एक पर दो भारी
कथा साहित्य | लघुकथा बालकृष्ण गुप्ता 'गुरु'1 Jan 2021 (अंक: 172, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
“अजीब आदमी हो। सामने गाँधी जी के तीन बंदर रखते हो और करते हो उल्टा!” मैंने नाराज़ होते हुए कहा।
बुरा न मानते हुए, उसने बड़े आराम से कहा, "पहला बंदर कहता है, बुरा मत देखो, पर बुरा सुनने के लिए कान और बोलने के लिए मुँह खुला है। दूसरा बंदर कहता है, बुरा मत बोलो, पर बुरा देखने के लिए आँखें और सुनने के लिए कान खुला है। तीसरा बंदर कहता है, बुरा मत सुनो, पर देखने के लिए आँखें खुली हैं और बोलने के लिए मुँह खुला है।”
मैंने आँखें फाड़कर उसकी ओर देखा, मेरा मुँह खुला रह गया।
उसने मुस्कुराते हुए कहा, "कोई बंदर नहीं कहता, बुरा मत करो। अब आप ही बताइये, बहुमत के राज में एक पर तो दो भारी ही होगा। मैं तो चौथा बंदर हूँ। आप अपनी आँखें बंद कर लीजिए। दोनों हाथों से कान बंद कर लीजिए। मुँह भी बंद रखिए। मुझे अपना काम करने दीजिए। सबका काम करने का अपना तरीक़ा होता है। आप समझ गए होंगे, आपका काम कैसे होगा,” और वह खिलखिलाकर हँसने लगा।
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