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बढ़ती जनसंख्या! 

महँगाई, बेरोज़गारी नित्य बढ़ा रही है जनसंख्या, 
सरकारी मंसूबों पर पानी फेर रही है जनसंख्या। 
शिक्षा, अस्पताल, सड़क की कमी खल रही है आज भी, 
रोज़-रोज़ का सुख-चैन मेरा छीन रही है जनसंख्या। 
 
हम दो हमारे दो के सिद्धांत पर फिर से करो अमल, 
मौत के साये को देखो रोज़ बढ़ा रही है जनसंख्या। 
बेबस है कितना आम आदमी यहाँ न्याय पाने के लिए, 
सुख-सुविधाओं की दुश्मन बनती जा रही है जनसंख्या। 
 
न हवा महक रही है और न ही नज़र बहक रही है, 
सिर्फ़ हमारी-तुम्हारी उम्र को ढो रही है जनसंख्या। 
सुलग रहा है दिन-रात और सुलग रहा है तसव्वुर, 
अधूरी आस, अधूरी प्यास को बढ़ा रही है जनसंख्या। 
 
मौत है यहाँ सस्ती देखिए रोज़ के हमारे जीवन में, 
छुपके सुख-चैन पर नश्तर चला रही है जनसंख्या। 
ग़ुरबत की गोद में पल रही हैं कितनी यहाँ अबलाएँ, 
चंद सिक्कों में अस्मत भीे तौल रही है जनसंख्या। 
 
ख़तरे में पड़ता जा रहा अब वन्य प्राणियों का जीवन, 
बड़े-बड़े हौसलों का पर कतर रही है जनसंख्या। 
पैसे के अभाव में लोग नहीं ढो पा रहे हैं अपनी उम्र, 
घर के बजट को रोज़-रोज़ बिगाड़ रही है जनसंख्या। 
 
लोगों को जीवन देनेवाली नदिया रो रही हैं आज, 
इस धरा की हरियाली को लील रही है जनसंख्या। 
मन में आ रहा है तारों से भी आगे बसाएँ एक और जहाँ, 
प्रदूषण के ग्राफ को नित्य बढ़ा रही है जनसंख्या। 
 
नून, तेल, लकड़ी में नप रही आम लोगों की ज़िन्दगी, 
कितने लोगों की तपस्या भंग कर दे रही है जनसंख्या। 
ऐ! आसमांवाले ऐसी दुनिया बनाने की ज़रूरत क्या थी, 
रंग-ए-बहार रुत को रोज़ लूट रही है जनसंख्या। 

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