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हम कहाँ जा रहे हैं

मनुष्य प्रगति के पथ पर रोज़ नया क़दम बढ़ा रहा है। रोज़ नित नए आविष्कार हो रहे हैं। विज्ञान के आधार पर हो रही इस प्रगति को ही आज के मनुष्य ने मानवता की प्रगति समझ लिया है। भौतिकवाद की दौड़ के चलता मनुष्य अब मनुष्य नहीं बल्कि मशीन प्रतीत हो रहा है। मानवता की भावना लगभग समाप्त हो चुकी है। अपने स्वार्थ को साधना ही मानव का एकमात्र लक्ष्य प्रतीत होता है। इस पर भी ज़्यादा हैरानी तब होती है हम मनुष्य इस भौतिक प्रगति पर गर्व की अनुभूति करते हैं जो यथार्थ से परे है। क्योंकि आधुनिकता और प्रगति का ढिंढोरा पीटते हुए हम उन्नति नहीं अवनति की ओर अग्रसर हैं और वैश्विक मंच पर अब मानवता संकट में हैं। दरअसल हमारी मानव जाति पर भौतिकवाद इतना हावी हो गया है कि संवेदनाएँ कहीं लुप्त-सी हो गई हैं। 

मानव अब परपीड़ा में रस की अनुभूति करता है और आह्लादित होता है। इसकी पराकाष्ठा तो तब हो जाती है जब इसी भावना से ओत-प्रोत हो वैश्विक मंच पर यत्र-तत्र राजनीतिक महत्वाकांक्षा और विस्तारवाद की घटनाएँ दिखाई पड़ती है। दुनिया के विभिन्न देश एक दूसरे के क्षेत्र में हस्तक्षेप कर रहे हैं और निजी स्वार्थों के लिए निरीह जनता को निशाना बना रहे हैं; जो दुखद है। आप देखिए किस तरह से बड़े देश छोटे देशों को ठीक उसी तरह से निगल जाने को आतुर हैं जिस तरह से कोई बड़ा अजगर किसी छोटे जीव को निगलने की ताक में उस पर नज़रें गड़ाए बैठा हो। विश्वशक्ति कहे जाने वाले तथा भौतिक रूप से विकसित देश छोटे देशों को अजगर की भाँति निगलने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे देशों द्वारा दूसरे देशों को परेशान करना, आँखें दिखाना, युद्ध के लिए उकसाना, युद्ध करना या करवाना तथा फिर हथियार बाँटना और प्रतिबंध लगाना निजी स्वार्थों का प्रलाप नहीं है तो और क्या है? हम मनुष्य बार-बार प्रकृति का श्रेष्ठ जीव होने की दुहाई देते हैं पर क्या आपको लगता है कि हम प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना के अनुकूल व्यवहार कर रहे हैं? हाल ही में यूक्रेन से आने वाली हृदयविदारक तस्वीरें जिनमें सड़कों पर पड़े शव अंतिम संस्कार की प्रतीक्षा कर रहे हैं; मानवता की दुहाई देते प्रतीत होते हैं। 

ऐसे में एक बात भारत के लोगों को सुकून दे सकती है कि भारतवर्ष वैश्विक मंच पर मज़बूत स्थान रखते हुए भी विश्व का एकमात्र देश है जिसे केवल अपनी प्रगति और विकास के अतिरिक्त विस्तारवाद और राजनीतिक महत्वाकांक्षा से कोई लेना-देना नहीं है। भारत की कोशिश मात्र अपने हितों की रक्षा करना, अपने नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करना और वैश्विक मंच पर सम्मानजनक स्थान सुरक्षित रखना है। इसका उदाहरण भारत ने चल रहे रूस-यूक्रेन युद्ध में पूरी दुनिया के सामने प्रस्तुत भी किया गया है। दुनिया भर की स्थिति जो भी है पर भारत के नागरिक दुनिया में होते इस नरसंहार से आहत और व्याकुल हैं। जिसका एक कारण भारतीय संस्कार भी हो सकते हैं। भारतीयों को संस्कारों में सिखाया गया है: 

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्। 
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्॥

अर्थात् व्यास जी ने 18 पुराणों में दो ही बातें बताई हैं कि परोपकार पुण्य देता है और दूसरे को पीड़ित करना पाप होता है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की परिकल्पना को धारण करने वाले भारत के लिए भी स्थितियाँ चुनौतीपूर्ण हैं। ऐसी स्थितियों में हम हाथ पर हाथ धरे रहने के अलावा जो कर भी कर सकते हैं वह किया जा रहा है। जहाँ भारत सरकार कूटनीतिक तरीक़े से भारत को सुरक्षित रखना रखने के साथ-साथ भारत की बात को वैश्विक मंच पर दृढ़ता से दुनिया के सामने रख रही है वहीं भारत की अधिकतर जनता अपनी शुभकामनाओं से हमेशा से यही प्रयास करती रही है कि विश्व में शान्ति हो और हम मानवता को जीवित रख सकें। भारत सरकार के साथ-साथ भारतीय नागरिकों के द्वारा युद्ध जैसे अवसरों पर दूसरे देश के लोगों की मदद करने की भावना की दुनियाभर में सराहना की जाती है। 

अब लगता है कि दुनिया भर के विद्वानों, चिंतकों और राजनीतिज्ञों को विचार करने की आवश्यकता है कि वह अपने मार्गदर्शन में दुनिया को किस दिशा में लेकर जाना चाहते हैं? क्योंकि वर्तमान परिस्थितियाँ तो संतोषजनक नहीं हैं। विश्व विनाश की ओर बढ़ रहा है और स्थितियाँ कुछ ऐसी हैं: 

'बम धमाकों की हो रही नित नई आवाज़ से 
अब तो डर लगने लगा है आदमी की जात से'

पिछले वर्षों में हम सब ने देखा है कि कुछ विकसित देशों द्वारा छोटे देशों को प्रताड़ित किया जाता है। भारत का एक पड़ोसी देश इसका सबसे बड़ा उदाहरण है जिसका मक़सद विस्तारवाद है तथा दूसरे देशों के क्षेत्र में अनधिकृत अतिक्रमण करना ही प्रथम और अंतिम उद्देश्य रहा है। इसके सभी पड़ोसी देशों में इसने अनधिकृत अतिक्रमण किया है या कभी न कभी ऐसा करने का प्रयास अवश्य किया है। भारत के एक दूसरे पड़ोसी को देखें तो आश्चर्य होता है कि बदहाली की हालत में भी भारत में आतंकवाद और अस्थिरता पैदा करने का वह कोई अवसर नहीं छोड़ता। दुनियाभर के सभी बहिष्कृत आतंकवादियों और आतंकी संगठनों की शरणस्थली यह देश दूसरों का अहित करते-करते आज दीवालिया हो चुका है। दूसरी ओर वैश्विक मंच पर कुछ देश ऐसे भी हैं जो हथियार बेचने के लिए अपने कूटनीतिक प्रयासों से छोटे देशों के बीच युद्ध करवाने के लिए प्रयासरत रहते हैं। जिसके कारण बेकुसूर लोगों को परेशानी होती है तथा जन-धन की भी बड़ी हानि होती है। हम सब जानते हैं वर्तमान में लड़ जा रहा युद्ध ऐसे देशों की महत्त्वाकांक्षा का ही परिणाम है। जिसने एक देश को ऐसी स्थिति में पहुँचा दिया कि दोबारा अपना अस्तित्व ज़िन्दा करने के लिए उसे दशकों का समय लगेगा। 

विश्व के युद्ध मैदानों से या यत्र-तत्र होने वाले आतंकी हमलों के बाद आने वाले चित्र हृदय विदारक होते हैं और मानसिक रूप से विचलित करते हैं। केवल यही एक उपाय नज़र आता है कि: 

'मोहन जोदड़ो से प्राप्त
सिंधु घाटी के अवशेष
मिट्टी की गाड़ी
काँसे के बर्तन
आभूषण और औज़ार
जैसी हज़ारों वस्तुएँ
पर
कोई हथियार न मिलना
सिद्ध करता है
शासन की स्वच्छता
तानाशाही का अभाव
सभ्य और अनुशासित जीवन
एक समृद्ध संस्कृति 
जो बुला रही है हमें
अपनी ओर
छोड़कर ऐसी आधुनिकता को 
जहाँ है ख़ून-ख़राबा
हर ओर शोर-शराबा
सब ओर
हर मोड़ पर
यमराज नज़र आता
आदमियों के अथाह समंदर में
नहीं इंसान मिल पाता
मानवता से भागते-भागते 
बहुत दूर आ गए हैं
चल लौट चलें
अब लौट चलें
उस और चलें
आ लौट चलें।’

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