अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

फ़िश एंड चिप्स

रहीम कहत पेट सों तू क्यों न भयो तू पीठ। 
 रीते अनरीतै करे भरे बिगारै दीठि

एक उदास-सा भीगा-भीगा दिन। सूरज महोदय हड़ताल पर थे और बरखा रानी बादलों की खिड़की से लगातार ताक रही हैं। सड़कें गीलीं थीं। कार में धीमे स्वर में, ‘तुम अपना रंजो ग़म अपनी परेशानी मुझे दे दो’ बजता गाना चंचला को मज़ाक सा लग रहा था। कोविड के दौरान उसकी और राजन की नौकरियाँ छूट गई थीं। इस समय तो घर का किराया भी भारी पड़ रहा था। कम से कम 20 जगह अर्ज़ियाँ भरी थीं। लेकिन कहीं से कोई ख़बर नहीं। हर तरफ़ मायूसी एक-दो फोन आये भी, तो वे इंकार के थे। अरे नौकरी नहीं देना है तो न दो, ऐसे अफ़सोस जतायेंगे जैसे इनका बड़ा भारी नुक़्सान हो गया हो न लेने के निर्णय से। नौटंकीबाज़! 

घर में साप्ताहिक राशन लाने का दिन सोमवार था। राजन किसी इंटरव्यू की तैयारी कर रहे थे। वह अकेली ही निकल पड़ी। शाम के पाँच बज रहे थे। तापमान 14 डिग्री था। चंचला जैसे ही सुपरमार्केट के कार-पार्क में गाड़ी से बाहर निकली, एक ठंडी लहर उसे भीतर तक चीरती चली गई। 

शुक्र था कि वह हमेशा कार के बूट में अपनी जैकेट रखती थी, गर्मी हो या सर्दी। इंग्लैंड का मौसम भी तो हमारे नेताओं की तरह है। कब पलट जाये . . .। 

दुकान के मुख्य दरवाज़े पर एक तरफ़ बेघर लोगों की मदद करनेवाली संस्था के लिये डिब्बा लेकर एक अंग्रेज़ बुढ़िया खड़ी थी और बायीं और हुडी पहने एक लगभग छह फुट का एक अंग्रेज़ लड़का। बेघर लोगों की मदद करनेवाली संस्था का विज्ञापन भी यहीं है, यह सब चंचला ने एक सैकिंड से भी कम समय में देख लिया था। वह अक़्सर भिखारियों से कतराती है। कारण—पैसे वह देती नहीं है और खाना वो लेते नहीं हैं। सबको दारू के लिये पैसे चाहिये। चंचला ने उन दोनों को नज़रअंदाज़ कर के अंदर घुसने की मानसिक तैयारी कर ली थी। उसकी आशा के अनुरूप, अंग्रेज़ बुढ़िया ने मुस्कुराते हुए ‘हैव यू गॉट सम स्पेयर चेंज’ अर्थात्‌ छुट्टे पैसे देने का आग्रह किया और इधर से यह लड़का भी यही बोला। मानो, आमने सामने बैठ कर प्रतियोगिता चल रही हो कि किसे पैसे मिलते हैं। 

चंचला ने मुस्कुराते हुए इंकार कर दिया। लड़के को उसने बहुत ग़ौर से देखा भी नहीं क्योंकि उसे पता था कि ये लोग पैसे लेकर या तो ड्रग्स ख़रीदते हैं या शराब। तो वह क्यों दे अपनी मेहनत की कमाई? 

उसने सामान बहुत सोच-समझकर ख़रीदा, अक़्सर वह और राजन बहुत सारी अनावश्यक वस्तुओं से ट्राली भर लेते थे। लेकिन अब नहीं। काउंटर पर जाते ही उसे याद आया कि वही कार्ड तो गाड़ी में ही छोड़ आई, बिल कैसे भरेगी? 

“एक मिनिट में वापस आती हूँ,” कहकर वह भागती हुई बाहर निकली। गाड़ी से पर्स हाथ में लेकर वह भागती हुई वापस जा रही थी तब फिर उस लड़के ने वही सवाल किया। उसने कहा, “नहीं है, बताया तो!”

तभी बुढ़िया ने भी वही सवाल पूछा। चंचला रुकी और अपनी कोफ़्त पर क़ाबू रखते हुए बुढ़िया से मुस्कुरा कर बोली, “मैं ज़रूर देती लेकिन आजकल नक़द पैसे कोई रखता ही नहीं हैं।” बुढ़िया ने सहमति में सिर हिलाया। 
चंचला सामान लेकर दुकान से लौट रही थी। लड़का समझ चुका था कि मिलेगा तो कुछ नहीं लेकिन एक अंतिम बार . . ., बोला, “क्या आप मुझे पैसे देंगी? मुझे भूख लगी है।” 

इस बार मैंने देखा कि लड़का ख़ूबसूरत था। उसने नीले रंग की हुडी पहन रखी थी, लगभग 16-17 साल का रहा होगा। उसके होंठ लाल थे। मैंने उसमें नशेड़ी खोजा, दिखा नहीं। उसके चेहरे पर मासूमियत थी। शायद वह सच बोल रहा था। 

चंचला अनसुना कर के चली गई। गाड़ी में सामान रखा और फिर लौट कर उस लड़के के पास गई। उस बार उसने कहा, “देखो, मेरे पास नक़द पैसे नहीं हैं। लेकिन यदि तुम्हें भूख लगी है, तो मेरे साथ चलो मैं तुम्हें खाना दिलवा देती हूँ।” चंचला की आशा के विपरीत वह एकदम राज़ी हो गया, उसकी आँखों में एक चमक सी आ गयी। चंचला फिर द्वंद्वग्रस्त . . . कि वह तो शाकाहारी है। यह तो माँस-मछली खायेगा। पर अब यह तो नहीं कह सकते न? 

तब तक बोल ही पड़ा, “फ़िश एंड चिप्स।” चंचला ने स्वयं को तब तक समझा लिया था सो उसने इशारा किया, “चलो।” ‘फ़िश एंड चिप्स’ की दुकान पास ही थी। 

अचानक मैंने बुढ़िया की तरफ़ देखा। वह मंद-मंद मुस्कुरा रही थी। मौसम की उदासी में मुझे उसकी मुस्कुराहट करुण-सी लगी। मैंने पूछा, “तुम्हारे लिये भी कुछ ला दूँ?” 

वह बौखला गई और हड़बड़ाते हुए बोली, “अरे नहीं, मैं ही ठीक हूँ।” लेकिन चंचला के दोबारा पूछने पर लड़के ने बुढ़िया से कहा कि वह उसके लिये ले आयेगा। तब बुढ़िया ने स्संकोच कहा, “मेरे लिये एक ‘फ़िश केक’ ले आना।” 

लड़का मेरे साथ चलने लगा। उसने चंचला को पूछा कि क्या वह कुछ पीने के लिये ले सकता है। 

चंचला को लगा कि अब इसकी माँग बढ़ रही है उसने कहा कि देखो में तुम्हें दारू तो नहीं दिला सकती। वह झिझकते हुए बोला, “अरे नहीं . . ., बस एक कोक . . . अच्छा . . . नहीं दिलवाना है तो रहने दो।” मानो चंचला का इंकार उस आहत कर देता। 

क्षण भर को चंचला को लगा कि उसका अपना छोटा भाई उससे ज़िद कर रहा है। 

उसने संयत होते हुए कहा ठीक है, “एक कोक ले सकते हो।”

चंचला ने सोचा कि उसका नाम पूछे और उसके बारे में कुछ और जाने। जैसे कि वह भीख क्यों माँग रहा है? कहाँ रहता है? उसके माता-पिता कहाँ हैं . . . इत्यादि . . . लेकिन फ़ौरन ही उसने अपनी भावनाओं पर क़ाबू पा लिया। वह चुपचाप ही रही। 

जब वे दुकान में पँहुचे। वेटर उन दोनों को देख रहा था। चंचला ने लड़के से कहा कि बताओ क्या खाना है? 

तब तक चंचला और नरम पड़ गई थी, स्नेह से बोली, तुम्हें जो भी खाना है, जी भरकर खा लो, उसने अविश्वास से चंचला को देखा। लेकिन फिर चंचला के इशारा करने पर उसे अपनी पसंद का खाना ख़रीदा। 

अचानक चंचला की नज़र पड़ी कि कार्ड से पेमेंट नहीं लिया जाता! चंचला तो कार्ड के भरोसे आ गई थी तो वह एकदम परेशान हो गई। उसने झट अपने बटुए की तहों की तलाशी मिली। उसे एक पाँच पाउंड का नोट मिल गया। भगवान ने उसकी लाज रख ली। लड़के की मनपसंद चीज़ों और बुढ़िया के ‘फ़िश केक’ के बाद भी एक पाउंड बच गया था। चंचला ने लड़के से कहा कि तुम्हें कुछ और लेना हो तो ले लो। उसकी आँखों में पुन: एक क्षण के लिये अविश्वास का भाव आया, लेकिन फिर सकुचाते हुए बोला, “क्या में बाद के लिये एक और कोक ले सकता हूँ?” चंचला ने सिर हिलाया, लड़के की ख़ुशी उसकी आँखों में झलकने लगी। चंचला सोच रही थी कि कैसे हमें सबको एक ही चश्में से देखने की गंदी आदत हैं। 

दुकानवाली अंग्रेज़ महिला और वेटर दोनों की आँखों में चंचला के प्रति प्रशंसा का भाव था। दुकानवाली महिला बोली, “अभी चिप्स तले जा रहे हैं, थोड़ा ठहर जाओ।” लड़का आश्वस्त हो गया था और उत्सुकता से अपने खाने की प्रतीक्षा करने लगा। चंचला बाहर खड़ी हो गई, लड़के के साथ। तभी बादल गड़गड़ाए। चंचला ने सिर पर अपनी हुडी डाली और उसे कहा, “इंजॉय योर मील।” 

वह बोला, “थैंक यू, गॉड ब्लैस यू। हैव ए लवली इवनिंग . . .” 

चंचला को लगा कि मौसम इतना बुरा भी तो नहीं था। उसे एकाएक गरमागरम चाय और पकौड़ों की तलब होने लगी। गाड़ी चालू करते ही ‘तुम अपना रंजो ग़म अपनी परेशानी मुझे दे दो’ के साथ–साथ चंचला भी गाने लगी। 

और उधर हमेशा की तरह दिन भर छुपे रहने के बाद सूरज की नारंगी रोशनी से नहाये, क़तार में खड़े विलो-वृक्ष मस्तक उठा कर खिलखिला उठे। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

सरोजिनी पाण्डेय 2023/02/03 06:43 AM

देने का सुख !

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

कविता

लघुकथा

सांस्कृतिक कथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं