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बुद्धिनाथ मिश्र को समझने का सफल प्रयास

समीक्षित पुस्तक: बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता
सम्पादक: अवनीश सिंह चौहान
प्रकाशक: प्रकाश बुक डिपो, बड़ा बाज़ार, बरेली-243003
दूरभाष: 0581-2572217
प्रथम संस्करण: 2013
पृष्ठ: 200
मूल्य: ₹150.00
ISBN: 978-81-7977-500-4, 
उपलब्ध: https://www.amazon.in/-/hi/Awanish-Singh-Chohan/dp/8179775003

(1) 

सभी जानते हैं कि डॉ. अवनीश सिंह चौहान हिंदी नवगीत विधा के चर्चित हस्ताक्षर हैं। उनकी रचनात्मकता गद्य और पद्य दोनों रूपों में हमारे सामने आती है। सृजन, संपादन और साक्षात्कारों के माध्यम से उन्होंने हिंदी साहित्य की श्री-वृद्धि की है। प्रसिद्ध नवगीतकार बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधार्मिता पर उन्होंने यह कृति संपादित की है। अवनीश जी ने श्रम और साधना से यह महत्त्वपूर्ण साहित्यिक कार्य किया है, जिसकी सराहना की जानी चाहिए। ‘बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता’ के बहाने उन्होंने बुद्धिनाथ जी को शत-प्रतिशत समझने का अवसर दिया है। सच पूछा जाए तो हम जैसे अनेक रचनाकार उनके नाम और यश-भर से ही परिचित रहे हैं। यह पुस्तक उन्हें जानने-समझने के लिए पर्याप्त सामग्री देती है। 

इस पुस्तक में संस्मरण, यादों के बहाने से, आलेख, बातचीत, ब-क़लम ख़ुद, यात्रा-वृत्तांत, समीक्षा और संचयन खण्डों के माध्यम से डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र को सांगोपांग जानने की कोशिश की गई है। बड़ी मेहनत से जुटायी गयी इस सामग्री को अवनीश जी ने बड़े क़रीने से पुस्तक का रूप दिया है। उन्होंने अपने संपादकीय में बुद्धिनाथ जी के गाँव, घर और पारिवारिक पृष्ठभूमि का उल्लेख कर पाठकों के लिए उनके होने या बनने का काफ़ी सामग्री इकट्ठी कर दी है। किसी भी व्यक्ति के निर्माण में उसकी परिस्थितियाँ और संघर्ष बहुत महत्त्व रखते हैं; जिन परिस्थितियों और मूल्यों के बीच बुद्धिनाथ जी जन्मे और पले-बढ़े, वे उसी अनुसार आकार पा गये। 

 (2) 

अब ‘बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता’ पर ही बात करते हैं। इसमें बुद्धिनाथ मिश्र के जीवन और उनकी रचनाओं के विभिन्न आयामों को बड़ी कुशलता से समेटा गया है; इसीलिए बुद्धिनाथ जी को जानने-समझने में यह कृति सर्वोत्तम है और इसके संपादक अवनीश जी धन्यवाद के पात्र भी। अवनीश जी इस कृति को अपने गुरु प्रसिद्ध नवगीतकार व सम्पादक (‘नये-पुराने’) दिनेश सिंह जी को समर्पित करते हैं। अपनी ‘संपादकीय’ (पृ. iv-xiv) में उन्होंने पुस्तक को केंद्र में रखकर रचनाकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की अच्छी समीक्षा प्रस्तुत की है। ‘हमने देखा है’— श्लेष गौतम का गीत बुद्धिनाथ जी को प्रेषित और समर्पित है। गीत के दूसरे पद में प्रयुक्त दो शब्द—‘व्यस्तताओं में’ (पृ. 1) मुझे कुछ अटपटे दिखाई पड़ते हैं, यदि इनके स्थान पर ‘व्यस्त समय में’ होता, तो ज़्यादा अच्छा रहता। 

(3) 

प्रस्तुत कृति के ‘संस्मरण’ (पृ. 2-15) खण्ड में कई कवियों-लेखकों ने संस्मरणों के माध्यम से बुद्धिनाथ जी के कुशल व्यवहार और मानवीय रिश्तों की तारीफ़ की है। प्रसिद्ध कवि और लोकसेवक उदय प्रताप सिंह के वे बहुत प्रिय और अंतरंग हैं। सहज-सरल व्यक्तित्व के कारण उनसे मिलना अपने आप में एक उत्सव-सा होता है। उदय प्रताप जी लिखते हैं, “जो अपनी प्राचीनता के गौरव और श्रेष्ठता के मूल्यों का स्मरण जनसाधारण के लेखन के माध्यम से जाने या अनजाने दिलाते रहते हैं, उनका मूल्यांकन इस सच्चाई के प्रकाश में होना चाहिए। न बुद्धिनाथ में नौकरशाही का गुमान था, न मुझमें लोकशाही का घमण्ड। वह आत्मीयता का स्तर था” (पृ. 3)।

प्रसिद्ध नवगीतकार माहेश्वर तिवारी को उनके व्यवहार में ‘आत्मीय शीतलता’ दिखाई देती है। यह दुखद आश्चर्य है कि भारत में साहित्यकारों और कवियों को कोई तवज्जोह नहीं मिलती। आज़ाद भारत में निराला जैसे अनेक साहित्यकारों ने अथाह दुख और अभाव झेला है। शिक्षा व्यवस्था पर लगभग शून्य ख़र्च कर विश्व गुरु बनाने की लफ्फाजी भारत को दयनीय दशा में पहुँचा चुकी है। तभी तो ऐसे साधक-कवि बुद्धिनाथ जी कहते हैं कि “दिन-रात खटने के बावजूद नौकरी से हमेशा मुझे उतना ही मिला, जितने से दो जून का चूल्हा जल सके। अपनी चाकचिक्य-भरी नौकरी से कभी मैं इतना भी नहीं निचोड़ पाया कि सुख-दुख में समान रूप से निश्छल मुस्कान बिखेर कर घर को जगमगाने वाली अपनी धर्मपत्नी को ढंग की एक साड़ी ही ला दूँ” (पृ. 6)। निराला जी सरोज स्मृति में कहते हैं— “जाना तो अर्थागमोपाय, पर रहा सदा संकुचित-काय।” लगता है मिश्र जी में भी कुछ निरालापन उतरा है, वरना तो वे भी सब तरकीबें जानते ही हैं। इस जगह बुद्धिनाथ मिश्र अपने व्यक्तित्व को एक ऊँचाई प्रदान करते हैं। 

बुद्धिनाथ जी से मेरा भी पहला परिचय नवगीत पर आधारित कार्यक्रम में पूर्णिमा वर्मन के यहाँ जाते समय हुआ था। मुझे भी उनका व्यक्तित्व सरल और सौम्य लगा। मृदुभाषी होना उनके संस्कार और भाषा का समन्वय ही है। लालसा लाल ‘तरंग’ कहते हैं—“मैंने इनके व्यक्तित्व को राव-सा मीठा माना है। मेरा यह भी दावा है कि अगर आप भी मिश्रजी से कभी मिलेंगे तो शर्तिया मान लीजिए कि आप भी उनके स्वभाव और व्यक्तित्व की सम्मोहन-शक्ति के शिकार हो ही जाएँगे” (पृ. 8)। ऋचा पाठक ने अपने संस्मरण में ‘शिखरिणी’ की चर्चा की है और ‘एक बार और जाल फेंक रे मछेरे’ की भी। लगता है यह गीत उनकी युवावय का गीत है, जिसमें जवानी, जवानी के सपने बुनती है। इम्तियाज अहमद गाजी उनके गाँव ‘देवधा’ (पृ. 15) की स्मरणीय चर्चा करते हैं। बुद्धिनाथ जी का गाँव और वाराणसी की यात्रा का सहारा ले वे उनके व्यक्तित्व की सहारना करते हैं। संस्मरणों से उनके व्यावहारिक जीवन की स्पष्ट झलक मिलती है, वहीं एक साधनारत कवि के दर्शन भी होते हैं। व्यक्ति कविता रचता है, तो कविता अनजाने ही व्यक्तित्व रच देती है। 

 (4) 

'यादों के बहाने से’ (पृ. 16-52) खण्ड में कई अच्छे लोगों की राय ली गई है। इस हेतु विवेकी राय, श्रीराम परिहार, यश मालवीय, सुशीला गुप्ता, काक, सुधाकर शर्मा, अनिल अनवर, ओमप्रकाश सिंह, मधु शुक्ला, महाश्वेता चतुर्वेदी और शिवम सिंह को याद किया गया है। इन्हीं की यादों के बहाने बुद्धिनाथ जी का स्मरण और अवदान के साथ उनकी जीवनचर्या, संघर्ष और सपनों को सामने लाने का प्रयास किया गया है। 

विवेकी राय की राय है कि बुद्धिनाथ जी “बौद्धिक व्यायाम नहीं, इंद्रधनुषी आयाम वाले शृंगार के सुमधुर गीतकार हैं। संगीत, चित्र और ध्वनि से सज्जित इनके नवगीत सादगीपूर्ण, लयात्मक और तन्मय होकर गुनगुनाने योग्य हैं। इनमें आधुनिकता भी है” (पृ. 16)। बुद्धिनाथ जी ने अपनी बाल्यावस्था में ‘सीता’ का अभिनय भी किया है। वे अपने काव्य में जन्म-गाँव ‘देवधा’ और संस्कृत परीक्षा के लिए ‘रेवती’ गाँव को नहीं भूलते। उन्होंने सन 1971 से ‘आज’ दैनिक के संपादकीय विभाग में दस वर्ष तक कार्य किया। सन 1980 में वे यूको बैंक के मुख्यालय में राजभाषा अधिकारी, 1984 में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी, 1998 में ओएनजीसी के देहरादून स्थित मुख्यालय में मुख्य प्रबंधक (राजभाषा) के पद पर रहे। बुद्धिनाथ जी की ‘शिखरणी’ में छपी रचना का एक अंश देखिए—‘साधना अब भी ज़रा-सी है अधूरी पार्थ/और तप तू और तप/ज्यों जेठ का दिनमान. . .काल लेता है परीक्षा, तू न घबराना’ (पृ. 19)।” मेरा मानना है कि मिश्रजी धैर्य, धारणा तथा ओज-तेज के कवि भी हैं। 

श्रीराम परिहार अच्छे नवगीतकार हैं। उन्होंने बुद्धिनाथ मिश्र पर जो आलेख प्रस्तुत किया है, उसमें उनकी व्यापक पड़ताल की गई है। उनकी गीत-यात्रा में सुंदर काव्य-लेखन के साथ सफल मंचीय काव्य-पाठ की सराहना की गई है। लेकिन परिहारजी के वाक्य कहीं-कहीं हम जैसे गाँव-गँवई के लोग समझ नहीं पाते। कहने का मतलब यह कि भाषा को सहज होना चाहिए। नवगीतकार यश मालवीय की यह दृष्टि बहुत व्यापक है, “बुद्धिनाथ जी को देखकर लगता है जैसे कोई गीत ही देह धरकर सामने आ गया हो (पृ. 27)।” सुशीला गुप्ता बुद्धिनाथ जी की संघर्ष-यात्रा को उन्हीं की पंक्तियों से समादृत करती हैं: 

सड़कों पर शीशे की किरचें हैं
और नंगे पाँव हमें चलना है
सरकस के बाघ की तरह हमको 
लपटों के बीच से निकलना है। (पृ. 28-29) 

काक बुद्धिनाथ जी को “अद्भुत कवि” (पृ. 31) मानते हैं। सुधाकर शर्मा ‘शिखरिणी’ की चर्चा करते हैं, जिसमें बुद्धिनाथ जी उन्हें “गीत-काव्य के मोरपंख” (पृ. 33) दिखाई देते हैं। इसी बीच अनिल अनवर कहते हैं, “बुद्धिनाथ मिश्र जी भारत के समकालीन गीतकारों में अपने चिंतन, सृजन व गायन की विशिष्टताओं के लिए पहचाने जाते हैं” (पृ. 40)। डॉ. ओमप्रकाश सिंह का कहना है कि “मिश्रजी ने प्रेम की अनुभूतियों तथा प्रकृति के रंगों को भी अपने गीतों में कलात्मकता से उभारा है, लेकिन उनका यह प्रकृति-चित्रण समय की विसंगतियों को उभारने तथा भावकों को उकसाने का भी काम करता है: “मौसम जिनकी मुट्ठी में, वे ख़ुश हो लें/हम मौसम के फिकरों की क्या बात करें” (पृ. 43)। 

मधु शुक्ला, महाश्वेता चतुर्वेदी और शिवम सिंह ने भी बुद्धिनाथ जी के रचनाकर्म की हर प्रकार से सराहना की है। शिवम् सिंह (आचार्य शिवम्) मिश्रजी के एक नवगीत की पंक्तियाँ उद्धृत करते हैं:

देखी तेरी दिल्ली मैंने, देखे तेरे लोग 
तरह-तरह के रोगी भोगें, राजयोग के भोग। 

पाँच बरस पहले आया था घुरहू ख़स्ताहाल 
अरबों में खेलता आजकल, ऐसा किया कमाल 
तन बिकता औने-पौने औ’ मन कूड़े के भाव 
जितना बड़ा नामवर, समझो उतना बड़ा दलाल 
यहाँ बिके ईमान-धरम, क्या बेचेंगे हमलोग? (पृ. 51) 

पहले घुरहू ख़स्ताहाल था, अब मालदार हो गया है। इसमें क्या परेशानी है? इसका कवि के मन में क्या भाव है? लगता है मिश्रजी यथास्थितिवाद को बनाये रखना चाहते हैं। पिछड़ों की अनंतकाल की दुर्दशा वे नहीं देख पाते। इसी जगह कवि-धर्म और कवि-कर्म की व्याख्या होनी चाहिए। 

 (5) 

प्रस्तुत कृति के ‘आलेख’ (पृ. 53-88) खण्ड में अवनीश जी ने बुद्धिनाथ मिश्र पर अनेक मान्य लेखकों के आलेखों को स्थान देकर उनके विचारों को जानने की सफल कोशिश की है। डॉ. वेदप्रकाश ‘अमिताभ’ का कहना है कि बुद्धिनाथ मिश्र ने “प्रणयानुभूति और प्रकृतिराग से जुड़े गीत बराबर लिखे हैं, लेकिन समय-समाज का यथार्थ उनकी दृष्टि से कभी ओझल नहीं होता है” (पृ. 53)। डॉ. गिरिजाशंकर त्रिवेदी कहते हैं कि उन्होंने गीत रचे नहीं है, प्रत्युत वे गीतों में स्वयं रच गये हैं। त्रिवेदी जी के इस लेख में कवि बुद्धिनाथ व्यथित लोकतंत्र पर क्या कहते हैं, देखिये:

चुन देना था जिनको दीवारों में
वे चुन लिए गये हैं 
जिसमें डाकू हों निर्वाचित 
साधू की लुट जाय ज़मानत
ऐसे लोकतंत्र को लानत। (पृ. 59) 

इन पंक्तियों में ‘डाकू’ शब्द से इस प्रकार के तमाम नेताओं का ही चित्र उभरता है। किन्तु प्रश्न है कि अधिसंख्य जनता उनके साथ क्यों लगती है, उनकी प्रशंसा क्यों करती है? उन्हें डाकू बनाने वाले कौन हैं? सवाल यहाँ खड़ा होकर अपना उत्तर माँगता है। 

वशिष्ठ अनूप जी आरक्षण पर ख़ासे नाराज़ हैं। वे मिश्र जी के एक गीत के सहारे आरक्षण की बखिया उधेड़ते हैं। वे कहते हैं, “आरक्षण एक ऐसा ज्वलंत मुद्दा है जिस पर बुद्धिजीवी वर्ग, विशेष कर साहित्यकार समुदाय कुछ कहने से बचता रहा है। आरक्षण भी आर्थिक नहीं, जातीय। जातियों के आधार पर आरक्षण और दावा यह कि हम जात-पाँत मिटायेंगे। यह कैसे सम्भव है?” (पृ. 64-65)। बुद्धिनाथ मिश्र के ‘आरक्षण’ गीत की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करते हैं वशिष्ठ अनूप:

वान छाया हुई आरक्षित 
सभी जलस्रोत हो गए आरक्षित है 
है अरक्षित सिर्फ़ कोमल प्राण 
कस्तूरी मृगों का। (पृ. 65) 

यहाँ सवाल तो उठेगा कि जब आरक्षण नहीं था, तब भारत हज़ारों वर्ष ग़ुलाम क्यों रहा? आरक्षण क्यों ज़रूरी है, इस पर भारत की जाति-संरचना और वंचित-समुदाय की सामाजिक और आर्थिक दशा का जानना अत्यंत आवश्यक है। लोकतंत्र के आने से केवल कुछ लोगों का भारत नहीं रहा। जिन्हें कभी पढ़ने का या ज्ञान प्राप्त करने का अवसर नहीं दिया गया, उन पर वशिष्ठ अनूप और मिश्रजी का क्या विचार है? 

नन्दलाल पाठक, मधुकर अष्ठाना, सूर्यप्रसाद शुक्ल, मदन मोहन ‘उपेंद्र’, प्रेमशंकर रघुवंशी व प्रह्लाद अग्रवाल ने बुद्धिनाथ जी के गीतराग की प्रशंसा की है। करुणाशंकर उपाध्याय उनके गीतों को “भारतवर्ष की गतिशील, लोकोन्मुख परंपरा के स्वर-सम्भार” (पृ. 88) बताते हैं। 

 (6) 

‘साक्षात्कार’ (पृ. 89-107) खण्ड में डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र के चार साक्षात्कारों को स्थान दिया गया है। पहला साक्षात्कार—नवगीत नयी कविता की प्रतिक्रिया नहीं, स्वयं नयी कविता है—जय प्रकाश मानस ने बुद्धिनाथ जी से लिया है। इसमें वे एक जगह कहते हैं, “साहित्यकारों का सम्मान इन दिनों जिस तरह से थोक के भाव किया जाता है और जिस प्रकार का एक नया धंधा ‘सम्मान का व्यवसाय’ विकसित हो रहा है, उससे भी मैं बहुत क्षुब्ध हूँ” (पृ. 97)। बुद्धिनाथ जी ने यह बात बहुत सही कही है। इस पर विचार करना साहित्यकारों का धर्म बनता है। मिश्रजी ने यह भी कहा है कि गीत रचना के लिए जहाँ शब्द-साधना ज़रूरी है, वहीं जीवन, समाज की भेदभावविहीन साधना भी ज़रूरी है। एकलव्य से बातचीत करते हुए बुद्धिनाथ जी मंचीय-कवियों पर बहुत तल्ख़ टिप्पणी करते हैं, “इस समय मंचों पर उन्हीं सियारों का बोलबाला है, जो कहीं से भी कवि नहीं है, लेकिन कवियों के हक़ की सारी मलाई हड़प रहे हैं। गीत को ताली नहीं चाहिए, एकांत मन चाहिए। चुटकुलों को तालियाँ चाहिए, क्योंकि इसी एक कसौटी पर कवि की ‘सफलता’ को कसा जाता है। यह स्थिति बदलनी चाहिए” (पृ. 105)। वाल्मीकि विमल और जयकृष्ण राय ‘तुषार’ ने भी बुद्धिनाथ जी के साक्षात्कार लिए हैं, जो अपने आप में महत्त्वपूर्ण सामग्री और उनकी वैचारिक पृष्ठभूमि का स्पष्टीकरण करते हैं। 

(7) 

अवनीश जी ने ‘ब-कलम खुद’ (पृ. 108-139) खण्ड में बुद्धिनाथ मिश्र के पाँच आलेखों: ‘छायावादोत्तर गीतिकाव्य के विकास के पड़ाव और नवगीत’, ‘अक्षरों के शांत नीरव द्वीप पर’, ‘वे ख़्वाब देखते हैं, हम देखते हैं सपना’, ‘शत् शत् नमन हम कब तक करेंगे’ व ‘घरही में हमरा चारू धाम, हम मिथले में रहबै’ को संकलित किया है, जो उन्हें समझने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ‘वे ख़्वाब देखते हैं, हम देखते हैं सपना’ आलेख में बुद्धिनाथ जी ने हिंदी और उर्दू भाषाओं की तुलना की है। यह सही है कि हिंदी उर्दू में कोई फ़र्क़ नहीं है। फ़र्क़ है तो सिर्फ़ लिपि का। भारतीय संस्कृति पर अपने विचार रखते हुए बुद्धिनाथ जी कहते हैं, “संस्कृति का निर्माण शास्त्रों और उनमें निर्दिष्ट आचारों से होता है। भारतीय शास्त्रों को उजाड़ने वाले लोग भारतीय संस्कृति का गुणगान करने या उस पर गौरव करने के हक़दार नहीं हैं” (पृ. 130)। 

‘घरही में हमरा चारू धाम’ लेख में बुद्धिनाथ जी ने जो विचार दिये हैं, वे भारत की आत्मा के अनुकूल हैं। सीता का धरती से जन्म और धरती में समाना, ज़रूर अवैज्ञानिक लगता है। बुद्धिनाथ जी का अपनी मिट्टी से लगाव है, प्रकृति से प्रेम हैं और वे समर्पित प्रेमी भी हैं। उनकी चिंता वाजिब है कि विश्व की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा होकर भी हिंदी आज विश्व भाषा नहीं बनी है, तो सिर्फ़ इसलिए कि यह दीनों और असहायों की भाषा मानी जा रही है और इसका पोषण करने वालों से अधिक इसका शोषण करने वाले हैं। 

(8) 

दिनेश सिंह जी कहते हैं, “जो रचना अपने समय का साक्ष्य बनने की शक्ति नहीं रखती, जिसमें जीवन की बुनियादी सच्चाइयाँ केन्द्रस्थ नहीं होतीं, जिनका विजन स्पष्ट और जनधर्मी नहीं होता, वह कलात्मकता के बावजूद भी अप्रासंगिक रह जाती है।” शायद इसीलिये ‘यात्रा-वृत्तांत’ (पृ. 140-148) खण्ड में बुद्धिनाथ जी के दो यात्रा-वृत्तांत: ‘सीतामढ़ी: एक दिन उर्विजा की जन्मभूमि पर’ तथा ‘एक रात का वह सहयात्री’ शामिल किये गये हैं। बुद्धिनाथ जी कहते हैं, “सीतामढ़ी पीछे छूट गयी थी, मगर वहाँ के साहित्यानुरागी निवासियों की प्रगाढ़ प्रीति पूरी ऊर्जस्विता के साथ हमारे अंतर में व्याप्त थी” (पृ. 144)। दोनों (‘यात्रा-वृत्तांत’) ही पढ़ते हुए दर्शन के लाभ देते हैं। उनके कुछ और यात्रा-वृत्तांत इसमें संकलित किये गए होते, तो और अच्छा होता। 

(9)

प्रस्तुत कृति के ‘समीक्षा’ (पृ. 149-190) खण्ड में संपादक ने बुद्धिनाथ मिश्र के चार नवगीत-संग्रहों की समीक्षाएँ देकर रचनाकार के जीवन और साहित्य को समझने का अच्छा अवसर प्रदान किया है। ‘जाल फेंक रे मछेरे’ बुद्धिनाथ जी का प्रसिद्ध नवगीत-संग्रह है, जिसमें 51 रचनाएँ हैं। ‘जाल फेंक रे मछेरे’ गीत से उन्हें प्रसिद्धि मिली है, यह आश्चर्यचकित करती है। बुद्धिनाथ जी प्रेम, प्रकृति और सौंदर्य के कवि हैं। ‘जाल फेंक रे मछेरे’ गीत उनका बौराया प्रेम गीत है, जिसमें युवा मन की प्रमिल हलचलें सुनाई पड़ती हैं। वैसे ‘मछली का प्रतीक’ सटीक नहीं लगता, क्योंकि किसी भी मछली में बंधन की चाह नहीं होती। जाल में बंध कर तो जीवन लीला ही समाप्त हो जाएगी। जाल फेंकने वाला मछेरा भी उसके साथ छल ही करता है। ख़ैर, अनेक लोगों ने अपनी तरह से अर्थ निकाले हैं।

डॉ. जितेंद्र वत्स, आनन्द कुमार ‘गौरव’ व पारसनाथ ‘गोवर्धन’ ने ‘जाल फेंक रे मछेरे’ पर समीक्षाएँ की है। डॉ. जितेंद्र कहते हैं, “इसमें अधिकांश रचनाएँ सन 1970 से 1980 के बीच लिखी गयी हैं। ध्यातव्य है कि इस काल खण्ड में मिश्रजी की उम्र 21 से 31 वर्ष के बीच की थी। एकदम नवोदित युवा-मानस के गीतकार की रचनाओं में प्रेम की जो लालसा, उत्कंठा, उत्साह, निराशा, पीड़ा अपेक्षित होती है, इस संग्रह के गीतों में वही भाव और संवेदनाएँ अपने प्रखर रूप में विद्यमान हैं" (पृ. 149)। 

बुद्धिनाथ जी की पंक्तियों को उद्धृत करते हुए योगेंद्र वर्मा ‘व्योम’ ने ‘जाड़े में पहाड़’ की चर्चा की है: “मौत का आतंक फैलाती हवा/दे गई दस्तक किवाड़ों पर/वे जिन्हें था प्यार झरनों से/अब नहीं दिखते पहाड़ों पर” (पृ. 163)। ‘जाड़े में पहाड़’ नवगीत-संग्रह की समीक्षा करते हुए डॉ. प्रियंका कहती हैं, “यह गीतकार अपनी शब्द-आहुति दे रहा है इस भरोसे के साथ कि वह दिन भी आएगा जब लोग साहित्यकारों, विचारकों, समाज-सुधारकों की बातों पर अमल करते हुए अपने जीवन-पथ पर सोल्लास आगे बढ़ेंगे” (पृ.166-167)। इसी उम्मीद के साथ वे उनकी कुछ पंक्तियों का उल्लेख करती हैं:

धूप की हल्की छुवन भी/तोड़ देने को बहुत है 
लहरियों का हिमाच्छादित मौन 
सोन की बालू नहीं, यह शुद्ध जल है 
तलहटी पर रोकने वाला इसे है कौन 

हवा मरती नहीं है/लाख चाहे तुम उसे तोड़ो-मरोड़ो 
खुशबुओं के साथ वह बहती रहेगी। (पृ. 167)

डॉ. श्यामसुंदर निगम ने भी ‘जाड़े में पहाड़’ नवगीत-संग्रह की समीक्षा की है।

डॉ. भारतेंदु मिश्र, रामजी तिवारी व मनमोहन मिश्र ने ‘शिखरिणी’ नवगीत-संग्रह की अच्छी समीक्षाएँ की हैं। डॉ. भारतेन्दु मिश्र रचनाकार के ‘उदारीकरण’ गीत की पंक्तियाँ उद्धृत करते हैं: "काट लेना पेड़ बरगद का खुशी से/नाश या निर्माण कर, अधिकार तेरा/तू चला बेशक कुल्हाड़ी, किन्तु पहले/पाँखियों को ढूँढने तो दे बसेरा” (पृ. 171)। इसी संदर्भ को वाक़िफ़ रायबरेलवी कुछ इस प्रकार से कहते हैं: “बहार लूट लें, फूलों का कत्लेआम करें/वो जैसा चाहें, गुलिस्तां का इंतजाम करें।” मेरा मानना है कि जब शक्ति और सत्ता मूर्खों के हाथों में पहुँच जाती है, तो वह देश या जाति नष्ट हो जाती है।

रमाकांत ने बुद्धिनाथ मिश्र के चौथे नवगीत संग्रह ‘ऋतुराज एक पल का’ की समीक्षा प्रस्तुत की है। वे कहते हैं कि इस संग्रह की रचनाएँ “समय की जड़ता, निरंकुशता और भयावहता के बीच सृजनात्मक संवेदन की प्रस्तुति करती हैं” (पृ. 183)। वे आगे लिखते है, “जीवन को समझदारी के साथ कैसे जिया जाय कि पर्यावरण और सांस्कृतिक परिवेश बचा रहे, सामाजिक विसंगतियाँ दूर हों तथा प्राकृतिक रंगों-चित्रों की अनदेखी न हो”। ‘ऋतुराज एक पल का’ के गीतों में मिश्रजी यही तलाशते नज़र आते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि “हम कितना भी थके-हारे हों, एक पल का ही ऋतुराज सही, वह हमें जीवंत कर देगा— क्या हुआ जो धूप में तपता रहा सदियों/ग्रीष्म पर भारी पड़ा ऋतुराज इक पल का” (पृ. 183)। डॉ. लवलेश दत्त ने भी सामाजिक विसंगतियों पर चर्चा की है। उन्होंने इस संग्रह के गीतों को “दैनिक जीवन की संवेदनाओं का मधुर गायन” (पृ. 188) कहा है। डॉ. लवलेश ने बुद्धिनाथ जी की कई पंक्तियों को सराहते हुए उद्धृत किया है, देखिये:

हर तरफ फहरा रही/तम की उलट बाँसी 
पास काबा आ रहा/धुँधला रही कासी।  
X    X    X
मंत्रणा समभाव की/देते मुझे वे लोग 
दीखता जिनको नहीं,/अल्लाह में ईश्वर। 
X    X    X
हम चुकाते रह गये/गंगोजमन का मोल 
रंग जमुना का चढ़ाया/शुभ्र गंगा पर। (पृ. 190)

(10)

उपर्लिखित पंक्तियों को पढ़कर पाठकों को लग सकता है कि रचनाकार का ‘हिन्दू संस्कृति’ से गहरा लगाव है और वह तमाम विसंगतियों के मूल में मुस्लिम आतंकवाद एवं फ़िरक़ापरस्ती को इस संस्कृति पर हमला मानता है। किन्तु जब पाठक बुद्धिनाथ जी के सम्पूर्ण नवगीत साहित्य को गहराई से पढ़ेंगे, तब उन्हें उनमें ‘भारतीय संस्कृति’ के केंद्र में मनुष्यता पोषित और पल्लवित होती दिखाई पड़ेगी।

रामनारायण रमण
सम्पर्क : 121, शंकर नगर, मुराई का बाग (डलमऊ),
रायबरेली - 229207 (उ.प्र.), मो. 09839301516

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