दलित कविताओं में बयां संघर्ष और वेदना
आलेख | शोध निबन्ध आनंद दास21 Jan 2017
वर्तमान समय में अस्मिताओं के संघर्ष में दलित विमर्श एक ज्वलंत विषय है। ‘दलित’ शब्द एक वर्ग विशेष का ही द्योतक नहीं है बल्कि संसार में जितने भी शोषित हैं जिनपर अत्याचार और शोषण हुआ हो वे सभी दलित हैं। दलित साहित्य धरती के लोगों से सीधा जुड़ा है। दलित सदियों से वर्ण व्यवस्था, जात-पात, ऊँच-नीच, भेदभाव और धार्मिक अन्धविश्वास और मान्यताओं के शिकार हुए हैं और जिन पर मनुस्मृति की सामाजिक, धार्मिक व राजनैतिक व्यवस्थाओं के आधार पर अमानवीय व्यवहार, असह्य उत्पीड़न, अकल्पनीय अपमान और असीम अन्याय किया गया था। दलित साहित्य का वैचारिक आधार अंबेडकरवादी दर्शन ज्योतिबा फुले तथा महात्मा बुद्ध के ‘अहिंसा परमाधर्म’ जैसे भाव को एकाकार करता हुआ सद्भावना, एकता की भावना को सुदृढ़ करने का ही प्रयास है।
दलित साहित्य के फलक को विस्तृत करने में आत्मकथाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है क्योंकि आत्मकथाओं में उनके भोगे हुए यथार्थ का संचित अनुभव होता है। आत्मकथाओं और कहानियों का ज़िक्र हमेशा दलित साहित्य के अंतर्गत आता है पर देखा जाए तो दलित चेतना को विकसित करने में कविताओं ने भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। दलित चिंतक ‘कंवल भारती’ दलित कविता की चेतना को व्याख्यायित करते हुए कहते हैं – “दलित कविता उस तरह की कविता नहीं है, जैसे आमतौर पर कोई प्रेम या विरह में पागल होकर गुनगुनाने लगता है। यह वह भी नहीं है, जो पेड़-पौधों, फूलों, नदियों, झरनों और पर्वतमालाओं की चित्रकारी में लिखी जाती है। वह किसी का शोकगीत और प्रशस्तिगान भी नहीं है। दरअसल यह वह कविता है, जिसे शोषित, पीड़ित दलित अपने दर्द को अभिव्यक्ति करने के लिए लिखता है। यह वह कविता है, जिसमें दलित कवि अपने जीवन संघर्ष को शब्दों में उतारता है। यह दमन, अत्याचार, अपमान और शोषण के खिलाफ युद्धगान है। यह स्वतंत्रता, समानता और मातृभावना की स्थापना और लोकतंत्र की प्रतिष्ठा करती है। इसलिए इसमें समतामूलक और समाजवादी समाज की परिकल्पना है।’’1
दलित कविता में सबसे पहला नाम हीरा डोम का आता है जिनकी कविता ‘अछूत की शिकायत’ 1914 में सरस्वती में छपी थी।। नामदेव ढसाल की कविताओं में भी दलित चेतना के स्वर ज्वलंत रूप में दिखाई पड़ते हैं। ओमप्रकाश बाल्मीकि ‘सदियों का संताप’ शीर्षक कविता संग्रह के ‘चोट’ कविता में दलितों की दयनीय और कारुणिक स्थिति का चित्रण करते हुए कहते हैं –
“पथरीली चट्टान पर
हथौड़े की चोट
चिंगारी को जन्म देती है
जो गाहे-बगाहे आग बन जाती है
आग में तपकर
लोहा नर्म पड़ जाता है
ढ़ल जाता है
मनचाहे आकार में
हथौड़े की चोट में।
एक तुम हो,
जिस पर किसी चोट का
असर नहीं होता।’’2
आत्मसजग, आत्मचेतना की भावना को जागृत कर शोषण रूपी अंधकार से बाहर निकलकर सूर्य की ओर मुख अर्थात अँधेरे से प्रकाश की ओर कदम बढ़ाते हुए एकजुट होकर अपने अधिकार बोध, स्वतंत्रता, समानता की भावना को विकसित करें। जयप्रकाश कर्दम की कविताओं में सामाजिक शोषण के विरुद्ध आक्रमक स्वर देखने को मिलता है –
“मेरे ऊपर होने लगे
जुल्म और ज्यादतियों का ज़ोर
गवाह है इतिहास को रौंदता रहा है,
हमेशा से अहिंसा को हिंसा का अट्टहास
लेकिन अब फड़कने लगी हैं मेरी भुजाएँ
और कुलबुलाने लगे हैं
फावड़ा, कुल्हाड़ी और हथौड़ा पकड़े मेरे हाथ,
काट फेंकने को
उन हाथों को जिन्होंने बरसाये हैं
अनगिनत कोड़े मेरी नंगी पीठ पर।’’3
आर्थिक विपन्नता और सामाजिक विषमता का चित्र हम डॉ. धर्मवीर की कविता में देखते हैं -
“शोषण की अमरबेल, दमन की महागाथा
यातना के पिरामिड
उत्पीड़न की गंगोत्री
ऋणों के पहाड़ ब्याज के सागर,
निरक्षरों के मस्तिष्क,
महाजनों की बही रुक्कों पर अंगूठों की छाप
ऊटपटांग जोड़ घटा, गुणा भाग देना सब एक।’’4
इस तरह डॉ. धर्मवीर ने सामाजिक विषमताओं के माध्यम से आर्थिक विपन्नता की विद्रूपताओं का मार्मिक अंकन कर दलितों के संघर्षमय जीवन को वाणी दी है। गीत केवल रोमांचित या मनोरंजित नहीं करती बल्कि स्वयं के ऊपर घट रही सामाजिक यथार्थ को भी प्रस्तुत करती है और अपनी व्यथा व वेदना को भी बया करता है। जब दलित उत्पीड़ित होता है और सामाजिक कुरीतियों का शिकार होता है तब उसे अंदर से झकझोर देता है। दलित अपने जीवन संघर्ष को चित्रण करते हुए कहते हैं –
“हरिजन जाति सहै दुख भारी हो।
हरिजन जाति सहै, दुख भारी।।
जेकर खेतवा दिन भर जोतली,
अहै देला गारी हो, दुख भारी ।।
हरिजन जाति सहै, दुख भारी।।’’5
भारत जैसे बहुभाषायी और विविधतापूर्ण देश में जातिगत भेदभाव को दूर कर समानता और मानवता की भावना को सी बी भारती ‘आदमी’ शीर्षक कविता में कहते हैं –
“आओ हम सब उठा लें कुदाली
फावड़े और कलम
और दफना दे गहरे
इस जातिवादी, वर्णवादी-व्यवस्था को
जिससे फिर से जन्म ले सके आदमी
केवल आदमी
मुकम्मल आदमी।’’6
दलित साहित्य अंबेडकरवादी जीवन दर्शन से प्रभावित है। इसी प्रतिबद्धता को आधार बनाकर कंवल भारती अपनी कविता में अंबेडकरीय जीवन दर्शन और मुक्ति संघर्ष को व्यक्त करते हुए कहते हैं –
“जो मुक्ति संग्राम लड़ा था तुमने
जारी रहेगा उस समय तक
जब तक कि हमारे
मुर्झाये पौधों के हिस्से
का सूरज उग नहीं आता है।’’7
दलित लेखकों ने अपनी कविताओं में अत्यंत मारक ढंग से समाज के अनछुए पहलुओं को चित्रित कर अपने निजी दुखों को शब्दबद्ध किया है। ‘दलित साहित्य’ कोरी कल्पनाओं, अन्धविश्वासों पर आधारित या देव प्रदत्त साहित्य नहीं है। यह वैज्ञानिक सत्य पर आधारित, धर्म, कर्म, भाग्य, भगवान, जन्म-मरण व पूर्वजन्म के सिद्धांतों को नकारता हुआ, धरती से जुड़े लोगों के भोगे गये जीवन से जुड़ा साहित्य है जिसमें उत्पीड़न, असमानता, अन्याय, अपमान के विरुद्ध खुला विद्रोह है, धर्मान्धता में डूबे अविवेकी लोगों की संकीर्णता दूर कर, उनकी संवेदना जगाकर, उनमें स्वाभिमान जाग्रत करने की ऊर्जा है, वहीं समाज में समरसता, भ्रातृभाव, समादरता स्थापित करने के लिए तथाकथित उच्च वर्ग के लोगों के अन्दर असमानता, अन्याय और सामाजिक व धार्मिक विषमताओं के विरुद्ध अहसास जगाने की शक्ति है। यह बंधन मुक्ति के लिए आवश्यक वैचारिक क्रांति की बारुद है। डॉ. अंबेडकर दलितों के उत्थान को राष्ट्र के उत्थान से जोड़ते हुए साहित्यकारों को संबोधित करते हुए कहते हैं- “उदात्त जीवन मूल्यों एवं सांस्कृतिक मूल्यों को अपने साहित्य में स्थान देना चाहिए। साहित्यकार का उद्देश्य संकुचित न होकर विस्तृत एवं व्यापक हो। वे अपनी कलम को अपने तक ही सीमित न रखें, बल्कि उनका प्रखर प्रकाश देहाती जीवन के अज्ञान का अंधकार दूर करने में हो। दलित उपेक्षितों का बड़ा वर्ग इस देश में है। इस बात को सदा याद रखें। उनका सुख-दुख एवं उनकी समस्याएँ समझ लेने की कोशिश करें। साहित्य के द्वारा उनका जीवन उन्नत करने के लिए प्रयत्नरत रहें। यही सच्ची मानवता है।’’8 निष्कर्षत: दलित साहित्य-दलितोत्थान साहित्य यानी दलितोत्थान हेतु लिखा गया यह एक ऐसा साहित्य है जो भोगे हुए सच पर आधारित है, ज़मीन से जुड़े दलित, शोषित, उपेक्षित, सर्वहारा वर्ग से संबंधित है, जो दशा और दिशा को इंगित करता है और जिसमें विद्रोह और उद्बोधन के साथ संवेदना जाग्रत करने की ऊर्जा है।
संदर्भ-सूची
- आलोचना पत्रिका, संपादक –अरुण कमल, अंक-51, आलेख-दलित कविता और डॉ. अंबेडकर विचार- दर्शन- ओमप्रकाश बाल्मीकि, पृ.-124, राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली।
- www.kavitakosh.org
- आलोचना पत्रिका, संपादक –अरुण कमल, अंक-51, आलेख-दलित कविता और डॉ. अंबेडकर विचार- दर्शन- ओमप्रकाश बाल्मीकि, पृ.-123, राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली।
- बाल्मीकि, ओमप्रकाश, दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पहला संस्करण-2001, दूसरी आवृत्ति- 2008, पृ.-7
- राम तुलसी, मुर्दहिया, राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली, दूसरी आवृत्ति 2014, पृष्ठ सं- 106
- आलोचना पत्रिका, संपादक –अरुण कमल, अंक-51, आलेख-दलित कविता और डॉ. अंबेडकर विचार- दर्शन- ओमप्रकाश बाल्मीकि, पृ.-121, राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली।
- आलोचना पत्रिका, संपादक –अरुण कमल, अंक-51, आलेख-दलित कविता और डॉ. अंबेडकर विचार- दर्शन- ओमप्रकाश बाल्मीकि, पृ.-121, राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली।
- आलोचना पत्रिका, संपादक –अरुण कमल, अंक-51, आलेख-दलित कविता और डॉ. अंबेडकर विचार- दर्शन- ओमप्रकाश बाल्मीकि, पृ.-121, राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली।
शोधार्थी
आनंद दास
कलकत्ता विश्वविद्यालय
संपर्क - 9804551685
ईमेल- anandpcdas@gmail.com
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