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ग्रीष्म ऋतु की रात्रि का आकाश

 

मानव मन कार्य ही ऐसे करता है कि जब हम एक के बारे में सोचते हैं तो दूसरे को सम्मुख ला के खड़ा कर देता है। 

शरद ऋतु का चंद्र मुझे बेहद पसंद है। ये विचार मैं जैसे ही सोचता हूँ तो मेरे सामने ला देता है ‛ग्रीष्म ऋतु की धवल निशा का दृश्य’। 

ग्रीष्म ऋतु शब्द आते ही उमड़ पड़ती है एक हवा यादों की। ऐसे लगता है जैसे एक-एक याद हवा बनकर किसी झील के पानी को छूते हुए मुझ तक आ रही है क्योंकि मैं महसूस कर रहा हूँ यादों में ठंडक। 

मुझे सबसे पहले याद आती हैं छुटपन में ग्रीष्म की छुट्टियों में शहर से गाँव आगमन, फिर ग्रीष्म में ही कहीं ‘टूर' पर दोस्तों संग बिताई गई रातें और शृंखला बन पड़ती है यादों की। 

. . . तो मैं कहने जा रहा था कि ग्रीष्म ऋतु की रात्रि का आकाश इतना आकर्षक होता है कि लगभग हर कोई आकर्षित होता ही है भले ही कौतूहलवश या फिर सौंदर्यवश। ग्रीष्म की रात्रि का आकाश अक़्सर साफ़ होता है यदा-कदा कुछ छुट-पुट बादल मिल जाते हैं किन्तु बहुधा साफ़ ही होता है तिस पर चाँदनी रात का चाँद और उसके बेहद क़रीब रहने वाला सितारा उस पर चार चाँद लगा देते हैं। सितारा चाँद से इतना दूर होता है जितना किसी छोटे लड़के के सौंदर्य और उसके डिठौने की दूरी, इतना कि किताब के शब्द और पाठक के आनंद के बीच की दूरी, इतना कि किसी प्रेमिका के सौंदर्य और उसके दाएँ गाल के ठीक नीचे बना तिल। जो चाँद की सौंदर्यता को और सुशोभित करता है, बढ़ा देता है उसकी सौंदर्यता। . . . और किसी किसी दिन ‛नभ मेखला’ बनी मंदाकिनी की रेखा उस दृश्य को चित्रकार को कैनवस पर उकेरने पर मजबूर कर देती है या फिर किसी को बना देती है खगोल-विज्ञानी या किसी लेखक को शब्दों से चित्र बनाने की प्रेरणा देती है, तो वहीं दो प्रेमियों के अभ्यन्तर में बनाती है यही मेखला सेतु और ले जाती है उन्हें प्रेम से स्नेह की ओर। 

इन तारों से भरे आकाश के तले सोने का सुख अद्वितीय होता है क्योंकि तब बरसती है चाँदनी और आधे जगत को चाँदी के बर्क में उतार देती है, बना देती है इस आधी धरती को चाँदी का। यह अनुभव अवर्णनीय है, अव्यक्त है, अप्रतिम है। 

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