्रसाद को ‘अंकुट’ का नाम दिया। जिसमें मीठे चावलों का भोग रखा गया। निर्धारित समय पर गुसाईजी महाराज ने मंदिर के चौक में बड़े-बड़े भगौनों में मीठे चावल का महाप्रसाद रखवा दिया, फिर उन्होंने अपने सेवादारों को इन लोगों को प्रसाद वितरण करने का हुक्म दे डाला। बेचारे सेवादार कब-तक महाप्रसाद वितरण करते . . .? यहाँ तो इन भीलों की तादाद कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही थी। यह तो मामला ऐसा रहा, जैसे किसी गाँव में कोई महामारी फैल गयी हो, और इन रोगियों के इलाज के लिए वहाँ एक-मात्र डॉक्टर हो। बस, यही हाल वहाँ रहा . . . बाँटने वाले कम और प्रसाद लेने वाले टिड्डी-दल की तरह। राम-राम करके उन वितरण करने वालों ने यह प्रसाद बाँटने का काम निपटाया। बाद में सभी सेवादार हाथ जोड़कर गुसाईजी महाराज के सामने खड़े होकर कहने लगे, “महाराज। अब बस करें, अब आगे से यह प्रसाद वितरण वाला काम हमसे न होगा।” 

तब पास खड़ा भीलों का सरदार हँसता हुआ बोल उठा, “वाह भाई, वाह! आपके लिए तो यह काम ‘एक अनार सौ बीमार’ वाली बात हो गयी। अब आप ऐसा कीजियेगा, आगे से महाप्रसादी का चावल बड़े-बड़े भगौनों में डालकर इसी चौक में रखाव देना, हम-सब मिलकर प्रसाद को लूट लेंगे। आप फ़िक्र न करें, एक चावल का दाना आपको ज़मीन पर पड़ा नहीं मिलेगा।” 

भीलों के सरदार की बात मान ली गयी, तब से दीपावली के दूसरे दिन तड़के महाप्रसादी के चावल चौक में रख दिए जाते हैं, और अचरज की एक ही बात रहती है न मालूम कहाँ से हज़ारों की संख्या में भील वहाँ आकर उस प्रसाद को लूट लेते हैं और चावल का एक भी दाना ज़मीन पर वे नहीं गिरने नहीं देते। आज शहर में रहने वाले भक्त प्रसाद को जूठा छोड़ देते हैं मगर जंगलों में रहने वाले श्री कृष्ण के भील भगतों के लिए प्रसाद का एक-एक दाना उनकी श्रद्धा का प्रतीक बन जाता है। यानी, वे एक दाना ज़मीन पर न गिराकर प्रसाद का अनादर नहीं करते। 

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