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एक पठनीय कृति: ‘हिन्दी साहित्य के पुरोधा’

पुस्तक: हिन्दी साहित्य के पुरोधा
लेखक: डॉ. आरती स्मित
प्रकाशक‏: ‎ नोशन प्रेस 
संस्करण: द्वितीय, 6 जनवरी 2021
(प्रथम संस्करण:  साहित्यायन प्रकाशन,  2018)
पेपरबैक‏: ‎ 198 पृष्ठ
मूल्य: ₹203.00

गत 18 जून को मैं दिल्ली में रह रहीं लेखिका डॉ. आरती स्मित से पहली बार मिला और उन्होंने अपनी दो पुस्तकें (हिन्दी साहित्य के पुरोधा व फूल-सी कोमल वज्र-सी कठोर) मुझे सादर भेंट की। पहली पुस्तक को जब मैंने पढ़ना शुरू किया तो बिना समाप्त किये न रह सका। लेखिका ने इस पुस्तक में भारतेंदु हरिश्चंद्र, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, नागार्जुन, भीष्म साहनी, अमरकान्त, पंडित विद्यानिवास मिश्र, डॉ. मधुकर गंगाधर, हरीश नवल, प्रकाश मनु एवं ओमप्रकाश वाल्मीकि के ऊपर रोचक शैली में विश्लेषणात्मक लेख लिखे हैं। ये लेख समय-समय पर विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ लिखे गये थे और इन्हें संकलित करके एक पुस्तक के रूप में प्रथम संस्करण को छपाने का सम्पूर्ण वित्तीय व्ययभार केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा वहन किया गया है। 

लेखिका ने प्रत्येक रचनाकार की कृतियों का सारगर्भित परिचय देते हुए उनके साहित्यिक अवदान पर विचारपरक लेख लिखे हैं। उन्होंने रचनाकार की कृति से उद्धरण भी दिये हैं ताकि पाठक रचनाकार की शैली से भी परिचित हो सकें। 

भारतेंदु हरिश्चंद्र को नवजागरण के अग्रदूत के रूप में चित्रित किया गया है। “ब्रज के सुकवि होते हुए भी, जनसाधारण के बीच खड़ी बोली हिन्दी के जागरण के उद्घोष का श्रेय भारतेंदु को जाता है। निश्चय ही, भारतेंदु को आधुनिक युग का प्रवेश द्वार कहा जाना चाहिए।” (पृष्ठ-14) 

भारतेंदु ने 15 वर्ष की आयु में ही साहित्य सेवा प्रारम्भ कर दी थी। मात्र 18 वर्ष की आयु में उन्होंने ‘कविवचनसुधा’ नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू कर दिया। वैष्णव भक्ति के प्रचार के लिए उन्होंने ‘तदीय समाज’ की स्थापना की। लेखिका उनके साहित्यिक चरित्र को इन शब्दों में प्रस्तुत करती हैं:

“उनकी प्रमुख विशेषता है कि अपनी अनेक रचनाओं में, जहाँ वे प्राचीन काव्य-प्रवृत्तियों के अनुवर्ती रहे, वहीं नवीन काव्यधारा के प्रवर्तन का श्रेय भी उन्हीं को प्राप्त है। राजभक्त होते हुए भी वे देशभक्त थे; दास्यभाव की भक्ति के साथ ही उन्होंने माधुर्य भाव की भक्ति भी की है।” (पृष्ठ-18) 

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को युगचेता के रूप में चित्रित किया गया है। रेलवे की सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देकर द्विवेदी जी ने अपने को पूरी तरह से साहित्य को समर्पित कर दिया। 1903 से 1920 तक उन्होंने ‘सरस्वती’ पत्रिका का सम्पादन किया और इस तरह उन्होंने तत्कालीन रचनाकारों को एक सुदृढ़ मंच प्रदान किया। उनको खड़ी बोली के परिष्करण, परिमार्जन एवं उसके स्वरूप को स्थिरता प्रदान करने के लिए याद किया जाता है। यह उन्हीं के प्रयासों का फल था कि खड़ी बोली कविता की मुख्य भाषा बन सकी। लेखिका उनके अवदान को इन शब्दों में याद करती हैं:

“1-विषय और आमजन के अनुकूल सरल, शुद्ध और प्रवाहपूर्ण शैली का प्रयोग करना; 2-उर्दू और अंग्रेज़ी के प्रचलित शब्दों को स्वीकार करना; 3-शब्दरूपों एवं प्रयोगों को निश्चित रूप प्रदान करते हुए भाषा में एकरूपता लाना; 4-भाषा की अभिव्यंजना-शक्ति की वृद्धि के लिए संस्कृत के सरल एवं उपयुक्त तत्सम शब्दों, लोकोक्तियों एवं मुहावरों तथा अन्य भाषाओं के शब्दों को स्वीकार करना।” (पृष्ठ-25) 

कालजयी कथाकार मुंशी प्रेमचंद को उनके उपन्यासों के वातायन से याद किया गया है। प्रेमचंद को स्त्री-विमर्श, जाति-भेद, छुआछूत, वर्ग-भेद, पूँजीपतियों की शोषक प्रवृत्ति और शोषित वर्ग की पीड़ा, छात्र-मनोवृत्ति, दलित आन्दोलन, तलाक़ की समस्या, किसान-समस्या आदि अनेक मानव-जीवन सम्बन्धी मुद्दों को उठाने एवं उनका समाधान बताने के लिए याद किया जाता है। लेखिका ने संश्लिष्ट शैली में अपने लेख का अंत इन शब्दों में किया है:

“वे एक उच्चकोटि के रचनाकार और युगप्रवर्तक साहित्यकार इसलिए बन पाये क्योंकि उन्होंने अपनी जीवन-शैली की तरह ही अपने विचारों को भी पूर्णतः भारतीय रखा। भारतीय संस्कृति के गुणों-अवगुणों के खाद-पानी से व्यक्तित्व को पकने दिया, उसके बाद महापुरुषों, सच्चे समाज सुधारकों के विचारों से अपनी बौद्धिकता को माँजा, उसे सही धूप-हवा दी और यही धूप-हवा उनकी लेखनी की स्याही बनी, जिससे उन्होंने अविस्मरणीय इतिहास रच दिया।” (पृष्ठ-41) 

जयशंकर प्रसाद को भारतीय सांस्कृतिक जागरण के देवदूत के रूप में जाना जाता है। प्रसाद ने नारी के ओजस्वी, शक्तिशाली एवं प्रतिभा-सम्पन्न रूप को समाज के सामने एक आदर्श के रूप में रखा। उनके नारी पात्र ऐतिहासिक होते हुए भी परम्परावादी नहीं, वरन् प्रगतिशील हैं। इस लेख में प्रसाद के नाटकों में नारी चरित्रों का मनोविश्लेषण किया गया है। लेख का अंत इस प्रकार किया गया है:

“निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि नारी-स्वतन्त्रता को प्रसाद वहीं तक स्वीकार करते हैं, जहाँ तक वह सामाजिक मूल्यों के दायरे में है; किन्तु जो सामाजिक बंधन नारी के विकास में बाधक है, प्रसाद उनका तर्कपूर्ण खंडन कर अपने नाटक के माध्यम से नारी को गरिमामयी जीवन जीने हेतु प्रेरित करते हैं।” (पृष्ठ-50) 

महीयसी महादेवी वर्मा को उनकी अन्तर्वेदना के लिए लेखिका ने अपने लेख में याद किया है। परम्परा और आधुनिकता के संक्रान्ति-काल में महादेवी का जीवन और कृतित्व विकसित हुआ है। अब्राह्मण स्त्री होने के कारण उन्हें काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में वेदों का अध्ययन करने से जब मनाही हो गई तो उन्होंने इस निर्णय का विरोध करते हुए भारतीय वाङ्मय के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का अध्ययन किया। उन्होंने अपनी लेखनी को हथियार बनाकर चेतना का शंखनाद किया। ‘स्मृति की रेखाएँ’ और ‘अतीत के चलचित्र’ में स्त्री-दुर्दशा के विरोध में ही उन्होंने बाल-विधवा, परित्यक्ता और वेश्या जैसे चरित्रों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया। 

बाबा नागार्जुन को आधुनिक युगीन कबीर के रूप में याद किया गया है। उनकी रचनाएँ आधी शताब्दी के कालखण्डों को समेटती हुई भी समसामयिक हैं। उन्होंने सदैव एक नई राह ढूँढ़ी और उसे प्रशस्त किया। वे जनसाधारण की मुक्ति के लिए सदैव प्रतिबद्ध रहे। व्यंग्यकार के रूप में वे स्तम्भस्वरूप हैं। उन्होंने शासन-तंत्र, राजनीति, राजनीतिक छुटभैये, चापलूस, बटमार, पीर-फकीर, मौलवी-पंडित पर अपने व्यंग्य-बाण चलाये हैं। ‘प्रेत का बयान’, ‘तीनों बंदर बापू के’, ‘आओ रानी’, ‘तालाब की मछलियाँ’, ‘घिन तो नहीं आती’ आदि रचनाएँ अप्रतिम हैं। वे आजीवन देश, जनता और धरती के कवि रहे। लेखिका उन्हें इन शब्दों में याद करती हैं:

“नागार्जुन के विचार, उनके संघर्ष, उनकी बेलौस वाणी आज भी देश के कोने-कोने में, विशेषकर पिछड़े इलाक़ों में भूमिहीन/खेतिहर किसान परिवारों के बीच जन्मे कवियों के कंठ में मुखरित है।” (पृष्ठ-64) 

’नई कहानी’ आन्दोलन से जुड़े कथाकार भीष्म साहनी ने अपने को किसी भी वाद से मुक्त रखा। कहानी के प्रति भीष्म साहनी  अपनी अवधारणा इन शब्दों में व्यक्त की है जो ‘आज के अतीत’ से लेखिका ने  उद्धृत किया है:

“जीवन का कोई अनुभव, जो लेखक के संवेदन को छू जाए, उस अनुभव में निहित कोई विसंगति, कोई विडम्बना, कोई विरोधाभास, कुछ भी। लेखक का संवेदन उसके लिए उपजाऊ धरती के समान होता है, जिसमें कहानी का अंकुर फूटता है।.  .  . लेखक के संवेदन को उसके संस्कार, उसका परिवेश, उसके अपने अनुभव, उसका पठन-पाठन आदि जो उसे जीवन-दृष्टि देते हैं, उसकी साहित्यिक रुचियाँ आदि सभी प्रभावित करते हैं।” (पृष्ठ-69)

उनकी कहानियाँ वास्तविकता की ज़मीन पर जीवन की यथार्थता को साथ लिए चलती हैं। ‘चीफ की दावत’ एक वृद्धा माँ की प्रतिपल बदलती करुण मनःस्थिति और उसके ममत्व का भावपूर्ण चित्रण इस प्रकार करती है कि पाठक उसमें डूब जाता है। लेखिका ने ‘अमृतसर आ गया’, ‘वाङ्ग्चू’, ‘ओ हरामजादे’, ‘सागमीट’, ‘माता विमाता’ आदि हृदयस्पर्शी कहानियों के सारतत्त्व को पाठकों से समक्ष रख दिया है। वे भीष्म साहनी की विशेषता को इन शब्दों में व्यक्त करती हैं:

“विनम्रता मगर कायरता रहित, क्रोध मगर विवेकपूर्ण, बदलाव की कोशिश मगर हंगामा खड़ा करने का इरादा नहीं, वे सदैव चुपचाप आम आदमी के पार्श्व में खड़े, उनकी सामाजिक, आर्थिक और मानसिक स्थिति का जायज़ा लेते हुए मेमोग्राफी रिपोर्ट तैयार करते प्रतीत होते हैं।” (पृष्ठ-75)

कथाकार अमरकान्त निम्न मध्यवर्गीय जीवन के गुणों-अवगुणों, अंधविश्वासों, रूढ़ मान्यताओं के जाल में फँसे पात्रों से हमारा परिचय कराते हैं। वे जीवन के अभावों को रचनात्मकता की भट्ठी में तपाकर हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं। उनकी ‘ज़िन्दगी और जोंक’, ‘डिप्टी कलेक्टरी’, और ‘दोपहर का भोजन’ सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ हैं। लेखिका अपने लेख का अंत इन शब्दों में करती हैं:

“उनके व्यंग्य नसों में बिजली दौड़ा देते हैं और रचनाएँ उनके व्यक्तित्व के समान ही सामान्य, सहज, जीवंत और निष्काम प्रवृत्ति लेकर आती हैं।” (पृष्ठ-88)

पंडित विद्यानिवास मिश्र को संवेदना के पुंज के रूप में याद किया गया है। पंडित जी भारतीय संस्कृति के सुधी व्याख्याता हैं। उनके चाहे ललित निबंध हों या विचारपरक निबन्ध या संस्मरण, पाठक को अपने रस में डुबो लेते हैं। वे पाठक के हृदय को तत्काल छू लेते हैं। वे स्वतन्त्रता आन्दोलन के सच्चे सिपाही, चिन्तक, निबन्धकार, भाषाविद्, संस्कृति के व्याख्याता, साहित्य-मर्मज्ञ थे। लेखिका उनके व्यक्तित्व को इन शब्दों में समेटती हैं:

“राहुल सांकृत्यायन के साथ की यायावरी, प्रकृति का सान्निध्य, चिंतकों, मनीषियों का संसर्ग और गहन अध्येता की प्रवृत्ति और इन सबसे पहले घर-परिवार से बचपन में मिले उच्च संस्कारों ने उन्हें अत्यंत मृदु किन्तु विशाल वट-वृक्ष बना दिया।” (पृष्ठ-95)

डॉ. मधुकर गंगाधर ने कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, ध्वनि नाटक, सांस्कृतिक पुस्तक सहित अनेक विधा में रचनाएँ की हैं। उन्होंने अब तक दस उपन्यास और लगभग एक सौ पच्चीस कहानियाँ लिखी हैं। लेखिका उनके रचना के स्वर को इन शब्दों में व्यक्त करती हैं:

“अन्याय का प्रतिकार, कुरीतियों पर आघात, धर्म और राजनीति के ठेकेदारों की फ़ज़ीहत और तमस में चुपचाप एक दीया जलाकर रख आना।” (पृष्ठ-103)

हरीश नवल एक उत्कृष्ट रचनाकार हैं। उन्होंने कविता, गीत, ग़ज़ल, संस्मरण, उपन्यास, टेलीफ़िल्म, वीडियो फ़िल्म रेडियो नाटक, रंगमंच, पत्र-पत्रिका के लिए पत्रकारिता, सम्पादन, मंच-अभिनय आदि अनेक बौद्धिक क्षेत्रों में अपनी क़लम की धाक जमाई है। वे व्यंग्य को एक विधा के रूप स्थापित करने के लिए निरन्तर प्रयासरत हैं।

बाल रचनाकार प्रकाश मनु  बच्चों की दुनिया को रंगीन बनाने के लिए ‘नन्दन’ पत्रिका के साथ पच्चीस साल तक सक्रियता से जुड़े रहे। उनके उपन्यास ‘सोने की चिड़िया’, ‘ठुनठुनिया’, ‘गोलू भागा घर से’ बाल उपन्यास के रूप में काफी चर्चित रहे हैं। लेखिका अपने लेख का अंत इन शब्दों में करती हैं:

“प्रकाश मनु का साहित्य के प्रति समर्पण, ख़ासकर बच्चों के बौद्धिक और चारित्रिक उत्थान के लिए किया जा रहा उनका चिंतन और प्रयास दोनों प्रशंसनीय हैं।” (पृष्ठ-142)                                                           

ओमप्रकाश वाल्मीकि को दलित जीवन के चितेरे के रूप में प्रस्तुत किया गया है। वाल्मीकि जी की आत्मकथात्मक पुस्तक ‘जूठन’ ने पाठकों को झकझोर कर रख दिया है। उन्होंने दलित समुदाय के साथ सवर्णों द्वारा की जा रही भेदभाव की कलुषित भावना पर करारा प्रहार किया है। इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि जो भारतीय संस्कृति "वसुधैव कुटुम्बकम्” का नारा देती है, जिसके महानायक श्रीराम अस्पृश्य शबरी के जूठे बेर खाते हैं और नीची जाति के निषाद गुह को गले लगाते हैं, उनकी पूजा करनेवाले सवर्ण जाति के लोग दलित जाति के लोगों के साथ कुत्सित व्यवहार करते हुए गौरव का अनुभव करते हैं। लेखिका उनके योगदान को निम्नलिखित शब्दों में याद करती हैं:

“ओमप्रकाश वाल्मीकि साहित्य के विशिष्ट पुरोधाओं में से एक हैं जिन्होंने समाज को साहित्य में प्रतिबिंबित किया और साहित्य को माध्यम बनाकर समाज में मूलभूत बदलाव लाते हुए शाश्वत मूल्यों की स्थापना हेतु आजीवन सजग, दृढ़संकल्पित  और प्रयासरत रहे।” (पृष्ठ-154)

लेखिका ने भाषा के लेखन में काफ़ी सतर्कता बरती है। उर्दू के शब्द देवनागरी लिपि में शुद्धता के साथ (ख़रीदना, गुज़रना आदि) लिखे गये हैं। फिर भी पुस्तक पूरी तरह शुद्ध वर्तनी में नहीं है। मैं अशुद्ध शब्दों के साथ कोष्ठक में शुद्ध शब्दों को इस आशय से दे रहा हूँ ताकि इतनी अच्छी पुस्तक के दूसरे संस्करण में ये अशुद्धियाँ ठीक की जा सकें:

पृष्ठ-10 : मैं आभारी हूँ सभी का (मैं आभारी हूँ सभी की), 26- सुश्रुषा (शुश्रूषा), 30- सम्पूर्ण राष्ट्र तक व्यापतता है (सम्पूर्ण राष्ट्र तक व्यापता है), महात्म्य (माहात्म्य), 33- उनमें (स्त्रियों में) में शिक्षा (उनमें (स्त्रियों में) शिक्षा),  36- सारेआम (सरेआम), 39- इशारा करते है (इशारा करते हैं), 41- देश कि जनता ( देश की जनता), 43- दुरावस्था (दुरवस्था), 68- अंतराष्ट्रीय (अंतरराष्ट्रीय), 70- कहानियाँ.  .  .साथ चलती है ( कहानियाँ.  .  . चलती हैं), 84- असमान्यता (असमानता), 98- जिन खोजा तीन पाइयाँ ( जिन खोजा तिन पाइयाँ), 99- श्रृंगार (शृंगार), 104- अंतचेतना (अंतश्चेतना), 107- कहानियाँ .  .  .प्रस्तुत करती है (कहानियाँ .  .  . प्रस्तुत करती हैं), 111- तथाकथिक (तथाकथित), 124- बतिया ना (बतियाना),  147- अनाधिकार (अनधिकार)।

निष्कर्षतः यह पुस्तक पाठकों से हिन्दी साहित्य के उत्कृष्ट रचनाकारों का न केवल परिचय कराती है, बल्कि उनकी कृतियों का संश्लिष्ट विवेचन भी प्रस्तुत करती है। अतः यह साहित्य-साधक के लिए एक उपयोगी पुस्तक है जिसे इंटरनेट के विभिन्न पुस्तक विक्रेताओं से प्राप्त किया जा सकता है।

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