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‘स्मित जीवन’ कई दशकों से बिना अपनी उपस्थिति का भान कराए, बुझती आँखों में दीया जलाने और उदास होंठों पर मुस्कान का प्रिज़्म सजाने का उद्देश्य लिए, निरंतर चल रहा है। समय, श्रम, धन, शिक्षा-संसाधन, मार्गदर्शन, सलाह—जहाँ जिसकी आवश्यकता हो, यथासम्भव प्रयास रहता है कि बिना एहसास कराए पीड़ा, परेशानी, उदासी, अवसाद, घुटन और चिंता की कालिमा का नाश कर दिया जाए और यह सब बस हो जाता है! हर दिन, दिन में भी कई-कई बार! 

लोगों की पेशानी पर सवाल उभरते हैं—व्यवस्था कहाँ से? तो जवाब है, यह स्मित परिवार का जीवन-कर्म है, निज संसाधनों के द्वारा। स्वामी विवेकानंद की सीख डॉ. आरती स्मित के भीतर बाल्यावस्था में ही आसन जमाकर बैठ गई और तभी से आरंभ हो गया। उनके द्वारा अपने हिस्से की धूप, हवा, बारिश की बूँदें ही नहीं, आसमान भी साझा करते चलना। अपने कार्यों को रेखांकित करना ध्येय नहीं है, इसलिए उन्हें ध्यान में नहीं रखा जाता। केवल एक दलित/श्रमिक बस्ती और वृद्धाश्रम ही नहीं, हर वह व्यक्ति व समुदाय जो अँधेरे में है, उसे अपने हिस्से का उजाला सौंपना स्मित परिवार के जीवन का ध्येय है। सुसमृद्ध परिवार के बच्चों/युवाओं/ वृद्धों/स्त्री/पुरुषों के संकट अलग होते हैं और सुदूर जंगल, पहाड़ व गाँव से आए छात्रों के संकट अलग। कहीं प्रतिभा मार्ग तलाशने में क्षय हो जाती है, कहीं श्रम हाँफता-काँपता नज़र आता है। कहीं स्त्री होने की पीड़ा तो कहीं उम्र के ढलान पर अकेले होने का दुख! हर एक को चाहिए, बस थोड़ा-सा साथ/मार्गदर्शन और सहयोग; थोड़ी आत्मीयता, सच्ची दोस्ती/शुभचिंता और मुट्ठी भर सम्मान! यह देना सम्भव है। प्यार लुटाना स्वयं को प्रेम से लबालब भरने जैसा है। वर्ग-वर्ण का अंतर समाप्त कर मानवता का प्रसार करना और भी सरल! छिपी प्रतिभा की दीप्ति प्रकट करने में सलाह व सहयोग देना, स्वयं ठहरकर पीछे छूट रहे को साथ ले चलना और ज़रूरत पड़े तो उसे आगे बढ़ा देना असीम आनंद का ख़ज़ाना सौंपता है। ‘स्मित जीवन’ यही प्राप्त कर रहा है। कहीं कोई भेद नहीं! ख़ास उत्सव के मौक़ों पर जब साथ पा रहे लोग चाहते हैं कि उनकी तस्वीरें ली जाएँ या उनकी बात की जाए, तभी वह बात नोटिस में लाई जाती है, (वहाँ भी आर्थिक सहयोग उजागर नहीं किया जाता) अन्यथा नहीं। यह मौन साधना है। फिर कहाँ स्मरण रहता है, खोई मुस्कान और बेनूर आँखों में नूर लौटाए जाने वाले पल शब्दों या तस्वीरों में बाँधे जाएँ, वह तो बस महसूसने का क्षण होता है और हम इस मामले में सचमुच सौभाग्यशाली हैं। 

यहाँ हाल की चर्चा! ‘स्मित जीवन’ की ओर से यह तय हुआ कि वर्ष भर जो साधना चलती है, वह चलती ही रहे मगर साथ ही, पिता श्री रामकृष्ण गुप्ता के नाम पर ज़रूरतमंद किन्तु जीवट छात्र को अनुदान नहीं, सम्मान दिया जाए। छत्तीसगढ़ के जंगल के बीच बसे गाँव से दिल्ली तक का सफ़र तय करने वाले हिन्दी स्नातकोत्तर के नेत्रहीन बैगा छात्र उमाशंकर को ‘रामकृष्ण जीवट एवं जिजीविषा युवा सम्मान’ से सम्मानित किया। स्मृति चिह्न और साथ में 11 हज़ार की सम्मान-राशि भेंट की गई। यह भेंट वृद्धाश्रम के रहवासियों में वरिष्ठ, 100वें वर्ष की जीवनयात्रा कर रहे आदरणीय योगवीर हांडा जी के हाथों दिलाई गई। यह आयोजन मयूर विहार स्थित वृद्धाश्रम ‘भगवतधाम परिसर’ में सम्पन्न हुआ, जिसे वहाँ के निवासियों ने सफल बनाया। यह उनके लिए भी गौरव का क्षण रहा। उमाशंकर को यह सम्मान कठिन दौर से गुज़रते हुए भी उसकी दृढ़ता, औरों के प्रति सहयोग-भावना और अपने पिछड़े कुनबे को जागरूक करने जैसे कार्यों को ध्यान में रखकर दिया गया। 

थोड़ी भी सहयोग-राशि लेते हुए ज़रूरतमंद की आँख झुक जाती है, यह अक़्सर महसूसा गया था। युवा, ख़ासकर ऐसा युवा जो प्रतिकूल परिस्थिति में भी मुस्कुराने का ही नहीं, औरों की मदद करने का जज़्बा रखता हो, आरती स्मित द्वारा उसे सम्मान देकर अपने पिता को तृप्ति भरी मुस्कान सौंपने का अध्याय आरंभ हुआ। इस कार्य में श्रेया श्रुति एवं प्रकर्ष का पूरा सहयोग रहा है। सम्भव है अगले वर्ष राशि बढ़ा दी जाए या ऐसे ही जीवट किन्तु ज़रूरतमंद बुज़ुर्गों के लिए भी कुछ ऐसे कार्य आरंभ हों। शेष वर्ष भर, जो अनाम सहयोग कार्य होने हैं, वे होते रहेंगे, चाहे वे आर्थिक हों या अन्य रूप में। 

स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ’यदि दो रुपया कमाते हो तो उसमें से कुछ पैसे नेक कार्यों में ख़र्च करो और जीव-जीव में भेद नहीं है। मानवता की प्रतिष्ठा ही सच्ची पूजा है। धन से सेवा सबसे कमज़ोर सेवा है, आध्यात्मिक सेवा यानी मानव को सही दिशा में अग्रसर करना सबसे बड़ी सेवा है, साधना है।‘ उनकी उक्ति जीवन का मंत्र बन गई और इसी क्रम में स्वामी विवेकानंद के जीवन पर आधारित किशोर उपन्यास ’अद्भुत संन्यासी’ योगवीर हांडा जी को समर्पित किया गया और इसका विमोचन भी भगवतधाम के बुज़ुर्ग साथियों सहित श्री हांडा जी ने अपने कर-कमलों से किया। 

श्री हांडा का बचपन अपने ताऊ श्री आई.पी. गुजराल साहब के साथ बैठकर राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, सुभाषचंद्र बोस की बातें सुनते हुए विकसित हुआ। युवा हांडा ने दूसरा विश्वयुद्ध ही नहीं देखा, 1942 के आंदोलन में हिस्सा भी लिया। देशसेवा का वह जज़्बा समाज सेवा में ढला तो आज तक क़ायम है। वृद्धाश्रम में रहने का फ़ैसला करके वे लगभग तीन दशक से वहाँ के लोगों के सुख-दुख के साझेदार बने हुए हैं और उनके लिए यथासम्भव सुविधाएँ मुहैया कराते रहते हैं। श्री हांडा को उनके कार्यों के लिए कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित भी किया गया। अपनी पंजीकृत संस्था ‘साहित्यायन ट्रस्ट’ की ओर से हमने ‘साहित्यायन समष्टि साधक सम्मान’ अर्पित किया था। 

‘स्मित जीवन’ के कार्य निजी तौर पर किए जाते हैं। और यही कोशिश है कि अपने ख़र्च को अतिसीमित करते हुए समाज के लिए अधिक से अधिक अनाम कार्य किया जा सके। निश्चित तौर पर इसमें सफलता मिली है। शेष ईश्वरेच्छा! 

— श्रेया श्रुति

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