चुटकुले का समाजशास्त्र
आलेख | साहित्यिक आलेख डॉ. कुलिन कुमार जोशी6 Feb 2017
हँसना मनुष्य का आदिम स्वभाव है और आदिम मनुष्य खुलकर हँसता रहा होगा, ऐसा प्रतीत होता है क्योंकि हमारी आदिम जनजातियाँ जो आज हमें मिलती हैं, उन्हें भी हम उन्मुक्त अट्टहास करते हुए पाते हैं। यह बात और है कि आज हम खुलकर हँसने को अधिक अच्छा नहीं मानते, ख़ासकर आभिजात्य समाज में जहाँ पर “बफ़े सिस्टम” में भोजन करते हुए खाना चबाने की “चबर-चबर” आवाज़ को संस्कार-विहीनता माना जाता है और चाय की चुस्कियाँ लेना भी तथाकथित आभिजात्य समाज में अशिष्ट कर्म है। उसी समाज में हँसी भी क़ैद हो जाती है और वहाँ खुलकर हँसना कुसंस्कार माना जाता है। आज भी हमारे देश में कुछ भाई लोग बचे हैं जो किसी की परवाह नहीं करते और खुलकर खिलखिलाकर हँसते हैं और चबर-चबर खाते हैं। अपनी मौलिकता बचाये रखने के लिये मैं उनकी तारीफ़ करता हूँ। अन्यथा आज हमारा आचार-विचार-व्यवहार-संस्कार अर्थात् सभी कुछ नक़ली होता जा रहा है।
वस्तुतः हँसना मनुष्य का स्वभाव है। यदि इसे स्वभाव न कहकर आदिम संस्कार कहा जाय तो संभवतः ज़्यादा उचित होगा। हँसने का सम्बन्ध मनुष्य के ख़ुश होने से है। किसी दुखद घटना या दुर्घटना पर हम किसी को हँसते हुए नहीं देखते। प्रायः यह सुनने में आता है कि आज के समाज में हँसी कम होते जा रही है। निश्चित ही है कि आज के मनुष्य के कम हँसने का सीधा-सीधा कारण उसकी ख़ुशियों का सिमटते जाना है। आज अधिकांश भारतवासी तनाव, अभाव, तकलीफ़ों और हर तरह की संसाधनहीनता का जीवन जी रहे हैं अर्थात् वह ख़ुश नहीं हैं और वह ख़ुश नहीं हैं इसलिये वह या तो हँस ही नहीं पा रहे हैं और यदि हँस भी रहे हैं तो यदा-कदा। प्रश्न यह है कि अधिसंख्यक जनता की ख़ुशी किसने छीनी है। निश्चय ही यह ख़ुशी जनता को शासित करने वालों ने उसकी झोली से चुरा ली है। भारत अनवरत शोषण का शिकार रहा है। विदेशियों ने देश को जितना लूटना था, लूटा। आज़ादी के बाद देश के कर्णधारों ने बची-खुची कसर भी पूरी कर दी। नित नवीन भ्रष्टाचार की ख़बरों से हम शर्मिंदा हैं। शर्मिंदा हैं इस बात से कि भ्रष्ट और बेईमान लोग हमारे शासक हैं। जिन पर विकास की ज़िम्मेदारी थी वे देश के विनाश का कारण बने हुए हैं। आख़िरी बार आम भारतीय फिर ख़ुश हुआ था जब उसे पता चला कि उसके खाते (Account) में 15 लाख रुपये आने वाले हैं। आम जन मानस में इतनी ख़ुशी और अमीर बनने की इतनी बेक़रारी पहले कभी नहीं देखी गयी। संभवतः उस दिन पूरा भारत आख़िरी बार एक साथ हँसा था। जब उन्हें बताया गया कि हर व्यक्ति के खाते में 15 लाख रुपये आने वाले हैं। कई भाई लोगों ने तो दो-दो खाते खुलवा दिये और आज यह वाक़या एक राष्ट्रीय चुटकुला बन गया है। बात राष्ट्रीय चुटकुलों की हो रही है। ठीक इसी तरह हमने India Shinning और Feel Good पर भी लोगों को हँसते हुए देखा है। सबको लगा कि अचानक भारत चमकने लगेगा और सभी देशवासी अच्छा महसूस करने लगेंगे। बाद में यह भी एक चुटकुला ही साबित हुआ और भारत को चमकाने की सोच रखने वाले स्वयं हाशिये पर धकेल दिये गये। एक और उदाहरण भी लाजवाब है, एक बार देश के एक अग्रणी उद्योगपति ने भरोसा दिलाया कि वे सभी भारतवासियों को जिनके पास एक लाख रुपये हैं, उन्हें दो पहिया वाहन की जगह चार पहियों पर चलने वाला वाहन अर्थात् कार उपलब्ध करा देंगे, सभी माता-पिताओं ने भी जोश में आकर अपने बच्चों से कह दिया कि अगर वे अपनी परीक्षाओं में अच्छे नंबर ले आयेंगे तो वे उन्हें दो पहिया वाहन की जगह इस बार चार पहिये का वाहन दिला देंगे। समस्या तब खड़ी हुई जब उस साल देश के अधिकांश बच्चे प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए लेकिन किसी भी माँ-बाप ने “नैनो” ख़रीदने की हिम्मत नहीं की, इस महान शख़्सियत ने फिर एक बार देश की जनता का भावनात्मक शोषण किया और “नैनो” भी महज़ एक चुटकुला बनकर रह गयी।
इसी तरह एक बार पूरे देश की जनता को लगा था कि देश से भ्रष्टाचार पूरी तरह से समाप्त हो जायेगा। एक बुज़ुर्ग पर सारे देश ने अगाध श्रद्धा व्यक्त की और सारे युवा इस उम्मीद से रामलीला मैदान पर उतर आये कि उनके चेहरे पर मुस्कान लौटेगी लेकिन हाथों में तिरंगा लहराने वाले जब दलों में बदले तो कुछ पर तो घटाटोप अँधेरा छा गया और कुछ की विश्वसनीयता अभी परखी जा रही है, आज तक भी “लोकपाल” जोकपाल ही बना हुआ है। भ्रष्टाचार जैसे गंभीर विषय का चुटकुला बन जाना दुखद है। चुटकुला हमें हल्कापन देता है। और जिन विषयों का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है, वे सभी प्रथम दृष्टया गंभीर लगते हैं। जीवन के लिये हँसी आवश्यक है लेकिन अगर जीवन ही हास्यास्पद बन जाय तो यह एक चिंतनीय स्थिति का द्योतक कहा जायेगा। लेकिन हमारे देश के आक़ाओं और साधन-सम्पन्नों ने जनता को बार-बार छला है और समग्र देशवासी बार-बार स्वयं को चुटकुला समझ कर स्वयं पर हँसे भी हैं।
ताज़ा उदाहरण एक ऐसे “स्वामी” का है जिन्होंने पहले योग के माध्यम से देश को स्वस्थ बनाने का ज़िम्मा सँभाला, देश-विदेश में निःशुल्क “योग शिविरों” का आयोजन किया और अपना कैडर स्थापित करने के बाद धीरे से योग को किनारे रखकर “शुद्ध” व्यापार करने लगे। वे सभी मातायें-बहनें आज स्वयं को ठगा हुआ महसूस करती होगी जिन्होंने “योग” को ही तमाम समस्याओं का हल समझ लिया था। आश्चर्यचकित होंगी और सोच भी रही होंगी कि अतीत में “योग” को प्राथमिकता देने वाले “स्वामी” आज इतने बड़े व्यापारी कैसे बन गये कि अख़बारों में भी उनके बड़े-बड़े विज्ञापन आने लगे हैं, मंचों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विज्ञापनों व उत्पादों की गुणवत्ता पर प्रश्नचिह्न लगाने वाले स्वामी जी द्वारा तैयार उत्पादों की गुणवत्ता पर वे कितना विश्वास करें। अनेकों युवा तो अपनी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी छोड़कर “स्वामीजी” के परम भक्त बन गये थे। कम समय में अधिक धन कमाने के लालच से AMWAY, RCM, RMP, FLP जैसे अनेकानेक Multi Label Marketing Institutions व चिटफंड कंपनियों से जुड़ने तथा न घर का न घाट का रह जाने व समाज के लिये चुटकुला बन जाने वाले अनेकों युवाओं के उदाहरणों से हम सभी बख़ूबी परिचित हैं। इसी प्रकार तमाम बाबाओं की “भक्ति” न्यायालय में विचाराधीन है और दिल्ली में समान-असमान नंबर की गाड़ियों का संचालन भी अभी संदेह के घेरे में है, इसलिये उस पर कोई टिप्पणी न करना ही उपयुक्त होगा।
हँसना मनुष्य का आदिम स्वभाव चाहे रहा हो लेकिन वास्तविकता यह है कि संसाधनों की अधिकाधिक चाह और उपभोक्तावादी जीवन शैली के अभ्यस्त होने जाने की प्रक्रिया में हम हँसना भूलते जा रहे हैं और अब हँसने की महत्ता को रेखांकित करते Laughter Club प्रत्येक छोटे–बड़े शहर में दिखलायी देने लगे हैं जहाँ पर एकत्रित होकर लोक देर तक हँसने का उपक्रम करते हैं। हँसना स्वाभाविक होना चाहिये था लेकिन जीवन की कृत्रिमता की तरह ही कृत्रिम हँसी हँसना संभवतः आज की आवश्यकता बन गयी है।
हँसी का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि हँसी, क्रोध की विपरीत स्थिति है। हम हँसते हुए क्रोधित नहीं हो सकते हैं बल्कि हम हँसकर तनाव को कम कर सकते हैं। हँसने से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। हँसी अनावश्यक सोच-विचार के कारण उत्पन्न चिंता को समूल नष्ट कर देती है। आज की अधिकांश बीमारियों का कारण तनाव और क्रोध है। तनाव ही मधुमेह, ब्लडप्रेशर और अनेकानेक पेट संबंधी रोगों का कारण है।
चुटकुला सदियों से लोक में किसी न किसी रूप में प्रचलन में रहा है। यह बात अलग है कि लोक की ही विधाओं के शास्त्रीय नामकरण में चुटकुला को भी साहित्य की एक विधा के रूप में अभिहित किया जाने लगा। यद्यपि केवल हास्य और पूर्णतः शाब्दिक हास्य होने के कारण इसे साहित्यिक विधाओं की सूची में निम्नस्तरीय माना जाता है तथापि इसका महत्त्व बना हुआ है और आज चुटकुला जीवन की एक आवश्यकता बन गया है। हमारे देश में तो आज भी आम आदमी का जीवन महज़ एक चुटकुला बना हुआ है लेकिन फिर भी अधिकांश चुटकुले सरदारों पर ही बनाये जाते हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है मानो चुटकुले इनकी ही विरासत हों। हमें सिख समाज के प्रति कृतज्ञ होना चाहिये कि बहुधा हँसी का पात्र बनाये जाने के बावजूद भी वे न केवल प्रसन्न नज़र आते हैं, कोई प्रतिक्रिया भी नहीं देते हैं और स्वयं चुटकुलों का मज़ा भी लेते हैं।
लोक में हास्य उत्पन्न करने वाले कथानक के रूप में लघु कथानक रूपी “चुटकुला” हमेशा से ही रहा है जिसे किसी एक या अधिक व्यक्ति द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। इसे हम “नाचा-गम्मत” में “जोकड़” के रूप में, सर्कस में “बौने” के रूप में, रामलीला में “हास्य कलाकार” के रूप में, देश की तमाम लोकगाथाओं में अलग-अलग रूपों में व संस्कृत नाटकों के विदूषक के रूप में देख सकते हैं। आज के जीवन की विडंबना ही है कि जीवन अत्यधिक तनावग्रस्त है और हम साहित्य की प्रत्येक विधा और कलाओं से भी यह अपेक्षा करते हैं कि ये सभी हमारा मनोरंजन करें। उदाहरण के लिये टीवी पर “कामेडी सर्कस,” “Comedy Night with Kapil” को त्वरित चुटकुलों की बरसात के रूप में देखा जा सकता है। इसी तरह हास्य-कवि-सम्मेलनों की माँग टीवी पर और जीवन में भी दिखलायी देती है। इस समय का एक ही महान कवि दिखलायी देता है जो गंभीर कवितायें करता है तथा जिसकी गंभीर कविताओं को संजीदगी से सुनने वाले देशभर में व विदेशों में मौजूद हैं और वह कवि है डॉ. कुमार विश्वास। प्रसंगवश इस समय के एक प्रख्यात लेखक के रूप में चेतन भगत का नाम लेना आवश्यक प्रतीत हो रहा है जिसकी मात्र 5-6 रचनाओं ने उसे वैश्विक लेखक बना दिया और युवाओं का चहेता लेखक भी। संयोग से उसका कोई भी उपन्यास विशुद्ध हास्य या चुटकुला नहीं है फिर भी उसके अधिकांश उपन्यासों पर फ़िल्में बन चुकी हैं और सफल भी हुई हैं। यह बात और है कि हमारे देश के तमाम स्वनामधन्य साहित्यकार चेतन भगत को साहित्यकार तक नहीं मानते हैं।
यहाँ पर यह बात भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि चुटकुला चाहे हमेशा से प्रचलन में क्यों न बना रहा हो लेकिन उसका स्वरूप आज की तरह व्यावसायिक कभी नहीं रहा। इधर के वर्षों में चुटकुला अधिकाधिक व्यावसायिक स्वरूप ग्रहण करता जा रहा है। आज संवेदनशीलता और चेतना जगाने वाली कवितायें न तो मंचों से पढ़ी जाती हैं, न ही पसंद की जाती हैं। आज सबसे बड़े चुटकुलेबाज़ देश के सबसे बड़े कवि हैं। जो मंचों से चुटकुले अधिक और कवितायें कम पढ़ते हैं। ये सब कवि इतने मँझे हुए कलाकार हैं कि दृष्टांतों को भी चुटकुले की तरह प्रस्तुत करते हैं। शृंखला बहुत लम्बी है। ऐसे कवियों में लखनऊ के प्रख्यात वयोवृद्ध कवि “सनकी” से लेकर रायपुर के सुरेन्द्र दुबे तक का नाम लिया जा सकता है।
वस्तुतः हँसी एक प्रोडक्ट है और किसी भी प्रोडक्ट के लिये हमारे देश में बाज़ार पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। चुटकुले बिकते हैं और व्यापक दर्शक वर्ग और श्रोता इन्हें ख़रीदते हैं। चुटकुले बाज़ी ने व्यापक दर्शक वर्ग खड़ा किया है। हमारे देश में व्याप्त हर तरह के अभाव और तनाव ने ही हास्य फ़िल्मों, हास्य सीरियलों और हास्य कवि सम्मेलनों को बाज़ार प्रदान किया है और पूँजीपतियों और संसाधनों के एकाधिकारियों ने अधिकांश जनता की हँसी को भी ख़रीदने का उपक्रम किया है।
चुटकुले विशुद्ध हास्य और अधिकांशतया निम्नकोटि का हास्य उत्पन्न करते हैं। सच यह भी है कि अधिकतम चुटकुले किसी न किसी प्रकार की दुर्भावना का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रचार करते हैं तथा चुटकुलों के विषय जाति, धर्म, भाषा, संप्रदाय, रीति-रिवाज़, लिंग, किसी समाज विशेष की कोई प्रवृत्ति, सांस्कृतिक वैशिष्ट्य, पूजा-पद्यति, परम्परायें, मान्यतायें, धारणायें आदि होते हैं तथा चुटकुले किसी एक के बरक्स दूसरे की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करते हैं व ज़्यादातर चुटकुले अश्लील होते हैं। इसीलिये प्रायः सार्वजनिक रूप से नहीं सुनाये जाते हैं। मित्र-मंडलियों, दोस्तों, महफ़िलों में व्यक्ति-समूहों में जब अचानक हँसी का ठहाका लगता है तो पता चलता है कि किसी ने कोई चुटकुला सुनाया है और इसी कारण सब हँस रहे हैं। यह तो आज के हास्य कवि सम्मेलनों के कवियों के बस की ही बात है कि वे भरी सभा में भी अर्द्ध-अश्लील व अश्लील चुटकुले सुनाने तक की धृष्टता कर लेते हैं। रात के गहराने के साथ चुटकुलों व चुटकुलों रूपी कविताओं पर से आवरण उतरते जाते हैं और किसी विशेष प्रकार की अभिव्यक्ति सुनने की अपेक्षा लिये श्रोता रात भर अधजगा करते हैं। आज के कवि सम्मेलनों का मंच सँभालना किसी सामान्य उद्घोषक के बस की बात नहीं है। अगर आप बेहतरीन कवि हैं और जनसरोकारों की कवितायें लिखते हैं तो आपको आज के कवि-सम्मेलनों में आमंत्रित किया जायेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। आकाशवाणी के श्रेष्ठ उद्घोषक भी कवि-सम्मेलनों के श्रेष्ठ मंच संचालक सिद्ध होंगे, इसकी सँभावना भी कम है। क्योंकि अच्छी आवाज़, अच्छे संप्रेषण से अधिक आवश्यकता बेहतरीन चुटकुलेबाज़ी की है। इसीलिये खैरागढ़ जैसी छोटी सी तहसील में आयोजित होने वाले कवि-सम्मेलनों में मंच संचालन हेतु श्रेष्ठ चुटकुलेबाज़ कवि को मुंबई से बुलाया जाता है। जबकि पुन्नालाल बख़्शी की इस कर्मभूमि में डॉ. जीवन यदु और डॉ. गोरेलाल चंदेल जैसे श्रेष्ठ कवि-साहित्यकार उपस्थित हैं। ये दोनों ही कवि राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान रखते हैं लेकिन दुखद है कि इन विद्वत कवि-द्वय को खैरागढ़ के कवि सम्मेलनों में आमंत्रित नहीं किया जाता है और खैरागढ़ की जनता इनकी बेहतरीन कवितायें सुनने से वंचित रह जाती है।
चुटकुले ज़रूरी हैं क्योंकि हँसना ज़रूरी है लेकिन जीवन फूलों की सेज नहीं है, आज भी आम आदमी का जीवन काँटों भरी राह बना हुआ है। साहित्य और प्रत्येक कला-माध्यम का अंतिम लक्ष्य चेतना का विकास है लेकिन देखा यह गया है कि चुटकुले पथभ्रमित करते हैं और चेतना को कुंद करते हैं। इस रूप में जीवन में चुटकुलों का महत्त्वपूर्ण स्थान पा जाना चिंता का सबब है। कोई भी क्षणिक हास्य जीवन की कठिनाइयों व समस्याओं से मुक्ति नहीं दिला सकता है। जीवन हँसी-ख़ुशी, प्रसन्नचित्त व्यतीत हो, इसके लिये समय रहते जीवन के अभावों को दूर किया जाना अति आवश्यक है। घनघोर अभावों में हँसी के स्थायी भाव को ढूँढ़ना दूब में सूई को खोजने जैसा है। काश! हमारे देशवासियों का जीवन इतना सुखमय हो जाय कि ग़रीबी उन्मूलन, सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान, बेटी बचाओ अभियान जैसे अनेकानेक अभियानों की आवश्यकता ही न पड़े। काश! रोज़गार गारंटी, प्रधानमंत्री रोज़गार योजना जैसी योजनायें अप्रासंगिक हो जायें। रोटी, कपड़ा और मकान प्रत्येक देशवासी का अधिकार है, वह उसे हर हाल में हासिल होना चाहिये। स्वार्थविहीन, भ्रष्टाचारमुक्त और शब्द के सही अर्थ में जनहितकारी सरकारें ही आम भारतीय का जीवन सुखमय बना सकती हैं और दुखद ही है कि आज़ादी मिलने के बाद के पिछले 68 वर्षों में यह लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सका है और आज अमीरी-गरीबी के बीच की खाई अभी तक के सबसे विकराल स्वरूप में मौजूद है, आज अधिकांश भारतीय भूखा, नंगा और बदहाल जीवन जी रहा है तथा उचित भंडारण न हो पाने के कारण अनाज सड़ रहा है, भ्रष्टाचार चरम पर है। ऐसे कठिन हालातों में भी हमें हर हाल में आशावादी बने रहना है। ताकि “अच्छा समय” आने पर हम फिर से सामूहिक रूप से हँस सकें और जीवन में चुटकुलों की प्रासंगिकता बनी रहे।
डॉ. कुलीन कुमार जोशी
अतिथि व्याख्याता,
डिपार्टमेंट ऑफ थियेटर
इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय,
खैरागढ़ (छ.ग.)
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