जनता का दुख जनता के सर
काव्य साहित्य | कविता डॉ. वंदना मुकेश1 Nov 2024 (अंक: 264, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
जनता का दुख जनता के सर
सूरज ढलक गया धीरे से
पंछी भी आ पँहुचे घर।
शाम सुहानी सरक गई
रात ने बदले हैं तेवर।
कोई राजा कोई मंत्री
जनता का दुख जनता के सर।
अफ़ग़ानी हो या यूक्रेनी
लोग हुए कितने बेघर . . .
न रोटी, न तन पर कपड़ा,
झुके हुए इंसानी सर।
कोई राजा कोई मंत्री
जनता का दुख जनता के सर।
काम नहीं व्यापार नहीं
कैसे होगी गुज़र-बसर
गिरवी रक्खा नहीं मिलेगा,
कंगन, हँसुली या बेसर।
कोई राजा कोई मंत्री
जनता का दुख जनता के सर।
ग़ाज़ा हो या इज़रायल
मानवता घायल घायल।
सर पर छत, न धरती नीचे
लटके हैं सब अधर-अधर
कोई राजा कोई मंत्री
जनता का दुख जनता के सर।
किसी को रोटी के हैं लाले
कोई खाये घी से तर।
बचपन भूखा, बचपन सूखा
ठोकर खाता है दर-दर।
कोई राजा कोई मंत्री
जनता का दुख जनता के सर
बम-गोले हथियार बनाते
आग बेचते जीवन भर
रिश्ते-नाते धू-धू स्वाहा
बच पाता क्या जीवन पर।
कोई राजा कोई मंत्री
जनता का दुख जनता के सर
जो सुलगाते वही बुझाते
पहन मुखौटा नेता बन
वो बैठे महलों में लेकिन
जनता के मन व्याप रहा डर
कोई राजा कोई मंत्री
जनता का दुख जनता के सर।
क़समें वादे झूठे सारे,
सच खोया है इधर उधर।
टीवी चैनल, अख़बारों में
झूठी है हर एक ख़बर
कोई राजा कोई मंत्री
जनता का दुख जनता के सर।
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