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डॉ. आरती स्मित की कविताओं में सामाजिक-सांस्कृतिक संवेदनाएँ 

मूल्यों और विश्वासों की थाती से जन्मी और आपसी आदान प्रदान तथा समन्वय की भावना से प्रगति करने वाली संस्कृति अगर उच्चतम जनतांत्रिक मूल्यों का त्याग कर, श्रेष्ठ मानवीय आदर्शों से विमुख हो, पूँजीपति सभ्यता की द्योतक बन जाए, अगर उसमें कला के श्रेष्ठ मूल्यों की बजाय शोषण और अन्याय के प्रतीक चिह्न दिखे तब नि:संदेह सूख चकी संस्कृति की अविरल धारा को पुन: प्रवाहित करने का कार्य साहित्यकार को अपनी कालजयी प्रतिभा के आधार पर करना पड़ता है, जिससे संस्कृति का प्रवाह बाधित होता है। 

“संस्कृति मजहब नहीं आचरण और धर्म है। विशेष काल में पनपा हुआ स्वभाव है और कहीं-न-कही विछिन्न हो रहा है इसलिए संस्कृति कारगर नहीं हो पा रही है।”

साहित्य का जो युग होता है वह समाज तथा साहित्य दोनों का प्रतिबिम्ब होता है। कथन ठीक भी हो सकता है और नहीं भी। क्योंकि साहित्य को युग का सापेक्ष कहना भी ठीक नहीं है। साहित्य केवल दर्पण मात्र नहीं है जिसमें समय की परछाई पड़ती है, बल्कि एक क्रियात्मक और निर्माणकारी शक्ति भी है जिसके द्वारा समाज और युग अपने रूप विधान की प्रेरणा पाता है। डॉ. आरती स्मित की कविताओं में सामाजिक और सांस्कृतिक संवेदनाओं का अनुशीलन हुआ है। कवयित्री के हृदय में मानवता के प्रति अथाह ममता है। इन्होंने जीवन की शाश्वत एवं अत्यंत महत्त्वपूर्ण समस्याओं के साथ साथ समाज, राष्ट्र, संस्कृति एवं मानवता की ज्वलन समस्याओं पर अपने विचारों का मंथन किया है। 

संवदेना का अर्थ—“इंद्रिगम्य विषयों का ज्ञान”—इसके बिना मनुष्य के भाव जगत का अस्तित्व नहीं हो सकता। संवदेना ही उसे संसार की वास्तविकता की ज़मीन पर खड़ा करती है और दु:ख–सुख का अवसर देती है। संवेदना की आध्यात्मिक कल्पना से एक अलग धरती है, जहाँ मनुष्य शान्ति और मोक्ष की जगह जीवन को अनुभव करता है। संवेदना न केवल उसे व्यक्तिवाद और अहंकार से मुक्त कर व्यापक लोक से जोड़ती है, बल्कि अपने निजी दु:ख कष्ट को भी समझ पाता है। इस प्रकार ‘संवेदना’ शब्द का सम्बन्ध लौकिक अनुभव से है। इसका सम्बन्ध सुख दु:ख दोनों क़िस्म की अनुभूतियों से है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार—“संवेदना सुख-दुखात्मक अनुभूति ही है।”

दु:खानुभूति से इसका गहरा सम्बन्ध है। डॉ. नगेंद्र के अनुसार ‘मूलत: संवेदना का अर्थ है—“ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त अनुभव अथवा ज्ञान।” 

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज से अलग उसका कोई अस्तित्व नहीं है। सामाजिक संवेदना ही अपने में इतना विशाल क्षेत्र समेटे हुए है कि मानवमन समाज के विभिन्न छोरों पर अवस्थित सामाजिक अन्तदर्शाओं पर दुखित और पीड़ित होती है कि उसकी वेदना अपने से आगे बढ़कर दूसरों का हाथ पकड़ती है। सामाजिक संवेदना इतनी दृढ़ बन जाती है कि इसकी छत्र छाया में किसी भी देश का समाज अपनी ही पीड़ा को देखता नज़र आता है। मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के नाते दैनिक जीवन में होने वाली विविध क्रिया व्यापारों के साथ भाँति-भाँति के लोगों के सम्पर्क में आता है और परस्पर पर किए जाने वाले व्यवहार के आधार पर सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करता है। 

मेक्सवेबर के अनुसार: “सामाजिक सम्बन्धों के अर्न्तगत केवल और पूर्ण रूप से इस सम्भावना का ही समावेश होता है कि किसी सार्थक बोधगम्य भाव में कोई सामाजिक क्रिया होगी।” अथवा—“समाज मनुष्य के एक समूह के अन्त: सम्बंधों की एक जटिल व्यवस्था है।” ला पियरे के अनुसार। 

संस्कृति हमारी सामाजिक विरासत है। समाज जीवन के विभिन्न पहुलओं से वहाँ की सांस्कृतिक धाराओं को समझा जा सकता है। संस्कृति के त्यौहार, मेले, कलाएँ, प्रथाएँ, जनरीतियाँ, रूढ़ियाँ तथा विभन्न संस्कार, परंपराएँ इसके प्रमुख अंग है। किसी भी देश की संस्कृति जिसे लोक संस्कृति कहते हैं—उन असभ्य और अशिक्षित समझे जानेवाले मनुष्यों के प्राणों का स्पन्दन होती है जो वहाँ की जनसंख्या का विशाल अंग होती है। इन्हीं तथाकथित अशिक्षितों और असभ्यों के सामाजिक जीवन के विविध पहलु, सामूहिक और पारिवारिक जीवन के बहुरंगी चित्र, अपनी अटूट परपंरा के कारण उन तत्त्वों का रूप धारण कर लेते हैं जिन्हें लोकतत्त्व कहते हैं और जिनके योग से लोक संस्कृति का निर्माण होता है। 

सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय के अनुसार—“संस्कृति मूलत: एक मूल्य दृष्टि और उससे निर्दिष्ट होनेवाले निर्माता प्रभावों का नाम है।”

डॉ. महेंद्र रघुवंशी के अनुसार—“संस्कृति वस्तुत: मानवता का मेरूदण्ड है।” साहित्य की प्रमाणिकता, प्रांसगिकता और महता का मापदंड किसे माना जाए यह यक्ष प्रश्न हर साहित्यकार के समक्ष साहित्य सर्जना के दौरान उठ खड़ा होता है। दरअसल अपनी कृति में सर्जना की जिस शक्ति को लेखक स्थापित करने की कोशिश करता है वह वस्तुत: उसके रचना संसार में छिपी हुई सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना की वह अभिव्यक्ति है जिसके माध्यम से समाज संस्कृति के विकास की कालजयीता निर्मित होती है। समाज की उन्नति और विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली एक आवश्यक क्रिया है: सांस्कृतिक प्रक्रिया। डॉ. आरती स्मित जी की कविताएँ कथ्य एवं शिल्प की दृष्टियों से उत्कृष्ट कोटि की हैं। हिंदी साहित्य में अपना अदि्वतीय स्थान रखनेवाली डॉ. आरती स्मित ने अपने जीवन में जो कुछ उत्तम, सुंदर, स्वस्थ, संवेदनशील एवं जीवन संवर्धक देखा, सुना, सोचा और समझा उसी की अभिव्यक्ति इन्होंने संपूर्ण संवेदना के साथ अपनी कविताओं में की है। इन्होंने अपने कविताओं में वैयक्तिक जीवन को ही प्रकट किया है। कवयित्री की कविताओं में कोरी कल्पना नहीं है बल्कि यथार्थ के दर्शन होते है। वे केवल लिखती नहीं है बल्कि उसे जीती है और यही कारण है कि इनकी कविताओं में एक और तो वह स्त्री विमर्श पर बातें करती दिखती है,दूसरी ओर वृद्ध विमर्श तीसरी ओर दलित विमर्श पर ओर चौथी ओर परिवारों में टूटते-बिखरते सम्बन्धों पर बात करती नज़र आती है और ऐसे न जाने कितने अनछुए पहलु हैं सरोकार के जो हमें इनकी कविताओं से पता चलता है। 

काव्य में संवेदना शब्द का प्रयोग सामान्यत: संवेगात्मक मन:स्थिति तथा आह्लाद, अवसाद, जुगुप्सा, राग, विराग, सहानुभूति आदि के लिए होता है। काव्य में संवेदना साहित्यकार की चेतनाभूति है जो सृजन की प्रेरणा और रचना विधि की शक्ति और सामर्थ्य प्रदान करती है। काव्य संवेदना के फल स्वरूप परिवेश के सम्बन्ध में प्राप्त होता है। रचना वही प्रासंगिक व प्रामाणिक होती है जो सामाजिक धरातल से उठकर सामाजिक चेतना का ही आवाहन करे। कवयित्री डॉ. आरती स्मित की कविताओं का समाज, सामाजिकता एवं संस्कृति से गूढ़ सम्बन्ध है। इनकी क़लम मुख्यत: समाज में अभाव ग्रस्त पीड़ित, शोषित, निम्न वर्ग, ज़मींदार वर्ग, सांमत वर्ग आदि के काले कारनामों के चिट्ठे खोलती गई। कवयित्री की कविताओं का सामाजिक और सांस्कृतिक धरातल बड़ा व्यापक है। डॉ. आरती स्मित की कविता ‘माँ जानती है सबकुछ’ में सामाजिक संवेदना का सामंजस्य देखने को मिलता है। इस कविता के माध्यम से कवयित्री ने दिखाया है कि समाज में एक स्त्री पर किस प्रकार पाबंदी लगाई जाती है, वह अपनी इच्छा के अनुरूप कोई भी कार्य नहीं कर सकती और साथ में यह भी स्पष्ट किया गया है कि एक माँ किस प्रकार बेटी को सामाजिक बंधनों से मुक्ति दिलाती है—

“माँ मंत्र देती है कानों में 
स्वावलंबन और आत्मन्वेषण का 
झटक देती है चूड़ियाँ और पाजेब
कर देती है मुक्त मेरे हाथ पैर दृष्टि और विचार भी।”

‘घर’ कविता के माध्यम से कवयित्री ने ‘सांस्कृतिक संवेदना’ बारीकी से वर्णन किया है इस कविता में भगवान की पूजा के लिए फूल और संस्कार का प्रसाद बाँटा जाता है। जब बेटी बड़ी हो जाती है। किस प्रकार वह सामाजिक बंधनों में बंद जाती है, पिता और भाई समाज की मर्यादाओं को देखकर उस पर हर प्रकार से बंदिश लगाते हैं। इसका वर्णन कवयित्री ने ‘तुम जैसी’ कविता में किया है-

“हाय! 
खो ही गई खिलखिलाहट
और बालसुलभ आमोद भी
अब हर घड़ी नीति उपदेश
हमारे आचार व्यहार पर”

कवयित्री ने भारतीय संस्कृति व सामाजिक व सामाजिक संवेदनाओं का गहराई से अपनी कविताओं में वर्णन किया है। समाज में बेटे को बेटी से ज़्यादा महत्त्व दिया जाता है। यहाँ तक की बेटी को तो गर्भ में ही मरवा दिया जाता है। बेटी समाज में हर क्षण आक्रोश झेलती है और किस प्रकार उसकी हँसी पर समाज का पहरा बिठा दिया जाता है। यह वर्णन कवयित्री ने “वह बेटा नहीं, बेटी है”  कविता में किया है—

“प्रतिपल, प्रतिक्षण
आक्रोश का दंश भोगती
वह अनुमेहा सी सुकोमल
स्वापराध से अनभिज्ञ
दण्ड भोगती है क्यों” 

डॉ. आरती जी के विषय में डॉ. अनामिका का कहना है—“कि इनकी कविताएँ स्मृतियों और सपनों के बीच एक बड़ी पींग घटित करती है। पींग लेना इतना आसान नहीं होता, पूरा आत्मबल लगाना पड़ता है, पाँव के नीचे ज़मीन जो नहीं होती, पूरा वजूद एक डगमग सी पिढ़िया पर अटका होता है। डाल से कहीं लटकी दो रस्सियाँ होती हाँ हाथ टिकाने को, पर हाथ की पकड़ ज़रा सी ढीली पड़ी नहीं कि गए काम से। एक अनजान शहर के ऐसे अंदेशे, ऐसी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक असुरक्षाओं के बीच दो संवेदनशील, सम्भावनाशील बच्चों की बहुत बहादुर माँ, ‘माँ जैसी’ कविताएँ लिख सकती है, ये वैसी ही कविताएँ हैं—आत्मबल से, देदीप्यमान नन्ही मुन्नी,  सरल, सहज, चुटीली। इनमें सोचती हुई आँखों की चमक आपको जब तब मिलेगी और जीवन जगत की विडंबनाएँ समझकर मुस्कुरा देने का हौसला भी रह रह कर नज़र आएगा। विस्थापन, भूंमडलीकरण, भूख अपमान की राजनीति से रू-ब-रू इनकी कविताओं में स्पष्ट है।” 

प्रत्येक वर्ग के मनुष्यों से प्रेम भाव रखने वाले डॉ. आरती स्मित ने अपने कविताओं के माध्यम से हर वर्ग की पीड़ा को दर्शाया है। मनुष्य के मन की जो दु:ख दायक पीड़ा होती उसको कवयित्री ने ‘पीड़ा’ नाम कविता से स्पष्ट किया है। 

“अन्तर्मन की
कोख से
जनित 
पालित
पीड़ा 
मेरा चिरसंगिनी।” 

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि कवयित्री संवेदना की पूँजी है। इन्होंनें ‘नए सम्बन्ध’ कविता के माध्यम से सामाजिक संवेदना को दर्शाया है। किस प्रकार समाज में स्त्री अपना सब कुछ त्यागकर नए सम्बन्ध स्थापित करती है-

“स्त्रियाँ
सलाई के साथ
बुनती है भावनाएँ
गूँथती है सपने
सिलती है पीड़ा
और
तुष्टि बोध के साथ
समर्पित कर देती है पुरूष को!” 

डॉ. आरती स्मित जी की कविताओं में प्राचीन और तत्कालीन समाज की सामाजिक और सांस्कृतिक विचारधाराओं को उजागर किया गया है। यह सत्य है कि डॉ. आरती स्मित एक उत्कृष्ट कवयित्री है। डॉ. आरती स्मित बौध्दिक संपदा की धनी है और उनके व्यक्तित्व को सुगठित बनाने के लिए जीवन, सम्बन्धों तथा वातावरण ने सहयोग किया है। डॉ. आरती स्मित की कविताएँ वास्तव असली जीवन का परिचायक है। कवयित्री के आकलन में त्रुटि नहीं है। 

संदर्भ :

‘तुम से तुम तक’ काव्य संग्रह, डॉ. आरती स्मित 2016, पृ. 18 
वहीं पृ. 35
‘अंतर्मन’ काव्य संग्रह, डॉ. आरती स्मित 2009
वही, पृ. 22
‘मायने होने के’ काव्य संग्रह, डॉ. आरती स्मित 2021, पृ. 46
वही, पृ. 48
‘काव्य भाष’ आचार्य रामचंद्र शुक्ल पृ. 230
समाज और साहित्य मुक्ति बोध पृ. 52

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टिप्पणियाँ

डॉ भावना शुक्ल 2021/12/08 09:13 PM

बेहतरीन अभिव्यक्ति अंजू जी ।आरती की रचनाएं बौद्धिकता लिए हुए है।हार्दिक बधाई।

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