घोड़ा और बुज़ु़र्ग
अनूदित साहित्य | अनूदित कविता बलबीर माधोपुरी4 Feb 2019
पंजाबी कविता
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
सदियों से
उसकी पीठ पर सवार है
अमानवी वर्ण
यहाँ के धर्म
शैतानी मिथ्या कर्म।
नंगे बदन पर
जब बरसता है चाबुक
वह चलता नहीं
सरपट दौड़ता है
भूल जाता है
कानों में ठुँसी रुई
आँख–पट्टी
मुँह का जाल
ग्रीष्म और शीतकाल।
स्मृतियों
विधानों में बंधा
जिनके दर पर
वह बाहर खड़ा है
वहीं बताते हैं
खुशी की रौ में
फिकरे कसते हैं –
वह सोता है चोरी–चोरी
बैठे कभी देखा नहीं
बस, लिटाये हुए देखा है
जब ठुकती है पैरों में नाल।
घासफूस, बचा–खुचा
फोकट–छिलका खाकर
वह इतना फुर्तीला
कि समय को पछाड़ दे
वह इतना ताकतवर
कि बिजली गश खाये।
और आजकल
वह बार–बार अड़ने लगा है
सीख की तरह खड़ा होने लगा है
और मुझे
अब यों प्रतीत होता है
जैसे वह नीला घोड़ा
मेरा बुज़ुर्ग हो
थके हारे लोक–मन का
केई ताजा सुर हो।
सदियों से
उसकी पीठ पर सवार हैं
अमानवी वर्ण
यहाँ के धर्म
शैतानी मिथ्या–कर्म।
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