दवा की गोली
कथा साहित्य | लघुकथा तपोजा दत्ता18 Dec 2014
बेटी के पास जाने के लिए माँ की आँखें तरस रहीं थीं। 75 साल की उम्र में कहीं आना-जाना आसान नहीं था। पर क्या करे..... बेटी की अचानक तबीयत बिगड़ गई है।
बेटे ने माँ को बस में चढ़ा दिया। बेटे को ऑफ़िस जाना था। इसलिए माँ के साथ बेटा नहीं जा पाया। उसने कंडक्टर को बार-बार समझाया कि गोलपार्क आते ही माँ को बता दे। बस के आगे बढ़ने से पहले उसने माँ को कहा – "माँ...ठीक से दवा ले लेना।"
बस दौड़ने लगी। पर माँजी बेचैन थीं। सही जगह सही-सलामत उतरने के बाद ही जान में जान आएगी। फिर उन्होंने कंडक्टर को याद दिलाया। कंडक्टर ने उन्हें समझाया – "आप चिन्ता छोड़िए। आपको ज़रूर बताया जाएगा।"
पाँच मिनट बीतते ही माँजी ने फिर घबराकर बगलवाली लड़की को याद दिलाने के लिए कहा। लड़की ने मुस्कुराते हुए कहा – "दादी जी... मत घबराइए। गोलपार्क अभी काफी दूर है। आने पर बता दूँगी।"
माँजी निश्चिंत हो गईं। कुछ ही देर में खर्राटे लेने लगीं। इतने में गोलपार्क आ गया। सब अपनी ही दुनिया में खोए हुए थे। सबके मन से माँजी को याद दिलाने का खयाल उड़ गया। बस गोलपार्क पीछे छोड़कर काफी आगे बढ़ चुकी थी।
माँजी की नींद टूटी और फिर एक बार कंडक्टर को याद दिलाया। उसके चेहरे का रंग उड़ गया। बगलवाली लड़की की भी बोलती बंद थी। बस रुक गई। लेकिन रुकने से क्या फायदा....! बूढ़ी माँ कैसे उतरेगी... और उतरकर कैसे जाएगी...? कंडक्टर ने दुखी स्वर में कहा- "माँजी, माफ कीजिए। बस दो स्टॉप आगे आ चुकी है। हम सचमुच आपकी बात भूल गए थे। क्या आप अकेली जा पाएँगी...?"
माँजी बोली – "अरे भाई, मैं कोलकाता बिल्कुल भी नहीं पहचानती पर चिन्ता की बात नहीं है। बस-स्टॉप पर मेरा दामाद रहेगा। वह मुझे घर ले जाएगा। मुझे यहाँ नहीं उतरना। पर हाँ...गोलपार्क आने पर मुझे ज़रूर बताना।"
एक यात्री ने कहा – "गलती हम सबकी है। माँजी क्यों कष्ट उठाएँगी...? बूढ़ी माँ को गोलपार्क जाते हुए अगर कुछ हो गया, तो ज़िम्मेदार कौन ठहरेगा...! कंडक्टर साहब, उनको गोलपार्क पहुँचाना आपका फर्ज़ है।"
"लेकिन बस छोड़कर मैं उनको लेकर कैसे जाउँ...," कंडक्टर बोला। सभी चिन्तित थे। किसी दूसरे यात्री ने कहा – "बस पीछे घुमाइए, पाँच मिनट की तो बात है। चलिए"।
ड्राईवर कुछ बड़बड़ाया। कंडक्टर ने ड्राइवर को समझाया। कुछ एक यात्री भी बात मानने को तैयार नहीं थे।
कोई दूसरा उपाय न सूझा। ड्राईवर को भी मानना पड़ा। वह गाड़ी को पीछे घुमाकर गोलपार्क की ओर चल दिया। गोलपार्क पहुँचकर कंडक्टर चिल्लाया – "माँजी उठिए, गोलपार्क आ गया।"
माँजी ने नज़र घुमाई। कुछ समझने की कोशिश की। बैग से एक डिब्बा निेकालकर, उससे एक दवा की गोली लेकर मुँह में डाली। कंडक्टर ने सोचा – माँजी ने नहीं सुना होगा। गेट से फिर चिल्लाया – "माँजी जल्दी कीजिए, गाड़ी गोलपार्क में खड़ी है। उतरिए। अपने दामाद को ढूँढ लीजिए।"
कंडक्टर की बात माँ के समझ में आ गई, बोली – "यहां क्यों उतरूँगी.....? मुझे तो गढ़िया जाना है।"
एक आदमी ने कुछ सोचकर कहा – "आप क्यों नहीं उतरेंगी...आप को तो यही उतरना था।"
माँजी बोली – "मैंने कभी ऐसा नहीं कहा कि मुझे गोलपार्क उतरना है!"
कंडक्टर ने कहा – "आप अवश्य बोली थीं। हम सबने सुना। इसलिए तो.......।"
माँजी ने कहा – "आप लोगों को कुछ गलतफ़हमी हुई है। गोलपार्क आते ही मुझे दवा लेनी थी। इसलिए बोली थी कि गोलपार्क आने से इत्तला कर दीजिएगा।"
कंडक्टर ने कहा – "गोलपार्क ही क्यों...? गढ़िया में दवा लेने से क्या बिगड़ जाता....? बेकार ही बस को घुमाना पड़ा।"
माँजी बोली – "देखो भाई, बस चढ़ने के पंद्रह मिनट बाद मुझे दवा लेनी थी। घड़ी नहीं है। समय का हिसाब लगाना मेरे बस की बात नहीं। बेटे ने कहा था कि सियालदह से गोलपार्क जाने में लगभग पंद्रह मिनट लगेगा। इसलिए गोलपार्क आते ही गोली ले लेना। मैंने वही किया। अब इसमें मेरा क्या कसूर...। बताओ...!"
अब हक़ीक़त सबके समझ में आ गई। सब लोग हाथ मलते रह गए।
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