अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

इंसानियत का पाठ

मदरसे में बच्चों को पढ़ाकर, उस्ताद खदेऊ बाहर आये! बाहर पनवाड़ी की दुकान से पान की गिलौरी ली, उन्होंने गिलौरी को जैसे ही अपने मुँह में ठूँसा . . . उसी वक़्त हफ़्वात हाँकने, मैं वहाँ चला आया! फिर, दुआ-सलाम होने लगी! 

“असलाम लतीफ़ साहब! ख़ैरियत है?” 

“वालेकम सलाम, मियाँ! हम तो ठीक-ठाक हैं, मगर आप?” 

“जनाब, गधों को आदमी बनाते आ रहे हैं! ” 

“आली जनाब, गधे को गधा ही बने रहने दें! क्या करेगा, आपका गधा इंसान बनकर?” 

“अरे हुज़ूर, ज़माना आगे बढ़ने का है . . . पढ़ाई कर लेगा तो दो पैसे कमा लेगा! ” 

“किसी दफ़्तर का बाबू या अफ़सर बन जाएगा, और क्या? भोले-भाले इंसानों से रिश्वत लेकर अपना घर आबाद करेगा, मियाँ! इससे तो अच्छा है . . . ” 

“लाहौल-विला-क़ुव्वत! क्या कह दिया, आपने . . . ? जानते नहीं, तालीम-याफ़्ता इंसानों की ही पूछ है इस ख़िलक़त में! समझे, हुज़ूर?” 

“अरे हुज़ूर, वे तालीम-याफ़्ता इंसान क्या काम के, जिनमें अदब या तहज़ीब लेश-मात्र न हो? यह तालीम तब काम आयेगी, जब उस इंसान में इंसानियत, अदब और तहज़ीब कूट-कूटकर भरी हो! न तो . . . इससे तो अच्छे हैं, गधे . . .  जिनमें अदब और तहज़ीब कूट-कूटकर भरी है!” 

फिर क्या? उस्ताद खदेऊ साहब ने झट पान की पीक थूकी, और बिना जवाब दिए वहाँ से चले गए! पीछे, मैं उनके क़दमों की आहट सुनता रहा! मगर, हमारी गुफ़्तगू सुन रहे पनवाड़ी ने समझ लिया “इन तालीम-याफ़्ता, बेअदब और बदतमीज़ बेरोज़गारों से तो, वह ख़ुद अच्छा है, . . . जो अदब और तहज़ीब को लिए ईमानदारी से अपनी बीबी और बच्चों को दो वक़्त की रोटी खिलाते हुए, उन्हें इंसानियत का पाठ पढ़ा रहा है!” 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सांस्कृतिक कथा

कहानी

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं