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द्वीपदेश मॉरिशस का हिन्दी में इतिहास

समीक्षित पुस्तक: मॉरिशस का इतिहास
लेखक: प्रह्लाद रामशरण
प्रकाशक: नालंदा प्रकाशन (दिल्ली) 
वितरक: माता सुन्दरी पब्लिशर्स, 30-स्वामी दयानंद स्ट्रीट, बो बासें, मॉरिशस 
संस्करण: 2023
पृष्ठ: 239
मूल्य: ₹875/-

प्रह्लाद रामशरण मॉरिशस के वरिष्ठ इतिहासकार तथा साहित्यकार हैं। वे हिन्दी, अंग्रेज़ी और फ़्रैंच में लिखते हैं। पिछले 52 वर्षों में उनकी साठ से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें आधी से अधिक पुस्तकें हिन्दी में हैं। मुख्य रूप से उन्होंने मॉरिशस की विभूतियों, लोक साहित्य, आर्यसमाज तथा इस द्वीपराष्ट्र के इतिहास सम्बन्धी विषयों पर लिखा है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि मॉरिशस के अधिकांश इतिहासकारों ने देश का इतिहास एकांगी दृष्टिकोण के साथ लिखा है। किसी ने अंग्रेज़ों को अधिक महत्त्व दिया है, तो किसी ने फ्रांसीसियों को, तो किसी ने भारतवंशियों को। इतिहास की ज़्यादातर पुस्तकों में अफ़्रीकी मूल के क्रियोलों का योगदान नदारद है। यही बात देश के अल्पसंख्यक चीनियों के बारे में भी कही जा सकती है। टापू के इतिहास की इन कमियों को काफ़ी हद तक दूर करती है प्रह्लाद रामशरण की नवीनतम पुस्तक-मॉरिशस का इतिहास। 

हिन्द महासागर का मोती कहे जाने वाले मॉरिशस का इतिहास मात्र पाँच सौ वर्ष पुराना है। यहाँ मनुष्य के पदार्पण से पहले समूचे द्वीप पर जंगल था जिसमें बड़े-बड़े कछुए, छिपकलियों और डोडो पक्षी का वास था। पुस्तक के अनुसार सबसे पहले 1510 में पुर्तगाली समुद्री जहाज़ सान्ता मारिया-द-सारा ने इस द्वीप पर लंगर डाला था जिसका कप्तान डोमिंगो फरनांडज़ था। कोई एक शताब्दी तक पुर्तगालियों ने इस द्वीप पर अधिकार रखा। वे यहाँ बसने नहीं आए थे। द्वीप का इस्तेमाल वे टूटे जहाज़ों की मरम्मत करने, शत्रु जहाज़ों से बचने तथा मीठा पानी लेने के लिए किया करते थे। 

पुर्तगालियों द्वारा इस द्वीप के त्याग के बाद 1595 में पाँच डच समुद्री जहाज़ों का बेड़ा कप्तान वायब्रांट वान वारविक की देख-रेख में पहली बार मॉरिशस पहुँचा। नए द्वीप की खोज की ख़ुशी में कप्तान ने अपने देश के राजकुमार मॉरिस एवं नासो के नाम पर इस देश का नाम 'मॉरिशस' रख दिया। डचों ने इसे अपना उपनिवेश बना लिया। टापू के जंगलों की क़ीमती लकड़ी यूरोप के बाज़ारों में बेचकर ख़ूब धन अर्जित किया। पर लकड़ी उद्योग से उन्हें चिरस्थायी लाभ नहीं हुआ। उन्होंने यहाँ गन्ने की खेती शुरू की। द्वीप पर पाए जाने वाले पक्षी डोडो का शिकार करके उसे पूरी तरह समाप्त कर दिया। तब यहाँ बड़े-बड़े चूहे होते थे जो ईख को काफ़ी नुक़्सान पहुँचाते थे। प्रायः तूफ़ानों के कारण भी खेती नष्ट हो जाती थी। पुस्तक के अनुसार सन् 1712 में द्वीप में फैले प्लेग से तंग आकर डचों ने इस द्वीप को छोड़ दिया जबकि मॉरिशस के इतिहास की कई अन्य पुस्तकों के अनुसार डचों ने इस द्वीप का पूर्णतया परित्याग 1710 में ही कर दिया था। 

जब फ्रांसीसियों की नज़र इस द्वीप पर पड़ी तो उन्होंने 1715 में इस पर अधिकार कर लिया। कुछ वर्षों बाद उन्होंने यहाँ स्थायी रूप से बसने का इरादा कर लिया और द्वीप के व्यवस्थित विकास पर ध्यान दिया। सन् 1735 से 1747 तक माहे दे लाबुरदोने टापू के राज्यपाल रहे। उन्होंने राजधानी पोर्ट लुई में सरकारी भवनों, बन्दरगाह, अस्पताल आदि का निर्माण कराया तथा टापू में सड़कें बनवाईं। ईख, तम्बाकू, मक्की आदि अनाज की खेती बड़े पैमाने पर शुरू करवाई। चीनी के कारखानों के साथ-साथ, नील और कपास के कारखाने स्थापित कराए। उत्पादों के लिए वे भारत और यूरोप के बाज़ार प्राप्त करने में सफल हुए। द्वीप पर अन्तिम फ्रांसीसी गवर्नर देकाँ का शासनकाल 1803 से 1810 तक रहा। उसी दौर में इस द्वीप को केंद्र बनाकर समुद्री लुटेरों ने पुर्तगाली, डच और ब्रिटिश मालवाही जहाज़ों को लूटा। लुटेरों को राज्यपाल देकाँ का समर्थन प्राप्त था। भारत की ब्रिटिश सत्ता के लिए ऐसी घटनाएँ असहनीय थीं। अंग्रेज़ों ने हिंद महासागर में इस द्वीप के सामरिक महत्त्व को पहचाना और इस पर क़ब्ज़ा करने का निश्चय कर लिया। 

सन् 1810 में द्वीप पर अँग्रेज़ों और फ़्राँसीसियों के बीच हुए एक घमासान युद्ध में फ़्राँसीसियों की हार हुई। लेकिन युद्धोपरांत दोनों के मध्य हुई संधि में फ़्राँसीसी मॉरिशस में अपनी भाषा, रीति-रिवाज़, क़ायदे-क़ानून और सम्पत्ति पर अपना अधिकार यथावत् बनाए रखने में सफल रहे। अँग्रेज़ों ने जब टापू पर क़ब्ज़ा किया तब यहाँ 7500 मुक्त दास, 60000 पराधीन दास तथा 6000 हिन्दू-मुस्लिम भारतीय थे। द्वीप में फ़्राँसीसियों की संख्या 7000 थी। जो भारतीय यहाँ थे, वे घरेलू नौकर, मोची, सुनार आदि थे। प्रथम अँग्रेज़ गवर्नर फारकूहार ने देश में सड़कों की कमी दूर की, सितादेल दुर्ग बनवाया और गन्ने की खेती का विस्तार करवाया। उनके शासनकाल में चीनी के कई नए कारखाने खुले। द्वीप की आर्थिक व सामाजिक दशा में काफ़ी सुधार हुआ। सन् 1833 में ब्रिटिश संसद ने एक प्रस्ताव पास करके दुनिया में अपने समस्त उपनिवेशों में दास प्रथा का अन्त कर दिया। इसके एक साल बाद 1834 में मॉरिशस में भी दास प्रथा का अन्त हो गया। 

मॉरिशस में जैसे ही दासों को मुक्त किया गया, वैसे ही अफ़्रीकी क्रियोलों ने खेतों में काम करना बन्द कर दिया। उनके लिए मिट्टी में काम करना दासत्व का प्रतीक बन गया। अब फ़्राँसीसी गोरों के सामने अपने चीनी उद्योग के लिए मज़दूरों की कमी का गम्भीर संकट उपस्थित हो गया, जिसका हल यह निकाला गया कि भारत से सुनियोजित ढंग से शर्तबंद मज़दूर लाए जाएँ। आरम्भ में 1834 में दो जत्थों में 87 भारतीय मज़दूर लाए गए। इन सीधे-साधे भारतीयों को यह कहकर लाया जाता था कि मॉरिशस में खेतों पर काम के बदले उन्हें काफ़ी धन मिलेगा। लेकिन उनके कष्टों की शुरूआत समुद्री जहाज़ से ही शुरू हो जाती थी जिस पर उन्हें पशुवत व्यवहार का सामना करना पड़ता था। टापू में जहाज़ से उतरते ही उन्हें शक्कर कोठियों पर भेज दिया जाता था। वे यात्रा की थकान भी दूर नहीं कर पाते थे कि उन्हें खेतों पर काम में लगा दिया जाता था। उनके साथ दासों सा बर्ताव किया जाता था। छोटी-सी भूलों पर कोड़ों से मार पड़ती थी। रहने को फूस की झोपड़ी मिलती थी जिसमें रस्सी की एक खाट और भोजन पकाने की हाँडी होती थी। पुरुषों को पाँच रुपये तथा स्त्रियों को चार रुपये मासिक वेतन दिया जाता था। उन्हें सीमित भोजन सामग्री और वस्त्र मिलते थे। इन विषम परिस्थितियों के बावजूद कोई एक शती के भीतर लगभग साढ़े चार लाख भारतीयों को मॉरिशस लाया गया उनमें से डेढ़ लाख मज़दूरों ने कड़ी मेहनत करके पर्याप्त धन जमा किया और शर्तबंदी की अवधि समाप्त होते ही स्वदेश लौट गए। शेष ने मॉरिशस को ही अपनी मातृभूमि बना लिया और यहाँ स्थायी रूप से बस गए। टापू में भारतीय बहुसंख्यक हो गए। 

भारतीय मज़दूरों ने अपनी कड़ी मेहनत से द्वीप की पथरीली भूमि और जंगलों को साफ़ करके उन्हें खेती योग्य बनाया। टापू की धरती सोना उगलने लगी। भारतीयों के कड़े परिश्रम के कारण देश का सर्वांगीण विकास होने लगा। इन भारतीयों को ईसाई बनाने के भी काफ़ी प्रयास किए गए, लेकिन प्रतिकूल परिस्थितियों में रहते हुए भी उन्होंने अपने धर्म, भाषा और संस्कृति की रक्षा की। 

सन् 1901 में महात्मा गाँधी मॉरिशस आए और 18 दिन द्वीप पर रहे। उन्होंने भारतवंशियों को शिक्षा पर ध्यान देने तथा देश की राजनीति में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। सन् 1903 में टापू में आर्यसमाज की नींव पड़ी जिसने आगे चलकर एक बड़े सुधार आंदोलन का रूप ले लिया। धीरे-धीरे आर्यसमाज एक मज़बूत संगठन बन गया। महात्मा गाँधी ने टापू में आकर भारतीयों की स्थिति को समझ लिया था, इसीलिए उनकी मदद के लिए गाँधी जी ने 1907 में बैरिस्टर मणिलाल डॉक्टर को यहाँ भेजा। मणिलाल ने मॉरिशस में पाँच वर्ष रहकर भारतीय मज़दूरों की समस्याओं को टापू की सरकार के सामने उठाया, भारतीय समाचार-पत्रों में गोरों की शोषण-प्रवृत्ति पर लेख लिखे, वर्ष 1909 में उन्होंने मॉरिशस में ‘हिन्दुस्तानी’ दैनिक का प्रकाशन आरम्भ किया। उनके प्रयत्नों से भारतीय मज़दूरों की दशा में सुधार हुआ। आर्यसमाज सुदृढ़ हुआ। भारतवंशी अपने अधिकारों के प्रति ही नहीं, अपनी सर्वतोन्मुखी उन्नति के लिए भी जागरूक हुए। 

डॉ. मॉरिस कीरे ने 1936 में मॉरिशस में लेबर पार्टी की स्थापना की जिसमें भारतीय और क्रियोल बड़ी संख्या में सम्मिलित हुए। इस मज़दूर दल ने मज़दूरों की स्थिति बेहतर बनाने के लिए काफ़ी संघर्ष किया। सन् 1948 में भारतवंशी डॉ. शिवसागर रामगुलाम इस दल के प्रमुख नेता बने। उन्होंने 20 वर्षों तक देश की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष किया। दूसरी ओर पं. वासुदेव विष्णुदयाल ने ज्ञानान्दोलन चलाकर भारतवंशियों को जाग्रत किया। 

अंतत: सुखदेव विष्णुदयाल, राज़ाक मोहम्मद आदि के साथ मिलकर शिवसागर रामगुलाम 1968 में मॉरिशस को ब्रिटिश शासन से मुक्त कराने में सफल हो गए। रामगुलाम स्वतन्त्र मॉरिशस के पहले प्रधानमंत्री बने। 

आज़ादी के बाद नई सरकार को अनेक चुनौतियों से जूझना पड़ा। देश के 56 प्रतिशत मतदाता स्वतन्त्रता के पक्ष में थे और 44 प्रतिशत विरोध में। जनता में यह अफ़वाह फैल गई थी के स्वतन्त्रता के बाद उद्योग-धंधे उनके मालिकों के हाथों से निकलकर सरकार के पास चले जाएँगे। इस ग़लतफ़हमी का शिकार होकर बहुत से बुद्धिजीवी, सरकारी उच्च अधिकारी और व्यवसायी अपनी पूँजी सहित विदेशों में बसने लगे। कोई 75000 लोग दक्षिण अफ़्रीका, ऑस्ट्रेलिया, कैनेडा, इंग्लैंड, फ़्राँस आदि देशों में जाकर बस गए। इसके परिणाम स्वरूप देश में बेरोज़गारों की संख्या में काफ़ी वृद्धि हो गई। 

रामगुलाम सरकार ने बहुत सूझबूझ के साथ स्थिति को सँभाला। निजी उद्यमियों के मन से राष्ट्रीयकरण के भय को दूर किया, बुद्धिजीवियों और पूँजीपतियों के देश छोड़ने के क्रम को तोड़ा, विदेशी पूँजी को आकर्षित किया, पर्यटन उद्योग का विकास किया और बेरोज़गारी को कम किया। आज़ादी के बाद से ही मॉरिशस निरन्तर प्रगति पथ पर अग्रसर है। आज यह अफ़्रीका महाद्वीप का एक उन्नत देश है। 

पुस्तक में एक अध्याय देश के चीनी समुदाय पर है। टापू में चीनी आप्रवासन का आरम्भ अठारहवीं सदी के अन्त में मामूली तौर पर हुआ था। लेकिन उन्नीसवीं सदी में इसमें तेज़ी आई। चीनियों ने पूरे द्वीप में छोटी-छोटी दुकानें खोलीं। उनके ग्राहक मुख्यतः भारतीय होते थे। दोनों समुदायों के बीच सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध रहे। अपनी तेज़ बुद्धि और कठोर परिश्रम के बल पर चीनी अपने व्यवसाय का विस्तार करते चले गए। उन्होंने बड़ी-बड़ी दुकानों का निर्माण किया तथा नए-नए व्यवसायों में प्रवेश किया। वे बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ बनाकर सड़क, गृह-निर्माण आदि कार्यों में फ्रांसीसियों से होड़ लेने लगे। आज वे देश के विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। आपस में वे चीनी भाषा में ही बात करते हैं। देश में उनके ‘पगोडा’ मन्दिर बने हैं। विशेष अवसरों पर वे अपना सांस्कृतिक नृत्य ‘ड्रैगन डांस’ करते हैं। चीनी अपना नववर्ष काफ़ी धूमधाम से मनाते हैं। 

अच्छा होता यदि पुस्तक में अलग से एक अध्याय इसी प्रकार अफ़्रीकी क्रियोल समुदाय पर भी दिया जाता। फिर भी उनके बारे में पुस्तक में जगह-जगह जानकारियाँ मिलती हैं। उदाहरणार्थ, डच गवर्नर वान-देर-स्तैल पहली बार यहाँ 1641 में मेडागास्कर से दासों को लाया था। उनसे ख़ूब काम लिया जाता था और उनके साथ पशुओं से बदतर व्यवहार किया जाता था। डचों के ज़ुल्मों से तंग आकर ये दास जंगल में भाग जाते थे। तब बन्दूक और शिकारी कुत्तों की सहायता से दासों का शिकार किया जाता था। उन्हें अमानवीय यातनाएँ दी जाती थीं। कई बार पकड़े जाने पर नंगा करके खम्भे से बाँध दिया जाता था। शरीर की जगह-जगह से खाल उधेड़ दी जाती थी। उस पर मिर्च और सिरका मल दिया जाता था। बाद में फाँसी दे दी जाती थी। इन यातनाओं का उद्देश्य दूसरे दासों में ख़ौफ़ पैदा करना होता था। दूसरी तरफ़ प्रतिक्रिया में कई दासों ने भी अनेक डचों के घर जलाए और उन पर हमले किए थे। अफ़्रीकी क्रियोलों ने द्वीप पर 1810 में अंग्रेज़ों और फ्रांसीसियों के बीच हुई जंग में फ्रांसीसियों की तरफ़ से युद्ध में भाग लिया था। 

टापू के इतिहास पर प्रह्लाद रामशरण की पुस्तकें ‘मॉरिशस का सुबोध इतिहास’ तथा ‘मॉरीशस का इतिहास’ 1988 में आई थीं। वस्तुतः वर्तमान पुस्तक उन्हीं दोनों पुस्तकों का ही विस्तार है। इसमें सोलहवीं सदी से लेकर वर्ष 2021 तक द्वीप में घटी घटनाओं को सम्मिलित किया गया है। 

मॉरिशस के अब तक के इतिहास में चार निर्णायक मोड़ आए हैं। पहला मोड़ तब आया जब फ्रांसीसी शासनकाल में 1735 में माहे दे लाबुरदोने टापू के राज्यपाल बने। उन्होंने ही एक राष्ट्र के रूप में मॉरिशस के निर्माण की शुरूआत की थी। दूसरा मोड़ 1810 में आया जब अंग्रेज़ों ने द्वीप पर क़ब्ज़ा किया, परन्तु एक संधि के तहत पराजित फ्रांसीसियों की भाषा द्वीप में जारी रखना तथा सम्पत्तियों पर उनका स्वामित्व यथावत् रखना स्वीकार किया। उस संधि का आज भी मॉरिशस पर गहरा प्रभाव दिखाई देता है। तीसरा मोड़ 1834 में आया जब द्वीप में भारतीय शर्तबंद मज़दूरों का आगमन शुरू हुआ और कालान्तर में लाखों भारतीयों ने अपनी कड़ी मेहनत से मॉरिशस का कायाकल्प कर दिया। चौथा मोड़ 1968 में आया जब मॉरिशस स्वाधीन हुआ और देश के सभी वर्गों की उन्नति के साथ यह देश निरन्तर प्रगति करता चला गया। 

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