गिरगिट
कथा साहित्य | लघुकथा रमेश ‘आचार्य’15 Nov 2019
सावन का महीना उत्सवमय हो चला था और भक्ति में डूबे काँवड़िये महानगर में अपनी छटा बिखेर रहे थे। कॉलोनी की सोसायटी वालों ने भी शिवभक्त काँवड़ियों की सेवा के लिए शिविर लगाया हुआ था। अभी जलाभिषेक में चार दिन बाक़ी थे और काँवड़ियों का शिविर में आना-जाना लगा हुआ था। श्रद्धालुओं की भीड़ उनके दर्शन हेतु उमड़ रही थी। कोई उन्हें फल खिला रहा था, तो कोई पकवान, और कोई तो हाथ-पैरों में आई चोटों के लिए दवाई दे रहा था। सभी उनकी सेवा-सुश्रूषा में भक्तिभाव से जुटे हुए थे। मिसेज शर्मा भी शिव भक्तों के दर्शनार्थ शिविर में दाख़िल हुई। सहसा उस दृश्य को देखकर मानो उनकी पैरों तले ज़मीन ही खिसक गई हो। उनकी ही ब्लॉक की औरतें उस ‘लफ़ंगे’ को घेरे खड़ी उसकी सेवा-टहल कर रही थीं जिसने गत दिनों पहले ही उनकी लड़की को रात के वक़्त पकड़ा था जब वह घर आ रही थी। तब इन्हीं औरतों ने कहा था, कि "मिसेज शर्मा, घबराइए नहीं, जैसी आपकी लड़की वैसी हमारी लड़की। इस लफ़ंगे को अब सबक़ सिखाना ही पडे़गा।"
वह लफ़ंगा मंद-मंद मुस्कुराता हुआ एक कुशल क़िस्सागो की भाँति अपनी काँवड़ यात्रा की गाथा सुना रहा था। तभी वहीं औरत जिसने उस दिन इस लफ़ंगे को सबक़ सिखाने का बीड़ा उठाया था, बोली, "भई, कुछ भी कहो, आज इसने हमारी कॉलोनी का नाम रोशन कर डाला।" वहाँ खड़ी सभी औरतों ने फिर ‘हाँ’ में सिर हिलाया। लेकिन जैसे ही उनकी नज़र कोने पर खड़ी मिसेज शर्मा पर पड़ी तो वे सभी बगलें झाँकने लगे। मिसेज शर्मा को वे सभी औरतें उस लफ़ंगे से भी बड़ी गिरगिट नज़र आ रहीं थीं।
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