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जर्मन सीखिए : एक आदर्श वस्तुपाठ

समीक्षित पुस्तक:  जर्मन सीखिए
लेखक: अविनाश बिनीवाले
प्रकाशक: अनमोल प्रकाशन, पुणे 
संस्करण: (2002)
पृष्ठ संख्या: 300
मूल्य: ₹100.00

‘जर्मन सीखिए’ यह किताब हिन्दी के साथ-साथ मराठी तथा गुजराती इन दो भाषाओं में छप चुकी है। और लगातार इस पुस्तक की माँग बनी रही है। भाषा-अध्यापन करनेवाले ‘स्वयंशिक्षक’ पुस्तकों के नज़रिये से यह एक विलक्षण सफलता मानी जा सकती है। और अहम बात यह कि यह व्यावसायिक सफलता केवल इस पुस्तक के विषय की न होते हुये उस की ललित शैली, विस्तार-सहित और सुबोध गठन की भी है।

1. भाषा अध्यापन के व्याकरणनिष्ठ तत्त्व

१.१ व्याकरणांशों का क्रम
कौन सा व्याकरणांश किस सोपान पर उपस्थित कर विवेचनपूर्वक कथन किया जाय, प्रथम कौन सी चीज़ें बतलाकर पाठकों को सज्ज किया जाय जिससे यथाक्रम आगे आनेवाले अंश पाठकों को समझने के लिये आसान हों कुछ ऐसे तत्त्वों को सामान्यरूप से भाषा अध्यापन के तत्त्व कहते हैं। इस सम्बन्ध में प्रस्तुत पुस्तक बड़ी विचारपूर्वक बनाई गई है। उदाहरण पहला पाठ वर्णमाला, उच्चारण और आघात इन विषयों को लेकर है। दूसरा, प्रश्नार्थक सर्वनामों से परिचय कराता है। तीसरा, जर्मन में ‘हाँ-ना/नहीं’ कैसे कहें यह सीखाता है। चौथा, व्यक्तिवाचक सर्वनाम; पाँचवाँ नाम और लिंग व्यवस्था से परिचय कराता है; छठा, विभक्ति और कारकसम्बन्धी है, सातवाँ व्यक्तिवाचक सर्वानामों के विभक्तिविषयक है; आठवाँ, सम्बन्धवाचक सर्वनाम और विशेषण इनको लेकर है। इस तरह पाठकों, छात्रों को सज्ज कराते हुये नौवें पाठ से शुरू करते हुये तेईसवें पाठ तक बड़े विस्तार से क्रियापद, विविध कालों में उनके रूप, अनियमित क्रियापद आदि का परिचय दिया गया है। अगले पाठ क्रियाविशेषण, समास, कर्मवाच्य प्रयोग आदि सम्बन्धी हैं। 

इस तरह क्रमशः प्रस्तुति की वजह से पुस्तक बड़ी संवादशील बनी है। यदि ठीक क्रम से पाठक पढे़ं तो निश्चय ही उसका लाभ पाठकों को होगा। इस के अलावा हर हर पाठ में उस उस व्याकरणांश की तुलना हिन्दी से (साथ साथ मराठी, गुजराती, अँग्रेज़ी और संस्कृत इन भाषाओं के साथ भी) की गई है। अतः हिन्दी भाषा प्रभाववश होने वाले कौन से प्रयोग हमें टालने होंगे इस का सही बोध पाठकों को होता है। उदाहरण:

हिन्दी, मराठी, गुजराती आदि उत्तर भारतीय भाषा-भाषियों के लिए कर्मवाच्य रचना का कोई खास महत्त्व नहीं होता, क्योंकि इन भाषाओं में सकर्मक क्रिया के साथ भूतकाल में कर्मवाच्य रचना ही सम्भव होती है, जैसे कि उसने पुस्तक पढ़ी, मैंने काम किया, हमने खाना खाया आदि. लेकिन अंग्रेज़ी, जर्मन आदि युरोपीय भाषाओं में सकर्मक तथा अकर्मक क्रियाओं से सभी कालों में कर्तरी रचना होती है – की जाती है; किन्तु कर्मवाच्य रचना केवल सकर्मक क्रियाओं के साथ ही हो सकती है। जैसे कि अंग्रेज़ी में 

He goes home का कर्मवाच्य प्रयोग The home is gone by him या ऐसा कुछ हो ही नहीं सकता, क्योंकि to go क्रिया अकर्मक है। (हालांकि संस्कृत भाषा में ‘सः गृहं गच्छति’ का कर्मवाच्य प्रयोग हो सकता है, प्रचुरता से होता है – ‘तेन गृहं गम्यते।’ संस्कृत भाषा में यह सम्भव है, क्योंकि सारी गतिवाचक क्रियाएँ जो आधुनिक भाषाओं में अकर्मक होती हैं, संस्कृत में सकर्मक होती हैं!) खैर. (पृ. २८८)

इसी तरह हिन्दी भाषा की रचना के तुलना में जर्मन का विश्लेषण अंश दर अंश प्रस्तुत किया गया है और साथ हिन्दी उच्चारण जर्मन लिपिव्यवस्था में कैसे अंकित करें इसके सम्बन्ध में पहले पाठ में किया गया विवेचन मार्गदर्शक है। उदाहरण: चिन्मय इस नाम की वर्तनी अंग्रेज़ी में Chinmay इस तरह होगी। किन्तु जर्मन में y य अक्षर है नहीं और ch का उच्चारण च नहीं होता; ऐसे में यह पुस्तक हमें बताती है कि जर्मन लिपी में अथवा जर्मनभाषी के मुख से यदि हमें चिन्मय ऐसा उच्चारण हासिल करना हो तो Tschinmaj ऐसी वर्तनी बनानी होगी।

१.२ अध्यापननिष्ठ व्याकरण

भाषा का व्याकरण एक तरह से उसका वर्णन ही होता है। भाषा-वैज्ञानिकों को और भाषा के अध्येताओं को ऐसे वर्णन भाषिक गवेषणा हेतु आवश्यक होते हैं। उन्हें वर्णनात्मक व्याकरण  (Descriptive grammar) ऐसा कहा जाता है। भाषा पढ़ाने के लिये किन्तु अध्यापननिष्ठ व्याकरण (pedagogic grammar) का अनुसरण करना उचित होता है। ख़ासकर जब किसी विशेष भाषक समूह को (यहां हिन्दी) कोई दूसरी भाषा (यहां जर्मन) सीखाई जा रही हो तब उन दो भाषाओं में विद्यमान विरोध, समानताएँ अधोरेखित करते हुये नई भाषा का अच्छे से सविस्तार परिचय संरचनात्मक स्तर पर कराना ज़रूरी होता है। इसे उस भाषा की नींव कह सकते हैं। नये शब्द अथवा वाक्य पढ़ाने नहीं होते बल्कि नई भाषा की संरचना यदि समझ में आ जाये तो उस भाषा के तफ़सील सीखना कोई मुश्किल बात नहीं होती। इस बात का ध्यान इस किताब जगह जगह रखा गया है और पाठकों के सामने सीखने के लिये अनुकूल रूप से जर्मन व्याकरण प्रस्तुत किया है।

१.२ व्याकरण-अनुवाद पद्धति का संयत प्रयोग

व्याकरणांश प्रस्तुत करके उसके सम्बन्ध में जर्मन भाषा के तथ्य सोदाहरण स्पष्ट करना यह क्रम रखा गया है। व्याकरण-अनुवाद पद्धति में प्रथम व्याकरणांश के माध्यम से पढ़ाई जानेवाली भाषा के तथ्य उपस्थित किये जाते हैं बाद में ज्ञात भाषा में उसका अनुवाद दिया जाता है। किन्तु आजकल डायरेक्ट मेथड का चलन ज़्यादा है और सुप्रतिष्ठ संस्थाओं में से डाइरेक्ट मेथड का प्रयोग किया जाता है। अपनी भाषा सम्बन्धी हमें कुछ व्याकरणांश ज्ञात हो तो उनके ज़रिये अपरिचित भाषा सीखने के लिये निश्चय ही मदद होती है और डाइरेक्ट मेथड से कभी-कभार मन व्याकरणांश सम्बन्धी मन सन्देह पैदा होते हैं, तो ऐसे समय यह पुस्तक संजीवनी साबित होती है। व्याकरणांश जान लेने से नयी भाषा का चलन-वलन और संरचना समझ लेना आसान हो जाता है और भाषा शीघ्रता से अवगत होने में मदद होती है। इस पुस्तक का विशेष यह है कि किसी एक पद्धति के शरण न जाते हुये यह पुस्तक दोनों पद्धतियों का संयत रूप से प्रयोग करती है। 

इस पुस्तक का अन्य विशेष यह भी है कि हर एक उदाहरण हेतु लिये गये वाक्य के नीचे उसका देवनागरी उच्चारण, उसके नीचे शब्दशः हिन्दी प्रतिशब्द योजना और अन्त में हिन्दी वाक्य ऐसा क्रम पूरी किताबभर रखा गया है। इससे आरम्भ स्तर के छात्र को यदि किसी अगले पाठ से कुछ समझ लेना हो तो वह सहज सम्भव होता है। उदाहरण: 

Meenakschi kann gut schwimmen.
मीनाक्षी    कान्         गूट्‍  श्विमन्
मीनाक्षी    सकती है    अच्छा    तैरना.
मीनाक्षी अच्छी तरह से तैर सकती है। (पृ. १०३)

2. पृष्ठपूरक

लगभग हर पाठ के अन्त में एक दिलचस्प बक्सा दिया हुआ है। केवल बचे हुये पन्ने की पूर्ति करना ऐसा सीमित हेतु होते हुये भी इसमें से पाठक को जर्मनी स्थित नदियाँ, पहाड़, उनके वाचक शब्द, जर्मन लिपी तथा उसका विकास (पृ. ३६, ४८), भारत जर्मन भाषा शिक्षा का कहां हुआ आरम्भ (पृ. २२, ८३), जर्मन भाषा के भारतीय शब्दकोश (पृ. ९८), जर्मनी की पहली रेलवे (पृ. ११३)  आदि विषयों पर रोचक जानकारी हासिल होती है। जिसे किसे जर्मन ना भी सीखनी हों और वह बस ये पृष्ठपूरक अंश ही पढ़ लें तो उसेभी यह भाषा सीख लेने की प्रेरणा मिल जाये, कुछ इस तरह यह बक्से ललित शैली जानकारी से भरे हुये हैं। 

3. मुखपृष्ठ और जिल्द

जर्मनी के झंडे के रंग पृष्ठभूमि पर रखते हुये बीचो बीच बर्लिन स्थित राजमहल का चित्र दिया गया है। उपर ‘जर्मन सीखिये’ (स्वयंशिक्षक) यह नाम छपा हुआ है। अजिल्द तथा सजिल्द का विकल्प नहीं है, पुस्तक केवल अजिल्द रूप में ही मिलती है। काग़ज़ का दर्जा ठीक-ठाक है और तो और ३०० पन्नों की यह किताब २००१-०२ के संस्करण का मूल्य भी केवल १०० रुपये था। आज भी इस की क़ीमत काफ़ी किफ़ायती है और शायद यह बात छात्र-ग्राहक को ध्यान में रखते हुये की गयी है। मुद्रणदोष अत्यल्प यानी नहीं के बराबर है और उच्चारण हेतु विशेष सावधानता बरती गयी है। 

4. कम-ज़्यादा अर्थात् कुछ ख़ामियाँ

 ४.१ यदि हर पाठ के अन्त में अभ्यास हेतु कुछ प्रश्न दिये होते और उनके उत्तर छोटे फ़ाण्ट में अन्त में परिशिष्ट के रूप दिये होते तो बतौर एक पाठ्यपुस्तक (टेक्स्टबुक) यह पुस्तक अधिक सफल होती। लेकिन शायद स्कूलों कालेजों के छात्र अभ्यास हेतु अन्य पुस्तकों का प्रयोग कर रहे हैं और यह किताब उन्हें सहायता करती है इस हेतु से अभ्यासांश न दिये गये हैं तो समझ सकते हैं। लेकिन फिर कुल मिलाकर इस पुस्तक का विस्तार देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि यह सहायक पुस्तक न होते हुये एक स्वतन्त्र स्वयंशिक्षक की भूमिका अदा कर सकती है। और यदि अभ्यास हेतु अन्य भाषा द्वारा जर्मन पढ़ानेवाले किताबों की मदद लेनी पड़ रही हो तो हिन्दी माध्यम से जर्मन पढ़ाने का काम अब अधूरा है ऐसा कहना पड़ेगा। 

 ४.२ आजकल घर-घर कम्प्युटर, लॅपटॉप और कान-कान पर मोबाईल दिखाई देते हैं। तो इस पुस्तक में दिये गये समस्त वाक्य यदि किसी जर्मनभाषी के आवाज़ में रेकार्ड कर पुस्तक के साथ एक सीडी दी जाती या आंतरजाल पर एमपी थ्री फ़ाइलें महैया कराई जाती तो आरम्भ करनेवाले छात्रों को बड़ी साहायता होती। आते-जाते छात्र ये एमपीथ्री फ़ाइलें अपने मोबाईल में चलाकर सुन सकते और शीघ्रगति से भाषा सीखने के लिये छात्रों को यह बड़ा उपकारक हो जाता। ऐसी एक सीडी इस पुस्तक के साथ जोड दी जाये तो यह एक स्वयंपूर्ण पाठ्यक्रम साबित होगा।

5. निष्कर्ष

इस जर्मन सीखानेवाली पुस्तक ने हिन्दी द्वारा अन्य भाषाएँ सीखाने वाली किताबों के लिये एक आदर्श वस्तुपाठ, एक उमदा मिसाल क़ायम की है। लेखक महोदय ने इसी तरह, यहीं किताब मराठी तथा गुजराती में भी लिखी हैं और वेभी दस साल पहले प्रकाशित हो चुकी हैं। इन्होंने जर्मन-मराठी और मराठी-जर्मन ऐसे कोश भी रचे हैं। इतने विस्तार से जर्मन सीखानेवाली किताब किसीभी भारतीय भाषा में उपलब्ध होना यह अपने आप में ही एक उमदा बात है। भारतीय भाषाओं में से अन्य विदेशी तथा अन्य भारतीय भाषाएँ सीखानेवाली अच्छी किताबें आना ज़रूरी है। लेखक तथा प्रकाशक दोनों को पुस्तक के लिये बधाई देनी होगी!

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