अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

सूक्ष्म शिक्षण का संक्षिप्त इतिहास और उसके शिक्षण कौशल

प्रस्तावना: 

आज का युग विज्ञान का युग है, जहाँ नये-नये तकनीकों का आविष्कार किया जा रहा है। फलस्वरूप प्रत्येक क्षेत्र में गुणात्मक सुधार एवं विकास लाने का प्रयास किया जा रहा है। अध्ययन-अध्यापन के क्षेत्र को भी इससे अछूता नहीं रखा जा सका है। अध्ययन-अध्यापन निर्विवाद रूप से मानव समाज की सबसे प्राचीन और भौतिक गतिविधियों में शुमार है। किसी भी देश की आधारशिला उस देश की शिक्षण प्रणाली पर आधारित होती है। देश का भविष्य वहाँ के शिक्षण संस्थानों, विद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में शिक्षण प्रणाली के द्वारा तैयार किया जाता है। शिक्षण प्रणाली की सार्थकता शिक्षकों की योग्यता, दक्षता, कुशलता तथा गुणवत्ता पर निर्भर करती है। यही वजह है कि शिक्षाविदों ने भी शिक्षण-प्रशिक्षण के नये आयामों का विकास कर लिया है ताकि सैद्धांतिक पक्ष और व्यावहारिक पक्ष में समन्वय स्थापित किया जा सके। शिक्षकों की कुशलता में वृद्धि करने, कार्यों को सरल-सुगम बनाने, शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम में सिद्धांत एवं व्यवहार के मध्य गहरी खाई को दूर करने, शिक्षण को प्रभावशाली व बेहतर बनाने, शिक्षण की गुणवत्ता बढ़ाने तथा भावी शिक्षक तैयार करने के लिए विविध प्रकार की अधुनातन शिक्षण विधियों, उपागमों, उपकरणों, तकनीकों, नवाचारों (Innovations) तथा शिक्षण पद्धतियों-प्रणालियों का विकास और विस्तार हुआ है। शिक्षक प्रशिक्षण को सार्थक बनाने के लिए आधुनिक तौर-तरीके अपनाने हेतु 'सूक्ष्म शिक्षण' इसी प्रकार के प्रयासों व खोजों का परिणाम है।     

सूक्ष्म शिक्षण का अर्थ: 

'सूक्ष्म शिक्षण' अँग्रेज़ी भाषा के 'माइक्रो टीचिंग' (Micro Teaching) का हिंदी पर्याय है। सूक्ष्म शिक्षण का शाब्दिक अर्थ है—लघु रूप में शिक्षण करना। सूक्ष्म शिक्षण से आशय ऐसी शिक्षण विधि से है जहाँ लघु कक्षा, लघु विषयवस्तु, लघु पाठ योजना, लघु पाठ अवधि, लघु पाठ्य सामग्री तथा सीमित छात्रों की संख्या का प्रयोग किया जाता है। जिस प्रकार सूक्ष्मदर्शी यंत्र में सूक्ष्म से सूक्ष्म इकाइयों/जीवाणुओं को देखकर उनका अध्ययन किया जाता है, ठीक उसी प्रकार सूक्ष्म शिक्षण के माध्यम से शिक्षण-कौशल की सूक्ष्मतम इकाई का प्रभाव देखा व परखा जाता है। सूक्ष्म शिक्षण कक्षा-अध्यापन की जटिलता और विस्तार को घटाकर शिक्षण-प्रक्रिया को छोटे-छोटे भागों में बाँटा जाता है। कक्षा का आकार, शिक्षण का कालांश तथा प्रकरण को लघु रूप कर दिया जाता है और पूरी प्रक्रिया को विश्लेषित कर शिक्षण कौशलों एवं निपुणताओं के उन्नयन के लिए कार्य किया जाता है। सूक्ष्म शिक्षण कक्षा अध्यापन की कोई विधि नहीं है। अपितु यह तो शिक्षक प्रशिक्षण की एक प्रयोगशालीय एवं विश्लेषणात्मक (Laboratory and Analytical) तकनीक है। सूक्ष्म शिक्षण शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रम के क्षेत्र में शिक्षण की प्रकृति के लिए एक नवीन धारणा तथा नवीन प्रणाली है। 

सूक्ष्म शिक्षण में छात्राध्यापकों को विषय का सूक्ष्म ज्ञान कराया जाता है। सूक्ष्म शिक्षण में छात्राध्यापक एक वास्तविक कक्षा को एक कृत्रिम परिस्थिति में पढ़ाता है। वह कौशल अर्जित करने के लिए आवश्यकतानुसार अभ्यास करता है तथा उसकी प्रशिक्षण लेता है। सूक्ष्म शिक्षण को नियंत्रित अभ्यास की व्यवस्था के रूप में स्वीकार किया जाता है, जिससे कि वह किसी निश्चित शिक्षण व्यवहार पर ध्यान केंद्रित करने के साथ-साथ नियंत्रित परिस्थितियों में शिक्षण अभ्यास कर पाने में सक्षम हो सके। सूक्ष्म शिक्षण में विभिन्न प्रकार के कौशल तकनीक के माध्यम से छात्राध्यापकों का मानसिक विकास कर उनको अग्रसर करना इसका मूल औचित्य है। सूक्ष्म शिक्षण पूर्व या सेवाकालीन शिक्षण-प्रशिक्षण कार्यक्रम में शिक्षण के गुणात्मक प्रभाव को विकसित करने में सक्षम है। सूक्ष्म शिक्षण अत्यन्त लचीली प्रक्रिया है, जो विषय एवं परिस्थितियों के आधार पर व्यवस्थित होती है। सूक्ष्म शिक्षण की प्रक्रिया/चक्र को निम्नलिखित चित्र के माध्यम से समझ सकते हैं:

सूक्ष्म शिक्षण प्रक्रिया/चक्र में साधारणत: छह चरण शामिल होते हैं–पाठ योजना, शिक्षण, प्रतिपुष्टि, पुन:नियोजन, पुन: शिक्षण और पुन:प्रतिपुष्टि। अभ्यास सत्र के उद्देश्य की ज़रूरतों के अनुसार सूक्ष्म शिक्षण प्रक्रिया/चक्र में भिन्नताएँ हो सकती हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सूक्ष्म शिक्षण ज्ञान और अनुभव का समन्वय है। मालती सक्सेना अपनी पुस्तक 'हिंदी का शिक्षण शास्त्रीय स्वरूप' में ऐलन और रायन (1968) द्वारा रचित पुस्तक 'माइक्रो टीचिंग' को उल्लेखित करते हुए सूक्ष्म शिक्षण को पाँच मूलभूत सिद्धान्तों पर आधारित बतातीं हैं जो निम्नलिखित हैं:

“1. सूक्ष्म अध्यापन वास्तविक शिक्षण है। 2. इस प्रणाली में साधारण कक्षा अध्यापन की जटिलताओं को कम कर दिया जाता है। 3. एक समय में किसी भी एक विशेष कार्य एवं कौशल के प्रशिक्षण पर ही ज़ोर दिया जाता है। 4. अभ्यास क्रम की प्रक्रिया पर अधिक नियन्त्रण (Control) रखा जा सकता 5. परिणाम सम्बन्धी साधारण ज्ञान एवं पृष्ठपोषण (Feedback) के प्रभाव की परिधि विकसित होती है।”1 इस प्रकार हम देखते हैं कि सूक्ष्म शिक्षण अध्ययन-अध्यापन की प्रक्रिया में बहुत उपयोगी एवं लाभप्रद तकनीक है। 

सूक्ष्म शिक्षण की पारिभाषा

1. अध्यापक-शिक्षक एशियाई संस्थान—“शिक्षण-कौशल विशेष रूप से शिक्षण की वे समस्त क्रियाएँ हैं जो छात्रों में वाँछित परिवर्तन लाने में प्रभावशाली होती हैं। ये एक दूसरी क्रियाओं से संयुक्त होती हैं अर्थात् अध्यापक द्वारा कोई भी एक व्यवहार घटक को प्रदर्शित करने से वाँछित लक्ष्य की पूर्ति सम्भव नहीं है।”2

2. डी.डब्ल्यू. एलन (D. W. Allen. 1966)—“सूक्ष्म-शिक्षण से तात्पर्य शिक्षण क्रिया के उस सरलीकृत रूप से है जिसे थोड़े विद्यार्थियों वाली कक्षा के सामने अल्प समय में संपन्न किया जाता है।” (“Micro teaching is a scaled down teaching encounter in class size and time.”) 3

3. बी.एम. शोर (B. M. Shore)—“सूक्ष्म शिक्षण कम समय, कम छात्रों तथा कम शिक्षण क्रियाओं वाली प्रविधि है।” (“Micro teaching is a teaching, reduce in time, number of students and range of activities.”) 4

4. वी.के. पासी (V. K. Passi)—“सूक्ष्म शिक्षण एक प्रशिक्षण विधि है जिसमें छात्राध्यापक किसी एक शिक्षण कौशल का प्रयोग करते हुए थोड़ी अवधि के लिए छोटे समूह को कोई एक सम्प्रत्यय पढ़ाता है।”5

5. डॉ. पी. सिंह—“सूक्ष्म-शिक्षण में विशिष्ट कक्षाकक्ष व परिस्थितियाँ निहित होती हैं जो सीमित आकार, क्षेत्र तथा समयावधि से सम्बन्धित होती हैं।”6

सूक्ष्म शिक्षण का संक्षिप्त इतिहास

'सूक्ष्म शिक्षण' प्रशिक्षण के क्षेत्र में एक बहुत ही प्रसिद्ध एवं चर्चित सम्प्रत्यय माना जाता है। सूक्ष्म शिक्षण की शुरूआत अमेरिका के स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय से सन् 1961 में हुई। तत्कालीन समय कीथ एचिसन नामक शोधकर्त्ता रॉबर्ट एन० बुश तथा ए० डब्ल्यू० डी० एलेन के निर्देशन में शोधकार्य कर रहे थे। कीथ एचिसन नामक नामक शोधकर्त्ता ने जर्मनी के अख़बार में पोर्टेबल विडियो टेप रिकॉर्डर के बारे में पढ़ा। उसके बाद उन्होंने इसका सफलतापूर्वक प्रयोग शिक्षक-प्रशिक्षण के क्षेत्र में नवीन प्रयोग के रूप में किया। रीता चौहान लिखतीं हैं—“वर्तमान में शिक्षण के क्षेत्र में नये-नये प्रयोग हो रहे हैं। उनमें से एक प्रयोग है-सूक्ष्म-शिक्षण का। यह प्रयोग 1961 में किया गया। इसका श्रेय जाता है, एक शोध छात्र कीथ को। उसने छात्राध्यापकों को 5-5 छात्रों की छोटी-छोटी कक्षाओं में विभाजित किया और उन्हें 10-10 मिनट का प्रशिक्षण दिया। उनसे ऐसा कार्य कराया गया, जिसमें केवल एक ही कौशल का प्रयोग हो। उनका शिक्षण-कार्य टेप किया गया और उन्हें सुनाया गया। इससे छात्र-अध्यापकों को अपने गुण-दोष जानने का अवसर प्राप्त हुआ।”7 

प्रो० रॉबर्ट एन० बुश तथा प्रो० ए० डब्ल्यू० डी० एलेन शिक्षार्थियों के लिए सूक्ष्म शिक्षण या अध्यापन अभ्यास का कार्यक्रम रखा जिसे 'नमूना अध्यापन' या 'प्रदर्शन अध्यापन' (DemonstrationTeaching) के नाम से संबोधित किया गया। इस अध्यापन अभ्यास में एक शिक्षार्थी को 5 या 6 छात्रों को पढ़ाना पड़ता था। कक्षा-कक्ष में बैठे इन छात्रों को विभिन्न भूमिका दी गयी जिसे उन्हें निभाना पड़ता था। एक कमज़ोर छात्र की भूमिका निभाता था। दूसरा छात्र ध्यानमग्न बालक की भूमिका अदा करता था। तीसरा छात्र जानकार या मेधावी छात्र की भूमिका निभाता था जो प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देने लिए प्रयासरत रहता था। भले ही वह उत्तर सही या ग़लत हो। अन्य सभी छात्र साधारण छात्र की भूमिका निर्वाह करता था। ऐसी परिस्थिति में कई समस्याएँ उत्पन्न होती थी तथा प्रबल इच्छाएँ भी पूर्ति नहीं हो पाती थी। ऐसे में पृष्ठपोषण की व्यवस्था की गयी और एलेन द्वारा बताए गए सुझाव को मानकर शिक्षार्थियों के लिए विडियो टेप रिकॉर्डर की व्यवस्था की गई ताकि वे अपने प्रदर्शन तथा ग़लतियों को मूल्यांकन कर सके। इसके बाद विडियो टेप रिकॉर्डर का प्रयोग स्टैनफोर्ड के बीकन लाईट स्कूल में किया गया। आगे चलकर डब्ल्यू० क्लेनवैश (W. Klienbach) ने सेन जोस राज्य विश्वविद्यालय में ग्रीष्मकालीन समय में प्राथमिक विद्यालय के शिक्षार्थियों/छात्राध्यापकों को दो समूह में विभाजित किया। प्रथम समूह को सूक्ष्म शिक्षण के माध्यम से प्रशिक्षित किया गया तथा दूसरे समूह को परंपरागत अध्ययन विधि द्वारा प्रशिक्षित किया गया, जिसके फलस्वरूप यह निष्कर्ष निकला कि सूक्ष्म शिक्षण के माध्यम से कम समय में शिक्षार्थियों को विभिन्न शिक्षण कुशलता एवं गुणवत्ता विकसित किया जा सकता है। इसके बाद से सूक्ष्म शिक्षण का प्रयोग भारत समेत कई देशों में होने लगा। श्रुतिकांत पाण्डेय के शब्दों में—“भारत में 1970 में बड़ौदा स्थित महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ौदा के सैण्टर फॉर एडवांस्ड स्टडीज़ इन एजुकेशन में सूक्ष्म शिक्षण पर प्रयोग आरम्भ हुए। 1975 में एन०सी०ई०आर०टी० ने देश के विभिन्न हिस्सों में सूक्ष्म शिक्षण पर शोध संगोष्ठियों का आयोजन किया। इनके परिणामों पर 1976 में आर०सी० दास, बी०के० पासी और एल०सी० सिंह द्वारा सम्पादित विवरण—'ए स्टडी ऑफ़ द इफैक्टिवनेस ऑफ़ माइक्रो टीचिंग इन ट्रेनिंग ऑफ़ टीचर्स' का प्रकाशन हुआ। इस रिपोर्ट में स्वीकार किया गया कि सूक्ष्म शिक्षण तकनीकों के प्रयोग से कम समय और प्रयास से छात्राध्यापकों में कक्षा शिक्षण कौशलों का विकास किया जा सकता। साथ ही यह संस्तुति भी की गई कि भारत में शिक्षक-शिक्षा को प्रभावशाली बनाने के लिए सूक्ष्म शिक्षण प्रविधि का व्यापक प्रसार किया जाना चाहिए। इसके बाद एन०सी०ई०आर०टी० और बड़ौदा विश्वविद्यालय के सैण्टर फॉर एडवांस्ड स्टडीज़ इन एजुकेशन के संयुक्त तत्वावधान में देशभर में सूक्ष्म शिक्षण शोध और प्रसार संगोष्ठियों का आयोजन किया गया। इस प्रकार सूक्ष्म शिक्षण भारत में शिक्षक-शिक्षा की एक अनिवार्य गतिविधि बन गया।”8 उक्त कथनों के माध्यम से स्पष्ट रूप से पता चलता है कि सूक्ष्म शिक्षण का प्रयोग विदेशों में साठ के दशक में सर्वप्रथम प्रयोग शुरू हुआ वहीं भारत में सूक्ष्म शिक्षण का सर्वप्रथम प्रयोग सत्तर के दशक में होना शुरू हुआ। 

सूक्ष्म शिक्षण कौशल

शिक्षक संबंधी बहुत प्राचीन धारणा है कि ‘शिक्षक जन्मजात होते हैं।’ आधुनिक शिक्षाशास्त्रियों तथा आधुनिक तकनीकों ने अपनी वैज्ञानिकता के आधार पर सिद्ध करके इस बात का खंडन करते हुए इस अवधारणा पर आग्रह किया है कि शिक्षक जन्मजात ही नहीं होता अपितु बनाए भी जा सकते हैं। एक शिक्षक कक्षा में जाता है और शिक्षक द्वारा शिक्षण कार्य करते हुए अपने शिक्षण को प्रभावपूर्ण, रुचिकर व उद्देश्य पूर्ण बनाने के लिए जो कुछ भी व्यवहार करता है उसे शिक्षण कौशल कहते हैं। प्रत्येक व्यावहारिक, प्रयोगात्मक तथा तकनीकी के कार्यों में कौशल की आवश्यकता पड़ती है ठीक इसी प्रकार सूक्ष्म शिक्षण कौशल की भी आवश्यकता शिक्षक प्रशिक्षण में पड़ती है। सूक्ष्म शिक्षण कौशल की प्रकृति व्यावहारिक होती है, जो कार्य क्षमता कार्य कौशल पर निर्भर करती है। बिमला ढ़ाका लिखतीं हैं—“सर्वप्रथम स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय के ऐलन और रायन (D.W. Allen and K.A. Rayon, 1969) ने इस दिशा में काम किया और 14 शिक्षण कौशलों के नाम गिनाए, जबकि बोर्ग और उसके सहयोगियों ने यह संख्या 14 से बढ़ाकर 18 तक पहुँचा दी। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (NCERT) के शिक्षाविदों-जंगीरा, अजीत सिंह व मट्टो (N.K. Jangira, Ajit Singh and Mattoo, 1979) ने शिक्षण कौशलों की संख्या 20 बताई है। बतलाए गए कौशल यही होंगे, यह ज़रूरी नहीं है। किसी सूक्ष्म-शिक्षण परिस्थिति में इनकी संख्या घट-बढ़ भी सकती है।”9 सूक्ष्म शिक्षण कौशल के विषय में शिक्षाशास्त्रियों की अपनी-अपनी धारणा है कि सूक्ष्म शिक्षण कौशल कौन-कौन से होने चाहिए तथा उनका प्रयोग कैसे और कब करना चाहिए। इनमें से कुछ शिक्षाशास्त्रियों के विचार निम्नलिखित हैं—सुरेश नायक और प्रतिभा ख़र्ब अपनी पुस्तक 'हिन्दी भाषा शिक्षण' में सूक्ष्म शिक्षण कौशल पर चर्चा करते हुए लिखते हैं—“सबसे पहले स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में ऐलन व रायन ने सन् 1969 में कुल 14 शिक्षण कौशल (Teaching Skills) दिये थे, जो इस प्रकार हैं:

1. उद्दीपन परिवर्तन (Stimulus variables) 2. विन्यास प्रेरणा (set induction) 3. समीपता (निकटता) (closeness) 4. मौन एवं अशाब्दिक संकेत (verbal and Non verbal instruction) 5. छात्र सहभागिता (Pupil participation) 6. प्रश्न पूछने का कौशल (Questioning Skill) 7. विद्यार्थियों के एकाग्रचित्त व्यवहार को जानना (To know concentration level of students) 8. प्रवाहपूर्ण प्रश्न पूछने का कौशल (Fluency of Questioning) 9. उदाहरण कौशल (Illustration Skill) 10. व्याख्यान कौशल (lecturing) 11. प्रश्नों की उपयोगिता (संदर्भशीलता) (Relevency of Questions) 12. नियोजित सुव्यवस्थित पुनरावृत्ति (planned Recapitulation) 13. संप्रेषण योग्यता (communication ability) 14. विचारशील प्रश्न (proving Questions)।”10 विभिन्न शिक्षाशास्त्रियों/मनोवैज्ञानिकों ने अपने-अपने विचारों व मतानुसार शिक्षण कौशलों का निर्धारण किया है। बी०के० पासी ने अपनी पुस्तक 'Becoming Better Teacher: A Micro-Teaching Approach' में 13 कौशलों की चर्चा की है। वे इस प्रकार हैं:

“(1) अनुदेशन उद्देश्यों को लिखना (Writing Instructional Objectives), (2) पाठ-प्रस्तावना (Introduction of Lesson), (3) प्रश्नों की प्रवाहशीलता (Fluency of Questions), (4) खोजपूर्ण प्रश्न (Probing Questions), (5) व्याख्या कौशल (Explaining Skill), (6) दृष्टान्त कौशल (Illustrating Skill), (7) उद्दीपन भिन्नता (Stimulus Variation), (8) मौन तथा अशाब्दिक अन्तःक्रिया (Silence and Non-verbal Cues), (9) पुनर्बलन (Reinforcement), (10) छात्रों की क्रियाओं को प्रोत्साहन (Increasing Students Participation), (11) श्याम पट्ट कौशल (Black Board Skill), (12) समीपता की प्राप्ति (Achieving Closure), (13) छात्र व्यवहार की पहचान (Attending Behaviour)।”11 इस प्रकार महान शिक्षाशास्त्री पासी ने इनकी संख्या (13) बताई है। जोकि सभी निश्चित संख्या के पक्ष में एकमत नहीं हैं। विभिन्न विषयों की तरह कौशलों का निर्धारण भी एक जैसा नहीं है शायद इसीलिए किसी ने इसका पूर्ण रूप से विरोध किया और ना ही पूर्ण रूप से सहमति जताई है। बिमला ढ़ाका अपने विचार स्पष्ट करते हुए कहतीं हैं—“बतलाए गए कौशल यही होंगे, यह ज़रूरी नहीं है। किसी सूक्ष्म-शिक्षण परिस्थिति में इनकी संख्या घट–बढ़ भी सकती है। एक अध्यापन पाठ के विभिन्न स्तरों पर आवश्यक इन शिक्षण कौशलों की सूची आगे प्रस्तुत की जा रही है: प्रस्तावना कौशल, प्रश्न कौशल, व्याख्या कौशल, उद्दीपक परिवर्तन कौशल, व्याख्यान कौशल, प्रदर्शन कौशल, श्यामपट्ट लेखन कौशल, सहायक शिक्षण सामग्री उपयोग कौशल, कक्षा-कक्ष प्रवचन कौशल, खोजपूर्ण प्रश्न कौशल, नाटकीकरण कौशल, वाद-विवाद कौशल, मूल्यांकन कौशल, पाठ समापन कौशल, गृहकार्य देने से संबंधित कौशल।”12 आगे चलकर सूक्ष्म शिक्षण कौशलों की चर्चा विस्तार रूप से करते हुए सूक्ष्म शिक्षण कौशलों के मूल्यांकन घटकों को व्याख्यायित कर समस्त चीज़ों बड़ी सूक्ष्मता से विश्लेषित किया है। श्रुतिकांत पाण्डेय ने कुल 10 सूक्ष्म शिक्षण कौशलों को गिनाए हैं: 1. पाठ प्रारम्भन कौशल, 2. प्रश्न प्रस्तुति कौशल, 3. व्याख्या कौशल, 4. दृष्टांत कौशल, 5. दृश्य-श्रव्य उपकरण और उनका प्रयोग-कौशल, 6. उद्दीपन परिवर्तन कौशल, 7. लेखपट्ट प्रयोग कौशल, 8. प्रबलन कौशल, 9. समापन कौशल, 10. गृहकार्य प्रदान कौशल। (पाण्डेय श्रुतिकांत, हिंदी भाषा और इसकी शिक्षण विधियाँ, पी एच आई लर्निंग प्राईवेट लिमिटेड, दिल्ली, संस्करण: 2014, पृष्ठ संख्या: 149-151) इस प्रकार हम देखते हैं कि सूक्ष्म शिक्षण कौशल के माध्यम से कम समय में अपनी ख़ूबियों–ख़ामियों को जान पाते हैं और समझ पाते हैं, जिससे एक छात्राध्यापक के तौर पर अपने आपको सर्वांगीण विकास करने में मदद मिल सकती है। 

शिक्षा को समृद्ध बनाने के लिए यह आवश्यक है कि कक्षाओं में अध्ययन–अध्यापन के स्तर में सुधार किया जाए। इसीलिए अध्ययन–अध्यापन में गुणात्मक सुधार एवं विकास लाने के लिए सूक्ष्म शिक्षण का नवीन प्रयोग किया जा रहा है जहाँ क्रियाओं का विशिष्ट समूह कौशल के रूप में होता है। अतः हम कह सकते हैं कि एक शिक्षक के लिए शिक्षण कौशल का ज्ञान उतना ही ज़रूरी है, जितना कि जौहरी को हीरे का ज्ञान। कोई भी शिक्षक किसी भी विषय का कितना भी ज्ञानी क्यों न हो यदि वह सही ढंग से अपनी कक्षा में शिक्षण कौशल का प्रयोग नहीं करेगा तो वह अपने ज्ञान को छात्रों के समक्ष प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत नहीं कर पाएगा, जिससे शिक्षण उद्देश्यहीन व भटकाव की ओर अग्रसर हो जाएगा। 

संदर्भ-ग्रंथ सूची:

  1. सक्सेना मालती, हिंदी का शिक्षण शास्त्रीय स्वरूप, राखी प्रकाशन प्रा.लि., प्रथम संस्करण: 2016, आगरा, पृष्ठ संख्या 116–117. 

  2. अग्रवाल डॉ. संजय, गौड यशवंती, भावी शिक्षक एवं शिक्षा तकनीकी, श्री कविता प्रकाशन, नवीन संस्करण, जयपुर, पृष्ठ संख्या 106.

  3. ढ़ाका बिमला, हिंदी शिक्षण, अरिहंत प्रकाशन प्रा.लि., प्रथम संस्करण: 2010, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या 111. 

  4. ढ़ाका बिमला, हिंदी शिक्षण, अरिहंत प्रकाशन प्रा.लि., प्रथम संस्करण: 2010, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या 111–112.

  5. अग्रवाल जे.सी., शिक्षण के सिद्धांत तथा विधियाँ, शिप्रा पब्लिकेशंस, संस्करण: 2013, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या 191. 

  6. अग्रवाल डॉ. संजय, गौड यशवंती, भावी शिक्षक एवं शिक्षा तकनीकी, श्री कविता प्रकाशन, नवीन संस्करण, जयपुर, पृष्ठ संख्या 92. 

  7. चौहान रीता, हिंदी शिक्षण, अग्रवाल पब्लिकेशंस, वर्तमान संस्करण: 2017–18, आगरा, पृष्ठ संख्या 130. 

  8. पाण्डेय श्रुतिकांत, हिंदी भाषा और इसकी शिक्षण विधियाँ, पी.एच.आई. लर्निंग प्राईवेट लिमिटेड, संस्करण: 2014, दिल्ली, पृष्ठ संख्या147. 

  9. ढ़ाका बिमला, हिंदी शिक्षण, अरिहंत प्रकाशन प्रा.लि., प्रथम संस्करण: 2010, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या 116. 

  10. नायक सुरेश, ख़र्ब प्रतिभा, हिन्दी भाषा शिक्षण, ट्वेन्टी फ़र्स्ट सेंचुरी पब्लिकेशंस, प्रथम संस्करण: 2010, पटियाला, पृष्ठ संख्या 370–371. 

  11. अग्रवाल डॉ. संजय, गौड यशवंती, भावी शिक्षक एवं शिक्षा तकनीकी, श्री कविता प्रकाशन, नवीन संस्करण, जयपुर, पृष्ठ संख्या 106. 

  12. ढ़ाका बिमला, हिंदी शिक्षण, अरिहंत प्रकाशन प्रा.लि., प्रथम संस्करण: 2010, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या 116. 

आनंद दास 
सहायक प्राध्यापक, श्री रामकृष्ण बी.टी. कॉलेज (Govt. Spon), दार्जिलिंग 
संपर्क: 4 मुरारी पुकुर लेन, कोलकाता-700067, पोस्ट ऑफ़िस–उल्टाडांगा, 
ई-मेल: anandpcdas@gmail.com, 9382918401, 9804551685

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सामाजिक आलेख

शोध निबन्ध

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं