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हाय! हम क्यों न हुए खुशवंत! 

खुशवंत सिंह की याद तो हमेशा ही आएगी। हमारे दिल से वह कभी नहीं जाएँगे। और कि यह आह भी मन में कहीं भटकती ही रहेगी कि, हाय! हम क्यों न हुए खुशवंत! लेखक और पत्रकार तो वह बड़े थे ही, आदमी भी बहुत बड़े थे वह। जितने अच्छे थे वह, उतने ही सच्चे भी थे वह। एकदम खुली तबीयत के आदमी। लोग अब उन का औरतबाज़ और शराबी आदमी के रूप में ज़िक्र करते हैं तो मुझे यह बहुत बुरा लगता है। सच यह है कि वह सच्चे आदमी थे। बहुत ही सच्चे। अपनी ख़ूबी-ख़ामी हर चीज़ के बारे में वह खुल कर बोलते और लिखते थे। अगर वह ख़ुद अपने बारे में इतने खुलेपन से न बताते या लिखते तो वह ऐसी तोहमत से बच सकते थे। पर दिखावा उनकी तासीर में नहीं था। कितने लोग हैं आज की तारीख़ में जो इतना खुला जीवन जिएँ और उसे क़ुबूल भी करें। हिप्पोक्रेटों से दुनिया भरी पड़ी है। भीतर कुछ, बाहर कुछ। कथनी कुछ, करनी कुछ। पर खुशवंत सिंह को हिप्पोक्रेसी छूती तक नहीं थी। सरलता और सच उनकी बड़ी ताक़त थे। सच, प्यार और थोड़ी सी शरारत उनकी आत्मकथा का हिंदी अनुवाद है। जिसे निर्मला जैन ने बड़ी तबीयत से किया है। ऐसा सरल अनुवाद और ऐसी निर्मल आत्मकथा मैंने अभी तक नहीं पढ़ी है। खुशवंत सिंह से दो बार मिला भी हूँ। एक बार दिल्ली में दूसरी बार लखनऊ में। मिलते भी वह तबीयत से थे। बाद में वह ज़रा ऊँचा सुनने लगे थे। लेकिन फ़ोन पर बात करते थे। और बता कर करते थे कि ज़रा ज़ोर से बोलिए, कम सुनता हूँ। ज़्यादातर समय वह फ़ोन भी ख़ुद ही उठाते थे। वर्ष 2000 में जब मेरा उपन्यास ’अपने-अपने युद्ध’ छपा था तब उन को भी भेजा था। किताब मिलने पर एक शाम उन का फ़ोन आया था। कहने लगे आप का नावेल तो मिल गया है पर क्या करें हमें हिंदी पढ़ने नहीं आती। माफ़ कीजिएगा। सुन कर मैं उदास हो गया था। लेकिन फिर कुछ दिन बाद उन का फ़ोन आया कि मैंने कुछ हिस्सा उलट-पुलट कर पढ़वा कर सुना है आप के नावेल का। इस नावेल का हिंदी में क्या काम? इसे तो इंग्लिश में होना चाहिए। इसे ट्रांसलेट करवाइए। मैंने हामी भर ली। लेकिन कोई ट्रांसलेटर ऐडवांस पैसा लिए बिना तैयार नहीं हुआ। और कि पैसे भी बहुत ज़्यादा माँगे। मैंने तौबा कर लिया। ग़लती हुई तब कि किसी प्रकाशक से सीधी बात नहीं की कि वह अनुवाद कर के छापे। ख़ैर बात फिर भी कभी- कभार फ़ोन पर होती रही खुशवंत सिंह से। 

हालाँकि उन दिनों यहाँ लखनऊ में लोग ’अपने-अपने युद्ध’ को ले कर पीठ पीछे मुझ पर तंज़ करते कि यह तो खुशवंत सिंह को भी मात कर रहा है। ग़रज़ यह थी कि अपने-अपने युद्ध में कुछ देह प्रसंग थे। और पढ़ सभी रहे थे एक दूसरे से माँग-माँग कर। और अंतत: अघोषित तौर पर मुझे अश्लील लेखक क़रार दे दिया गया। घोषणा होती-होती कि हाईकोर्ट में कंटेंप्ट ऑफ़ कोर्ट हो गया इस उपन्यास को ले कर और राजेंद्र यादव का चार पेज का संपादकीय हंस में आ गया, केशव कहि न जाए, का कहिए! इस उपन्यास को ले कर। सो लोगों के मुँह सिल गए। घोषणा स्थगित हो गई मुझे अश्लील लेखक क़रार देने की। मैंने यह सारी दिक़्क़त बताई थी एक बार खुशवंत सिंह को भी फ़ोन पर। तो उन्होंने छूटते ही कहा था कि इस सब की फ़िकर छोड़ कर सिर्फ़ लिखने की फ़िकर कीजिए। और ग़ालिब का एक शेर भी सुनाया था। जो मुझे तुरंत याद नहींं आ रहा। 

ख़ैर, उषा महाजन के हिंदी अनुवाद के मार्फ़त उनकी कुछ कहानियाँ पढ़ी हैं मैंने। जब युवा था तब उनकी बाटमपिंचर कहानी पढ़ी थी और जब तब बाटमपिंचरी का जायज़ा भी। उनकी दिल्ली और बँटवारे को ले कर चले दंगे का लोमहर्षक कथ्य परोसता ट्रेन टू पाकिस्तान भी। छिटपुट लेख भी। और उनके कालम का तो मैं नियमित पाठक रहा हूँ। शनिवार को पहले उन का कालम पढ़ता था फिर बाक़ी अख़बार। लेकिन जब उनकी आत्मकथा ’सच, प्यार और थोड़ी सी शरारत’ पढ़ी तो मैं जैसे दीवाना हो गया खुशवंत सिंह का। ऐसी निर्मल और ईमानदार आत्मकथा दुर्लभ है। दुनिया की किसी भी भाषा में। खुशवंत सिंह के जीवन में इतना रोमांच है, इतने मोड़, इतने सच और इतने बाकमाल अनुभव हैं कि पूछिए मत। और इन सब को कहने के लिए उनके पास जो पारदर्शिता है, जो बेबाकी है और जो आत्म-निरीक्षण की ताक़त है वह किसी और आत्मकथा में मुझे तो नहींं मिली अभी तक। शायद ही मिलेगी। 

भारतीय क्या किसी भी समाज में कोई अपनी माँ की शराबनोशी के बारे में खुल कर लिखे और बताए कि मरते समय हमारी माँ की अंतिम इच्छा ह्विस्की थी। खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा में यह बात लिखी है और बड़ी आत्मीयता से लिखी है। न सिर्फ़ लिखी है बल्कि इस बात को अपने पिता से भी जोड़ा है। बहुत ही सिलसिलेवार। बताया है कि पिता जब जीवित थे तो नियमित शराब पीते थे। शराब पार्टियाँ देते ही रहते थे। घर में शराब पीने का भी उन का एक समय निश्चित था। माँ सारी व्यवस्था रोज़ ख़ुद करती थीं। लेकिन ख़ुद शराब छूती तक न थीं। बाद के दिनों में जब पिता का निधन हो गया, वह अकेली हो गईं तो अचानक पिता के शराब के समय ख़ुद शराब पीने बैठने लगीं। नियमित। और जब मृत्यु का समय आ गया तो उन्होंने अंतिम इच्छा हिचकी लेते हुए ह्विस्की की ही बताई। तो ज़ाहिर है कि वह ह्विस्की नहीं, ह्विस्की के बहाने पति को याद कर रही थीं। यह और ऐसा रुपक, ऐसी संवेदना खुशवंत बिना किसी घोषणा या नैरेशन के रच देते हैं। और समझने वाले पाठक, समझ लेते हैं। वह भी आत्मकथा में। आत्मकथा उनकी इतनी विविध है, इतने मोड़ और इतने रोमांच हैं उस में इतनी सारी घटनाएँ भरी हैं कि सब का ज़िक्र कर पाना यहाँ अभी और अभी तो बिलकुल सम्भव नहींं है। फिर भी एक जायज़ा तो ले ही सकते हैं। 

इतना ही नहीं वह अपने तमाम प्रेम और देह प्रसंग तो अपनी आत्मकथा में बाँचते ही हैं, अपनी पत्नी के प्रेम प्रसंग को भी उसी निर्ममता से बाँचते हैं। उन का एक दोस्त है और उन से एक दिन मज़ाक-मज़ाक में उनकी बीवी की सुंदरता के बाबत चर्चा करता है और कहता है कि मुझे तो तुम्हारी बीवी से इश्क़ हो गया है। मेरा लव लेटर पहुँचा दो उस तक। खुशवंत सिंह मज़ाक ही मज़ाक में इस बात पर न सिर्फ़ हामी भर देते हैं बल्कि उस का प्रेम पत्र बीवी तक पहुँचाने भी लगते हैं। नियमित। और यह देखिए कि खुशवंत सिंह की पत्नी सचमुच उस आदमी के साथ न सिर्फ़ प्यार में पड़ जाती हैं बल्कि इन का दांपत्य भी ख़तरे में पड़ जाता है। अब खुशवंत सिंह अपना दांपत्य बचाने के लिए गुरुद्वारे में अरदास करते रहते हैं। अब उन का ज़्यादातर समय गुरुद्वारे में बीतने लगता है। इस पूरे प्रसंग को इतना भीग कर लिखा है कि खुशवंत सिंह ने कि खुशवंत सिंह से प्यार हो जाता है। मेरे जैसा आदमी उन का मुरीद हो जाता है। नहीं लिखने को तो हरिवंश राय बच्चन ने भी अपनी आत्मकथा में ऐसा एक छिछला सा प्रसंग लिखा है और अपनी आत्ममुग्धता में डूब कर बड़ी बेईमानी से लिखा है कि पता चल जाता है कि वह सारा का सारा कुछ झूठ लिख रहे हैं। कि बच्चन लंदन में हैं। इलाहाबाद में एक आदमी उनकी पत्नी तेज़ी बच्चन के चक्कर में पड़ जाता है। तेज़ी उस की कार में बैठ कर यमुना किनारे तक जाती भी हैं पर अचानक उतर कर भाग आती हैं आदि-आदि। लेकिन इन को नहीं बतातीं अपनी चिट्ठी में तो इस लिए कि कहीं पढ़ाई में विचलित न हो जाएँ। बताइए कि तेज़ी बच्चन के तमाम प्रसंग लोगों की ज़ुबान पर आज भी हैं, अमरनाथ झा से लगायत, सुमित्रानंदन पंत और जवाहरलाल नेहरु आदि तमाम-तमाम लोगों तक। लेकिन बच्चन की आत्मकथा इन सारे प्रसंगों पर ख़ामोश है और कि आत्म-मुग्धता के सारे प्रतिमान ध्वस्त करती हुई है। यह इस बिना पर मैं कह रहा हूँ कि कुछ प्रसंग ऐसे हैं जिन्हें बच्चन और शमशेर दोनों ने लिखा है। शमशेर के विवरण में तटस्थता है अपने प्रति। पर बच्चन के विवरण में मैं ही मैं तो है ही, आत्ममुग्धता और झूठ भी है। मैं तो कहता हूँ कि अगर हरिवंश राय बच्चन की ज़िन्दगी के खाते से मधुशाला, तेज़ी बच्चन और अमिताभ बच्चन को हटा लिया जाए तो हरिवंश राय बच्चन को लोग कैसे और कितना याद करेंगे भला? ख़ैर यह दूसरा प्रसंग है। इस पर फिर कभी। 

पर यहीं खुशवंत सिंह की आत्म-कथा अन्य से अनन्य हो जाती है। यह और ऐसे तमाम प्रसंग इस सच, प्यार और थोड़ी सी शरारत को अप्रतिम बना देते हैं। 

दूतावास की नौकरियों के कई विवरण हैं उनके पास। एक मध्यवर्गीय परिवार कैसे तो पैसे बचाता रहता है, इस बाबत उस की कंजूसी, चालाकी और बेशर्मी का वर्णन भी है। वह परिवार एक कमरे के मकान में रहता है। रोज़ रात को बच्चों को कार में सुला देता है। शाम का खाना अक़्सर नहीं बनता है। दूतावास में अक़्सर पार्टी वग़ैरह होती रहती हैं। तो उस पार्टी में कभी मियाँ, बीवी को खोजते हुए आ जाता है, कभी बीवी मियाँ को खोजते हुए आ जाते हैं। फिर बच्चे भी। यह उन का नियमित सिलसिला है। और खा पी कर चले जाते हैं। 

मुंबई के दिनों के भी कई सारे दिलचस्प विवरण हैं। जैसे कि एक व्यवसायी की पार्टी का विवरण है। वह एक शीशे की छत का स्विमिंग पुल बनाए हुए है। पार्टी के दौरान औरतें नंगी हो कर तैरती रहती हैं और नीचे से लोग शराब पीते हुए इन औरतों को देखते रहते हैं। एक समय वह भी आता है जब खुशवंत के बेटे राहुल सिंह भी टाइम्स ऑफ़ इंडिया में सब एडीटर बन कर नौकरी करने आ जाते हैं। खुशवंत ख़ुद इलस्ट्रेटेड वीकली में संपादक हैं। 

बताइए कि पत्रकारिता में लायजनर्स और दलालों की जैसे फौज खड़ी है हमारे सामने लेकिन हर कोई अपने को पाक साफ़ और सती-सावित्री बताने में सब से आगे है। एक से एक एम.जे. अकबर, रजत शर्मा, प्रभु चावला, आशुतोष आदि पूरी तरह नंगे खड़े हैं पर सूटेड-बूटेड दिखते हैं। बिलकुल शहीदाना अंदाज़ में। लेकिन इन सब में से किसी एक में यह हिम्मत नहीं है जो ख़ुशवंत सिंह बन सके और उनकी तरह खुल कर कह सके जैसे कि वह अपने बारे में कहते हैं अपनी आत्मकथा में। ख़ुशवंत सिंह बहुत साफ़ लिखते हैं कि हाँ, मैं संजय गाँधी का पिट्ठू था। और बार-बार। और तमाम सारे क़िस्से। एक जगह उन्होंने लिखा है कि जनता पार्टी की सरकार के पतन के बाद जब कांग्रेस की दुबारा सरकार बनी तो संजय गाँधी ने उनके सामने दो प्रस्ताव रखे। एक कि वह कहीं राजदूत बन जाएँ या फिर कहीं संपादक और राज्य सभा सदस्य बन जाएँ। यह दूसरा प्रस्ताव ख़ुशवंत ने स्वीकार कर लिया। फिर वह जल्दी ही हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक बना दिए गए। और एक दिन वह भी आया जब वह राज्यसभा के लिए भी मनोनीत हो गए। उन्होंने लिखा है कि जब उन्हें यह सूचना फ़ोन पर संजय गाँधी ने दी तो वह किसी बच्चे की तरह ख़ुश हो कर चिल्ला पड़े। 

लेकिन एक समय वह भी था कि इमरजेंसी और सेंसरशिप लगते ही ख़ुशवंत सिंह ने कहा था कि सारे अख़बार बंद कर दिए जाने चाहिए। तब के दिनों वह टाइम्स ऑफ़ इंडिया ग्रुप की पत्रिका इलस्ट्रेटेड वीकली के संपादक थे। लेकिन बाद में मेनका गाँधी की वजह से वह पलट गए। मेनका गाँधी जो तब मणिका हुआ करती थीं, ख़ुशवंत सिंह की रिश्तेदार हैं। यह बात माधुरी के तब के संपादक अरविंद कुमार ने लिखी है। ख़ैर, बाद में यही ख़ुशवंत सिंह इमरजेंसी के न सिर्फ़ अच्छे ख़ासे पैरोकार बन कर उभरे बल्कि एक किताब भी इस बाबत लिखी। बाद के दिनों में इंदिरा गाँधी और संजय गाँधी के क़सीदे भी उन्होंने ख़ूब लिखे। और अपनी इस कमी को स्वीकार भी किया। 

लेकिन वह सिख दंगों के दिन थे जब ख़ुशवंत सिंह का कांग्रेस से जब मोहभंग हो गया। एहतियात के तौर पर तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने उन्हें राष्ट्रपति भवन बुला लिया था और कई सिख परिवारों ने रा्ष्ट्रपति भवन में शरण ली थी तब। लेकिन दिक़्क़त यह थी कि राष्ट्रपति भवन में भी राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह समेत तमाम सिख अपने को असुरक्षित महसूस कर रहे थे और मारे भय के दुबके हुए थे। 

राष्ट्रपति भवन के उन दिनों का बहुत ही लोमहर्षक विवरण ख़ुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा में परोसा है। यह पढ़ कर भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह पत्ते की तरह काँप रहे थे कि कहीं वह भी न मार दिए जाएँ। राष्ट्रपति ख़ुद थानों को फ़ोन कर रहे थे, अफ़सरों को फ़ोन कर रहे थे, सिख भाइयों को बचाने के लिए और इक्का दुक्का को छोड़ कर कोई भी उनकी सुनने को जल्दी तैयार नहीं हो रहा था। राष्ट्रपति असहाय थे। 

राज्यसभा के भी एक से एक क़िस्से उन्होंने लिखे हैं। सदन में सोने वालों से ले कर बदबूदार पादने वालों तक के। यह भी कि सिख दंगों पर कैसे तो कांग्रेसियों ने उन्हें न सिर्फ़ बोलने नहीं दिया सदन में बल्कि अपमानित भी बहुत किया। अगली बार लेकिन राज्यसभा जाने को वह फिर उतावले हुए। भाजपा की बाँह तक थामी पर सफल नहीं हुए। यह सब कुछ बड़ी सहजता और पूरी ईमानदारी से। अपनी उपल्ब्धियाँ भी उतनी ही ईमानदारी से और अपनी कमज़ोरियाँ, अपनी क्षुद्रताएँ और कमीनगी भी उसी ईमानदारी से। एक रत्ती भी बेईमानी नहीं। 

वह ट्रेन से भोपाल जा रहे हैं। ट्रेन टु पाकिस्तान लिखने की योजना बना कर। वहाँ के ताल में एक गेस्ट हाऊस है उन का। ट्रेन में तब के दिनों के एक बड़े बिस्कुट व्यापारी भी उनके सहयात्री हैं। उन को खाने के लिए बिस्कुट पेश करते हैं औपचारिकता में। ख़ुशवंत सिंह मना कर देते हैं तो वह कहते हैं कि देखो तो सही कि यह बिस्कुट तुम्हें खिला कौन रहा है? और अपना परिचय बताते हैं। ख़ुशवंत सिंह बिस्कुट ले लेते हैं और अपना परिचय भी बताते हैं। अपने अमीर पिता शोभा सिंह का नाम बताते हैं। जो दिल्ली के न सिर्फ़ सब से बड़े ठेकेदार हैं बल्कि अमीर भी। अपने कैंब्रिज़ की पढ़ाई, दूतावासों की नौकरियों आदि की भी फ़ेहरिस्त बताते हैं। अपने संपादक और लेखक होने के ब्यौरे में जाते हैं। यह सोच कर कि उस व्यापारी पर अपना रौब पड़े। पर वह तो अपने एक संवाद से ही ख़ुशवंत को ज़मीन पर बिठा देता है। 

वह यह सब सुन कर जब कहता है कि अरे तब तो तुम ने अपने बाप का पैसा डुबो दिया, अपनी पढ़ाई का भी ख़र्च नहीं निकाल पाए तुम तो! यह सुन कर ख़ुशवंत सिंह सन्न रह जाते हैं। 

वह अपनी आत्मकथा में कई सारे मिथ भी जहाँ तहाँ तोड़ते चलते हैं। जैसे कि वह लंदन दूतावास की नौकरी में हैं। कृष्णा मेनन हाई कमिश्नर हैं। प्रधान मंत्री नेहरु आने वाले हैं। मेनन ख़ुशवंत को ज़िम्मेदारी देते हैं कि प्रेस को ठीक से सँभालें और कि नेहरु को किसी अच्छी किताब की दुकान पर ले जाना शेड्यूल कर लें। नेहरु आते ही हवाई अड्डे से सीधे बिना किसी शेड्यूल के लेडी माउंटबेटन से मिलने चले जाते हैं। लेडी माउंटबेटन गाऊन में ही उन का दरवाज़े पर वेलकम करती हैं। एक लंबे आलिंगन और चुंबन के साथ। छुपे हुए फ़ोटोग्राफ़र जो पहले ही से वहाँ उपस्थित हैं, फ़ोटो खींच लेते हैं। दूसरे दिन अख़बारों में यही फ़ोटो छा जाती है। मेनन और नेहरु दोनों नाराज़ होते हैं। ख़ैर एक शाम वह नेहरु के साथ किताबों की दुकान पर जा रहे हैं। दुकानदार को पहले से ही तैयार किए हुए हैं। रास्ते में औपचारिकता वश नेहरु से पूछ लेते हैं कि कैसी किताबें उन्हें पसंद हैं? यह सुनते ही नेहरु बिदक जाते हैं। कहते किसी भी तरह की नहीं। टाइम कहाँ है कोई किताब पढ़ने के लिए? नेहरु यहीं नहीं रुकते। बिदक कर पूछते हैं कि यह किताबों की दुकान पर जाना शेड्यूल करने की क्या ज़रूरत थी? 

इसी दूतावास में एक दिन अचानक एक एजेंट आता है। हिंदुस्तान की एक महारानी का लंदन में निधन हो गया है। उनकी अंत्येष्टि हिंदू तौर तरीक़े से की जानी है। ऐसा निर्देश वह मरने के पहले दे गई हैं किसी एजेंसी को। पैसा भी दे गई हैं। सब कुछ हो भी गया है। पर एक दिक़्क़त आ गई है उन्हें साड़ी पहनाने की। सो वह भारतीय दूतावास आ गया है और ख़ुशवंत सिंह के पास चला गया है। यह सुन कर ख़ुशवंत सिंह बहुत ख़ुश हो जाते हैं। कि चलो मरने के बाद ही सही एक महारानी की नंगी देह तो देखने को मिलेगी। पर उन का हंसोड़ मन उनकी इस तमन्ना पर पानी फेर देता है। वह कहते हैं उस एजेंट से कि साड़ी पहनानी तो नहीं पर साड़ी उतारनी उन्हें ज़रूर आती है। इस का बहुत तजुर्बा भी है। एजेंट ख़ुशवंत के इस मज़ाक का बुरा मान जाता है और सीधे मेनन से उनकी शिकायत कर देता है। पर ख़ुशवंत को उस की शिकायत से कोई शिकवा नहीं होता। शिकवा अपने आप से होता है कि मज़ाक-मज़ाक में एक महारानी की नंगी देह देखने से वंचित हो गए वह। एक मशहूर महिला चित्रकार से अपने सम्बन्धों का बखान करते हुए वह लिखते है कि वह बहुत होशियार थी। कपड़े उतारने में नख़रे करने के बजाय ख़ुद कपड़े उतार कर तैयार रहती। वक़्त बिलकुल नहीं ख़राब करती थी बेवक़ूफ़ी की बातों में। 

ख़ुशवंत सिंह स्कूल में हैं। नर्सरी, के जी टाइप क्लास में। और एक दिन वह स्कूल में बैठी अपनी शिक्षिका के प्राइवेट पार्ट किसी तरह देख लेते हैं और उस का भी वर्णन शिशु उत्सुकता-जिज्ञासा में अपनी आत्मकथा में लिख देते हैं। वह प्राइमरी क्लास में ही एक चीफ़ इंजीनियर की बेटी से प्यार भी कर बैठते हैं। संयोग से तमाम और क़िस्सों के बावजूद इसी प्राइमरी वाली लड़की से विवाह भी हो जाता है ख़ुशवंत सिंह का। 

अब तो दिल्ली से लाहौर बस जाती है। लेकिन ख़ुशवंत सिंह अपनी जवानी में दिल्ली से लाहौर मोटरसाइकिल से जाते हैं। लाहौर में अपने विद्यार्थी जीवन और वकालत के भी एक से एक नायाब प्रसंग उन्होंने लिखे हैं। एक धोबिन का प्रसंग है। जो सुंदर है, युवा है और लड़कों से कुछ पैसे मिलते ही उनके साथ हमबिस्तरी करने में उसे गुरेज़ नहीं है। लेकिन लड़कों के तमाम प्रयास के बावजूद ख़ुशवंत उस धोबिन के साथ नहीं सोते। लाहौर में उनके कई स्त्रियों से सम्बन्ध के रोचक विवरण हैं। पर एक प्रसंग तो अद्भुत है। एक पार्टी में इन के बेटे की कुछ शरारत को ले कर एक औरत का इन की पत्नी के साथ विवाद हो जाता है तो वह औरत बाद में पता करती है कि इस का शौहर कौन है? और फिर वहाँ उपस्थित औरतों से बाक़ायदा चैलेंज दे कर कहती है कि इसे तो मैं सबक़ सिखा कर रहूँगी। और वह ख़ुशवंत के साथ हमबिस्तरी करके ही उनकी पत्नी को सबक़ सिखा देती है। ख़ुशवंत सिंह ने हालाँकि अभी हाल के एक इंटरव्यू में स्वीकार किया है कि उनके सम्बन्ध ज़्यादातर मुस्लिम औरतों से ही रहे हैं, सिख औरतों से नहीं और इसी लिए वह मुसलमानों के बारे में हमेशा से उदार रहे हैं। दिल्ली में भी एक मुस्लिम औरत उनकी आत्मकथा में मिलती है जो उनके साथ उनकी फ़िएट में घूमती रहती रहती है। उन्होंने लिखा है कि तब फ़िएट में गेयर स्टेयरिंग के साथ ही होता था सो उन का एक हाथ में स्टेयरिग पर होता था और दूसरे हाथ से उसे अपने से चिपटाए रहते थे। 

बहुत कम लोग जानते हैं कि ख़ुशवंत सिंह के पिता दिल्ली के न सिर्फ़ सब से बड़े ठेकेदार थे बल्कि उन्होंने सामान ढोने के लिए ख़ुद रेल लाइन बिछाई थी। उनकी ख़ुद की रेल भी थी। और कि राष्ट्रपति भवन के सामने बने नार्थ ब्लाक और साऊथ ब्लाक ख़ुशवंत सिंह के पिता शोभा सिंह के ही बनवाए हुए है। तब के दिनों में वह जनपथ के एक बड़े से बँगले में रहते थे। तब कहा जाता था कि आधा कनाट प्लेस उन्हीं का था। हालाँकि यह पूरा सच नहीं है। ख़ैर तमाम अमीरी के बावजूद ख़ुशवंत सिंह ने कुछ दिनों तक लाहौर में वकालत भले की पर बाद की ज़िन्दगी लिखने-पढ़ने और नौकरी में ही गुज़ारी। आज़ादी के बाद वह भारत सरकार के प्रकाशन विभाग की पत्रिका योजना के संपादक हो गए। एक बार क्या हुआ कि वह अँगरेज़ी के प्रसिद्ध लेखक नीरद सी चौधरी से मिलने उनके घर किंग्ज्वे कैंप गए। वह आर्थिक रूप से मुश्किल में थे। ख़ुशवंत सिंह ने उनकी मदद की सोची। पर उन्होंने इंकार कर दिया। तब एक दूसरा रास्ता निकाला उन्होंने उनकी मदद का। कहा कि आप योजना के लिए लिखिए। और यह एडवांस ले लीजिए। जब जो मन हो लिख कर दे दीजिएगा। नीरद चौधरी मान गए। हालाँकि वह लिख कर कभी कुछ दे नहीं पाए योजना को। बाद के दिनों में नीरद चौधरी इंग्लैंड चले गए। एक बार ख़ुशवंत सिंह को फिर पता चला कि वह आर्थिक मुश्किल में हैं। इस का विवरण अपने कालम में लिखा जब हिंदुस्तान टाइम्स में तब के.के. बिरला ने ख़ुशवंत सिंह को यह पढ़ कर बुलाया और कहा कि हम आप के दोस्त की मदद करना चाहते हैं। आप उन से यह भर पूछ कर बता दीजिए कि वह पौंड, डालर या किस मुद्रा में लेना चाहेंगे? ख़ुशवंत सिंह ने बिरला के कहे मुताबिक़ नीरद चौधरी से यह बात पूछी। पर नीरद चौधरी ने बिरला के इस मदद के प्रस्ताव को सिरे से ख़ारिज कर दिया। 

अब इन दिनों तो पत्रकारों की नौकरी रोज़ ही ख़तरे में पड़ी रहती है। इतनी कि पत्रकार काम करने पर कम नौकरी बचाने पर ज़्यादा ध्यान देते हैं। पर पहले ऐसा नहीं था। ख़ुशवंत ने एक जगह लिखा है कि जब उन्होंने हिंदुस्तान टाइम्स ज्वाइन किया तो ज्वाइन करने के हफ़्ते भर बाद ही के.के. बिरला उन से मिले। और पूछा कि काम-काज में कोई दिक़्क़त या ज़रूरत हो तो बताइए। ख़ुशवंत ने तमाम डिटेल देते हुए बताया कि अल्पसंख्यक नहीं हैं स्टाफ़ में और कि फ़लाँ-फ़लाँ और लोग नहीं हैं। ऐसे लोगों को रखना पड़ेगा और कि स्टाफ़ बहुत सरप्लस है, सो बहुतों को निकालना भी पड़ेगा। तो के.के. बिरला ने उन से साफ़ तौर पर कहा कि आप को जैसे और जितने लोग रखने हों रख लीजिए, पर निकाला एक नहीं जाएगा। के.के. बिरला एक बार ख़ुशवंत के अनुरोध पर उनके घर खाने पर गए। वह लहसुन, प्याज़ भी नहीं खाते थे यह बताने के लिए अपना एक आदमी उनके घर अलग से भेजा जो उनके खाने की पसंद बता गया। बिरला जब पहुँचे तो बड़ी सादगी और विनम्रता से वहाँ रहे। उन्हें यह बिलकुल एहसास नहीं होने दिया कि वह उनके कर्मचारी भी हैं। 

पर क्या आज भी ऐसा मुमकिन है? 

अब न ख़ुशवंत सिंह जैसे लोग हैं न के के बिरला जैसे। आज तो संपादक मालिकान तो मालिकान उनके बच्चों, चमचों, चपरासियों, ड्राइवरों और कुत्तों तक के चरण चूमते देखे जाते हैं। जैसे बेरीढ़ ही पैदा हुए हों। 

ख़ैर बात यहाँ हम ख़ुशवंत सिंह की कर रहे हैं। वह ख़ुशवंत सिंह जो ख़ुद को संजय गाँधी का पिट्ठू कहता था। पर क्या सचमुच ही वह पिट्ठू था किसी का? मुझे तो लगता है कि ख़ुशवंत सिंह अगर किसी एक का पिट्ठू था तो वह सिर्फ़ और सिर्फ़ एक क़लम का पिट्ठू था। हम तो ख़ुशवंत सिंह को उनकी क़लम के लिए ही याद और सैल्यूट करते हैं। 

ख़ुशवंत सिंह ने दो खंड में सिखों का इतिहास लिखा है। बल्कि सिख इतिहास लिखने के लिए ही दुनिया में उन को पहली बार जाना गया और वह प्रसिद्धि के शिखर पर सवार हो गए। फिर पीछे मुड़ कर उन्होंने नहीं देखा। कहानी, उपन्यास, पत्रकारिता आदि तो बाद की बात है। उनके जीवन में पहले सिख इतिहास ही है। पर सोचिए कि सिख इतिहास लिखने वाले ख़ुशवंत सिंह का बाद के दिनों में सिख धर्म ही नहीं सभी धर्मों से यक़ीन उठ गया। उनकी आत्मकथा का आख़िरी और लंबा हिस्सा इसी धर्म से यक़ीन उठ जाने पर है। यह हिस्सा एक लंबी और गंभीर बहस की माँग करता है। जो कभी हुई नहीं। होनी चाहिए। ख़ुशवंत सिंह ने जो मुद्दे और जो सवाल तमाम धर्म को ले कर उठाए हैं और विस्तार से उठाए हैं, सुचिंतित और सुतर्क के साथ उठाए हैं। उस पर खुल कर बात होनी चाहिए। जो अब तक नहीं हुई। ख़ुशवंत सिंह की आत्मकथा का यह हिस्सा इतना महत्त्वपूर्ण और सारगर्भित है कि उनके जीवन और यौवन के सारे रोमांच इस के आगे फीके पड़ जाते हैं। वह एक जगह जैसे मुक्त होते हुए लिखते हैं कि वह यही गुरुद्वारा है जहाँ अपना दांपत्य बचाने के लिए मैं घंटों बैठा रहता था! ऐसा लिखना ख़ुशवंत के ही वश की बात थी। क्यों कि ख़ुशवंत ने जीवन को पूरी तरह जिया है और भरपूर जिया है। भरपूर जीने के बाद ही ऐसा कोई लिख सकता है। 

मुक्तिबोध की एक कविता याद आती है:

अब तक क्या जिया, जीवन क्या जिया
लिया बहुत ज़्यादा, और दिया बहुत कम
मर गया देश, अरे जीवित रहे तुम! 

हमारे जैसे सामान्य लोगों पर तो यह कविता भले फ़िट बैठती हो लेकिन बड़ी विनम्रता से यहाँ यह कहना चाहता हूँ कि ख़ुशवंत सिंह ने जो जीवन जिया और जिस तरह जिया, जिस रोमांच, जिस सलीक़े और पारदर्शिता से जिया उस में दिया बहुत ज़्यादा और लिया बहुत कम। ऐसा जीवन और ऐसा लिखना काश कि सब के नसीब में होता! और कि हमारे भी नसीब में काश कि होता। निन्यानबे साल की उम्र में भी ऐसा ज़िंदादिल आदमी हम ने न सुना न देखा। आप ने देखा हो तो हम नहीं जानते। सच कई बार उन को पढ़ कर रश्क होता है और कहने का मन होता है कि हाय! हम क्यों न हुए ख़ुश

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