चूक तो हुई थी
कथा साहित्य | कहानी प्रगति गुप्ता1 Dec 2025 (अंक: 289, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
“डॉ. वर्मा! माँ की तबीयत ज़्यादा बिगड़ गई है। प्लीज़! ऊपर चलकर देख लीजिए। उन्हें साँस लेने में भयंकर तकलीफ़ हो रही है . . . बार-बार आपको ही याद कर रही हैं।”
डॉ. वर्मा की क्लीनिक के ऊपर वाले फ़्लैट में मिसेस कपूर रहती थी। ज्यों ही मिसेस कपूर की बेटी कल्पना तेज़ी से दौड़ते हुए उनके चैम्बर में दाख़िल हुई डॉक्टर वर्मा ने कल्पना से कहा, “दो दिन पहले ही आंटी को मैंने पूरी तरह इन्वेस्टिगैट किया था। उन्हें व आपको सलाह भी दी थी, एक बार किसी अच्छे कार्डियक सेंटर पर जाकर उनके सारे इन्वेस्टगैशन करवाइए। इन फ़ैक्ट पिछले छह महीनों से मैं यही बात बार-बार दोहरा रहा हूँ। फिर क्या हुआ? आप दोनों बहनें भी तो उस दिन वहीं थी न।”
उम्र में मिसेस कपूर काफ़ी बड़ी थी। डॉ. वर्मा उन्हें आंटी कहा करते थे।
“आप ठीक कह रहे हैं डॉ. वर्मा। हमारे सुसराल में ज़रूरी काम होने से माँ को अस्पताल लेकर नहीं जा पाए। आपको तो पता ही है . . . माँ को अस्पताल ले जाना इतना आसान भी नहीं। वह अपने बिस्तर से उठकर कहीं जाना नहीं चाहती।”
जब भी कल्पना को माँ की वजह से डॉ. वर्मा के पास आना पड़ता . . . वह यही सोचती, कितनी पंचायती है इनको। दिल्ली जैसे महानगर में सब इतना आसान है क्या? अप्रत्यक्ष रूप से ख़ुद पर आरोप लगने से कल्पना तिलमिला गई थी। उसके चेहरे के भावों को पढ़कर डॉ. वर्मा उलझन भरे स्वरों से बोले, “आसान नहीं था? दो बेटियों के होते हुए? या फिर . . . आप चलो . . . आता हूँ देखने।” अपनी बात बोलकर डॉ. वर्मा ने टेक्नीशियन रवि को घंटी बजाकर बुलाया। रवि क्लिनिक के सभी कमरे बंद करके लॉक लगा रहा था।
रात के साढ़े आठ बज चुके थे। कुछ देर पहले ही अपने सारे मरीज़ देखकर डॉ. वर्मा फ़ारिग़ हुए थे। उन्होंने जाँच करने वाले सभी इंस्ट्रुमेंट्स अपनी ड्रॉर में डालकर लॉक किया ही था कि मिसेस कपूर की बेटी दौड़ते हुए पहुँच गई थी।
“रवि! आपको कुछ देर और . . . मेरे साथ रुकना होगा। अभी कुछ भी लॉक मत करना। क्या पता किस दवाई या इंस्ट्रूमेंट की ज़रूरत पड़ जाए।” डॉ. वर्मा ने रवि से कहा।
रवि पिछले बारह सालों से डॉ. वर्मा के यहाँ टेक्नीशियन का काम कर रहा था। उसका घर गाँव में होने से डॉ. वर्मा ने अपने फ़्लैट का साइड रूम सभी सुविधाओं के साथ उसे दे रखा था। डॉ. वर्मा ही उसका परिवार थे। रवि मिसेस कपूर और उनकी बेटियों की फ़ितरतों से बहुत अच्छे से वाक़िफ़ था। वह न सिर्फ़ अपने दुख-दर्द, बल्कि मिसेस वर्मा जैसे अन्य मरीज़ों की बातों को भी डॉ. वर्मा से साझा करता।
डॉ. वर्मा अपना स्टेथोस्कोप और बी.पी. इंस्ट्रूमेंट उठाकर धीरे-धीरे मिसेज कपूर के घर की सीढ़ियों पर चढ़ने लगे। रवि भी क्लिनिक की बाहर से साँकल लगाकर उनके पीछे-पीछे ऊपर मदद करने पहुँच गया।
डॉ. वर्मा की उम्र बहुत ज़्यादा नहीं थी मगर एक दुर्घटना की वजह से उन्हें कुछ महीनों से सीढ़ियाँ चढ़ने-उतरने में काफ़ी तकलीफ़ होने लगी थी। वह मिसेस कपूर से कई बार बोल चुके थे—
“आंटी! आपकी बढ़ती बीमारियों से जुड़ी जाँचें करने की, सभी सुविधाएँ मेरे पास नहीं हैं। आपको किसी बड़े अस्पताल में पूरा चेक-अप करवाकर अपना इलाज लेना चाहिए।”
जब डॉ. वर्मा की सलाह सुनकर भी मिसेस कपूर के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती। तब उन्हें सलाह देना भी बेकार लगता। पाँच-छह साल पहले तक तो मिसेस कपूर बीमारी-हारी होने पर ख़ुद नीचे उतर कर दिखा जाती थीं। पर ज्यों-ज्यों उन्हें ज़्यादा बीमारियों ने घेरा, उनका नीचे उतरना बंद हो गया था। पिछले छह महीने से वह अधिकतर बिस्तर पर ही लेटी रहतीं; सिर्फ़ ज़रूरी कामों के लिए उठती थीं।
मिसेस कपूर की ज़िद थी, “कहीं और नहीं दिखाऊँगी क्यों कि बड़े अस्पतालों का ख़र्च काफ़ी रहता है।” . . . सच तो यही था कि वह डॉ. वर्मा को फ़्री में दिखाती थी। कोई दूसरा डॉक्टर ऐसा क्यों करता?
डॉ. वर्मा पिछले बाईस सालों से महानगर दिल्ली की एक लोकैलिटी प्रीतमपुरा में जनरल प्रैक्टिस कर रहे थे। वह मिसेस कपूर के काफ़ी सालों से फ़ैमिली डॉक्टर थे। मिसेस कपूर भी इसी लोकैलिटी में पिछले तीस सालों से रह रही थी। उनके पति मि. कपूर सरकारी नौकरी में थे। कुछ सालों पहले ही उनकी मृत्यु हुई थी। पढ़ी-लिखी बेटियों का निठल्ले लड़कों से शादी करना, माँ-बाप के दुःख का कारण था।
मि. कपूर को समय-समय पर बेटियों की रुपयों से भी मदद करनी पड़ती थी। किसी एक लड़की की ज़रूरत पर मदद करते, दूसरी लड़की उतना ही रुपया अपने बैंक अकाउंट में ट्रांसफ़र करवा लेती थी। कल्पना और अल्पना भी दिए-लिए रुपयों का पूरा हिसाब-किताब रखतीं। वह जब तक ज़िन्दा रहे; चुपचाप करते रहे। उनके ऐसा करने पर भी मिसेस कपूर बहुत कलह करती थी। माँ के कलह करने से बेटियाँ नाख़ुश थीं। दोनों इस कलह में माँ-बाप के रिश्ते को भी भूल जातीं। मि. कपूर जब भी डॉ. वर्मा के पास आकर बैठते . . . उनसे अपने दर्द साझा करते।
“बेटा! तुम्हें लगता होगा बाप होकर कैसी बातें बोलता हूँ? मगर मैं नहीं चाहता . . . मेरी बेटियाँ घर आएँ। दरअसल मेरे माँ-बाऊजी बहुत शांत प्रवृत्ति के थे। हमारे घर में रिश्ते निभाना प्राथमिकता थी और तुम्हारी आंटी के पीहर में रिश्तों से ज़्यादा रुपयों की अहमियत थी। तभी उसे रुपया दाँतों से पकड़ने की आदत है। बेटियों ने भी यही सब सीख लिया है। जब रुपयों के लिए ऐसी ‘काएं-कलेस’ अपने घर में होते हुए देखता हूँ, तो जी बहुत दुखता है। शुरू-शुरू में सब सुधारने की बहुत कोशिश की . . . पर एक जने के सोचने से सुधार नहीं होता। मुझे इन तीनों के व्यवहार से बहुत घबराहट होने लगी है। कहीं किसी रोज़ मुझे ही . . .”
अपनी बात बोलकर अंकल शांत हो जाते मगर उनकी पीड़ा आँखों में साक्षात् तैर जाती। फ़ैमिली डॉक्टर होने की वजह से डॉ. वर्मा को कपूर फ़ैमिली की शारीरिक हिस्ट्री के अलावा पारिवारिक हिस्ट्री भी पूरी पता थी। जिसको अक्सर कपूर फ़ैमिली बग़ैर पूछे अपनी बीमारी के साथ-साथ डॉ. वर्मा से साझा करती रही थी।
एक ही बिल्डिंग में डॉ. वर्मा का क्लिनिक और मिसेस कपूर का घर होने के कारण, इमर्जेन्सी न होने पर भी वक़्त-बेवक़्त उन्हें बुलाया लिया जाता था। डॉ. वर्मा को अच्छे से पता था कि बहुधा नेकी कर दरिया में डाल इस व्यवसाय का स्वतः ही हिस्सा बन जाता है।
मिसेस कपूर के फ़्लैट में डॉ. वर्मा ने ज्यों ही प्रवेश किया . . . उनकी छोटी बेटी अल्पना मिसेज कपूर के बेडरूम तक उन्हें लेकर गई। डॉ. वर्मा ने पल्स और बी.पी. चेक किया। जो काफ़ी कम था। डॉ. वर्मा ने कुछ लाइफ़ सेविंग दवाइयाँ देकर बेटियों से कहा, “आप दोनों जल्द से जल्द इन्हें किसी कार्डियक अस्पताल ले जाइए। प्रॉपर एड मिलने पर ही सुधार आ सकता है।” अपनी बात बोलकर डॉ. वर्मा वापस लौटने के लिए उठ खड़े हुए।
पिचहत्तर वर्षीया मिसेस कपूर अधिक काम करने में सक्षम नहीं थी। एक नौकरानी उनका व घर का ख़्याल रखने के लिए बेटियों ने रख दी थी। गत सात-आठ दिनों से उनकी तबियत ऊपर-नीचे होने से बेटियाँ भी आ गई थीं। बेटियों ने आने के बाद शायद नौकरानी को फ़ुल-टाइम से पार्ट-टाइम कर दिया था। तभी वह घर में दिखाई नहीं दी। डॉ. वर्मा को घर भी कुछ अस्त-व्यस्त नज़र आया।
डॉ. वर्मा मिसेस कपूर को हिदायतें देने के बाद जब सीढ़ियों से नीचे उतर रहे थे, उनके दिमाग़ में महीना दो महीना पहले की बातें घूमने लगी, जिनको वह नज़र-अंदाज़ करते आए थे। उस रोज़ मिसेज कपूर ने अपनी नौकरानी को भेजकर उन्हें बुलाया था।
डॉ. वर्मा के पहुँचने पर मिसेस कपूर ने कहा, “बेटा! मुझे कई दिनों से काफ़ी खांसी-जुखाम और बुख़ार है। कुछ बढ़िया दवाइयाँ लिख दे। हालाँकि तू चाहता है, मैं बड़े अस्पताल में दिखाऊँ पर वहाँ मेरे साथ कौन जाएगा? कौन रहेगा? . . . सब मुश्किल दिखता है।”
हमेशा की तरह डॉ. वर्मा ने उनकी बातों को सुनकर चुपचाप दवाइयाँ लिख दीं और अपनी बात पुनः दोहरा भी दी। डॉ. वर्मा को अच्छे से पता था कि जब रुपया बीच में आकर खड़ा हो जाए, तो बिगड़े हुए रिश्तों के समीकरणों को सुधारना आसान नहीं होता। रिश्ते निभाने में की गई बेईमानियाँ और मनमानियाँ, ख़त्म होती उम्र में सिर्फ़ परिणाम दिखाती हैं।
मिसेस कपूर का सालों साल का रिकॉर्ड था, उन्होंने कभी पूरी फ़ीस नहीं दी। जबकि उनके पास रुपयों की कमी नहीं थी। मि. कपूर जाने से पहले काफ़ी रुपया छोड़ कर गए थे। डॉ. वर्मा की फ़ीस दो सौ रुपये है, मिसेज कपूर को पता था। वह उन्हें या तो पचास रुपये पकड़ा देतीं या फिर फ़ीस नहीं देतीं। जब कोई ख़ून जाँच या अन्य जाँच होती, उसका रुपया भी आधे से भी कम कर देती। डॉ. वर्मा अपने लिए कभी भी कुछ नहीं बोलते थे मगर जब वह टेक्नीशियन रवि के रुपये देने में भी ना-नुकुर करती थी, तब वह कह देते—
“आंटी! ग़रीब को सताना ठीक नहीं। रवि आपके बुलाने पर रात-बेरात भी इतने प्यार से आता है और आपकी सेवा तीमारदारी करता है। आपको उसके घर आकर सैम्पल लेने की फ़ीस भी पता ही है।”
मिसेस कपूर डॉक्टर वर्मा की बातों को सुनकर भी नज़रअंदाज़ कर देती। रवि ब्लड कलेक्शन करने या बी.पी. लेने के पचास रुपये लिया करता था। मिसेज कपूर रवि को हर बार बोलती—“मेरे पास नहीं हैं, इतने रुपये। मैं तुझे दस रुपये ही दूँगी।”
जब वह उन्हें घूरता, डाँट लगाकर भगा देती थी। रवि की खुंदस मिसेस कपूर से थी। जो रुपये देने का वादा करके, घर के छोटे-मोटे काम करवाती थीं और रुपये देने की बारी आने पर मुक़र जाती थीं। रवि को गाँव रुपया भेजना होता था। उसका बस चलता तो वह ऊपर आंटी के पास जाता ही नहीं। वह तो डॉ. वर्मा का लिहाज़ करके चुपचाप काम करता था।
यह आज से नहीं मि. कपूर के जाने के बाद से हमेशा ही हो रहा था। रवि हमेशा अपना ग़ुस्सा डॉ. वर्मा को बातें बताकर उतारता . . .
“सर! आप मुझे कभी भी कपूर आंटी के यहाँ मत भेजा करिए। कपूर आंटी बहुत चीमड़ है। वह मेरी मेहनत का रुपया नहीं देती। जब मैं उनके यहाँ सेंपल या बी.पी. लेने जाता हूँ, घर के काम बता देती हैं। अक्सर सब्ज़ी-फल लाने का बोल देती हैं . . . लेकर आओ तो नुक्ता-चीनी करती हैं। कभी-कभी तो घर में सामान अंदर-बाहर करने को कह देती है। सर! आपने तो कभी अपने घर में मेरे से चाय तक नहीं बनवाई। उल्टा मुझे पिलवाई होगी। उन्होंने तो वह भी कई बार बनवा ली है।”
रवि आंटी के लिए एक बार बोलना शुरू करता तो चुप नहीं होता।
“सर! आंटी अपना रुपया दाँत से पकड़ना जानती हैं, मगर दूसरे की मेहनत नहीं समझती। मैं तो चौबीस घंटे यहीं रहता हूँ . . . फल और सब्ज़ी वाले भी उनसे कन्नी काटते हैं।”
डॉ. वर्मा रवि को समझाने की कोशिश करते हुए कहते, “रवि! किसी की आदतों को सुधारना आसान नहीं होता। तुम मुझसे एक्स्ट्रा रुपये ले लिया करो।”
“सर! मैं आपसे रुपया क्यों लूँगा। यह रुपये मिसेज कपूर को देने चाहिए। ऐसा नहीं है कि उनके पास रुपयों की कमी है। मुझे तो उनकी नौकरानी ने बताया कि उनके पास काफ़ी रुपया है। अंकल के जाने के बाद पेंशन भी आती है।”
रवि को मिसेस कपूर के घर की काफ़ी जानकारी थी। तभी वह डॉ. वर्मा को सभी बातें बहुत विस्तार से बताता।
मि. कपूर जितने भले और सभ्य इंसान थे, उनका व्यवहार उतना ही शालीन था। अक्सर जब कोई मरीज़ नहीं होता, वह डॉ. वर्मा के पास आकर बैठ जाते। अपनी पत्नी के व्यवहार से दुःखी थे मगर अपनी बात कुछ इस तरह साझा करते कि कहीं भी मिसेस कपूर का नाम न आए। ठीक इसके उलट मिसेस कपूर थी जिन्हें अपने पति की गरिमा का बिल्कुल ख़्याल नहीं था। वह रुपयों के लिए किसी से भी लड़ लेती थी। एक बार मि. कपूर ने बहुत सटीक बात बोली थी—“बेटा! हम सब जानते हैं, मरने के बाद साथ कुछ भी नहीं ले जा सकते . . . फिर भी मक्कारियाँ करते हैं। अपने से कमज़ोर पर ख़ूब ज़ोर आज़माइश करते है। हमसे ताक़तवर हमारे सभी कर्मों का साक्षी कोई है, जिसके यहाँ देर है पर अंधेर नहीं। बड़ा वही है, जो ग़लतियों को नज़र-अंदाज़ कर दे।”
अपनी बात बोलकर मि. कपूर ख़ामोश हो जाते। वह ख़ुद के परिवार की ग़लतियों से जुड़े अपराधबोध को छिपा नहीं पाते थे। उनकी बातें डॉ. वर्मा को बहुत अच्छे से समझ आती थी। मि. कपूर की इज़्ज़त करने की वजह से ही मिसेस कपूर के बुलाने पर, डॉ. वर्मा कभी इंकार नहीं कर पाए।
पिछली बातों को नज़रअंदाज़ कर डॉ. वर्मा ने एम्बुलेंस को भी फोन करके बुला दिया। और बेटियों को जल्द से जल्द माँ को अस्पताल लेकर जाने के लिए दबाव डाला।
जैसे ही बेटियाँ माँ के ढाँचा हुए शरीर को फ़ोलडिंग पलंग पर सीढ़ियों से नीचे लाईं . . . अचानक हुए हृदयाघात ने उनकी उतरती-चढ़ती साँसों का साथ छोड़ दिया। कल्पना के डॉ. वर्मा को चेक करने के लिए बुलाने पर उन्होंने मिसेस वर्मा को मृत घोषित कर दिया।
एम्बुलेंस वाले के रुपया माँगने पर दोनों बेटियाँ बग़लें झाँकने लगीं। दोनों की आँखों को देखकर लग रहा था कि दोनों में से किसी को रुपया देने की जल्दी नहीं है या फिर वह सोच रही थीं जिसने एम्बुलेंस बुलाई, वही रुपया दे।
दोनों की प्रतिक्रियाहीन आँखों को देखकर एम्बुलेंस वाले ने मिसेस कपूर की देह को एम्बुलेंस से उतारकर नीचे फ़ोल्डिंग पलंग पर वापस रख दिया। फिर वह क्लिनिक के पास आकर खड़ा हो गया। डॉ. वर्मा ने एम्बुलेंस वाले को रवि के हाथ रुपया भिजवा दिया . . . ताकि वह फ़्री हो सके।
माँ के चले जाने पर दोनों बेटियाँ एकाएक बहुत ज़ोर से रोईं मगर फिर सामान्य हो गईं। रोने से ज़्यादा, शायद उनके लिए दूसरी चिंताएँ बड़ी थीं।
एक बार डॉ. वर्मा ने मिसेज कपूर से पूछा भी था . . . “आपकी बेटियों के घर आने पर इतना झगड़ा क्यों होता है?”
“मेरी बेटियाँ मेरे जीते जी मेरा पैसा चाहती हैं और मैं अपना रुपया किसी को नहीं दूँगी। मेरे पति ने बहुत रुपया लुटाया है इन पर . . . अब मेरे पास नहीं है।”
मिसेस कपूर की बात सुनकर डॉ. वर्मा ने उन्हें समझाने की कोशिश भी की थी।
“आंटी! आप अकेली रहती हैं। कम से कम अपनी बेटियों को किसी भी तरह निश्चिंत करिए। ताकि वह बीच-बीच में आकर आपकी देखभाल कर सकें। अब आपको चौबीस घंटे कोई न कोई चाहिए; नहीं तो आप कोई दूसरा विकल्प सोचें। आपके घर की बातें पूरी लोकैलिटी में चर्चित हैं।”
मिसेज कपूर बहुत अड़ियल औरत थी। उन्हें लगता था कि नौकरानी के भरोसे वह अपनी शेष ज़िन्दगी निकाल देंगी। दोनों बेटियाँ का बिन बुलाए मन-मर्ज़ी आना और जाना होता था।
मिसेस कपूर की मृत देह देखकर आस-पड़ोस के लोग एक बार जमा हो गए। मगर जैसे ही बेटियाँ माँ की मृत देह को सीढ़ियों के पास छोड़कर ऊपर गईं . . . लोग जैसे-जैसे इकट्ठा हुए थे . . . धीरे-धीरे देह पास से हट भी गए।
डॉ. वर्मा से यह सब देखा नहीं गया। रात के साढ़े दस बज चुके थे। वह पिछले दो घंटों से घर जाने का सोच रहे थे। पर कुछ न कुछ ऐसा हो रहा था जिसकी वजह से वह निकल नहीं पा रहे थे।
तभी मिसेस कपूर के फ़्लैट से अलमारियों के खुलने और बंद होने की आवाज़ें आने लगीं। आती आवाज़ों से ऊपर के क्या हाल-चाल का अंदाज़ा हो रहा था। डॉ. वर्मा के पास बैठा रवि क़यास लगा-लगा कर डॉ वर्मा को रनिंग कमेंट्री दे रहा था . . .
“सर! दीदियाँ शायद मिसेज कपूर का रुपया-पैसा, ज़ेवर और विल खोज रही होंगी। तभी अलमारियों के खोलने की आवाज़ें आ रही हैं . . . ” अपनी बात बोलते-बोलते रवि के चेहरे पर आई कुटिल हँसी डॉ. वर्मा को निःशब्द कर सोचने पर मजबूर कर रही थी।
दोनों बेटियाँ नौकरी करती हैं तो फिर इतना नाटक क्यों हो रहा है? डॉ. वर्मा की समझ से उनका व्यवहार बाहर था। कुछ ही देर बाद आपस में बहस करती हुई अल्पना और कल्पना सीढ़ियों से धड़ाधड़ नीचे उतरी और डॉक्टर वर्मा से बोलीं . . .
“आप प्लीज़ ऊपर चलिए और हम दोनों के बीच में सुलह करवाइए।”
मरता क्या न करता डॉक्टर वर्मा फिर से रवि को साथ लेकर ऊपर पहुँचे।
अलमारियों का बिखरा हुआ सामान देखकर डॉ. वर्मा को घबराहट हुई। अब काफ़ी बातें उन्हें समझ आ गई। कपूर साहिब की वजह से वह बार-बार कमज़ोर पड़ जाते थे। साथ ही सालों से इसी लोकैलिटी में प्रैक्टिस करने के कारण उन्हें आस-पास के लोग अपने से ही लगते थे।
डॉ. वर्मा ने दोनों को समझाने की कोशिश की . . .
“आप दोनों पहले नीचे पड़ी अपनी माँ की देह को सँभालो . . . रुपया कहीं नहीं भागा जा रहा। वह बाद में भी तुम दोनों का ही है।”
रुपये की वजह से दोनों बहनों का आपस में भी विश्वास खो चुका था। दोनों को बस यही लग रहा था, एक बार पता चल जाए विल, सारा रुपया या ज़ेवर कहाँ रखा है ताकि किसी एक की नज़र में पहले आने से, वह दूसरे के साथ मक्कारी न कर दे। भरोसे के बीज माँ ने बोए ही नहीं थे। रुपयों की अति चाहत ने आपसी भरोसे उठा दिए थे।
दोनों साथ जाकर बैंक से भी माँ को पेंशन का रुपया निकालकर देती थीं। कहाँ कितना ख़र्च होता होगा और कितना बचता होगा . . . दोनों को भली-भाँति पता था। अब डॉ. वर्मा को आभास हुआ, क्यों इन्होंने सात-आठ दिन से फ़ुल-टाइम नौकरानी को पार्ट-टाइम कर दिया? क्यों ऊपरी फ़्लैट से गुज़रे दिनों में ज़्यादा आवाज़ें आती थीं? मिसेस कपूर की तो सिर्फ़ रोने की आवाज़ सुनाई देती थी। कहीं दोनों बेटियाँ ने उन्हें . . . अपनी बात को सोचते-सोचते डॉ. वर्मा ने अपनी विचार-शृंखला को झटका ही था कि . . .
लड़ते-झगड़ते दोनों बेटियों में से एक ने माँ के बिस्तर का गद्दा चादर समेत उलट दिया। गद्दा दो तरफ़ से हाथ से सिला हुआ था। उसकी बनावट देखकर दोनों बेटियों को आभास हो गया कि रुपया कहाँ है? जब तक माँ उस पर लेटी हुई थी, दोनों ने कुछ सोचा ही नहीं, पर अब वह बिस्तर ख़ाली था।
डॉ. वर्मा और रवि अचंभित होकर दोनों का नाटक देख रहे थे। बार-बार उठने की कोशिश करते मगर कुछ न कुछ ऐसा हो जाता उठ नहीं पाते। आज पहली बार दोनों रुपयों के लिए प्रत्यक्ष में नंगा नाच होता हुआ देख रहे थे।
जब गद्दे को एक तरफ़ से खोला तो उसके नीचे नोटों की गड्डियों को न जाने कब से सेट किया हुआ था। इसी गद्दे पर मिसेस कपूर सोती थी। रुपयों को बचाने के चक्कर में न जाने कितने सालों से नोट लगे बिस्तर पर वह सोती रही।
अब कल्पना और अल्पना के बीच शान्ति थी। दोनों गद्दे में मिले रुपयों को गिनने में व्यस्त हो चुकी थी शायद उन्हें रुपयों को आधा-आधा रात में ही बाँटना था।
डॉक्टर वर्मा उसी वक़्त अपने घर के लिए निकल गए क्योंकि उन्हें पता था कि अब आगे क्या होना है। जाते-जाते डॉ. वर्मा ने रवि से बोला . . .
“मुझे नहीं लगता इन्हें रात भर अपनी माँ का ख़्याल आएगा। अगर तुम ख़्याल रख सको . . . तो रख लेना।”
सवेरे दस बजे डॉ. वर्मा जब अपनी क्लिनिक आए . . . मिसेस कपूर की देह अब उनके फ़्लैट के सामने वाले चौड़े प्लैटफ़ॉर्म पर पहुँच चुकी थी। देह के बग़ल में एक कुत्ता सो रहा था। बेटियों ने बॉडी को अच्छे से कवर कर दिया था। घर की सफ़ाई न करवानी पड़े शायद इसलिए बेटियों ने देह को घर के अंदर नहीं लिया था। बेटियों की प्लैनिंग में रिश्तों के साथ, इंसानियत भी खो गई थी।
डॉ. वर्मा ने रवि से पूछा, “क्या हुआ रवि . . . तुम्हें ध्यान रखने को बोला था न?”
“सर! मैंने दो-तीन बार देखा। रात एक बजे तक तो मिसेस कपूर सीढ़ियों के नीचे ही थी। जब मुझे नींद आने लगी, मैंने ऊपर जाकर दीदियों को आवाज़ लगाई और दो बार घर की घंटी भी बजाई; पर दरवाज़ा नहीं खुला . . .नशायद सो गई होंगी। मैं भी कब तक जागता? उन दोनों ने ही पीछे से सँभाला होगा? तभी तो देह नीचे से ऊपर पहुँच गई।”
इतना रुपया होने के बाद भी मिसेस कपूर ने डॉ. वर्मा या रवि को उनकी मेहनत का रुपया नहीं दिया। जब मरी तो रात भर अकेली पहले सीढ़ियों के नीचे और फिर ऊपर सीढ़ियों पर ही पड़ी रही। सड़क का कुत्ता उनकी चौकीदारी करता रहा। कोई अपना साथ तो क्या . . . देखने वाला भी नहीं था। डॉ. वर्मा या रवि ने उनके यहाँ कभी किसी रिश्तेदार को भी आते-जाते नहीं देखा था।
तभी रवि ने मुस्कुराते हुए डॉ. वर्मा को बताया, “सर! बाहर स्वर्ग-वाहन आ गया है। इनमें से कौन-कौन स्वर्ग जाएगा यह तो भगवान ही जाने? अँधेरे में ही इन्होंने आंटी के शायद कपड़े भी बदले होंगे।”
रवि फिर थोड़ा गंभीर होकर बोला . . .
“सर! इतने गए गुज़रे तो हम ग़रीब भी नहीं होते।”
रुपया मिलने से उनके झगड़े की कुछ वजह ख़त्म हो गई थी। पर अभी भी बहुत कुछ बाक़ी था। दोनों को घर बेचकर रुपया भी आधा-आधा करना था। डॉ. वर्मा यह सब सोच ही रहे थे कि . . .
रवि ने वापस आकर डॉ. वर्मा को कहा . . .
“सर! अभी तो फ़िल्म तीन चौथाई ही ख़त्म हुई है। लास्ट सीन की कुछ क्लिपिंगस अभी बाक़ी हैं। जब यह घर बिकेगा, बाक़ी बची हुई क्लिपिंगस भी दीदियाँ दिखवाएँगी। हमें तैयार रहना चाहिए,” अपनी बात बोलकर रवि ज़ोर से हँस दिया।
दोनों लड़कियों की मानसिकता देखकर और रवि की बातें सुनकर डॉ. वर्मा ने चुपचाप अपने मरीज़ देखने शुरू कर दिए। वे साथ ही साथ सोचते जा रहे थे . . .
कहते हैं मरने के बाद तेरह दिनों तक आत्मा छोड़े हुए घर में ही रहती है। मिसेज कपूर अगर कहीं से अपनी बेटियों को देख रही होगी . . . तो शायद कहीं ना कहीं बेटियों के किए पर उन्हें अफ़सोस हो रहा होगा? . . . शायद न भी हो रहा हो? उन्होंने भी तो किसी से प्यार से बात नहीं की। न ही किसी की मेहनत का रुपया दिया। पर जब चोट ख़ुद के सीने पर लगती है तो . . . मिसेस कपूर से जीने और बेटियों के लालन-पालन के तरीक़े में कहीं न कहीं चूक तो हुई थी? . . . नहीं तो उनकी इतनी दुर्गति नहीं होती।
डॉ. वर्मा का दिमाग़ अब बुरी तरह ख़राब हो चुका था। अपने विचारों की शृंखला पर किसी तरह विराम लगाकर वे अपने मरीज़ों में ध्यान लगाने लगे . . . क्योंकि डॉ. वर्मा के लिए उनके मरीज़ भगवान थे और मरीज़ों के लिए डॉ. वर्मा भगवान थे।
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