इंसानियत का पाठ
कथा साहित्य | लघुकथा जस राज जोशी 'लतीफ़ नागौरी'1 Dec 2021 (अंक: 194, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
मदरसे में बच्चों को पढ़ाकर, उस्ताद खदेऊ बाहर आये! बाहर पनवाड़ी की दुकान से पान की गिलौरी ली, उन्होंने गिलौरी को जैसे ही अपने मुँह में ठूँसा . . . उसी वक़्त हफ़्वात हाँकने, मैं वहाँ चला आया! फिर, दुआ-सलाम होने लगी!
“असलाम लतीफ़ साहब! ख़ैरियत है?”
“वालेकम सलाम, मियाँ! हम तो ठीक-ठाक हैं, मगर आप?”
“जनाब, गधों को आदमी बनाते आ रहे हैं! ”
“आली जनाब, गधे को गधा ही बने रहने दें! क्या करेगा, आपका गधा इंसान बनकर?”
“अरे हुज़ूर, ज़माना आगे बढ़ने का है . . . पढ़ाई कर लेगा तो दो पैसे कमा लेगा! ”
“किसी दफ़्तर का बाबू या अफ़सर बन जाएगा, और क्या? भोले-भाले इंसानों से रिश्वत लेकर अपना घर आबाद करेगा, मियाँ! इससे तो अच्छा है . . . ”
“लाहौल-विला-क़ुव्वत! क्या कह दिया, आपने . . . ? जानते नहीं, तालीम-याफ़्ता इंसानों की ही पूछ है इस ख़िलक़त में! समझे, हुज़ूर?”
“अरे हुज़ूर, वे तालीम-याफ़्ता इंसान क्या काम के, जिनमें अदब या तहज़ीब लेश-मात्र न हो? यह तालीम तब काम आयेगी, जब उस इंसान में इंसानियत, अदब और तहज़ीब कूट-कूटकर भरी हो! न तो . . . इससे तो अच्छे हैं, गधे . . . जिनमें अदब और तहज़ीब कूट-कूटकर भरी है!”
फिर क्या? उस्ताद खदेऊ साहब ने झट पान की पीक थूकी, और बिना जवाब दिए वहाँ से चले गए! पीछे, मैं उनके क़दमों की आहट सुनता रहा! मगर, हमारी गुफ़्तगू सुन रहे पनवाड़ी ने समझ लिया “इन तालीम-याफ़्ता, बेअदब और बदतमीज़ बेरोज़गारों से तो, वह ख़ुद अच्छा है, . . . जो अदब और तहज़ीब को लिए ईमानदारी से अपनी बीबी और बच्चों को दो वक़्त की रोटी खिलाते हुए, उन्हें इंसानियत का पाठ पढ़ा रहा है!”
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